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Oct 22, 2009

चहकना क्यों भूल गए बच्चे

- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
छात्रों पर बढ़ता निरन्तर पढ़ाई का दबाव, अच्छा  परीक्षा- परिणाम देने की गलाकाट प्रतियोगिता कहीं उनका बचपन, उनका सहज जीवन तो नहीं छीन ले रही है? घर, विद्यालय, कोचिंग सेण्टर सब मिलकर एक दमघोंटू वातावरण का सर्जन कर रहे हैं।
आज का दौर तरह- तरह  के तनाव को जन्म देने वाला है, घर-परिवार, कार्यालय, सामाजिक परिवेश का वातावरण निरन्तर जटिल एवं तनावपूर्ण होता जा रहा है,  इसका सबसे पहले शिकार बनते हैं निरीह बच्चे। घर हो या स्कूल, बच्चे समझ ही नहीं पाते कि आखिरकार उन्हें माता- पिता या शिक्षकों के मानसिक तनाव का दण्ड क्यों भुगतना पड़ता है। घर में अपने पति /पत्नी या बच्चों से परेशान शिक्षक छात्रों पर गुस्सा निकालकर पूरे वातावरण को असहज एवं दूषित कर देते हैं। विद्यालय से लौटकर घर जाने पर फिर घर को भी नरक में तब्दील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। यह प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण छात्रों के मन पर गहरा घाव छोड़ जाता है। कोरे ज्ञान की तलवार बच्चों को काट सकती है, उन्हें संवेदनशील इंसान नहीं बना सकती है। शिक्षक की नौकरी किसी जुझारू पुलिस वाले की नौकरी नहीं है, जिसे डाकू या चोरों से दो- चार होना पड़ता है। शिक्षक का व्यवसाय बहुत जि़म्मेदार, संवेदनशील, सहज जीवन जीने वाले व्यक्ति का कार्य है, मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति का कार्यक्षेत्र नहीं है। आज नहीं तो कल ऐसे दायित्वहीन, असंवेदनशील लोगों को इस क्षेत्र से हटना पड़ेगा या हटाना पड़ेगा। प्रशासन को भी यह देखना होगा कि कहीं इस तनाव के निर्माण में उसकी कोई भूमिका तो नहीं है ?
छात्रों पर बढ़ता निरन्तर पढ़ाई का दबाव, अच्छा  परीक्षा- परिणाम देने की गलाकाट प्रतियोगिता कहीं उनका बचपन, उनका सहज जीवन तो नहीं छीन ले रही है? घर, विद्यालय, कोचिंग सेण्टर सब मिलकर एक दमघोंटू वातावरण का सर्जन कर रहे हैं।
बच्चे मशीन नहीं हैं। बच्चे चिडिय़ों की तरह चहकना क्यों भूल गए हैं? खुलकर खिलखिलाना क्यों छोड़ चुके हैं? माता-पिता या शिक्षकों से क्यों दूर होते जा रहे हैं? उनसे अपने मन की बात क्यों नहीं कहते? यह दूरी निरन्तर क्यों बढ़ती जा रही है? अपनापन बेगानेपन में क्यों बदलता जा रहा है? यह यक्ष प्रश्न हम सबके सामने खड़ा है। हमें इसका उत्तर तुरन्त खोजना है।
मानसिक सुरक्षा का अभाव नन्हें-मुन्नों के अनेक कष्टों एवं उपेक्षा का कारण बनता
जा रहा है। कमजोर व मानसिक रोगियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। जिनके पास हज़ारों माओं का हृदय नहीं है, वे शिक्षा के क्षेत्र को केवल दूषित कर सकते हैं, बच्चों को प्रताडि़त करके उनके मन में शिक्षा के प्रति केवल अरुचि ही पैदा कर सकते हैं।हम सब मिलकर इसका सकारात्मक समाधान खोजने के लिए तैयार हो जाएँ।
अभिभावकों के पास सबके लिए समय है, घण्टों विवाद के लिए  समय है, विश्व की  राजनीति पर बहस  करने के लिए  समय है, अगर  समय नहीं है तो सिर्फ बच्चों के लिए। उन  बच्चों के लिए , जो उनका वर्तमान तो हैं ही साथ ही उनका भविष्य भी हैं। बच्चों से आत्मीयता से बात करें तो उनके मन का एक पूरा संसार अपने व्यापक रूप के साथ 'खुल जा सिम-सिम' की तरह खुल जाएगा। अभिभावकों को लगेगा कि उनके छोटे-से घर में एक अबूझ संसार विद्यमान है ।
अध्यापक किताबें पढ़ते- पढ़ाते हैं। कभी बच्चों का चेहरा पढ़ें, मन पढें तो पता चलेगा कि अभी बहुत कुछ पढऩा बाकी है। पढ़ाने की तो बात ही छोडि़ए। अगर पढऩे वाला तैयार न हो तो कोई भी तुर्रम खां कुछ नहीं पढ़ा सकेगा। यदि पढऩे वाला तैयार है तो कम से कम समय में उसे पढ़ाया जा सकता है। विद्यालय अच्छा परीक्षा-परिणाम दे सकते हैं, क्या वे विद्यालय बच्चों के चेहरे पर मधुर मुस्कान बिखेर सकते हैं ? यदि नहीं तो उनका वह परीक्षा-परिणाम किसी मतलब का नहीं। मशीनीकरण के इस युग में शिक्षा का भी मशीनीकरण हो गया है। बच्चे को क्या पढऩा है, इसका निर्धारण वे करते हैं जिनको छोटे  बच्चों के शिक्षण एवं उनके मनोविज्ञान का व्यावहारिक अनुभव नहीं है ।
जिनका जीवन बच्चों के निकटतम सान्निध्य  में बीता है, वे ही बच्चों के लिए  रोचक, तनाव रहित शिक्षा का सूत्रपात कर सकते हैं। देर- सवेर यह करना ही पड़ेगा। इसी में नन्हें- मुन्नों का तनावरहित भविष्य निहित है।
जीवन के लिए अमृत हैं पुस्तकें
जहां पढऩे के लिए  पुस्तकें मिल जाती है, वहां भी चयन सम्बन्धी लापरवाही  साफ़  झलकती है। जहां बच्चे पुस्तकें पढऩे के  लिए  लालायित हैं, वहां उन्हें न पुस्तकें मिल पाती हैं और न पढऩे का अवसर। बच्चे क्या पढ़ें ? यह ठीक वैसा ही प्रश्न है जैसा -बच्चे क्या खाएं ? जिस प्रकार शरीर को  स्वस्थ रखने के लिए सन्तुलित आहार की ज़रूरत है, उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी पुस्तकें अनिवार्य हैं। अच्छी पुस्तकें वे हैं; जो मानसिक पोषण दे सकें, बच्चों को सहजभाव से संस्कारवान बना सकें। पुस्तकों की विषयवस्तु बच्चों के मानसिक स्तर, आयुवर्ग, परिवेशगत अनुभवों के अनुकूल हो। बच्चे को समझे बिना उसका पोषण नहीं किया जा सकता, इसी तरह बच्चे के मनोविज्ञान को समझे बिना  लेखन नहीं किया जा सकता है। ऐसा  नहीं है कि बच्चों के लिए कुछ नहीं लिखा जा रहा है। लेकिन बाल-लेखन में ऐसा ढेर सारा लेखन है जो या तो बच्चे  को कोरी स्लेट मानकर लिखा जा रहा है या यह सोचकर कि यह बच्चे को जानना ही चाहिए। भले ही उस लेखन का बच्चे के व्यावहारिक जीवन से कोई लेना-देना न हो। चित्रकथा, कार्टून, कविता, कहानी, पहेलियां, खेल गीत, ज्ञान-विज्ञान सबका अपना महत्व है। बाल- साहित्य के नाम पर कुछ भी लिखना या व्यवसाय की दृष्टि से छापकर बेच देना कुपोषित अन्न परोसने जैसा ही है। बहुत से लेखक एवं प्रकाशक यह काम बेरोकटोक कर रहे हैं। भूत-प्रेत, डाकू-चोरों की धूर्तता और चालाकी के जीवन को नायकत्व में बदलने वाली रचनाएं आज का बड़ा खतरा हैं। बच्चों के लिए जो लिखा जाए, यह विचार भी किया जाना चाहिए कि उसका प्रभाव क्या होगा? इस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया की धूम है।
इसका त्वरित प्रभाव भी नजऱ आ रहा है । बहुत सारी चिन्ताजनक विकृतियों  का जन्म हो रहा है। बच्चों की सहजता तिरोहित होती जा रही है। माता-पिता के पास इतना समय नहीं  है कि वह ठण्डे मन से कुछ समाधान सोचे। उन्हें तो अभी आगामी संकट का आभास भी नहीं है। ऐसे कितने  अभिभावक या रिश्तेदार हैं जो जन्म दिन के अवसर पर बच्चों  को  उपहार में पुस्तकें देते हैं ? मैं समझता हूँ न के बराबर। खिलौनों में अगर पिस्तौल दी जाएगी तो वह  उसके कोमल मन को एक न एक दिन ग़लत दिशा में ले जाएगी। स्कूलों में ही छात्रों को पुरस्कार- स्वरूप कितनी बार पुस्तकें दी जाती हैं ? बच्चों को उनकी रुचि के अनुकूल अगर किताबें मिलेंगी तो वे ज़रूर पढ़ेंगे। पत्र-पत्रिकाओं को बच्चों से कोई लेना- देना नहीं है। जो अखबार रविवार को बच्चों का एक पन्ना निश्चित रूप से देते थे, विज्ञापन के मायाजाल ने उसको भी ग्रस लिया है।
नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं ने इस दिशा में गम्भीर कार्य किया है। नन्दन, बालहंस, बालवाटिका, बाल भारती, पाठक मंच बुलेटिन आदि पत्रिकाएं इस कार्य में गम्भीर हैं। स्थापित साहित्यकारों ने बच्चों के लिए जो लिखा, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आरसी प्रसाद सिंह, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, निरंकार देव सेवक, श्री प्रसाद, अमृत लाल नागर, प्रमोद जोशी, रमेश तैलंग, प्रकाश मनु, डा शेरजंग गर्ग, अमर गोस्वामी, हरि कृष्ण देवसरे, शंकर बाम, राष्ट्र बन्धु, जगत राम आर्य आदि की एक लम्बी परम्परा है । दिनकर (चांद का कुर्ता), हरिवंश राय बच्चन (चिडिय़ा ओ चिडिय़ा), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (बतूता का जूता) डा विश्वदेव शर्मा (हरा समन्दर गोपी चन्दर ) जैसी कविताएं सहज रूप में ग्राह्य हैं ।
विश्व बहुत तेज़ी से बदल रहा है। बच्चे भी बदल रहे हैं। यह बदलाव अच्छा और बुरा दोनों तरह का है। बच्चे किसी भी  स्वस्थ समाज की सबसे बड़ी धरोहर है। यदि हमें समाज को सुखी बनाना है तो बच्चों पर ध्यान देना पड़ेगा। अच्छे संस्कार देने होंगे अच्छी किताबें इस भूमिका का वहन बखूबी कर सकती हैं। प्रचार माध्यम बच्चों की मासूमियत छीन रहे हैं। अपने ऊल-जलूल उत्पाद लेकर बच्चों की जि़द के साथ हमारे घरों में घुसपैठ कर रहे हैं । हमें इसका अहसास ही नहीं है। किताबों के कितने विज्ञापन टी वी पर आते हैं ? अन्य उत्पादों से तुलना कर लीजिए। किताबों के विज्ञापन नजऱ ही नहीं आएंगे ।
 घर में एक अच्छी पुस्तक होगी तो उसे घर के अन्य सदस्य भी पढ़ेंगे। एक अच्छी पुस्तक जीवन के लिए अमृत का काम करती है। भेंट में दी गई पुस्तक सबसे मूल्यवान उपहार है। पुस्तकें कभी बूढ़ी नहीं होती, अपने ताजग़ी भरे विचारों से सदा जवान बनी रहती हैं। पुस्तकें निराशा के क्षणों में सबसे बड़ा मित्र सिद्ध होती हैं। ऐसे मित्रों को अपने घर में आने दें।

1 comment:

Dr.Bhawna Kunwar said...

aapka lekh bahut kuch sochne par majbur karta ha ..vastav men ispar ghambherata se vichar kiya jana chahiye...aapne kuch sujhav diye jinpar amal hona chahiye..