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Nov 25, 2016

दो लघुकथाएँ

 1.सेतु  
 - अनिता मंडा  
कितनी बार समझाया है इनको, थोड़ा धीरज से काम लिया करो। अब बेटे की शादी हो गई है, घर में बहू है, उनका बच्चा है। वो तो अच्छा है आज विभा गोलू को नानी से मिलवाने लेकर गई हुई थी, नहीं तो क्या सोचती बाप-बेटे की लड़ाई देखकर - बाल सारे सफ़ेद हो गए हैं, लेकिन अकड़ वैसी की वैसी है। क्या फ़र्क पड़ जाता दो बात नीतिन की मान लेते।
सुशीला के मन में विचारों की रेलमपेल चल रही थी। उसे दो पल चैन नहीं पड़ रहा था, बैचेन होकर रसोई में लगी रही।
पता नहीं कब आएँगे दोनों, कुछ खाकर भी नहीं गए। नीतिन भी  पूरी अपनी चलाना चाहता है अभी से, यही नहीं कि कभी पापा की भी सुन ले। विचारों के मंथन के साथ रसोईघर से पकवानों की महक उठने लगी।
अकेला इंसान ज्यादा सोचता है, क्योंकि विचारों की शृंखला में कोई बाधा देने वाला नहीं होता। बड़ी मुश्किल से शाम हुई।
 दरवाज़े की घंटी बजी। नीतिन आया पर उसका मुँह अभी भी फूला हुआ देखकर कुछ नहीं कहा, चुपचाप उसकी टेबल पर दही-भल्ले रखकर मुडऩे लगी तो पीछे से नीतिन का स्वर आया-  सॉरी मॉम मुझे पापा से ऐसे बात नहीं करनी थी।
  पीछे मुड़कर नीतिन से बात करने की भूमिका सोच ही रही थी, इतने में दुबारा दरवाजे की घंटी बजी।
माथे में बल डाले हुए राजेश को देखकर उनसे बात करने की इच्छा नहीं हुई। दाल का हलवा चुपचाप उनकी टेबल पर रखकर मुड़ी तो हाथ थामकर बोले - सुनो मुझे लगता है नीतिन को उसके फैसले खुद लेने का मौका देना चाहिए न मुझे अब!! राजेश की बात सुनकर सुशीला आँखों के आँसू छिपाने के लिए साड़ी के पल्लू से पोंछने लगी।
टोकते हुए राजेश बोले - अरे रे! ये क्या, तुम तो हमारा सेतु हो, सेतु की बुनियाद में इतनी नमी ठीक नहीं भई।

2.ऐसा भी होता है
      पिछले महीने मेरे पति का बंगलौर से दिल्ली ट्रांसफर हो गया। यहाँ आये काफी समय तक तो आस-पड़ोस से जान-पहचान ही नहीं हुई। घर का सामान जुटाने में पूरा दिन निकल जाता। साथ वाले घर की नैय्यर आंटी शाम को पार्क जाते समय आवाज दे देती -चल रही है क्या?-
दो-तीन बार उनके साथ पार्क गई थी।
अब सर्दी थोड़ी बढ़ गई तो मन किया घर से निकल बाहर धूप सेकने चलूँ। पार्क में नैय्यर आंटी भी मिल गई। वो किसी से बतिया रही थी।
उन्होंने मेरा परिचय करवाया। ये निधि मल्होत्रा है। हाथ से  इशारा करके उनके फ्लैट का नम्बर बताया। निधि मुझे थोड़ी जल्दी में लगी, सामान्य परिचय के बाद कहने लगी, मुझे जल्दी घर जाना है, ससुर जी के लंच का समय हो गया है। जरा सा लेट होते ही आसमान सिर पर उठा लेंगे।
नैय्यर आंटी ने बताया कि वो लक्ष्मण प्रसाद जी की बहू हैं।
लक्ष्मण प्रसाद जी से मैं पार्क में दो दिन पहले ही मिल चुकी थी। उस दिन नैय्यर आंटी पार्क में नहीं आई थी, लक्ष्मण प्रसाद जी की बातें मेरे स्मृति -पटल पर चल रही थी। 
 मैंने मन ही मन सोचा, कितनी दिखावा पसंद औरत है निधि जैसे उसके जितना ख्याल तो कोई रखता ही नहीं।
लक्ष्मण प्रसाद जी की उदासी से भरे बोल मेरे कानों में गूँज रहे थे-
 - अपनी मेहनत की पाई-पाई मैंने बेटे को काबिल बनाने में होम कर दी, आज बहू के वश में हो बेटा मुझे आँखें दिखाता है, बहनजी मैं ज्यादा कुछ नहीं चाहता, बस दो वक्त की रोटी शांति से मिल जाये। इस उम्र में बीमारियाँ भी कम नहीं होती, दवा-दारू की तो क्या उम्मीद करूँ।
 मैंने अपने मन की बात नैय्यर आंटी को बतानी चाही। मैंने कहा - हमें लक्ष्मण प्रसाद जी की मदद करनी चाहिए। हम सब चंदा इकट्ठा करके उनका इलाज करवा सकते हैं या कोई वृद्धाश्रम में उन्हें रखवा सकते हैं।
मेरी बात सुनकर नैय्यर आंटी के मुख पर चौंकने के भाव के साथ मुस्कान खेल गई, और मुझे आगाह करते हुए बोली- ओह! तो तुमसे भी लक्ष्मण प्रसाद ने मदद माँगी क्या?
मेरा मुँह देखकर वो समझ गई। आगे मुझे हिदायत देती रही - उन्हें कभी पैसे दे मत देना, बहू-बेटे की बुराई करके दूसरों के मन में अपने लिए सहानुभूति जगाएँगे और फिर अपनी बीमारी का रोना रोकर मदद माँगेगे। खासकर महिलाओं को वो भावुक  मूर्ख समझते हैं, असल में उनको जुआ खेलने की लत है। इनके बेटे -बहू तो बहुत अच्छे हैं। आश्चर्य से मेरी आँखें फटी की फटी रह गई कि ऐसा भी होता है।
सम्पर्क: आई-137 द्वितीय तल, कीर्ति नगर, नई दिल्ली 110015, फोन नं. 8285851482, anitamandasid@gmail.com   

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