पेन - सुकेश साहनी
डॉक्टर भास्कर सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि
घंटी बजी। बरामदे में जूतों की आहट से ही वे समझ गए कि वार्डबॉय है।
‘क्या है?’दरवाजा खोलकर वार्डबॉय पर गुर्राए। आराम में खलल उन्हें बर्दाश्त नहीं था।
‘साहब, माफ करें, पर पाँच नंबर ने नाक में दम कर रखा है.।’
‘तो?’वे झल्लाए,
‘जूनियरडॉक्टर्स मर गए हैं क्या?’
‘उसने आपके नाम की रट लगा रखी है।’
‘मेरे नाम की?’एक पल के लिए वे चौंक गए,
फिर सोचा- मरीज ने उनका नाम कहीं से सुन लिया होगा।
‘यादा तंग कर रहा है ,तोशॉक दे दो।’नींद
से उनकी आँखें भरी हुई थीं।
‘साहब’, बूढ़े वार्डबॉय ने हिचकिचाते हुए कहा,
‘बहुत कमजोर है,
ऐसे में शॉक देना...?
वैसे तीन-चार बार कसकर पिट चुका है, इसके
बावजूद आपसे मिलने की जिद पकड़े हैं।’
डॉक्टर भास्कर सोच में पड़
गए...कौन हो सकता है?
उन्हें ट्रांसफ़र पर यहाँ आए अभी दो ही दिन हुए हैं...अब तो
प्रत्येक मानसिक चिकित्सालय का अपना अलग कार्यक्षेत्र है, ऐसे
में किसी दूसरे अस्पताल से मरीज के यहाँ आने की बात भी समझ में न आने वाली है, उन्होंने
अपना कैरियर जरूर इसी अस्पताल से शुरू किया था, पर यह बरसों पहले की बात
थी, और कुल आठ महीने ही तो इस अस्पताल में रहे थे....
‘हुजूर, यदि मुनासिब समझें, तो एक नजर डाल लें।’उन्हें
सोच में डूबे देख वार्डबॉय ने कहने की हिम्मत की।
‘चलो देख लेते हैं’-डॉ. ने कहा और फिर घर से नाइटगाउन पहनकर बाहर आ गए।
बाहर हर तरफ घुप्प अँधेरा
था। मेनबिल्डिंग से बहुत धुँधली रोशनी बाहर झाँक रही थी, मरीजों
के चीखने–चिल्लाने, हँसने, रोने की मिली-जुली आवाजें सुनाई दे रही थी। वे इस तरह के माहौल में रहने के
अभ्यस्त थे, दोनों निश्चिंत से उस दिशा में बढ़ रहे थे, जहाँ खतरनाक मरीजों को
तन्हाई में रखने के लिए सेल बने हुए थे।
‘उसे सेल में क्यों रखा गया है।’डॉक्टर ने पूछा।
‘बहुत खतरनाक है,
एक बार डॉक्टर चंद्रप्रकाश साहब की तो गर्दन ही दबोच ली थी।
हम लोग मौके पर न होते तो पता नहीं क्या होता।’
डॉ. भास्कर की रीढ़ की
हड्डी में कँपकँपी -सी दौड़ गई ...इतना खतरनाक पागल उसने क्या
कहना चाहता है?
पाँच नंबर सेल भी अँधेरे
में डूबा हुआ था,
पर वहाँ से उठ रही झगड़ने की आवाजें उन तक पहुँच रही थीं।
‘साहब, कल से इसी तरह झगड़ रहा है।’वार्डबॉय ने बताया,
‘मारपीट का उस पर कोई असर नहीं होता है ...हारकर आपको
डिस्टर्ब करना पड़ा।’
सेल के नजदीक पहुँचते बदबू
का भभका डॉक्टर भास्कर के नथूनों से टकराया और उन्होंने जल्दी रूमाल नाक पर रख
लिया।
वार्डबॉय ने टॉर्च की
रोशनी पागल के चेहरे पर डाली –चालीस- पैंतालीस सालका बूढ़ा ...अस्थि-पंजर सी काया ... .दूसरे पागल मरीजों की
तरह बेतरतीबी से कटे बाल ...पर इन सबसे अलग विचित्र ढंग से चमकती हुई आँखें ...
‘पाँच नम्बर’,
डॉक्टर को देखकर वार्डर ने अपनी आवाज में नरमी का पुट देकर
कहा, ‘डॉक्टर साहब तुमसे मिलने आए हैं ...’और फिर बहुत अदब से टार्च का एंगिल इस तरह कर दिया कि डॉ. का चेहरा प्रकाश के
घेरे में आ जाए।
सीखचों में कैद मरीज की आँखें
सिकुड़ गईं।वह एकटक उनकी ओर देखता रह गया। अगले ही क्षण उसके चेहरे पर निराशा दिखाई
देने लगी।
‘मुझे डॉक्टर भास्कर चाहिए।’
‘मैं ही हूँ डॉक्टर भास्कर। बोलो,
क्या कहना है?’
‘तुम डॉक्टर भास्कर नहीं हो सकते।’आत्मविश्वास से बोला।
‘तुम डॉक्टर भास्कर को पहचानते हो?’डॉक्टर की नींद उड़ गई थी। वह मरीज मेंरुचि लेने लगे थे।
‘बहुत अच्छी तरह . . डॉक्टर भास्कर मरीज के सामने कभी नाक पर रुमाल नहीं रखता
है।’
‘अच्छा!’डॉक्टर ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा,
‘और क्या जानते हो भास्कर के बारे में?’
‘डॉक्टर भास्कर अपने मरीज़ों से इस लहज़े में बात नहीं करता हैं।’
डॉक्टर भास्कर सोच में पड़
गए। न जाने क्यों,
इस मरीज़ के सामने खुद को असहाय- सा महसूस कर रहे थे।
‘तुम्हारा नाम क्या है?’डॉक्टर ने पूछ लिया।
‘रमन’उसने कहा, ‘मुझे बहलाने की कोशिश न करो। मुझे डॉक्टर भास्कर से मिलना है... मैं बरसों से
उसका इंतजार कर रहा हूँ।’
वार्डर और वार्डबॉय को
हँसी आ गई।
‘साहब, आप चलकर आराम करें।’वार्डर ने डंडा जोर से सीखचों पर पटका,
‘हम इसे देखते हैं।’
डॉक्टर ने हाथ के इशारे से
उन्हें शांत रहने के लिए कहा। उन्हें लगने लगा था कि इस पागल की बातें अर्थहीन
नहीं हैं।
‘तुम्हें डॉक्टर भास्कर से क्या काम है?’उन्होंने दूसरी तरह से कोशिश की।
पागल उन्हें थोड़ी देर तक
ध्यान से देखता रहा। अब वार्डबाय और वार्डर ऊबने लगे थे।
‘मैं तुम पर विश्वास कर सकता हूँ?’पागल की चमकती हुई आँखों से टकराई।
‘हाँ, मैं तुम्हारी मदद के लिए ही तो आया हूँ।’
‘मैं अकेले में ही कहूँगा।’
डॉक्टर ने इशारे से
वार्डबाय और वार्डर को दूर चले जाने को कहा। इस पर उन दोनों ने एक-दूसरे की ओर इस
तरह देखा मानो डॉक्टर के पागल हो जाने के बारे में अब कोई संदेह न रह गया हो।
‘साहब होशियार रहिएगा।’जाते-जातेवार्डर ने कहा,
पर डॉक्टर भास्कर को अब इस मरीज से किसी तरह का डर नहीं लग
रहा था।
‘मुझे डॉक्टर भास्कर को उनकी अमानत लौटानी है।’एकांत होते ही वह बुदबुदाया।
‘कैसी अमानत?’वह चौंक पड़े।
‘बरसों पहले मुझे एक पेन और डायरी की जरूरत थी,’सींखचों से सिर टिकाए उस
पागल की आँखों में बहुत मीठे भाव दिखाई देने लगे थे, ‘उस ग्रेट आदमी ने मुझे ये
चीजें दी थी।’
भास्कर आश्चर्य में पड़ गए, उन्हें
कुछ भी याद नहीं आ रहा था।
‘मुझे जो कुछ लिखना था,
लिख लिया है। मैं पेन और डायरी डॉक्टर भास्कर को सौंपना
चाहता हूँ। मुझे उससे बहुत आशाएँ हैं ...वह जरूर कुछ करेगा। मैंने बीस साल उसकी
प्रतीक्षा में बिताए हैं। कल पता चला कि वह इस अस्पताल का इन्चार्ज बनकर आ गया है, पर
मुझे क्या पता था कि वह कोई और है।’
‘सुनो’एकाएक उसने आँखें खोली,
‘मैंने पेन और डायरी इन जल्लादों से बहुत छिपा कर रखे हैं।’
‘लाओ मुझे दे दो।’
उसने दाएँ-बाएँ देखा।
कोठरी के पास डॉक्टर भास्कर के अलावा और कोई नहीं था। वह डॉक्टर की ओर पीठ करके
जमीन पर बैठ गया। कोठरी से उठ रही मल-मूत्र की दुर्गंध से डॉक्टर का दिमाग भन्नाने
लगा था, जबकि वे शुरू से ही नाक पर रूमाल रखे हुए थे।
उसके अभ्यस्त हाथों नेईंटों
के नीचे किसी गुप्त खाने में छिपाकर रखा सामान बहुत जल्दी ढूँढ निकाला।
डॉक्टर ने पेन और डायरी
उससे ले ली। अब वे गंभीर थे। पहले उनका अनुमान था कि हो सकता है बीमार उन्हें
मूर्ख बना रहा हो - पेन के नाम पर लकड़ी की डंडी-पकड़ा दे, डायरी
के नाम पर कोई फटा-पुराना कागज। पागलखाने में इस तरह की हरकतें रोगी अक्सर करते
रहते हैं, पर उनका अनुमान गलत निकला। उन्होंने बहुत सावधानी से दोनों चीजें अपनी जेब में
रख लीं।
पाँच नम्बर सेल में बंद
पागल बहुत आशा भरी नजरों से उनकी ओर देख रहा था।
डॉक्टर चलने को हुआ, तो पागल ने उनकी कमीज पकड़ ली।
‘धोखा मत देना।’डायरी और पेन डॉक्टर को सौंपने के बाद वह बहुत असहाय नजर आने लगा था। ‘डॉक्टर
भास्कर तक जरूर पहुँचा देना।’
‘तुम बिल्कुल निश्चिंत रहो।’डॉक्टर ने उसे तसल्ली दी और बंगले की ओर लौट पड़े। दूर खड़ा वॉर्डबाय भी लपककर
उनके साथ हो लिया।
‘इससे कोई मिलने आता है?’
डॉक्टर ने कुछ सोचकर पूछा।
‘नहीं साहब।’वार्डबॉय ने बताया,
‘आठ साल से तो मैं ही यहाँ हूँ, मेरे
सामने तो कभी कोई नहीं आया।’
अँधेरे में डॉक्टर का पैर
किसी पत्थर से टकराया। उन्हें गुस्सा आया,
एक भी स्ट्रीट लाइट नहीं जल रही थी।
‘क्या सारी लाइट्स खराब है?’वे चिढ़कर बोले,
‘मैंने आज ही पाँच टयूबलाइट्स का वाउचर पास किया है। आखिर ये
लोग करते क्या हैं?’
‘साहब, दो टयूबलाइटें मेम साहब ने मँगवाई थीं,
मैं ही दे कर आया था। दो डॉक्टर चंद्रप्रकाश जी के बंगले पर
गई हैं, एक बड़े बाबू ले गए हैं।’वॉर्डबाय ने बताया।
इस पर डॉक्टर ने कुछ नहीं
कहा।
वे बहुत थकान महसूस कर रहे
थे, अजीब-सी छटपटाहट उनके भीतर भरी हुई थी।
वे दरवाजे पर दस्तक देते
हैं ...पत्नी दरवाजा खोलने के बाद सवालिया निगाह उन पर डालती है, उनके
भीतर आने के लिए रास्ता नहीं छोड़ती है। वे हैरत में पड़ जाते हैं। ‘किससे
मिलना है?’पत्नी रुखाई से पूछती है।
‘मैं भास्कर ...तुम्हारा पति ...क्या हुआ है तुमको?’वे
कहते हैं। पत्नी खट् से दरवजा बंद कर लेती है। बाहर बहुत भीड़ है ....कंधे से कंधा
छिल रहा है ...वे भी भीड़ की एक हिस्सा है ...उन्हें कोई नहीं पहचानता ...यहाँ तक
कि कोई नजर उठाकर भी उनकी ओर नहीं देखता ...उन्हें घबराहट होती है। आई.आई.टी. के
होस्टल में अपने बेटे को बैठा देखकर राहत महसूस होती है। वे उसे आवाज देते हैं ...वह
भी उनको नहीं पहचानता। वे उसके पास जाकर कहते हैं , ‘मैं ...तुम्हारा पापा ... डॉक्टर
भास्कर!’जवाब में वह मुस्कुराकर कहता है,
‘श्रीमान जी,
मेरी याददाश्त बहुत तेज है, मेरे बाप ने पागल रोगियों
के हिस्से का बहुत सारा दूध मुझे पिला-पिलाकर पाला है, मेरे
सारे ‘फंड’क्लियर हैं।’तभी पता नहीं कहाँ से आकर तमाम डॉक्टर घेर लेते हैं ....सब से आगे डॉक्टर
चंद्रप्रकाश हैं ... वे सब उन्हें शॉकचेंबर की ओर घसीट रहे हैं। ‘मैं
डॉक्टर भास्कर हूँ ...हॉस्पिटलसुपरिटेंडेंट!’वे चिल्लाते हैं। ‘सभी ऐसा कहते हैं।’डॉक्टर चंद्रप्रकाश हँसकर कहते हैं।
उनकी आँखें खुल गई। वे
पसीने-पसीने हो गए थे।
पत्नी उनकी परेशानी में
बेखबर सो रही थी। वे धीरे से उठे,
थोड़ी देर कमरे में ही नंगे पाँव चहल-कदमी करते रहे, फिर
स्टडी रूम में आ गए।
टेबललैंप का स्विचऑन करते
ही उनकी नज़र पेन और डायरी पर पड़ी। उन्होंने सोचा यदि वह उस पागल की बात पर विश्वास
कर लें, तो ... इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने यह
चीजें रमन को लगभग बीस साल पहले दी होंगी।
उन्होंने पेन उठाया ,तो सूखी मिट्टी की परत उखड़कर मेज पर गिरी। डॉक्टर भास्कर ने अपने रूमाल को
गिलास में पड़े पानी से नम किया और उत्साहित होकर वे पेन को चमकाने लगे। पेन के
ढक्कन पर कुछ लिखा हुआ था। उन्होंने लैम्प के प्रकाश में ध्यान से देखा। उनकी साँस
रुकी रह गई,
आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ –पेन पर
उनके पिता का नाम खुदा हुआ था।
डॉक्टर भास्कर की आँखों के
आगे वह दिन घूम गया ...पिताजी हमेशा की तरह बैठे कुछ लिख रहे थे, वह पास
ही बैठा अपना होमवर्क कर रहा था। उसे पिताजी का स्याही वाला पेन बहुत आकर्षित करता
था, पर पिताजी पेन को छूने तक नहीं देते थे।
‘पिताजी, मुझे भी आप जैसा पेन चाहिए।’उसने कहा था।
‘बेटा’,उन्होंने समझाया था। ‘स्कूल में तुम्हें पेंसिल से ही लिखना होता है, बड़े हो जाओ, मैं
तुम्हें अच्छा-सा फाउंटेन पेन ले दूँगा।’
तभी बहुत से गोरे सिपाहियों
ने घर को घेर लिया था,
एक अंग्रेज अफसर अपना रिवाल्वर ताने पिताजी की ओर बढ़ रहा
था। वे बिल्कुल नहीं घबराए थे।
पिताजी को हथकड़ी पहना दी
गई थी। यह देखकर वह रोने लगा था।
‘तुम मेरी चिंता नहीं करना’-माँ ने पिताजी से कहा था, ‘अपना
ध्यान रखना।’
एक सिपाही रायफल के बट से
उनको दरवाजे की ओर ठेल रहा था।
‘चलो।’रिवाल्वरधारी गोरे ने गुर्राकर कहा था,
‘कोई हरकत की तो गोली मार दूँगा।’
वह डरकर जोर-जोर से रोने
लगा था।
‘ऑफिसर बस एक मिनट!’हँसते हुए उसके ऊपर झुक आए थे। उनके कुरते की जेब में पेन लगा हुआ था।
‘बहादुर बच्चे कभी नहीं रोते।’प्यार से उसे चूमते हुए उन्होंने कहा था,
‘पेन चाहिए न?
ले लो ...जल्दी से निकाल लो।’
वह रो रहा था, पेन के
लिए उसके हाथ ही नहीं बढ़ रहे थे।
‘भास्कर बेटे,
ले लो,
नहीं तो ये लोग इसे भी छीन लेंगे।’तब
उसने जल्दी से पेन उनकी जेब से निकाल लिया था। उनके चेहरे पर आत्मसंतोष दिखाई देने
लगा था।
‘चलता हूँ।’उन्होंने माँ से कहा था। ‘मैंने अपना हथियार आने वाली पीढ़ी को सौंप दिया है, हमारे
बाद इन्हें ही लड़ाई जारी रखनी होगी।’
गोरे सिपाही पिताजी को ले
गए थे। फिर वह उनको कभी नहीं देख पाया था। अंग्रेजों ने उन्हें आजादी के गीत लिखने
और जनता को क्रांति के लिए भड़काने के जुर्म में फाँसी दे दी थी।
कई सालों बाद डॉक्टर
भास्कर की आँखें अपने स्वर्गीय पिता की याद में नम हो आईं।
उन्होंने बड़े सम्मान के
साथ उस पेन को देखा,
प्यार से पोंछा,
खोलकर देखा - निब अब भी चमचमा रही थी। पाँच नंबर ने पेन के
भीतर की स्याही के आखिरी कतरे तक का इस्तेमाल कर लिया था। शायद सूख गई स्याही को
भी पानी से डाइल्यूट कर प्रयोग कर लिया गया था। उन्हें अभी भी याद नहीं आ रहा था
कि यह पेन उन्होंने रमन नामक एक पागल को कब दिया था।
डॉक्टर भास्कर ने नए सिरे
से सोचना शुरू किया। डॉक्टरी की परीक्षा उन्होंने इसी पेन से दी थी। उसके बाद... इस
अस्पताल में नौकरी ज्वॉइन करते समय चार्ज सर्टिफिकेट्स भी इसी पेन से भरे थे। उसके
बाद ...कुछ याद नहीं आ रहा था। इतनी अमूल्य वस्तु उन्होंने कैसे किसी को दे दी।
नौकरी के शुरू के दिन उनकी
आँखों के सामने से गुजरने लगे। मानसिक रूप से बीमार लोगों के बारे में वह बहुत
सोचता था, रात को तीन चार बार हॉस्पिटल का राउण्ड लगाए बगैर नींद नहीं आती थी। तब वह दिन-रात
इन रोगियों के उपचार हेतु नए–नए प्रयोग करने के सुझाव दिया करता था। हॉस्पिटलइंचार्ज एवं दूसरे डाक्टर्स के
अक्सर वाद–विवाद भी हो जाता था,
पर वह आसानी से हार नहीं मानता था।
पागल मरीजों के मनोरंजन
एवं मानसिक सुधार के आकलन हेतु ‘फेट’की योजना को मंजूर कराने के लिए उसे बहुत पापड़ बेलने पड़े। अंतत: उसे सफलता मिल
गई थी। हॉस्पिटल में ही ...अलग-अलग चीजों के स्टाल लगाए गए थे। मरीजों को डाक्टर्स
के गुप्त आब्जर्वेशन में मेले में खुला छोड़ दिया गया था। वे अपनी मर्जी से स्टालों
पर घूमते रहे थे। रोगी क्या खाता है?
कैसे बर्ताव करता है?
पैंसों के लेन-देन पर ध्यान देता है कि नहीं ,जैसी बातों का अध्ययन किया गया था। उसके इस प्रयोग की विदेशी डॉक्टरों ने
भी बहुत तारीफ़ की थी।
स्टाफ द्वारा मरीजों के
साथ किए जाने वाले व्यवहार पर वह कड़ी नजर रखता था। अस्पताल में सबसे कनिष्ठ होते
हुए भी प्रसिद्धि पाते देख बड़े डॉक्टर्स उससे बैर मानने लगे थे। आठ महीने बाद ही
उसे ट्रांसफर कर दिया गया था।
...डॉक्टर भास्कर की आँखों के आगे बिजली-सी कौंधी। उन्हें सब कुछ याद आ गया था -
वॉर्ड. नंबर तीन से जोर-जोर
चिल्लाने की आवाजें आ रही थी। वे बिना अपनी उपस्थिति का आभास कराए वार्ड नं. तीन
के नजदीक पहुँचकर जाली से भीतर झाँकने लगे थे।
तीन हट्टे-कट्टे वार्डर एक
मरीज को बेदर्दी से पीट रहे थे। मोटे डंडों की मार से वह फर्श पर गिर पड़ता और फिर
सीना तान कर उनके सामने खड़ा हो जाता था।
‘लो... मार लो.. हरामखोरों।’वह आँखें निकालकर चिल्लाता था, तो दीवारें काँप जाती थीं।
दूसरे मरीज मारे डर के इधर-उधर
दुबक गए थे।
‘आक् ...थू! उसने एक वार्डर के मुँह पर थूक दिया था। अपने को अपमानित महसूस कर
उस वार्डर ने उसे उठाकर पटक दिया था और सीने पर सवार होकर पीटने लगा था।
उसको देखकर उन्होंने मरीज
को छोड़ दिया था। उसके शरीर पर बंडी और जाँघिया तार-तार हो गए थे। होंठों से खून
निकल कर ठुड्डी तक बह आया था।
‘क्यों मार रहे थे?’उन्होंने वार्डर से कड़ककर पूछा था।
‘इसने हम लोंगों के बारे में बहुत ऊटपटाँग लिख रहा था..डॉक्टर्स के बारे में
भी।’
डॉक्टर भास्कर ने देखा, आसपास
कागज की चिंदियाँ बिखरी पड़ी थीं।
‘इसके पास से एक पेंसिल भी बरामद हुई है।’दूसरा वार्डर बोला।
पागल अभी भी फाड़ खाने वाली
नजरों से वार्ड्स को घूर रहा था।
वह बिना डरे उसके पास चला
गया था। वार्ड्स और दूसरे वार्डबॉयज ने अपने लठ्ठसँभाल लिये थे।
‘तुम्हें क्या चाहिए?’उसने नर्मी से पूछा था।
‘तू क्या देगा?’वह चिल्लाया,
‘तेरे पास तो इलेक्ट्रिकशॉक हैं।’
‘तुम तो बिल्कुल ठीक हो ...तुम्हें शॉक क्यों देगें?’उसने
बहुत प्यार से कहा था।
‘मुझे एक पेन और डायरी चाहिए ...’
‘क्या करोगे?’
‘मुझे लिखना है,
इन्होंने मेरे सारे कपड़े फाड़ दिए हैं ...’
उसने तुरंत अपना पेन नई
पॉकेट डायरी उस मरीज की ओर बढ़ा दिए थे।
‘साहब, ये हमें फँसवा देगा।’किसी वार्डबॉय ने कहा था। उस मरीज ने डरते-डरते पेन और डायरी उसके हाथ से ले
लिए थे। उसकी आँखें खुशी से चमकने लगी थीं।
‘थैंक्यू डाक्टर!’मरीज ने बहुत धीरे से कहा था। उसकी गुस्से से उफनती आँखें किसी झील की तरह
शांत हो गई थीं।
वार्ड नं. तीन का वह युवक
ही आज का पाँच नंबर है,
सोचकर उनका मन अजीब- सा होने लगा। पाँच नंबर की एक-एक बात सही
साबित हो रही थी... तब बीमार के प्रति वे कितनी जिम्मेवारी महसूस करते थे ....रोगी
के माँगने पर उन्होंने अपने पिता की अमूल्य निशानी बेझिझक उसे दे दी थी ; लेकिन अब ...उनकी उदासी और बढ़ गई। पाँच नंबर सेल में कैद उस पागल को आज भी
बीस साल पहले वाले डाक्टर भास्कर की तलाश है। अब वह उन्हें डॉक्टर भास्कर मानता ही
नहीं है। उससे हुए वार्तालाप को याद कर वे सिहर उठे।
रात के दो बज गए थे, पर
डाक्टर भास्कर की आँखों में नींद नहीं थी। उन्होंने रमन की डायरी उठा ली और उसे
उलटने-पलटने लगे। तारीखों के साथ वर्ष नहीं लिखे हुए थे।
2अक्टूबर,
मन बहुत उदास है। भसीन
नहीं रहा, बाइस साल पागलखाने की इन सलाखों के पीछे काटने के बाद वह कल चल बसा। उसने तीन
दिन से खाना-पीना बंद कर दिया था ...उसे ग्लूकोज़ चढ़ाया जाना था, पर
किसी ने ध्यान नहीं दिया। मैंने कल डॉ. चंद्रप्रकाश से इसकी शिकायत की ,तो उन्होंने मुझे घूरकर देखा था।
कड़ाके की ठंड है, रात के
दो बजे है, सब जाग रहे हैं ...एक पुराने कंबल से भला क्या होता है।
1 जनवरी
आज बुधवार था यानी मिलाई
का दिन ...वार्डबॉय,
जमादार,
वार्डर सभी खुश थे। मिलाई के बाद मरीजों को फिर वही गंदे
कपड़े पहना दिए गए। घर वालों द्वारा मरीजों को दिया गया सामान स्टाफ के लोग छीनकर
अपने घरों को ले गए।
20 जनवरी
क्या मैं पागल हूँ? तब- मैं
पागल था ;क्योंकि मैं अपना हक माँगता था अब- मैं पागल
हूँ ;क्योंकि चिकित्सालय में भर्ती मरीजों के लिए लड़ता हूँ ...क्या
मैं कभी जीतूँगा?
जब तक डॉ. भास्कर जैसे लोग हैं मुझे निराश नहीं होना चाहिए ...यह
डायरी भी तो उन्हीं की दी हुई है।
डॉक्टर भास्कर को अपने
सीने में दर्द-सा महसूस हुआ। प्यास के मारे गला सूख रहा था। वे लड़खड़ाते हुए उठे और
फ्रिज़ से पानी की बोतल निकाल लाए। दो गिलास पानी पीने के बाद भी सीने के भीतर की
जलन शांत नहीं हुई...। थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर डायरी उठा ली।
5 अप्रैल
बहुत कमजोरी महसूस कर रहा
हूँ। उन्होंने बिना बेहोश किए मुझे ‘शॉक’दिए हैं। पर इससे क्या मुझे चुप कर लेंगे? खाने में पत्थर और
मक्खियाँ परोसेंगे ,तो क्या हम खा लेंगे? ये
अस्पताल हैं या यातना-गृह!
8 अप्रैल
जमादार लट्ठलिये बैठा रहा
और मरीज ‘शॉकट्रीटमेंट’के डर से अपना मल-मूत्र खुद साफ करते रहे।
27 जून
रात बहुत गर्मी थी। लगता
है जैसे तपते रेगिस्तान में रात गुज़ारी हो। वार्ड में वैसे ही अँधेरा रहता है, कल तो
बिजली भी नहीं थी। वार्ड में पानी की एक बूँद भी नहीं थी। सब मरीज पानी से बाहर
निकाल ली गई मछली की तरह तड़पते रहे और ‘पानी’...’पानी’चिल्लाते रहे। किसी ने सुध नहीं ली। वार्ड में शाम के पाँच बजे बाहर से ताला
लगा दिया जाता है,
सुबह सात से पहले नहीं खोला जाता। मल-मूत्र भी भीतर ही करना
पड़ता है।
27अक्टूबर
आज मुझे तन्हाई में डाल
दिया गया है, अब मैं सेल नंबर पाँच में कैद खतरनाक पागल हूँ। मैंने किया क्या है? दिलबाग
सिंह को मैं अच्छी तरह जानता हूँ,
बचपन से ही वह मंदबुद्धि है, वह बोल भी नहीं पाता है।
दस साल की उम्र के बाद उसे मिर्गी के दौरे पड़ने लगे थे। माँ-बाप के मरने के बाद
बड़ी बहन ने उसे यहाँ भर्ती करवा दिया था,
सुना है वह सारी प्रापर्टी बेचकर जर्मनी में बस गई हैं।
बोर्ड ने दिलबाग सिंह को ‘फिट’घोषित कर दिया है,
पर जब तक उसकी बहन उसे लेने नहीं आएगी, उसे
नहीं छोड़ा जाएगा ...
दिलबाग सिंह को भूख बहुत
लगती है। आज वार्ड में उसने वार्डबॉय से चौथी रोटी माँगी ,तो उसकी जमकर पिटाई कर दी गई,
मैं चुपचाप देखता रहा। दिलबाग ने गुस्से में थाली, कटोरा
फेंक दिए थे। तभी डॉ. चंद्रप्रकाशराउण्ड पर आ गए थे। उन्होंने दिलबाग को शॉकचेंबर
में जाने के आदेश दे दिए थे।
मैं अपने को रोक नहीं पाया
था।
‘हरामी, यदि तुझे ‘शॉक’दिए जाएँ तो?’मैंने लपककर उसकी गर्दन दबोच ली थी।
वार्डर, वॉर्डबॉय
ने पीटते-पीटते मेरी पीठ खून से लाल कर दी थी। डॉक्टर ने मुझे खतरनाक पागल करार
देते हुए तन्हाई में डालने के आदेश दे दिए थे।
1 दिसंबर
लूनरअसाइलममेनुएल की यह
कैसी शर्त है, जिसकी वजह से मरीज को ‘फिट’होने के बावजूद भर्ती करवाने वाले व्यक्ति की प्रतीक्षा में पागलखाने में अपने
दिन काटने पड़ते हैं ...
5 जनवरी
आज मुझे ‘वॉलन्टरि
बोर्ड’के समक्ष उपस्थित होना पड़ा था। नतीजा हर बार जैसा ही निकला, यानी मैं एक खतरनाक पागल हूँ ...मुझमें कोई सुधार नहीं हुआ है, जबकि
मैंने बहुत ईमानदारी से उनका ध्यान अस्पताल के हालात की ओर आकृष्ट करना चाहा था।
जब मैं बोर्ड के समक्ष हाजिर हुआ, तो तीनों मेंबर मज़े में काजू खाते हुए आपस
में बतिया रहे थे। मेज पर कई तरह के व्यंजन सजे हुए थे।
‘तुम्हारा नाम?’गंजी खोपड़ी वाले जज ने मुझसे पूछा था।
‘क्यों समय नष्ट करते हैं?
इससे क्या फर्क पड़ेगा,
आपको चाहिए कि अस्पताल का राउंड लें और देखें कि हमारे साथ
क्या बीत रही है। मैंने बहुत आदर से कहा था।’
वह सकपका गया था, उसने
अर्थपूर्ण ढंग से हॉस्पिटलसुपरिंटेंडेंट की ओर देखा था।
‘देखो, जितना पूछा जाए,
उतने का ही उत्तर दो।’अबकी बिच्छू के डंक-सी आँखों वाले मजिस्ट्रेट ने कहा।
मुझे उसकी बात सुनकर
गुस्सा आ गया था।’
‘कमाल है! क्या आपको यह बताना जरूरी नहीं हैं कि जो काजू आप चबा रहे हैं, उसे
हमारा खून निचोड़कर तैयार किया है।’मैंने पूछ लिया था।
उनके चेहरे पीले पड़ गए थे।
तीनों अपने सिर मिलाकर कुछ फुसफुसाए थे और मुझे वापस इस सेल में भेज दिया गया था।
डॉक्टर भास्कर से आगे पढ़ा
नहीं गया। उनके हाथ काँप रहे थे,
माथे पर पसीना चमकने लगा था। पुरानी मस्जिद से उठ रही अजान
की आवाज से उन्हें पता चला कि सुबह हो गई है।
वे बुरी तरह थके हुए थे।
फिर भी, उनकी लेटने की इच्छा नहीं हुई। उन्होंने स्लीपर पहने और बाहर सड़क पर आ गए। तभी
सामने से अखबार वाला आता दिखाई दिया। उसने डॉक्टर भास्कर से नमस्ते की और अलग–अलग
वार्ड्स के नाम पर आने वाले अखबार,
मैगजीन उनके बंगले में डालकर आगे बढ़ गया।
वे सूनी-सूनी आँखों से
फर्श पर पड़े अखबारों को देखते रहे। मरीजों के मनोरंजन के लिए सरकारी पैसों से
खरीदी गई अनेक वस्तुएँ उनके बँगले में मौजूद थी। उन्हें हैरत हुई। पहले कभी उनका
ध्यान इस ओर नहीं गया था।
पागल की डायरी पढ़ने के बाद
उन्हें अपने आप से नफरत होने लगी थी...कहाँ गया जवानी के दिनों का भास्कर? वह
डॉक्टर भास्कर जिसके इंतजार में कोई आदमी बीस साल काट देता है, जिससे
आशा की जाती है कि वह सब कुछ ठीक-ठाक कर देगा। डॉक्टर भास्कर के मस्तिष्क में पागल
की डायरी में लिखे शब्द गूँजने लगे - ‘जब तक डॉक्टर भास्कर जैसे लोग हैं ,मुझे निराश नहीं होना चाहिए।’एक
मरीज बीस साल तक छिप-छिपकर डायरी लिखता है ...अस्पताल का कच्चा चिट्ठा और फिर उसी
अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर को इस आशा में सौंप देता है कि वह कुछ करेगा ...इतना
अटूट विश्वास।
‘बहुत बड़ी बात है!’डॉक्टर भास्कर बुदबुदाए।
सोचते-सोचते डॉक्टर भास्कर
सेल नंबर पाँच के नजदीक पहुँच गए थे। बदबू का भभका उनके नथुनों से टकराया। बदबू
उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रही थीं। उन्होंने झिझकते हुए रूमाल नाक पर रख लिया।
सलाखों के उस पार पेशेंट
नंबर पाँच आँखें बंद किए बैठा था,
उसके चेहरे पर असीम शांति थी। बीस वर्षों तक उनके पिता का
पेन किसी गलत आदमी के पास नहीं रहा,
उन्होंने मन ही मन सोचा।
‘कैसे हो?’उन्होंने उससे पूछ लिया।
‘डॉक्टर भास्कर का कुछ पता चला।’उसकी चमकती आँखें उनके रूमाल पर स्थिर थीं। वे नाक पर से रूमाल हटाते-हटाते रुक
गए।
वे चाहकर भी कुछ नहीं बोल
पाए। उन्हें लगा,
दूसरी कोठरियों के सींखचों से झाँकते मरीज उन्हें घृणा भरी
नजरों से देख रहे हैं। वे लौट पड़ें।
बंगले में आकर उन्होंने
सबसे पहले उस पेन में स्याही भरी और उसे ऑफिस ले जाने वाले ब्रीफकेस में रख दिया।
सुबह उन्होंने टेबल पर रखा
पेन स्टैंड वहाँ से हटवा दिया और उसी जगह पॉटनुमास्टैंड में अपने स्वतंत्रता
संग्राम सेनानी पिता द्वारा दिया गया पेन लगा दिया।
तभी रामदीन चपरासी ने डरते-डरते
भीतर प्रवेश किया।
‘हुजूर, बिटिया की शादी है,
छुट्टी चाहिए।’वह गिड़गिड़ाया।
‘कहाँ है एप्लीकेशन?’
डॉक्टर भास्कर ने पेन
उठाया और रामदीन चपरासी द्वारा बढ़ाए गए प्रार्थना पत्र पर छुट्टी स्वीकृत कर दी।
रामदीन को विश्वास ही नहीं हो रहा था,
साहब छुट्टी देने में बहुत हील -हुज्जत करता था, कई बार
तो एप्लीकेशन फाड़कर फेंक देता था,
पर आज ...
टेबल पर सप्लाई ऑर्डर की
फाइल रखी थी। डॉक्टर भास्कर ने फाइल खोलकर देखी। मरीजों को पहनाए जाने वाले कपड़ों
की सप्लाई का ऑर्डर बना रखा था,
उनके हस्ताक्षर होने थे। वे दस्तखत करते-करते रुक गए। ऑर्डर
पेपर पर उनके पेन की निब किसी तलवार की तरह चमचमा रही थी - गोरे सिपाही पिताजी को
खींचे लिए जा रहे थे ...उन्होंने माँ से कहा था, ‘मैंने अपना हथियार आने
वाली पीढ़ी को सौंप दिया है,
हमारे बाद उन्हें ही तो लड़ाई जारी रखनी होगी।’
उनसे ऑर्डर पेपर पर साइन
नहीं किए गए, जबकि फर्जी सप्लाई के लिए ऑर्डर बड़े बाबू ने उन्हीं के कहने पर पुटअप किया था।
उस दिन अस्पताल के
कर्मचारियों में डॉक्टर भास्कर के विचित्र व्यवहार की चर्चाएँ होती रहीं।
अगले दिन डॉक्टर भास्कर
बहुत सुबह उठकर तैयार हो गए।
‘कहीं जाना है क्या?’पत्नी को हैरानी हुई।
‘दूध का इंतजाम कर लेना,
अब अस्पताल से दूध नहीं आया करेगा।’
‘क्यों?’पत्नी ने पूछा।
जवाब में डॉक्टर ने खा
जाने वाली नज़रों से पत्नी की ओर देखा। पत्नी सहम गई। बरसों बाद भास्कर ने उससे इस
तरह का बर्ताव किया था।
डॉक्टर भास्कर घर से बाहर
निकले। अखबारवाला बरामदे में अखबार फेंकने ही वाला था। उन्होंने हाथ के इशारे से
उसे रोका और पास जाकर आगे से अखबार वार्ड्स में डालने के लिए कहा।
वे लंबे-लंबे डग भरते हुए
वार्ड नंबर एक की ओर चल दिए। गेट पर बैठा चौकीदार ऊँघ रहा था।
‘तुम मुझसे ऑफिस में मिलो।’उन्होंने बर्फ से सर्द लहजे में कहा। चौकीदार हड़बड़ाकर खड़ा हो गया और थर- थर
काँपने लगा।
भीतर जमादार बैठा खैनी मल
रहा था। वार्ड से उठ रही दुर्गंध से नाक फटी जा रही थी, पर इस
बार डॉक्टर ने नाक पर रूमाल नहीं रखा।
‘किस बात की तनख्वाह लेते हो?’वे दहाड़ उठे,
‘मैं देखता हूँ तुम लोगों की हरामखोरी।’
उन्होंने अपने सामने वार्ड
की सफाई कराई। पूरे अस्पताल में उनको आकस्मिक निरीक्षण की बात आग की तरह फैल गई थी
...जमादार सफाई में जुट गए थे।
डॉक्टर भास्कर चीते की सी
चाल से अस्पताल में घूम रहे थे। कमीज की जेब में लगा पेन उन्हें सीने पर टंगे किसी
मैडल जैसा मालूम दे रहा था।
‘डॉक्टर भास्कर!’
किसी
की पुकार सुन उन्होंने पलटकर देखा तो हैरान रह गए। बात थी ही ऐसी। सेल नंबर पाँच
में बंद खतरनाक पागल मीठी नजरों से उनकी ओर देखते हुए मुस्करा रहा था।
3 comments:
बेहद उम्दा, संवेदनशील, भावपूर्ण एवं प्रेरक कहानी के लिए सुकेश जी को हार्दिक बधाई।
अलग विषय को लेकर लिखी गयी कहानी भीतर तलक आंदोलित करती है । याद रह जानेवाली एक कहानी ।
बहुत शानदार और मार्मिक।सरकारी अस्पताल की जिंदा हकीकत।सरकारी डॉक्टरों की अपने कार्य के प्रति लापरवाही।जो जगह संवेदनशील होनी चाहिए वहाँ किस प्रकार के लोग बैठे हैं।शॉक क्या होता है उसकी तकलीफ क्या होती है।मैं तो इस शब्द से ही काँपता हूँ।संवेदनशील कहानी की बधाई।
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