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डॉ. आरती स्मित
भारतीय
प्रायद्वीप के मूलनिवासी, जिन्हें आदिवासी/जनजाति के
रूप में समाज रेखांकित करता है और संविधान अनुसूचित जनजाति/आदिम जनजाति के रूप
में। इनके प्रकृति-प्रेम, प्रकृति- साहचर्य और प्रकृति को जीवन मानने की बात जितनी
प्राचीनकाल में सच थी, उतनी ही आज भी सच है। आज भी जो जनजातियाँ जल, जंगल और ज़मीन को अपना संबंधी मानती हैं और अपनी आदि
संस्कृति को बचाए हुए हैं, सभ्य समाज उन्हें असभ्य, आदि मानव, जंगली, बर्बर आदि विशेषणों से अलंकृत करता है। गोंड जाति का इतिहास
यह सिद्ध करता है कि वे अविभाजित धरा के मूलनिवासियों की संतति हैं।
वैदिक व महाकाव्य साहित्य के साथ ही प्राचीन व
मध्यकालीन साहित्य में भील, किरात, किन्नर, मत्स्य, निषाद, वानर आदि जनजातियों का वर्णन
मिलता है। जनजाति एक सजातीय स्वावलंबी इकाई थी। सुरक्षा की दृष्टि से सबल और युद्ध
- निपुण व्यक्ति मुखिया बनता था। इसी प्रक्रिया ने गणराज्यों एवं राज्यों की
व्यवस्था को जन्म दिया।
वर्ष 2011 की रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित आदिवासी जनजातियों की संख्या 583, अपरिगणित आदिवासी जनजातियों की संख्या 254, घुमंतू आदिवासी जनजातियों की संख्या 198 तथा अर्ध घुमंतू
जनजातियों की संख्या 13 है। अर्ध घुमंतू जनजातियाँ केवल राजस्थान में पाई गईं। देश
के आठ राज्यों के कुछ प्रमुख जिलों के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र रेखांकित किए गए
हैं। राज्यों व जिलों के नाम निम्नोल्लिखित हैं -
राज्य जिला
आंध्र प्रदेश- महबूबनगर, आदिलाबाद, वारंगल, विशाखापटनम, पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी
आंध्र प्रदेश- महबूबनगर, आदिलाबाद, वारंगल, विशाखापटनम, पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी
बिहार- सिंहभूम, पलामू
झारखंड- राँची, संथाल परगना
गुजरात- सूरत, भड़ोच, डांग, वलसाड, पंचमहल, वडोदरा, साबरकाँठा
गुजरात- सूरत, भड़ोच, डांग, वलसाड, पंचमहल, वडोदरा, साबरकाँठा
हिमाचल
प्रदेश- किन्नौर, लाहौल और स्पीति, चंबा
मध्य
प्रदेश- झाबुआ, मंडला, सरगुजा, बस्तर, धार, खरगौन (पश्चिमी निमाड़), खंडवा (पूर्वी निमाड़), रतलाम, बैतूल, सिवनी, बालाघाट, होशंगाबाद, शहडोल, सीधी, मुरैना, छिंदवाड़ा
छत्तीसगढ़- रायगढ़, बिलासपुर, दुर्ग, राजनांदगाँव, रायपुर,
महाराष्ट्र- ठाणे, नासिक, धुलिया, अमरावती, चंद्रपुर, जलगाँव नांदेड़
उड़ीसा- मयूरभंज, सुंदरगढ़, कोरापुत, संबलपुर, केऊंझर, बौध-माल, गंजामजिला, कालाहांडी, बालासोर
राजस्थान- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर
छठे
अनुच्छेद में जिन राज्यों के जिन जि़लों को जनजातीय अनुसूचित क्षेत्रों के रूप में
घोषित किया गया है, वे हैं -
असम- उत्तरी कछार पहाड़ी जिला, कर्वी आंगलोंग जिला
मेघालय- खासी, जयंतिया, गारो पहाड़ी जिला
मिजोरम- चकमा, लाई, मारा जिला
त्रिपुरा- त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र
(उत्तरी, दक्षिणी, पश्चिमी त्रिपुरा जिला)
स्वायत्त जिला
भारत में ये आदिवासी जनजातियाँ तमाम कठिनाइयों
के बावज़ूद जीवित हैं। इनमें से सात प्रमुख जनजातियाँ हैं जिनकी आबादी दस लाख या
उससे अधिक है। ये हैं- भील, गोंड, संथाल, उरांव , मीणा, मुंडा और खोंड। 45 अन्य ऐसी
जनजातियाँ हैं जिनकी आबादी एक से पाँच लाख के बीच है तथा 1991 की जनगणना के अनुसार
47 ऐसे आदिम जनजातीय समूह हैं, जिनकी आबादी लगभग तेईस लाख
है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि वन और प्रकृति को जीवन-सहचर मानने वाली ये
जनजातियाँ अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। कई जनजातियाँ
विलुप्तप्राय हैं। कारण, कृषि- कार्य की पुरानी तकनीक और अशिक्षा।
इतिहास कई स्थलों पर जनजातियों के प्रति
चुप्पी साधे है। इतना स्पष्ट है कि आदिवासी सीधे- सादे, ईमानदार, कर्मठ और प्रकृति- प्रेमी
रहे हैं। आक्रमणकारियों, आततायी शासकों, समाज के शोषक वर्गों द्वारा निरंतर शोषित होने के बावज़ूद इन्होंने
राष्ट्र का विखंडन कभी नहीं चाहा। आज भी इनकी अर्थव्यवस्था कृषि (झूम खेती/
परिवर्तनीय खेती व साधारण खेती), पशुपालन, लघु वनोपज, मछली पकडऩे एवं हथकरघा
उद्योग पर आधारित है। 1981 के बाद आदिवासी कृषकों के प्रतिशत में तेजी से ह्रास
हुआ है। उन्हें खेतिहर से मजदूर बनना पड़ा। महिलाएँ लघु वनोपज चुनने, कपड़े बुनने और मज़दूरी का कार्य करती हैं। वर्तमान में
आबादी विस्फोट और पूँजीवादी नीतियों के कारण झूम खेती की पद्धति का लोप हो रहा है।
बहु फसली प्रथा भी लोप पर है। नकदी फसल और बागवानी को प्राथमिकता दी जा रही है।
महिलाओं का हथकरघा कौशल अब बाजार के दबाव में दम तोडऩे लगा है। पूँजीपति व्यापारी
प्रवासी स्त्रियों से कपड़ा बुनवा रहे हैं। कर्नाटक के राजगोंड आर्थिक रूप से
विपन्न हैं, औषधीय पौधे उनके जीवनाधार हैं। वे विंध्य, सतपुड़ा आदि क्षेत्रों से अब जड़ी- बूटी / पौधे खरीदने को
विवश हैं ,जिनकी दवाएँ बनाकर वे सड़क किनारे बेचते हैं, यही कारण है कि उनकी दवाओं का न तो सही मूल्य मिलता है, न उनके ज्ञान को महत्ता। इनके ज्ञान का लाभ उठाकर वन विभाग
से मिले ठेकेदार इनसे संग्रह का काम करवाते हैं और आर्थिक लाभ उठाते है। इसी
प्रकार, हैदराबाद, कर्नाटक के आदिवासी आज भी
विभिन्न टुकड़ों में बँटे
होने के कारण सरकारी सहायता और सुविधाओं से वंचित और उपेक्षित हैं। मुंडाओं में
साक्षरता की प्रतिशतता अधिक है और उराँवों
में इसका विकास हो रहा है। मीणा व पहाडिय़ा जनजाति का शौर्यपूर्ण इतिहास आज धूल-धूसरित है। संथालों
में साक्षरता की कमी रही, किन्तु अब उनमें जागरूकता बढ़ी है फिर भी स्थितियाँ संतोषजनक नहीं
कही जा सकतीं। इन जनजातियों के पिछड़ेपन का मूल कारण इनकी सहजता और अशिक्षा है।
बाहरी लोगों द्वारा इनकी उपजाऊ जमीनों को
धीरे -धीरे हड़पने की नीति, राज्य- सम्पदा के नाम पर वन
विभाग एवं ठेकेदारों की मिलीभगत से लघु वनोपज को इनके अधिकारों से छीनना और इन्हें
इनकी ही सम्पदा के भोग से वंचित रखना, औद्योगिक, बाँध, बिजली एवं अन्यान्य
परियोजनाओं को लागू करने के नाम पर हजारों को विस्थापन का दंश देना, पुनर्वास में अनियमितता, अव्यवस्था, साहूकारों का शोषण, खनिज तत्वों का व्यापारिक
लाभ पाने हेतु स्वार्थी तत्त्वों
की घुसपैठ नीति आदि कई कारक तत्त्वों
ने इनके जीवन में अँधेरा
भरने का काम किया। भू-हस्तांतरण की प्रक्रिया से प्रभावित आदिवासियों की संख्या
बड़ी है। भू- हस्तांतरण कानून होने के बावज़ूद आदिवासी भूमि का गैर- आदिवासियों को
हस्तांतरण जारी है। ठेकेदारों द्वारा महिलाओं का यौन-शोषण आम बात है। देश- विकास के नाम पर आदिवासी समाज ने अपनी
सामूहिक पहचान और ऐतिहासिक- सांस्कृतिक विरासत ही खोई है। गरीबी, कुपोषण, मृत्यु-दर में वृद्धि, अशिक्षा, बेरोजग़ारी ही उनके हिस्से
में आई। वैश्वीकरण एवं निजीकरण ने उन्हें उनकी ज़मीनों से बेदखल किया। आदिवासी
कल्याण एवं विकास हेतु निर्मित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य डॉ.डी.स्वामीनाथन
द्वारा तैयार प्रारूप पत्र के आरम्भ
में यह स्वीकारोक्ति है- निश्चित रूप से
विगत अर्से में आदिवासियों की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन गैर आदिवासियों की
तुलना में इनकी हालत हर क्षेत्र में खराब ही हुई है। प्रख्यात विद्वान एवं चिन्तक लेवी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में इस संभावना से आशंकित और दु:खी थे कि - भूमंडलीकरण और सांस्कृतिक एकरूपीकरण का अजगर
जल्द ही जनजातियों के छोटे- छोटे समुदायों को निगल जाएगा (ईश्वर दोस्त; जनसत्ता 2009)।
आदिवासी समाज देश के तथाकथित रक्षक खाकी वर्दीधारी से अधिक त्रस्त है, चाहे वह झारखंड, बुंदेलखंड, मणिपुर का जनजातीय समाज हो या किसी अन्य राज्य का। इनके लिए खाकी वर्दीधारी का अर्थ है - अराजक और शोषक तत्त्व। जिन्होंने आवाज बुलंद की वह सरकारी हथकंडे में उलझकर तबाह हो गया। कई बार तो निरीह ग्रामीण इन सुरक्षाकर्मियों की नृशंस क्रूरता के शिकार होते हैं। कोई सुनवाई नहीं होती, झारखंड की सोनी सूरी पर हुए खाकी वर्दीधारियों के ज़ुल्म और मणिपुर की 15 वर्ष पहले हुए अत्याचार के विरुद्ध आज तक न्याय माँगती इरोम चानु शर्मिला के संघर्ष को हमारा देश अभी भूला तो न होगा। राम दयाल मुंडा लिखते हैं - अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जब भी आदिवासी खड़ा हुआ तो देश ने उसे विकास विरोधी करार दिया। किसी देश के उस समुदाय को, जो अपने को देश का प्रथम नागरिक और देश-रक्षा में खड़ा होनेवाला प्रथम सैनिक मानता है, जब देश- विरोधी करार दिया जाता है तो उस समुदाय के लिए इससे बड़ी अपमानजनक और कष्टदायक बात क्या हो सकती है! डॉ. केदार प्रसाद मीणा मानते हैं, - आज़ादी के बाद सरकारों ने आदिवासियों को ख़ास सहूलियतें नहीं दी हैं- सिवाय आरक्षण की संवैधानिक सुविधा के, और इस सुविधा का लाभ भी कितने आदिवासी समुदायों को मिला है, यह भी सोचे जाने वाली बात है। अधिकांश आदिवासी समुदाय अपनी मेहनत से ही अबतक अपना अस्तित्व बचाए रख सका है। भारत के ताकतवर समुदायों ने, जिनमें कुछ आदिवासी समुदाय भी कुछ हद तक शामिल हुए हैं, ने आदिवासी संसाधनों को हमेशा लूटा और इनके समर्थन से बनी सरकारों ने ऐसे लुटेरे समुदायों का ही हमेशा साथ दिया है।
आए दिन की खबरों से उजागर है कि किस तरह कुछ
आदिवासी नेताओं ने कॉर्पोरेट के साथ मिलकर अपनी ही जनजाति को बदहाली में धकेला। ‘झारखंड’ प्राकृतिक संपदा और उद्योगों
से समृद्ध होते हुए भी, वहाँ के मूलनिवासियों की स्थिति नारकीय बनी हुई
है। लड़कियाँ दलाल के हाथ पड़कर बेची जा रही हैं; भाषाएँ, कलाएँ, प्रकृति से सम्बद्ध ज्ञान लोप की कगार पर है और ये दुर्दशा महज
झारखंड ही नहीं अन्य कई राज्यों की भी है, अनुसूचित जनजाति के आम लोग आज भी पीड़ा के दलदल में धँसे
हैं। आदिवासी कवि जवाहर लाल बाकरा की पंक्तियाँ क्या कुछ नहीं कहतीं -
हालात ने किया है कितना क्रूर मजाक
अपनी ही जमीन पर तू रह गया कितना अकेला,
कहाँ गए बंदोबस्ती के कानून
और वो धाराएँ संविधान की!
कविता
की ये पंक्तियाँ इस ओर भी इंगित करती है कि सोई चेतना अब जगने लगी है, मुट्ठी भर ही सही, लोग अब अपनी पीड़ा को शब्द
देने लगे हैं। जहाँ जागरण हो ,वहाँ विकास सुनिश्चित है।
पहले से जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्षरत ये जनजातियाँ अब
संविधान में वर्णित, सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के कार्यान्वयन
की माँग को लेकर उठ खड़ी होती दिख रही हैं - यह अलख वहीं जगा, जहाँ शिक्षा की ज्योत जली। शिक्षित आदिवासियों ने अपने
आसपास की बदहाली देखी, महसूसा, उसे अभिव्यंजित कर दिया- कभी
साहित्य को माध्यम बनाकर तो कभी जन आन्दोलन
छेड़कर। वर्तमान आदिवासी साहित्य में, युगों से आजीवन झेली गई
उपेक्षाओं के दंश की मार्मिक व्यंजना हुई है, वह चाहे निर्मला पुतुल की
रचना हो या ग्रेस कुजूर की। सभ्य समाज के बर्ताव के प्रति आक्रोश और तथाकथित विकास
के प्रति असहमति के स्वर ही फूटे हैं।
विकास की अनिवार्य सीढ़ी है - विविध विषयों
का शैक्षिक व व्यावहारिक ज्ञान। और आरम्भिक
शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए, फिर क्षेत्रीय या प्रान्तीय भाषा में। विद्यालय आदिवासी क्षेत्रों में हो, शिक्षक उनके बीच का शिक्षित व्यक्ति या उनकी भाषा- संस्कृति
को अच्छी तरह जानने वाला हो। बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की यथासंभव व्यवस्था हो; इन क्षेत्रों में शिशु-सदन, शिशु केंद्र, बालवाड़ी की उत्तम व्यवस्था जरूरी है ताकि गरीब मजदूर माँ-
बाप के बच्चे अपने छोटे भाई- बहनों की देखरेख के लिए घर पर रुके रहने को विवश न
हों। कई भाषाओं की अपनी लिपि नहीं, ऐसे में मौखिक एवं लिखित-
भाषा के दोनों रूपों की सुरक्षा पर ध्यान देना अनिवार्य है। भाषा उनकी परंपरा, उनकी लोक- संस्कृति की वाहक है। भाषा नष्ट होती गई तो धीरे-
धीरे वे अपनी पहचान खो देंगे, जैसा कि चाय बागानों में काम
करने वाली उरांव जनजाति के साथ हो रहा है। यों भी विस्थापन की प्रक्रिया ने उन्हें
अपनी परंपरा और संस्कृति से भी विस्थापित करने का कार्य किया है।
यह बेहतर संकेत है कि अब सैंकड़ों आदिवासी
लेखक/कवि अपनी मातृभाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं और अपनी पीड़ा -अपने आक्रोश
को वाणी दे रहे हैं। खासी जनजाति की भाषा के पास अपनी लिपि हाल के वर्षों में ही
आई; मलतो, असुर, बिरहोर आदि की मातृभाषाएँ विलुप्ति की कगार पर है। स्थानीय
भाषा में शिक्षा के प्रचार- प्रसार से ही उन भाषाओं की रक्षा संभव है। भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 350 पर तब प्रश्नचिह्न
लगता है जब उसके लागू होने के इतने वर्षों बाद भी स्थितियाँ मुँह चिढ़ा रही होती
हैं, यदि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सुव्यवस्था होती ; तो उनका लोप क्योंकर होता? शहरीकरण और औद्योगीकरण की
आँधी में उखड़ी जनजातियाँ अपनी संस्कृति से कटती जा रही हैं, लड़कियाँ अधिक संख्या में अशिक्षित हैं। आर्थिक,पारिवारिक और सामाजिक दबाव में इनका सर्वांगीण विकास नहीं
हो पा रहा। विगत कई वर्षों से आदिवासी भाषा और उनकी लोक कला, पुरातन संस्कृति, व कला- कौशल को बचाने हेतु
राज्य एवं केंद्र सरकार के अतिरिक्त प्रथम बुक्स, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी, रमणिका फाउंडेशन आदि कई
संस्थाएँ इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही हैं।
कुछ क्षेत्रों में आदिवासी स्त्रियाँ सशक्त
रूप में नजर आने लगी हैं, जैसे नोंगपोह, मिजोरम में स्त्रियाँ बड़ी दुकानें और कारोबार संभालती दिख
सकती हैं। कुछ स्थलों पर पंचायतों में भी उन्हें स्थान दिया जाने लगा किंतु आमतौर
पर ये स्त्रियाँ अपने पति या रिश्तेदार के निर्णय पर ही मुहर लगाती हैं, अपवाद में केवल एक नाम उभरता है - समाज कल्याण मंत्री अगाथा
संगमा का। एक उम्मीद जगी है लेकिन अब भी उनमें जागरूकता लाना शेष है। पारंपरिक
ज्ञान- कौशल एवं आधुनिक समाज से सामंजस्य की स्थिति ही जनजातीय सशक्तीकरण को सही
रूप में परिभाषित करेगी।
आवश्यकता भाषण या आश्वासन का नहीं, नींव से सुधार का है और इसके लिए जनजातियों को उनके मूल से
जोडऩा, अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करना, शिक्षा का प्रचार - प्रसार
और उनके जीवन को प्रकृति के साथ जुड़ा रखते हुए आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक से जोडऩा
है; भाषा, परंपरा और लोक -संस्कृति की
रक्षा करती है - उनकी कार्यकुशलता को महत्त्व देते हुए उन्हें देश के विकास से
जोडऩा है, तभी देश वास्तव में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक
राष्ट्र कहलाने का हकदार होगा।
संदर्भ -
1
भारतीय जनजातियाँ -रूपचंद्र वर्मा, प्रकाशन विभाग
2
भारतीय आदिवासी जीवन- निर्मल कुमार बोस, अनुवादक- श्याम परमार; राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
3
आदिवासी लोक -संपा. रमणिका गुप्ता
4
भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास - मोहनदास नैमिशराय
5
दलित अल्पसंख्यक सशक्तिकरण- संपा. संतोष भारतीय
6
कृति कल्प - आदिवासी विशेषांक, वॉल्यूम 3, जनवरी- जून 2015
सम्पर्क: डी -136, तीसरा तल, गली न. 5, गणेशनगर पांडवनगर
कॉम्प्लेक्स, दिल्ली - 110092, email- dr.artismit@gmail.com
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