![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinXN1hmIZW8zoTkCRY5AHV4N1o9a8-_h93oNRe5UuNl0N0GHwhkcIwETLdGna2usKvGTGG5y8uykhCZjNrmhY8jNO_odU6WEM7n7zvrcCrm8tdXBxRZ7cJCTo0kwA6KjMwqxprMVbGUDg_/s200/IPL-blog.bmp)
- अविनाश वाचस्पति
शें।
आईपीएल भी कचरे में नोट बटोरने जैसा है क्योंकि तलाशने की जरूरत यहां नहीं है। यहां तो सब पूर्व नियोजित है। सट्टा भी, खेलना भी, बिकना भी और खरीदना भी। जो नियत नहीं है वो नीयत है कि न जाने कब बिगड़ जाये।
पशु मेले में पशुओं की बोलियां लगती हैं इसमें अंतर सिर्फ यही था कि सब्जियां और पशु जिस तरह से इस मौके पर अपनी बोलियों पर खुशी या दुख जाहिर नहीं कर पाते हैं, खिलाड़ी अपने खिलंदडे अंदाज में कर जाते हैं। ये लोग कह सकते हैं- दुख तो खैर क्यों होता, इन्हें तो नोट मिल रहे थे जिससे इनके दिल रबर की गेंद के माफिक बल्लियों उछाल रहे थे क्योंकि उछलने उछालने में रबर की गेंद में ही बेहतरी पाई जाती है। फिर चाहे उसे बल्लियों उछालो या डबल-ट्रिपल बल्लियों की ऊंचाई तक उछालो, अगर आपमें उनकी वापसी में संभालने का गुर आता है तो आप सफल हैं, आपने मनी मंत्र सिद्घ कर लिया है। वापसी में वे गेंदे नोट बनकर बिखरती नहीं हैं, विदेशी खातों में समा जाती हैं। उछलने के बाद विदेशी खातों में समाना फिक्सिंग का ही एक अन्य रोचक पहलू है।
मन से पशु हैं पर तन से नहीं इसलिए नोट पाने पर, बोली लगने पर दुम हिलाकर अपनी
कृतज्ञता ज्ञापित नहीं कर पाते हैं। सिर्फ अंखियां नचा- मटकाकर ही दुदुंभियां बजाते हैं। वैसे दुदुंभियों और दुरभि- संधियों में इन्हें महारत हासिल होती है। इसी फिक्सिंग की बदौलत सट्टे का बेरूका रट्टा चलायमान है और चियर्स बालाओं ने अपने हुस्न के जलवे लुटा- लुटा कर इनमें रोमांच की रवानगी तक बिठाया और लिटाया है। इनके खरीददार इनके गले, गले नहीं बदन पर चिपका देते हैं अपना विज्ञापन, कमीज की शक्ल में, टोपी पर, पैंट पर, बैट पर और जहां- जहां उनका बस चलता है, वे विज्ञापन फहरा देते हैं। वही विज्ञापन इनकी अक्ल पर पड़े पत्थरों की कहानी गाते हैं। सामान्य तौर पर गीत गाए जाते हैं जबकि विशेष तौर पर कहानी गाई जा सकती है। आजकल वही कहानी गाई जा रही है। सुर भी अनेक हैं किसी के लिए नेक और बाकियों के लिए देख भाई देख।
क्या हुआ गर कहानी में ऐसे मोड़ आते हैं कि बिना मोड़े ही सब मुड़ जाते हैं जबकि इनमें कुछ तो एकदम से तुड़ जाते हैं। कोई निलंबित हुआ, कोई सस्पेंड हुआ, क्या फर्क पड़ता है इनकी साख ही नहीं होती है जिन पर आंच आए। इनकी साख नोट होते हैं वे ही इनको गरमी पहुंचाते रहते हैं। जिनको नहीं मिलते वे इन नोटों को राख मानते हैं। पर उनके राख मानने से नोटों का गुण राख नहीं होता, उसका गुण सदा कंचन है और कंचन की तरह ही निखरता रहता है।
यह सत्य है कि धन से ही पशुता का उन्नयन होता है। जिससे सब मान- मर्यादाएं भुलाना या बहाने करना सहज हो जाता है। धन का नहीं पशुता का साम्राज्य बढ़ रहा है और बढ़ रहे हैं पशु। आप सिर्फ बोलियां लगाने भर की घोषणा कर दीजिए एक से एक नायाब बोलियां लगवाने के लिए हाजिर मिलेंगे। लगाने वाले तो पशुत्व को पहले ही सिद्घ कर चुके हैं।
इंडियन पालतू लीग में पालतू बनाने की प्रक्रिया सदा चलती रहती है जिसमें पैसे की अहम भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है, सरेआम लगती सार्वजनिक बोलियां इसमें डेमोक्रेसी की अद्भुत मिसाल हैं। पालतू बनना पालना से बिलकुल भिन्न है जबकि पालतू बनाना पालना का ही समदर्शी बोध है। जिसे पालेंगे पालतू वही हो सकता है उसे ही पाला जाता है। पर कई बार पालने पर भी खूंखारत्व सक्रिय हो उठता है जैसे नौकरों द्वारा स्वामी के साथ दगा करना क्योंकि अपवाद तो प्रत्येक के अनेक मिलते हैं। असल में पालतू बनाने की बोली प्रक्रिया से गुजर कर खिलाड़ी जो सोचता है कि जब इतना पशु बनना ही पड़ा है तो थोड़ा सा भी चूका क्यों जाए और वो फिक्सिंग से जुड़ जाता है।
इसी प्रकार प्रकारांतर में इंडियन पशु लीग अंत में इंडियन पैसा लीग में समृद्घि को प्राप्त होती है। पालतू जिसमें बेईमानी है। इसे पछतावा लीग भी कहा जा सकेगा पर किसी को पछतावा हो तो अपने पाप पर, अंत में पछताना पब्लिक को ही पड़ता है। इंडियन पिटाई लीग में खिलाडि़यों की चाहे कितनी ही पिटाई हो जाए फिर भी इंडियन पापी लीग इंडियन पवित्र लीग बनने की ओर अग्रसर है।
देखने में गरूर वाला खेल लगता है पर वे जरूर जानते हैं कि इसमें कितना ललित शेष है। सरूर इसमें सिर्फ पैसे का है-इसी खेल के कारण पैसे को पाप समझा जाने लगा है। पैसे और खेल भावना की जितनी दुर्गति इस खेल के जरिए पैदा हुई है उसकी कहीं कोई दूसरी मिसाल हाल-फिलहाल नहीं है।
यहां प्यार सिर्फ पैसे से है। पैसे के सामने पैसे बढ़कर कुछ नहीं है। शक्ल जरूर भोली दिख रही हैं पर मन में फिक्सिंग के गोले फूट रहे, आवाजें कैद हैं। सबको लाभ मिलना है। सब सच है। पब्लिक के विश्वास को इस खेल ने इतना बेरहमी से छला है कि नेताओं की छलावट भी छोटी पड़ गई है। यह छलछलाहट प्यार की नहीं, पैसे की है। स्वार्थ की है, लोभ और लालच की है। इंडियन लीग अब पैसे की है, पाप की है, पंगे की है, पतन की है। लीग तो पागल है रे मतलब आई पी एल वही मतबल इंडियन पागल लीग।
संपर्क : साहित्यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065 मोबाइल 09868166686/ 09711537664
Email: avinashvachaspati@gmail.com
खिलाडिय़ों को तो नोट मिल रहे थे जिससे इनके दिल रबर की गेंद के माफिक बल्लियों उछाल रहे थे क्योंकि उछलने उछालने में रबर की गेंद में ही बेहतरी पाई जाती है। फिर चाहे उसे बल्लियों उछालो या डबल-ट्रिपल बल्लियों की ऊंचाई तक उछालो, अगर आपमें उनकी वापसी में संभालने का गुर आता है तो आप सफल हैं, आपने मनी मंत्र सिद्घ कर लिया है।
डूबती क्रिकेट विधा को बचाने का श्रेय पहले वन डे मैचों को गया और स्टेडियम फुल रहने लगे थे। उसके बाद आईपीएल इस विधा का सच्चा तारणहार बना। तीन बरस पहले क्रिकेट खिलाडि़यों की यूं बोली लगाई जा रही थी मानो खिलाड़ी न हुए प्रोफेशनल पशु हो गए। पशु भी आम नहीं खास। खास मतलब जो सब्जी मंडियों में विचरण करते हैं। खाते पीते तो सब्जियां ही हैं और सड़ी गली, दुर्गन्धयुक्त सब्जियों का भाग्य संवारते विचरते हैं वैसे उसमें से भी बेहतर की तलाश में जुटे रहते हैं जैसे इंसान सबसे बेहतर पा लेना चाहता है और उसके लिए सब कुछ कर गुजरता है। सब्जी मंडी की गंदगी पटी रहती है सब्जियों की लाश से क्योंकि सब्जियां लाश होने पर ही दुर्गंध छोड़ती हैं। दुर्गंध छोडऩा किसी भी लाश का स्वाभाविक गुण है। पर इस दुर्गंध में ही इन पशुओं को महक मिलती है और इनकी तृप्ति होती है। शहर के पशु तो दूर की बात है, गांव में भी पशुओं को अच्छी सब्जियों की ओर निगाह भी नहीं डालने दी जाती है। वे या तो अपने चारे में खुश रहें और स्वाद बदलना चाहें तो कचरे में तला![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_3RMAPFmoqXpx7itin-mj_Ocef_fUJrP2W_97h_sAJieDi0p7EEzDVx0pypn80nP4W0ENh4C_jJ8JtAHoTn7kKz2Vw79Rfr2WpxMgdfABI3mTAkdi01HLIg321YkZQfVHBnyYF4YhekSy/s200/IPL+Cartoon-3.bmp)
आईपीएल भी कचरे में नोट बटोरने जैसा है क्योंकि तलाशने की जरूरत यहां नहीं है। यहां तो सब पूर्व नियोजित है। सट्टा भी, खेलना भी, बिकना भी और खरीदना भी। जो नियत नहीं है वो नीयत है कि न जाने कब बिगड़ जाये।
पशु मेले में पशुओं की बोलियां लगती हैं इसमें अंतर सिर्फ यही था कि सब्जियां और पशु जिस तरह से इस मौके पर अपनी बोलियों पर खुशी या दुख जाहिर नहीं कर पाते हैं, खिलाड़ी अपने खिलंदडे अंदाज में कर जाते हैं। ये लोग कह सकते हैं- दुख तो खैर क्यों होता, इन्हें तो नोट मिल रहे थे जिससे इनके दिल रबर की गेंद के माफिक बल्लियों उछाल रहे थे क्योंकि उछलने उछालने में रबर की गेंद में ही बेहतरी पाई जाती है। फिर चाहे उसे बल्लियों उछालो या डबल-ट्रिपल बल्लियों की ऊंचाई तक उछालो, अगर आपमें उनकी वापसी में संभालने का गुर आता है तो आप सफल हैं, आपने मनी मंत्र सिद्घ कर लिया है। वापसी में वे गेंदे नोट बनकर बिखरती नहीं हैं, विदेशी खातों में समा जाती हैं। उछलने के बाद विदेशी खातों में समाना फिक्सिंग का ही एक अन्य रोचक पहलू है।
मन से पशु हैं पर तन से नहीं इसलिए नोट पाने पर, बोली लगने पर दुम हिलाकर अपनी
कृतज्ञता ज्ञापित नहीं कर पाते हैं। सिर्फ अंखियां नचा- मटकाकर ही दुदुंभियां बजाते हैं। वैसे दुदुंभियों और दुरभि- संधियों में इन्हें महारत हासिल होती है। इसी फिक्सिंग की बदौलत सट्टे का बेरूका रट्टा चलायमान है और चियर्स बालाओं ने अपने हुस्न के जलवे लुटा- लुटा कर इनमें रोमांच की रवानगी तक बिठाया और लिटाया है। इनके खरीददार इनके गले, गले नहीं बदन पर चिपका देते हैं अपना विज्ञापन, कमीज की शक्ल में, टोपी पर, पैंट पर, बैट पर और जहां- जहां उनका बस चलता है, वे विज्ञापन फहरा देते हैं। वही विज्ञापन इनकी अक्ल पर पड़े पत्थरों की कहानी गाते हैं। सामान्य तौर पर गीत गाए जाते हैं जबकि विशेष तौर पर कहानी गाई जा सकती है। आजकल वही कहानी गाई जा रही है। सुर भी अनेक हैं किसी के लिए नेक और बाकियों के लिए देख भाई देख।
क्या हुआ गर कहानी में ऐसे मोड़ आते हैं कि बिना मोड़े ही सब मुड़ जाते हैं जबकि इनमें कुछ तो एकदम से तुड़ जाते हैं। कोई निलंबित हुआ, कोई सस्पेंड हुआ, क्या फर्क पड़ता है इनकी साख ही नहीं होती है जिन पर आंच आए। इनकी साख नोट होते हैं वे ही इनको गरमी पहुंचाते रहते हैं। जिनको नहीं मिलते वे इन नोटों को राख मानते हैं। पर उनके राख मानने से नोटों का गुण राख नहीं होता, उसका गुण सदा कंचन है और कंचन की तरह ही निखरता रहता है।
यह सत्य है कि धन से ही पशुता का उन्नयन होता है। जिससे सब मान- मर्यादाएं भुलाना या बहाने करना सहज हो जाता है। धन का नहीं पशुता का साम्राज्य बढ़ रहा है और बढ़ रहे हैं पशु। आप सिर्फ बोलियां लगाने भर की घोषणा कर दीजिए एक से एक नायाब बोलियां लगवाने के लिए हाजिर मिलेंगे। लगाने वाले तो पशुत्व को पहले ही सिद्घ कर चुके हैं।
इंडियन पालतू लीग में पालतू बनाने की प्रक्रिया सदा चलती रहती है जिसमें पैसे की अहम भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है, सरेआम लगती सार्वजनिक बोलियां इसमें डेमोक्रेसी की अद्भुत मिसाल हैं। पालतू बनना पालना से बिलकुल भिन्न है जबकि पालतू बनाना पालना का ही समदर्शी बोध है। जिसे पालेंगे पालतू वही हो सकता है उसे ही पाला जाता है। पर कई बार पालने पर भी खूंखारत्व सक्रिय हो उठता है जैसे नौकरों द्वारा स्वामी के साथ दगा करना क्योंकि अपवाद तो प्रत्येक के अनेक मिलते हैं। असल में पालतू बनाने की बोली प्रक्रिया से गुजर कर खिलाड़ी जो सोचता है कि जब इतना पशु बनना ही पड़ा है तो थोड़ा सा भी चूका क्यों जाए और वो फिक्सिंग से जुड़ जाता है।
इसी प्रकार प्रकारांतर में इंडियन पशु लीग अंत में इंडियन पैसा लीग में समृद्घि को प्राप्त होती है। पालतू जिसमें बेईमानी है। इसे पछतावा लीग भी कहा जा सकेगा पर किसी को पछतावा हो तो अपने पाप पर, अंत में पछताना पब्लिक को ही पड़ता है। इंडियन पिटाई लीग में खिलाडि़यों की चाहे कितनी ही पिटाई हो जाए फिर भी इंडियन पापी लीग इंडियन पवित्र लीग बनने की ओर अग्रसर है।
देखने में गरूर वाला खेल लगता है पर वे जरूर जानते हैं कि इसमें कितना ललित शेष है। सरूर इसमें सिर्फ पैसे का है-इसी खेल के कारण पैसे को पाप समझा जाने लगा है। पैसे और खेल भावना की जितनी दुर्गति इस खेल के जरिए पैदा हुई है उसकी कहीं कोई दूसरी मिसाल हाल-फिलहाल नहीं है।
यहां प्यार सिर्फ पैसे से है। पैसे के सामने पैसे बढ़कर कुछ नहीं है। शक्ल जरूर भोली दिख रही हैं पर मन में फिक्सिंग के गोले फूट रहे, आवाजें कैद हैं। सबको लाभ मिलना है। सब सच है। पब्लिक के विश्वास को इस खेल ने इतना बेरहमी से छला है कि नेताओं की छलावट भी छोटी पड़ गई है। यह छलछलाहट प्यार की नहीं, पैसे की है। स्वार्थ की है, लोभ और लालच की है। इंडियन लीग अब पैसे की है, पाप की है, पंगे की है, पतन की है। लीग तो पागल है रे मतलब आई पी एल वही मतबल इंडियन पागल लीग।
संपर्क : साहित्यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्त नगर, नई दिल्ली 110065 मोबाइल 09868166686/ 09711537664
Email: avinashvachaspati@gmail.com
No comments:
Post a Comment