बेआबरू होकर कूचे से निकलना
- डॉ. सिद्धार्थ खरे
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगले तीन से पांच साल में एक लाख भारतीय पेशेवर और इतने ही चीनी मूल के लोग अमेरिका छोडऩे को विवश होंगे।
हम इस चिंता में भी घुले जाते रहे हैं कि देश से प्रतिभा पलायन होता है और इस चिंता में भी छाती पीटने लगते हैं कि जिन्होंने बेहतर भविष्य कि प्राथमिकता के चलते भारत माता कि छाती रौंदकर पलायन किया, उन्हें नियोक्ता देश छोडऩा होगा।
इन भगोड़ों को लेकर ताजी चिंता का कारण आर्थिक मंदी है। अमेरिका में आब्रजन पर अध्ययन करने वाली Duke and Barkle University एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगले तीन से पांच साल में एक लाख भारतीय पेशेवर और इतने ही चीनी मूल के लोग अमेरिका छोडऩे को विवश होंगे। यह भी कह सकते हैं इन्हें 'बेआबरू होकर कूचे से निकलना' होगा।
कूचे को इस बात कि कतई कोई चिंता नहीं कि इस स्थिति का उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उसे इस बात कि भी कोई चिंता नहीं है कि इन पेशेवरों का भविष्य क्या होगा। मगर उक्त विश्वविद्यालय की अध्ययनकर्ता दल के नेता विवेक वाधवा बेहद दुखी हैं। दु:ख इस बात का अधिक है कि इससे अमेरिका को नुकसान होगा क्योंकि ये लोग उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत करने के साथ ही उसके विकास में भागीदार भी हैं। वधावा का ये दावा भी है कि इन प्रतिभाओं के कारण ही अमेरिका तकनीक के मामले में इतना आगे है।
एक देश जो गिरगिट कि तरह रंग बदलने में माहिर है जो कभी भारत का खुले दिल से स्पष्ट मित्र नहीं रहा उसके इन शुभचिंतकों के दर्द से हमारा दिल क्यों फटा जा रहा है? क्या इसलिए कि संयोग से इन्होंने भारत में जन्म लिया? क्या जन्म लेने मात्र से वे भारतीय हो गए? सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि इतनी ही बेकरारी के साथ उनका दिल भारत कि तरक्की के लिए कभी क्यों नहीं धड़का?
तर्क दिया जाता रहा है कि देश में अवसर होते तो विदेशों की खाक क्यों छानते! मां बाप पर नालायकी का तोहमद लगाकर वल्दियत बदलने वाले इन जांबाजों को एक गलतफहमी यह भी है कि संदर्भित स्थिति के चलते भारत और चीन प्रतिस्पर्धात्मक रूप से मजबूत होंगे। वास्तव में यह बात कह कर उक्त रिपोर्ट के जरिये नए जमीन तलाशी जा रही है।
भारतीय होने के नाते मेरी चिंता यह नहीं कि इतनी बड़ी संख्या में भारतीय मूल के जांबाजों को बेआबरू होकर अमेरिका से निकलना होगा। मेरी चिंता यह भी नहीं कि इनका भविष्य क्या होगा। मेरी वास्तविक चिंता यह है कि इनकी वापसी से उन भारतीय पेशेवरों के भविष्य पर आंच न आए जो भारत में रहकर भारत की प्रगति में लगे रहे। तमाम कठिनाइयां सहकर भी भगोड़े साबित नहीं हुए। वास्तव में अव्वल दर्जे की प्रतिभा तो वह है जो देश में रहकर देश के काम आए। वधावा ने जिन प्रतिभाओं के स्वदेश लौटने और उसकी तरक्की का आधार बनने की बात कही है उससे इन्हें 'आन गांव का सिद्ध' मान लिए जाने का खतरा है। वास्तव में यह स्थिति किसी खतरे से कम नहीं है। देश में वोटों कि राजनीति के चलते इन सूरमाओं के लिए लाल कालीन भी बिछाया जा सकता है। इन महानुभावों की जितनी चिंता कि जानी है, उसकी एक चौथाई चिंता भी भारत के काम आने वाली प्रतिभाओं की करती तो आज देश का नक्शा बदला होता।
यह ध्यान रखना सरकार की पहली प्राथमिकता होना चाहिए की अमेरिका या किसी भी अन्य देश के विकास को प्राथमिकता देने वालों की वापसी पर उन्हें ऐसा कोई दर्जा नहीं दिया जाए जो देश की प्रतिभाओं को प्राप्त दर्जे से ऊंचा हो। ध्यान रखने की बात यह भी है कि इनके देश छोडऩे के बाद भी देश की प्रगति न तो पंगु हुई और न ही लौटने पर कोई 'सुरखाब के पर' ही लग जायेंगे।
कुल मिलाकर पांच सालों में एक लाख भारतीयों के अमेरिका छोडऩे की स्थिति उनका दुर्भाग्य हो सकती है लेकिन ऐसा कोई फैसला न होने पाए जो भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण हो।
- डॉ. सिद्धार्थ खरे
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगले तीन से पांच साल में एक लाख भारतीय पेशेवर और इतने ही चीनी मूल के लोग अमेरिका छोडऩे को विवश होंगे।
हम इस चिंता में भी घुले जाते रहे हैं कि देश से प्रतिभा पलायन होता है और इस चिंता में भी छाती पीटने लगते हैं कि जिन्होंने बेहतर भविष्य कि प्राथमिकता के चलते भारत माता कि छाती रौंदकर पलायन किया, उन्हें नियोक्ता देश छोडऩा होगा।
इन भगोड़ों को लेकर ताजी चिंता का कारण आर्थिक मंदी है। अमेरिका में आब्रजन पर अध्ययन करने वाली Duke and Barkle University एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अगले तीन से पांच साल में एक लाख भारतीय पेशेवर और इतने ही चीनी मूल के लोग अमेरिका छोडऩे को विवश होंगे। यह भी कह सकते हैं इन्हें 'बेआबरू होकर कूचे से निकलना' होगा।
कूचे को इस बात कि कतई कोई चिंता नहीं कि इस स्थिति का उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उसे इस बात कि भी कोई चिंता नहीं है कि इन पेशेवरों का भविष्य क्या होगा। मगर उक्त विश्वविद्यालय की अध्ययनकर्ता दल के नेता विवेक वाधवा बेहद दुखी हैं। दु:ख इस बात का अधिक है कि इससे अमेरिका को नुकसान होगा क्योंकि ये लोग उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत करने के साथ ही उसके विकास में भागीदार भी हैं। वधावा का ये दावा भी है कि इन प्रतिभाओं के कारण ही अमेरिका तकनीक के मामले में इतना आगे है।
एक देश जो गिरगिट कि तरह रंग बदलने में माहिर है जो कभी भारत का खुले दिल से स्पष्ट मित्र नहीं रहा उसके इन शुभचिंतकों के दर्द से हमारा दिल क्यों फटा जा रहा है? क्या इसलिए कि संयोग से इन्होंने भारत में जन्म लिया? क्या जन्म लेने मात्र से वे भारतीय हो गए? सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि इतनी ही बेकरारी के साथ उनका दिल भारत कि तरक्की के लिए कभी क्यों नहीं धड़का?
तर्क दिया जाता रहा है कि देश में अवसर होते तो विदेशों की खाक क्यों छानते! मां बाप पर नालायकी का तोहमद लगाकर वल्दियत बदलने वाले इन जांबाजों को एक गलतफहमी यह भी है कि संदर्भित स्थिति के चलते भारत और चीन प्रतिस्पर्धात्मक रूप से मजबूत होंगे। वास्तव में यह बात कह कर उक्त रिपोर्ट के जरिये नए जमीन तलाशी जा रही है।
भारतीय होने के नाते मेरी चिंता यह नहीं कि इतनी बड़ी संख्या में भारतीय मूल के जांबाजों को बेआबरू होकर अमेरिका से निकलना होगा। मेरी चिंता यह भी नहीं कि इनका भविष्य क्या होगा। मेरी वास्तविक चिंता यह है कि इनकी वापसी से उन भारतीय पेशेवरों के भविष्य पर आंच न आए जो भारत में रहकर भारत की प्रगति में लगे रहे। तमाम कठिनाइयां सहकर भी भगोड़े साबित नहीं हुए। वास्तव में अव्वल दर्जे की प्रतिभा तो वह है जो देश में रहकर देश के काम आए। वधावा ने जिन प्रतिभाओं के स्वदेश लौटने और उसकी तरक्की का आधार बनने की बात कही है उससे इन्हें 'आन गांव का सिद्ध' मान लिए जाने का खतरा है। वास्तव में यह स्थिति किसी खतरे से कम नहीं है। देश में वोटों कि राजनीति के चलते इन सूरमाओं के लिए लाल कालीन भी बिछाया जा सकता है। इन महानुभावों की जितनी चिंता कि जानी है, उसकी एक चौथाई चिंता भी भारत के काम आने वाली प्रतिभाओं की करती तो आज देश का नक्शा बदला होता।
यह ध्यान रखना सरकार की पहली प्राथमिकता होना चाहिए की अमेरिका या किसी भी अन्य देश के विकास को प्राथमिकता देने वालों की वापसी पर उन्हें ऐसा कोई दर्जा नहीं दिया जाए जो देश की प्रतिभाओं को प्राप्त दर्जे से ऊंचा हो। ध्यान रखने की बात यह भी है कि इनके देश छोडऩे के बाद भी देश की प्रगति न तो पंगु हुई और न ही लौटने पर कोई 'सुरखाब के पर' ही लग जायेंगे।
कुल मिलाकर पांच सालों में एक लाख भारतीयों के अमेरिका छोडऩे की स्थिति उनका दुर्भाग्य हो सकती है लेकिन ऐसा कोई फैसला न होने पाए जो भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण हो।
No comments:
Post a Comment