उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

May 24, 2010

व्यंग्य ऊपर व्यंग्य


-  अख़्तर अली
अब ये मेरी आन बान और शान का मामला हो गया था। एक अलिखित रचना मुझे चिढ़ा रही थी, कह रही थी लो मैं ये रही, क्षमता है तो मुझे रच लो।
मैं श्रीलाल शुक्ल के व्यंग्य उपन्यास राग दरबारी पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करता हूं कि जब भी लिखूंगा व्यंग्य लिखूंगा व्यंग्य के अलावा और कुछ नहीं लिखंूगा। आप मेरे व्यंग्य की क्षमता का अनुमान मेरे इस वक्तव्य से लगा सकते हैं कि मैं अपने व्यंग्य गुरू शरद जोशी की कसम खाकर कहता हूं कि सबसे श्रेष्ठ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई हैं।
मेरी हार्दिक इच्छा थी कि मैं भी परसाई जी के स्तर की रचना लिखंू, शरद जोशी वाले तेवर की रचना लिखूं, लेकिन लाख कोशिश के बावजूद भी मेरी कलम से आज तक ऐसी कोई रचना नहीं लिखा सकी जो देश और दुनिया की तो छोडि़ये मेरे पड़ोसी को भी यह अहसास नहीं करा सकी कि उसके पड़ोस में जो व्यक्ति उसे सुबह शाम सलाम करता है वह एक व्यंग्यकार है। आखिर अपनी इस असफलता का ठिकरा मैं किस के सिर पर फोडू? किसी किसी के सिर पर तो फोडऩा ही होगा क्योंकि मैं जिस देश का नागरिक हूं वहां असफलता की जिम्मेदारी स्वयं के सिर पर लेने की परम्परा नहीं है। अब मेरे सामने यह एक विकराल समस्या है कि एक अच्छी व्यंग्य रचना लिख पाने के लिये मैं किसको जिम्मेदार बताऊं? अगर मैं हाकी का खिलाड़ी होता तो सारा दोष गिल जी के सिर पर थोप देता, उनका सिर इतना विशाल है ही इसलिये कि जो चाहे अपनी नाकामयाबी का ठिकरा उनके सिर पर फोड़ता फिरे। अब तो गिल बाबा भी इसके इस कदर आदी हो गये हैं कि देश में कही भी ऐसा वैसा कुछ होता है और कोई इसकी जवाबदारी लेने में हिचकिचाता है तो ये झट से अपना सिर आगे कर देते हैं और कहते हैं मैं हूं ना! इसके बदले में बाबा जी और कुछ नहीं चाहते, उनके लिये यही काफी है कि किसी तरह उनका सिर देश के काम जाये।
मेरे को तो बिलकुल समझ नहीं रहा है कि अपनी इस असफलता का जिम्मेदार मैं किसको ठहराऊं? मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी थी, डायरी पेन से लैस मैं एक अच्छी व्यंग्य रचना लिखने के लिये बेताब था लेकिन हर बार ऐसा महसूस होता था कि कही कोई है जो मेरे अहसास को सुला रहा है, कोई व्यंग्य का दुश्मन मेरे पीछे पड़ा हुआ है जो नहीं चाहता कि व्यंग्य का बाजार भाव ऊपर उठे। आखिर वह कौन है? एक दो कवियों पर मुझे शक हुआ था लेकिन मैं चुप रहा क्योंकि ये लोग अक्सर गोष्ठियों का आयोजन करते रहते हैं। अब साहित्य के समन्दर में रह कर आयोजकों से तो बैर नहीं लिया जा सकता ? मेरे को परेशान देख कर एक दिन हवलदार लफड़ाप्रसाद ने पूछ ही लिया कि परेशानी क्या है? हमने अपनी दास्तां सुनाई तो वे कहने लगे बस इतनी सी बात है कि आप अपनी असफलता का ठिकरा किसके सिर फोड़े ? इसमें परेशान होने की क्या बात है अरे हमसे पहले पूछ लिये होते तो इस वक्त इतने टेंशन में होते। ये सब चिन्ता छोड़ो और पत्रकार वार्ता आयोजित कर के साफ- साफ कह दो कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी व्यंग्य नहीं लिख पा रहा हूं इसके पीछे दाउद इब्राहिम का हाथ है। बड़ा गजब का हाथ है भई, भाई का। इनका हाथ अगर एक बार हाथ में जाये तो फिर कभी उस हाथ को इस हाथ से जाने मत देना। इस हाथ में असीम संभावनाए हैं, पुलिस विभाग की लाज इन्हीं हाथों में है। पुलिस विभाग को भाई का हाथ इतना प्यारा है कि वह उन्हीं के हाथों में अपना भविष्य देखती है। जब से पुलिस को भाई के हाथ का सहारा मिला है वह भाई की गर्दन पकडऩा ही भूल गई है। हवलदार लफड़ाप्रसाद तो अपना मशविरा देकर निकल लिये लेकिन मेरे को यह स्वीकार नहीं हुआ। ये बैठे बिठाये मैं अच्छी मुसीबत में फंस गया। व्यंग्य लिखा भी नहीं रहा है और लिख पाने की कोई सार्थक वजह भी नहीं है। अब मैं अपनी इस असफलता पर कैसे पर्दा डालंू, साहित्यिक बिरादरी में कैसे बात बनाऊं कि क्यों लिख नहीं पा रहा हूं। अगर मैं सरकार में होता तो कह देता कि इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ है। बिना सरकार में
शामिल हुए मैं ऐसा कह ही नहीं सकता क्योंकि अपना दोष पाकिस्तान के मत्थे मढऩे का अधिकार केवल सरकार के पास है निजी क्षेत्र को अभी यह अधिकार प्राप्त नहीं है।
आखिर क्या किया जाये? अब मेरे पास दो ही रास्ते बचते हैं या तो किसी तरह भी कोशिश करके एक अदद व्यंग्य लिख ही दिया जाये या फिर लिख पाने की जांच की जाये कि आखिर ऐसा हो क्या गया कि दो पेज की एक रचना भी नहीं लिखा पा रहा हूं। परेशान देख एक प्रकाशक मित्र ने कहा भी कि इतना परेशान होने से तो बेहतर है कि किसी अन्य लेखक की एक दो रचना चुरा कर थोड़े शब्द आगे पीछे कर के रचना तैयार कर दो जब तुम्हारे अच्छे दिन लौट आएंगे तो धन्यवाद के साथ अपनी एक दो रचना उसको दे देना हिसाब बराबर हो जायेगा। ये मशविरा मेरे समझ में नहीं आया। दूसरे की रचना को अपने नाम से कैसे प्रकाशित कर सकते हैं। मेरा निर्णय सुनकर प्रकाशक को आश्चर्य हुआ कहने लगे यहां तो लोग दूसरे की रचनाओं को लेकर पूरा संग्रह निकलवा लेते हैं और तुम को एक रचना मारने में इतनी परेशानी हो रही है। तुम्हारा तो भगवान ही मालिक है।
अब ये मेरी आन बान और शान का मामला हो गया था। एक अलिखित रचना मुझे चिढ़ा रही थी, कह रही थी लो मैं ये रही, क्षमता है तो मुझे रच लो। मैंने तय कर लिया कि मैं उन कारणों का पता लगाऊंगा जिनकी वजह से मैं अपने आदर्श परसाई जी की भांति लिख नहीं पा रहा हूं। बस फिर क्या था मैं अपनी इस मुहिम में जुट गया। सूखे को गीला किया गीले को सुखाया। सपाट में गड्ढा किया गड्ढे को सपाट किया। सिले हुए को फाड़ा, फटे हुए को सिया। बहुत तीन पांच किया तब बात मेरी समझ आई कि आखिर मामला क्या है? क्यों मैं एक अदद रचना के लिये तरस रहा हूं। मैंने पूरे मामले की गहराई से जांच किया और जब पूरी तरह संतुष्ट हो गया तब अपना मुंह खोला। मैं कम से कम समय में लिख पाने का कारण लेखक बिरादरी तक पहुंचा देना चाहता था कि लेखन में असल में कौन बाधक बना हुआ है? यह एक संस्पेंस फिल्म की तरह मामला हो गया था हम क्या- क्या सोचते रहे और हत्यारा एक ऐसा व्यक्ति निकलता है जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। बिलकुल ऐसा ही मेरे व्यंग्य लेखन के साथ भी हुआ है। इसको ही कहते हैं घर में लगी है आग घर के चिराग से। मेरे लेखन में बाधा कोई और नहीं बल्कि मेरे द्वारा चुनी गई सरकार थी। यह इस लोकतांत्रिक सरकार का ही किया धरा काम है जो एक व्यंग्यकार अपने को लिख पाने में असमर्थ महसूस कर रहा है। यह तो सरासर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। यदि विपक्ष को यह मालूम हो जाये तो इसी बात पर वह सरकार का घेराव करे, सदन का बहिष्कार करे, मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग करे। यह इतना गंभीर मामला है कि इसके विरोध में नगर बंद तो क्या बल्कि समूचा प्रदेश बंद कराया जा सकता है, स्कूल, कालेज, बाजार, बैंक सब बंद।
सरकार के काम करने का ये क्या तरीका है? सरकार तो हम व्यंग्यकारों के साथ जरा भी सहयोग नहीं कर रही है। सरकार का अगर यही ढंग रहा तो एक दिन व्यंग्य लेखन दम तोड़ देगा। प्रदेश और केन्द्र दोनों सरकारों का यही हाल है। सरकार तो परसाई के समय थी, उसे कहते है सरकार। उस सरकार ने परसाई जी को भरपूर सहयोग दिया। आखिर व्यंग्य लेखन के लिये क्या सामग्री चाहिये? एक मामला चाहिये, उस पर रचना लिखने के लिये दो तीन दिन का समय चाहिये, सम्पादक तक पहुंचाने के लिये दो दिन और अतिरिक्त मिलने चाहिये इतना होने के बाद एक व्यंग्य रचना पाठकों तक पहुंचती है। उन दिनों सरकारी लफड़े कितने कलात्मक अंदाज में होते थे कि देखते ही बनता था, मानो हर लफड़ा फूंक- फूंक कर किया गया हो। एक कांड होता, उसपे परसाई जी व्यंग्य लिखते, वह अखबारों में छपता, लोगों में उसकी चर्चा होती, परसाई जी को उसका पारिश्रमिक प्राप्त हो जाता, वे एक दो दिन थोड़ा सुस्ता लेते तब कहीं जाकर उस समय के मंत्री दूसरा लफड़ा करते थे। इसे कहते हैं लेखक का सम्मान। लेकिन आज वैसे मंत्री कहां? अब तो सारे लफड़े प्रति मिनट के दर से हो रहे हैं। व्यंग्यकार परेशान हैं। एक मामले में लिखने का सोचता है तब तक दूसरा लफड़ा हो जाता है। कागज कलम हाथ में लेता है तब तक तीसरा मामला सामने जाता है। अभी पहला अक्षर लिखने वाला ही रहता है कि खबर आती है कि चौथा केस पकड़ में आया है। अगर पहले मामले में लिख कर सम्पाद तक रचना पहुंचाओ तब तक इतने केस हो चुके रहते हैं कि इस मामले को सम्पादक भूल चुका होता है और उसे यह रचना बेहद बासी और रसहीन लगती है। उसको लगता है कि रचना लेखक के मुंह पर मार दे। लेकिन वह लेखक की इतनी तो इज्जत करता ही है कि रचना मुंह पर नहीं मारता सिर्फ रद्दी की टोकरी में डालता है। वैसे कुछ सम्पादक ऐसे भी हैं जिन्हें रद्दी की टोकरी में लेखक का मुंह ही नजर आता है और कुछ लेखक ऐसे हैं जिन्हें सम्पादक के मुंह में रद्दी की टोकरी दिखाई देती है वे कहते है टोकरी में रचना डाल आया हूं छप गई तो छप गई... व्यंंग्य रचना के साथ ऐसा ही होता है।
अगर सरकार व्यंग्य लेखन के सूर्य को अस्त होने से बचाना चाहती है तो उसको इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिये और कुछ आवश्यक कदम उठाने चाहिये। ऐसा है भाई साहब कि ताली दोनों हाथ से बजती है। अगर मंत्रीग आपका सहयोग कर रहे हैं तो व्यंग्यकारों को भी चाहिये कि वो भी अपनी तरफ से सहयोग बनाये रखें। अगर उनकी कोई रचना चर्चित होती है और चारो तरफ से बधाई आने लगती है तो व्यंग्यकार बंधुओं को भी चाहिये कि वो उस मंत्री का जिसके विभाग की मेहरबानी से व्यंग्य लिखना संभव हुआ है उसको धन्यवाद देना भूलें।
अगर सरकार मेरे सुझाव पर अमल करती है तो मेरे को पूरी उम्मीद है कि एक बार फिर से व्यंग्य लेखन धारदार हो जायेगा और पाठकों को फिर से अच्छी रचनाए पढऩे को मिलेगी।
संपर्क- सुधीर रोड लाईन्स मार्ग, आमानाका, रायपुर मो: 09826126781
व्यंग्यकार के बारे में ...
अखत अली व्यंग्य की एक प्रतिवेशी विधा नाटक से जुड़े हैं। उन्होंने मंटो और परसाई जैसे दिग्गज लेखकों की रचनाओं का नाट्य रुपांतरण भी किया है। साहित्य की इतर विधाओं में नाटक एक ऐसी विधा है जिसमें व्यंग्य की बड़ी दरकार होती है। व्यंग्य की मारक शक्ति नाटक को एक अतिरिक्त गरिमा देने के साथ उसे और भी प्रभावोत्पादक बनाती है। नाटक में व्यंग्य से लबरेज संवाद उसके दर्शक दीर्घा पर केवल गहरे प्रभाव छोड़ते हैं साथ ही व्यवस्था पर बड़े मारक प्रहार भी करते हैं। नाटक में अखतर अली की सक्रियता उसके व्यंग्य के संवादों को सहज ग्राह्य बनाते हैं। अखतर ने अपनी प्रस्तुत रचना 'व्यंग्य ऊपर व्यंग्य में' व्यंग्य की सामयिकता को लेकर सवाल खड़े किए हैं जिसमें यह भी प्रमाणित होता है कि अखबारी व्यंग्य रचनाओं की उम्र कितनी अल्पकालीन होती है। आज की राजनीति में हो रहे तेज उठापटक के बीच घटनाक्रम इतनी तेजी से बदल जाते हैं कि व्यंग्य रचना के प्रकाशित होने से पहले ही रचना की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी होती है। यह आज ढेरों की संख्या में लिखे जा रहे घटनोत्तर व्यंग्य और उसके समय की क्षुद्र राजनीति जिसमें हथकण्डे भी उसी तीव्रता से बदल रहे हैं इन दोनों पर व्यंग्यकार ने एक साथ प्रहार किया है। उनकी रचना में उर्दू की कथा रस की परम्परा है। अखतर की रचनाओं को पढ़ते समय सहसा ही इब्ने इंशा, मुस्तबा हुसैन और लतीफ घोंघी के कहने की अदा एक साथ याद आती हैं। सम्प्रति अखतर अली क्वालिटी फाउन्ड्री इंडस्ट्रीज, रायपुर में सेवारत हैं। - विनोद साव

No comments: