उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Sep 1, 2025

उदंती.com, सितम्बर - 2025

वर्ष - 18, अंक - 2

“आइये याद रखें: एक किताब, एक कलम, एक बच्चा और एक शिक्षक दुनिया बदल सकते हैं।”            - मलाला यूसुफजई


अनकहीः आकांक्षाओं के बोझ तले दबा बचपन - डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व- संस्कृतिः देवों के देव गणपति - रविन्द्र गिन्नौरे

प्रकृतिः उत्तराखंड में जल-प्रलय - प्रमोद भार्गव

खान-पानः एक सेहतमंद सब्जी टमाटर - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यात्रा वृत्तांतः ओह पहलगाम ! - विनोद साव

प्रसंगः गुरु साध्य नहीं  उत्प्रेरक तत्त्व मात्र है - सीताराम गुप्ता

लोक कलाः हमारी सांस्कृतिक धरोहर है ऐपण- ज्योतिर्मयी पन्त  

स्वास्थ्यः अचानक चौथे स्टेज का कैंसर कैसे हो जाता है? - निशांत

कविताः दस छोटी कविताएँ - छवि निगम 

हाइकुः स्वर्णिम यादें - कृष्णा वर्मा

चार लघुकथाएँः 1. शिक्षाकाल, 2. पिंजरे, 3. बोंजाई, 4. प्रक्षेपण - सुकेश साहनी

व्यंग्यः हर व्यक्ति अब महाज्ञानी !.. - गिरीश पंकज

कहानीः कैक्टस के फूल - डॉ. दीक्षा चौबे

प्रेरकः अच्छे पॉइंट्स 

लघुकथाः धमाका - प्रगति गुप्ता

किताबेंः अधूरी मूर्तियों का क्रंदन : एक संवेदनात्मक पड़ताल - डॉ. पूनम चौधरी

 चुनिंदा शेरः सुख जल्दी उड़ जाते - हस्तीमल हस्ती

अनकहीः आकांक्षाओं के बोझ तले दबा बचपन

 - डॉ. रत्ना वर्मा

परीक्षा में पेपर बिगड़ा, तो फाँसी लगा ली, माँ ने किसी बात पर डाट लगाई, तो बेटी ने आत्महत्या कर ली। ये केवल खबरों की सुर्खियाँ नहीं; बल्कि हमारे समाज की व्यवस्था से उपजी ऐसी त्रासदी हैं, जिसके कारण  हमारे देश की भावी पीढ़ी की ऊर्जा और ज्ञान कहीं अँधेरे में गुम होते चले जा रहे हैं।  इस तरह की घटनाएँ न केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक त्रासदी है; बल्कि सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है, जो हम सबको यह सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को कौन से रास्ते पर ले जाना चाहते हैं? समस्या इतनी भयानक है कि परिवार को, समाज को  और शिक्षण- संस्थानों को इस विषय पर गहराई से चिंतन- मनन करना होगा और इस समस्या से मुक्ति पाने का कोई हल निकालना होगा ।

 दरअसल आज के बच्चों पर अपेक्षाओं का बोझ इतना भारी है कि वे बचपन का आनंद लेना ही भूल चुके हैं। माता-पिता, स्कूल, कोचिंग, समाज- सभी अपनी आकांक्षाएँ उनके कंधों पर लाद देते हैं । वे अपनी अधूरी इच्छाओं को बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। प्रत्येक माता पिता की यही चाहत होती है कि उनका बच्चा श्रेष्ठ बने है, अच्छे अंक लाए, प्रतियोगिता में जीते है, इंजीनियर, डॉक्टर या साइंटिस्ट बने; पर हर बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता और न ही उसे बनना चाहिए। हम हैं कि उनसे हर क्षेत्र में प्रथम आने की उम्मीद लगाए रहते हैं। यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक बच्चा एक अलग व्यक्तित्व लिये जन्म लेता है,  जिसकी अपनी रुचि, इच्छा और पहचान है; लेकिन उनकी इच्छा पर परिवार समाज और व्यवस्था का मानसिक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बच्चे उसे झेल नहीं पाते। जब ऐसे बच्चे नाकामी को बर्दाश्त नहीं कर पाते, तब अवसाद से घिर जाते हैं और आत्महत्या की ओर अग्रसर होते हैं। 

शिक्षा प्रणाली को  व्यावहारिक बनाने की बात तो हर कोई करता है; परंतु सच्चाई इसके विपरीत ही है। हमारी शिक्षा प्रणाली आज भी अंकों और परीक्षाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। रटने, अंक लाने और प्रथम आने की दौड़ में विद्यार्थी अपनी असल पहचान खो बैठते हैं। स्कूलों और कोचिंग संस्थानों में हर बच्चा एक नंबर बन गया है- रोल नंबर, रैंक या प्रतिशत। स्कूलों में काउंसलिंग की समुचित व्यवस्था नहीं है। शिक्षक भी अक्सर केवल पाठ्यक्रम पूरा कराने तक सीमित रह जाते हैं। छात्रों के मानसिक उतार-चढ़ाव, डर, चिंता, और तनाव पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। परीक्षा के दिनों में यह दबाव कई गुना बढ़ जाता है और विफलता की स्थिति में वे अकेला और पराजित महसूस करते हैं। माता-पिता का प्यार भी कई बार सशर्त हो जाता है- अगर अच्छे नंबर लाओगे, तो तुम्हें ये दिलवा देंगे, या फिर नहीं ला पाए तो फिर देख लेना.... दूसरे बच्चे से की गई तुलना भी उन्हें कमजोर करती है -कि देखो पड़ोसी के बच्चे को, तुम्हें उससे ज्यादा नम्बर लाकर दिखाना है... आदि- आदि...  जैसे धमकी भरे वाक्य बच्चों के मन में डर और असुरक्षा की भावना पैदा कर देते हैं। वे यह सोचने लगते हैं कि यदि वे असफल हुए, तो उन्हें वह सम्मान और प्यार नहीं मिलेगा। यही भावना उन्हें आत्महत्या की ओर अग्रसर करती है।

समय बहुत तेजी से बदल रहा है - आज का हर बच्चा इंटरनेट और सोशल मीडिया की दुनिया में जी रहा है। वहाँ हर कोई अपनी सबसे अच्छी तस्वीरें, सफलताएँ और उपलब्धियाँ साझा करता है। इस दिखावे की दुनिया में बच्चे जब अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे पीछे हैं, असफल हैं। यह तुलना और प्रतिस्पर्धा उन्हें निराशा की खाई में धकेल देती है। यह निराशा कब मानसिक रोग बन जाता है, यह न वह बच्चा जान पाता, न माता पिता और न ही उन्हें शिक्षा देने वाले शिक्षक। 

कुल मिलाकर देखा जाए, तो बच्चों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्या एक गंभीर समस्या  का रूप ले चुकी है।  इस स्थिति से निपटने के लिए वृहत् स्तर पर प्रयास की आवश्यकता है। सबसे पहला कदम परिवार को उठाना होगा- माता पिता बच्चों से खुलकर बात करें, उनकी बात सुनें और उनकी रुचि, इच्छा और उनकी काबिलीयत को जानें और उसी के अनुसार उनकी परवरिश करते हुए उन्हें शिक्षित करें। 

दूसरा कदम शैक्षिक स्तर पर उठाया जाना चाहिए- प्रत्येक शिक्षण- संस्थान में मानसिक स्वास्थ्य  काउंसलिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिसमें शिक्षकों को मानसिक स्वास्थ्य की प्राथमिक ट्रेनिंग भी दी जाए। परीक्षाओं का बोझ कम किया जाए, वैकल्पिक मूल्यांकन प्रणाली अपनाई जाए। जागरूकता अभियानों के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नजरिया बदला जाए। सोशल मीडिया पर सकारात्मक और यथार्थवाद को प्रोत्साहित किया जाए। स्कूलों और कॉलेजों में हेल्प लाइन और इमरजेंसी सपोर्ट सिस्टम तैयार किए जाए। तीसरा कदम सामाजिक स्तर पर उठाना होगा- बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं; जीवन के संघर्षों से जूझने की कला भी सिखानी होगी। योग, ध्यान, खेलकूद और कला जैसी गतिविधियाँ मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। किताबी कीड़ा बनाकर हम उनका भविष्य नहीं सुधार सकते। 

सोचने वाली गंभीर बात है कि  हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य को अब भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। अवसाद या तनाव को अक्सर आलस्य, नाटक, या कमजोरी मान लिया जाता है। अगर कोई बच्चा उदास दिखे, रोए, या अलग-थलग रहे, तो उसे डाँट दिया जाता है या उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की पहुँच अब भी सीमित है, खासकर ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में। जब कोई बच्चा आत्महत्या करता है, तब पूरा समाज क्यों, कैसे जैसे अनेक सवाल तो उठाता है; पर जब बच्चा मानसिक रूप से अपने आप से जूझ रहा होता है, तब कोई उसका हाथ थामने आगे नहीं आता। 

एक माँ की डाँट  या एक पेपर का बिगड़ जाना, अगर जीवन को समाप्त करने का कारण बन जाए, तो यह हमारी, हमारे समाज की, सम्पूर्ण व्यवस्था की सामूहिक विफलता मानी जाएगी।  यही समय है कि हम आत्मचिंतन करें, चेतें, और बच्चों के लिए एक ऐसा वातावरण तैयार करें, जहाँ वे असफल होकर भी मुसकुरा सकें, लड़खड़ाकर भी उठ सकें, और सबसे बड़ी बात- सच्चाई को स्वीकार कर जीना सीख सकें। बच्चे हमारे भविष्य हैं और उन्हें केवल सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ाने के लिए नहीं, एक  संतुलित, और खुशहाल जीवन जीने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। हमें समझना होगा कि हर बच्चा एक फूल की तरह है, जिसे प्यार, समझदारी और धैर्य से सींचने की आवश्यकता है। केवल अंक, रैंक और प्रतिस्पर्धा की तराजू पर बच्चों को तौलना बंद करना होगा।

पर्व - संस्कृतिः देवों के देव गणपति

  - रविन्द्र गिन्नौरे 

     गणपति की उपासना भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। समस्त कार्य प्रारम्भ ही श्रीगणेश कहा जाता है। देवों के देव गणपति हैं। विघ्न को हरने वाले ‘विघ्नेश्वर’ को वेदों गणपति कहा गया है। ऋग्वेद में गणपति की स्तुति करते हुए कहा गया है-

        “हे गणपति तुम सब प्राणियों के स्वामी हो, तुम श्रोताओं के मध्य सुशोभित होओ। कार्यकुशल व्यक्तियों में तुम सबसे अधिक बुद्धिमान हो। हमारी ऋचाओं को बढ़ाकर विभिन्न फल वाली करो।”

       भगवान विष्णु ने गणेश की स्तुति करते हुए इन्हें एकदन्त नाम दिया। सामवेद में भगवान विष्णु ने माता को गणपति के ‘नामाष्टक स्रोत’ का स्मरण कराया जो सम्पूर्ण विघ्नों के नाशक हैं। नामाष्टक में गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननाशक, लम्बोदर, शूपकर्ण, गजवकत्र, गुहाग्रज नाम दिए हैं।

‘गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननायकम्।

 लम्बोदरं शूपकर्ण गजवकत्रं गुहाग्रजम् ॥

आत्मस्वरूप गणपति-

      उपनिषद काल में भी गणपति की पूजा की परम्परा रही। गणपत्युपनिषद् इसका प्रमाण है, जिसमें गणेश जी को कर्ता-धर्ता और प्रत्यक्ष तत्त्व कहा गया है। जिनके रूपों में साक्षात ब्रह्म व आत्म स्वरूप बताया गया है। स्मृति काल में भी गणेश पूजा का विधान रहा। नवग्रहों के पूजन के पूर्व गणेश की पूजा करने का निर्देश है। इनसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति सम्भव होती है। पुराण युग में इस पूजा का उज्ज्वल रूप में उदय हुआ। एक अलग गणेश पुराण की रचना भी इसी काल में की गई। यह तंत्र के पाँचों सम्प्रदायों, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य और सौर के लौकिक और वैदिक शुभ और अशुभ सभी तरह के कार्यों में प्रथम पूज्य हैं।

‘शैवेस्तत्रदीयैरुत वैष्णवैश्य, शाकतैश्व सौरेरपि सर्वकार्ये। 

शुभाशुभे लैकिक वैदिक च, द्वमर्चनीयः प्रथमं प्रयत्नाम् ॥’

     श्री गणेश जी महेशतनय हैं, स्कन्द अथवा षडानन इनके अग्रज हैं, सभी मंगल कार्यों में इनकी पूजा होती है। गणपति अग्रपूजार्ह माने गए हैं। यह पद इन्होंने अपने ज्ञान बल से प्राप्त किया है। पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने का श्रम उठाने का प्रयत्न न कर गणेशजी ने प्रणवाक्षर की प्रदक्षिणा देवताओं से पहले की। श्री गणेश चतुर्दश विद्या के प्रभु हैं; इसलिए ही इनके भक्तों में बुद्धि की प्रचुरता होती है। गजानन की आकृति सर्वश्रुत है। इनके छोटे चरण तथा विशाल उदर, वक्षस्थल पर पड़ी हुई शुराडा गोलार्ध और एकदन्तरूपी अनुस्वार देखने से प्रणवाक्षर (ॐ) का स्मरण हो आता है। ओंकार स्वरूपी गणेश जी अग्रपूजक माने गए। ॐकार स्वरूप ही परम पवित्र उच्चतम, विचार परिपूर्ण, सर्वथा निर्मल और परिशुद्धता का प्रतीक है। आचरण और मन से शुद्ध, परोपकारी और मितभाषी ये सारे तत्त्व गणेश की आकृति में समाहित हैं। ये सब गुण ॐ में एकीकृत भाव से हैं। देवाधि देव, गणनायक इन्हें इसलिए ही कहा गया है। 

      दीन हीनों का पालन करने वाले, सम्पदा के दाता, ज्ञानरूप गणपति ने सम्पूर्ण महाभारत लिखा जिसे महर्षि वेदव्यास ने कहा।

यह कौतुक कथा पौराणिक ग्रंथों में है। महर्षि वेदव्यास ने यह शर्त रखी कि वे श्लोक कहेंगे, गणेश जी उसे लिखकर उसका अर्थ भी लिखेंगे। यह धाराप्रवाह क्रम टूटे नहीं। वेदव्यास जी विचारने के साथ कठिन श्लोक कह देते थे, जिसके अर्थ में गणेश जी को देर होती थी, उतनी देर में महर्षि कई श्लोक रच डालते थे। महर्षि वेदव्यास और श्री गणेश दोनों अद्वितीय थे, जिसका फल महाभारत है।

‘प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।

भक्तया व्यासः स्मरेन्नित्यमायुः कामार्थ सिद्धये।।

भारत में पूजा अर्चना-

हिन्दू धर्म के साथ अनेक मत, संप्रदाय और पंथ हैं, जिनमें अधिकांशतः अपनी अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं। इन्हें अनेक नाम, रूपों में पूजा जाता है। किसी कार्य को प्रारंभ करने का पर्यायवाची शब्द श्रीगणेश ही प्रचलित है। धार्मिक अनुष्ठान, समारोह, वैवाहिक अवसरों में गणेश पूजा का महत्त्व आज भी विद्यमान है। मंगल कार्यों में इन्हें प्रथम स्मरण किया जाता है। ऋद्धि के स्वामी होने के कारण साधन तथा सामाग्री में, सिद्धि स्वामी होने से श्रीगणेश अपने भक्तों को कभी असिद्धि का दर्शन नहीं होने देते। गोस्वामी तुलसीदास ने गणेश जी की सर्वप्रथम वंदना रामचरित मानस में की है। आगे उन्होंने लिखा है कि “जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं, जो गुणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के स्वामी श्रीगणेश मुझ पर कृपा करें।

‘जो सुमिरत सिधि होई गणनायक करिवर बदन।

करहुँ अनुग्रह सोई बुद्धि रासि सुभ गुन सदना।

विदेशों में तांत्रिक पूजा-

विश्व के अनेक देशों में गणेश जी को आज भी पूजा जाता है। इंडोनेशिया की मुद्रा में गणेशजी का चित्रण है जबकि वह मुस्लिम देश है। हिन्दू के दूसरे ऐसे कोई देव नहीं जिन्हें दूसरे देशों के निवासी भी पूजते हों। वृहत्तर भारत के साथ जो देश थे उनमें हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मिलती हैं, लेकिन अब उन्हें पूजा नहीं जाता। चीन में गणेश पूजा ‘मियाकियों’ के नाम से होती है, जिसका शाब्दिक अर्थ रहस्य है। रहस्यमय पूजा विधान को चीन तक पहुँचाने का श्रेय भारतीय श्रमण वज्रबोधी को है जो अपने शिष्य अमोध वज्र के साथ 720 ईस्वी में पहुँचे थे। जापान में गणेश की पूजा ‘कांगीतेन’ नाम से की जाती है। शिंगोन संप्रदाय ने व्यक्ति और विश्वात्मा में एकात्मता का सिद्धांत मानते हुए ‘कांगीतेन’ नाम से की जाती है। शिंगोन संप्रदाय ने व्यक्ति और विश्वात्मा में एकात्मता का सिद्धांत मानते हुए कांगीतेन की रहस्यमयी मूर्ति की पूजा का विधान बनाया, जिसमें गणेश की युग्ममूर्ति पूजा होती है। यहाँ इनकी पूजा रहस्यमय तांत्रिक ढंगों से पूर्ण होती है जिसमें अनार की बलि दी जाती है। तांत्रिक विधि के अनुरूप इन मूर्तियों को ढककर रखा जाता है। इन विधियों से गुप्त तंत्र विद्या सीखी जाती है।

     हर वर्ष भादों मास में श्रीगणेश की स्थापना घर के साथ सार्वजनिक जगहों पर की जाती है। हर ओर गणेशोत्सव की धूम रहती है जहाँ गणपति बप्पा मोरया का उद् घोष करते हुए भक्त उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।■

ravindraginnore58@gail.com

प्रकृतिः उत्तराखंड में जल-प्रलय

  - प्रमोद भार्गव

भगवान भोले नाथ का गुस्सा, प्रतीक रूप में मौत के तांडव नृत्य में फूटता है। देवभूमि उत्तराखंड में शिव के इस तांडव नृत्य का सिलसिला केदारनाथ में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के बाद अभी भी जारी है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की खीर गंगा नदी और धराली में बादल फटने और हर्शिल के तेल गाड़ नाले में बाढ़ आने से बड़ी तबाही हुई है। इन प्राकृतिक आपदाओं को हमें इसी गुस्से के प्रतीक रूप में देखने की जरूरत है। धराली में तो 50 से ज्यादा घर, 30 होटल और 30 होमस्टे मलबे में बदल गए। जो खीर नदी 10 मी. चौड़ी थी, वह जल प्रवाह से 39 मी. चौड़ी हो गई। अतएव जो भी सामने पड़ा उसे लीलती चली गई। प्रशासन चार लोगों की मौत और 100 से अधिक लोगों के लापता होना बता रहा है। लेकिन हिमालय के बीचों- बीच बसा खूबसूरत धराली गाँव में सैलाब नीचे उतरते हुए दिखा, उससे लगता है, मौतें कहीं अधिक हुई हैं। प्रलय इतनी तीव्रता से आया की उसकी कान के पर्दे फाड़ देने वाली गर्जना सुनने के बाद लोगों को बचने का समय ही नहीं मिल पाया। अब धराली मलबे में दफन हैं।  

इस भूक्षेत्र के गर्भ में समाई प्राकृतिक संपदा के दोहन से उत्तराखंड विकास की अग्रिम पांत में आ खड़ा हुआ था, वह विकास भीतर से कितना खोखला था, यह इस क्षेत्र में निरंतर आ रही इस आपदाओं से पता चलता है। बारिश, बाढ़, भूस्खलन, बर्फ की चट्टानों का टूटना और बादलों का फटना, अनायास या संयोग नहीं है; बल्कि विकास के बहाने पर्यावरण विनाश की जो पृष्ठभूमि रची गई, उसका परिणाम है। तबाही के इस कहर से यह भी साफ हो गया है कि आजादी के 78 साल बाद भी हमारा न तो प्राकृतिक आपदा प्रबंधन प्राधिकरण  आपदा से निपटने में सक्षम है और न ही मौसम विभाग आपदा की सटीक भविष्यवाणी करने में समर्थ हो पाया है। यह विभाग केरल और बंगाल की खाड़ी के मौसम का अनुमान लगाने का दावा तो करता है; किंतु भारत के सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र हिमालय में बादल फटने की भी सटीक जानकारी नहीं दे पाता है। धराली क्षेत्र में एक साथ दो जगह बादल फटे और कुछ मिनटों में हुई तेज बारिश ने श्रीखंड पर्वत से निकली खीरगंगा नदी को प्रलय में बदलकर 90 प्रतिशत गांव को हिमालय के गर्भ में समा दिया।

बादल फटना अनायास जरूर है; लेकिन ये करीब 10 किमी व्यास की परिधि में फटने के बाद अतिवृष्टि का कारण बनते हैं। 10 सेंटीमीटर या उससे अधिक बारिश को बादल फटने की घटना के रूप में परिभाषित किया जाता है। बादल फटने की घटना के दौरान किसी एक स्थान पर एक घंटे के भीतर, उस क्षेत्र में होने वाली औसत, वार्षिक वर्षा की 10 प्रतिशत से अधिक बारिश हो जाती है। मौसम विभाग वर्षा का पूर्वानुमान कई दिन या माह पहले लगा लेते हैं; लेकिन मौसम विज्ञानी बादल फटने जैसी बारिश का अनुमान नहीं लगा पाते। इस कारण बादल फटने की घटनाओं की भविष्यवाणी भी नहीं करते हैं।  

समृद्धि, उन्नति और वैज्ञानिक उपलब्धियों का चरम छू लेने के बावजूद प्रकृति का प्रकोप धरा के किस हिस्से के गर्भ से फूट पड़ेगा या आसमान से टूट पड़ेगा, यह जानने में हम बौने ही हैं। भूकंप की तो भनक भी नहीं लगती। जाहिर है, इसे रोकने का एक ही उपाय है कि विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी न करें; लेकिन विडंबना है कि घरेलू विकास दर को बढ़ावा देने के मद्देनजर अधोसंरचना विकास के बहाने देशी-विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया जा रहा है। पर्यावरण संबंधी स्वीकृतियों को राज्य सरकारें अब अनदेखा करने लगी हैं। इससे साबित होता है कि अंततः हमारी वर्तमान अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार अटूट प्राकृतिक संपदा और खेती ही हैं; लेकिन उत्तराखंड हो या प्राकृतिक संपदा से भरपूर अन्य प्रदेश, उद्योगपतियों की लॉबी जीडीपी और विकास दर के नाम पर पर्यावरण संबंधी कठोर नीतियों को लचीला बनाकर अपने हित साधने में लगी हैं। विकास का लॉलीपॉप प्रकृति से खिलवाड़ का करण बना हुआ है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आई इन तबाहियों का आकलन इसी परिप्रेक्ष्य में करने की जरूरत है।

उत्तराखंड, उ. प्र. से विभाजित होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया था। 13 जिलों में बँटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 11 लाख है। 80 फीसदी साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किलोमीटर में फैला है। उत्तराखंड में भागीरथी, अलकनंदा, गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नदियों का उद्गम स्थल है। इन नदियों के उद्गम स्थलों और किनारों पर पुराणों में दर्ज अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक स्थल हैं। इसलिए इसे धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। यहाँ के वनाच्छादित पहाड़ अनूठी जैव- विविधता के पर्याय हैं। तय है, उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं का खजाना है। इसी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई है, जिसकी वजह से प्रलय जैसे प्रकोप बार-बार इस देवभूमि में बर्बादी की आपदा बरसा रहे हैं।

उत्तराखंड की तबाही की इबारत टिहरी में गंगा नदी पर बने बड़े बांध के निर्माण के साथ ही लिख दी गई थी। नतीजतन बड़ी संख्या में लोगों का पुश्तैनी ग्राम-कस्बों से विस्थापन तो हुआ ही, लाखों हेक्टेयर जंगल भी तबाह हो गए। बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थितिक तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सड़कों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। अब यही काम रेल पथ के लिए सुरंगें बनाने में सामने आ रहा है। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नदियों और हिमालयी झीलों में ढहा दिया जाता है। नतीजतन नदियों के तल मलबे से भर गए हैं। दुष्परिणाम स्वरूप इनकी जल ग्रहण क्षमता नष्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। अतएव जब भी तेज बारिश आती है, तो तुरंत बाढ़ में बदलकर विनाश लीला में तब्दील हो जाती है। बादल फटने के तो केदारनाथ और अब धराली जैसे परिणाम निकलते है। उत्तरकाशी, जोशीमठ में तो निरंतर बाढ़ और भू-स्खलन देखने में आ रहे हैं, इस क्षेत्र के सैकड़ों मकानों में भूमि धसकने से बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं। भू-स्खलन के अलावा इन दरारों की वजह कालिंदी और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन जल विद्युत और रेल परियोजनाएँ भी रही हैं।

उत्तराखंड जब स्वतंत्र राज्य नहीं बना था, तब इस देवभूमि क्षेत्र में पेड़ काटने पर प्रतिबंध था। नदियों के तटों पर होटल नहीं बनाए जा सकते थे। यहाँ तक कि निजी आवास बनाने पर भी रोक थी; लेकिन उत्तर प्रदेश से अलग होने के साथ ही, केंद्र से बेहिसाब धनराशि मिलना शुरू हो गई। इसे ठिकाने लगाने के नजरिए स्वयं- भू ठेकेदार आगे आ गए। उन्होंने नेताओं और नौकरशाहों का एक मजबूत गठजोड़ गढ़ लिया और नए राज्य के रहनुमाओं ने देवभूमि के प्राकृतिक संसाधनों के लूट की खुली छूट दे दी। दवा (फार्मा) कंपनियाँ औषधीय पेड़-पौधों और जड़ी-बूटियों के दोहन में लग गई हैं। भागीरथी, खीरगंगा और अलकनंदा के तटों पर बहुमंजिला होटल और आवासीय इमारतों की कतार लग गई। पिछले 25 साल में राज्य सरकार का विकास के नाम पर प्रकृति के दोहन के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं है। जबकि इस राज्य का निर्माण का मुख्य लक्ष्य था कि पहाड़ से पलायन रुके। रोजगार की तलाश में युवाओं को महानगरों की और ताकना न पड़े; लेकिन 2011 में हुई जनगणना के जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके अनुसार पौढ़ी- गढ़वाल और अल्मोड़ा जिलों की तो आबादी ही घट गई है। तय है, क्षेत्र में पलायन और पिछड़ापन बढ़ा है। विकास की पहुँच धार्मिक स्थलों पर ही सीमित रही है; क्योंकि इस विकास का मकसद महज श्रद्धालुओं की आस्था का आर्थिक दोहन रहा था। यही वजह रही कि उत्तराखंड के 5 हजार गाँवों तक पहुँचने के लिए सड़कें नहीं हैं। खेती आज भी वर्षा पर निर्भर है। उत्पादन बाजार तक पहुँचाने के लिए परिवहन सुविधाएँ नदारद हैं। तिस पर भी छोटी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ कहर ढाती रहती हैं। इस प्रकोप ने तो तथाकथित आधुनिक विकास को मिट्टी में मिलाकर जल के प्रवाह में बहा दिया। ऐसी आपदाओं की असली चुनौती इनके गुजर जाने के बाद खड़ी होती है, जो अब जिस भयावह रूप में देखने में आ रही है, उसे संवेदनशील आँखों से देखा जाना भी मुश्किल है। 

प्रकृति से खिलवाड़ की चेतावनी

भारतीय दर्शन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास हिमालय और उसकी नदी-घाटियों से माना जाता है। ऋषि-कश्यप और उनकी दिति-अदिति नाम की पत्नियों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और सभ्यता के क्रम की शुरूआत हुई। एक बड़ी आबादी को शुद्ध और पौष्टिक पानी देने के लिए भागीरथी गंगा को नीचे उतार लाए। यह विकास धीमा था और विकास को आगे बढ़ाने के लिए हिमालय में कोई हलचल नहीं की गई थी; लेकिन आज विकास के बहाने भोग की जल्दबाजी में समूचे हिमालय को दरकाने का सिलसिला अत्यंत तेज गति से चल रहा है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी में धराली समेत तीन स्थानों पर आई प्राकृतिक आपदाओं ने सत्ताधारियों को चेतावनी दी है कि प्रकृति से खिलवाड़ कतई उचित नहीं है। यदि खिलवाड़ जारी रहा, तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। धराली और हर्शिल में फूटे प्रलय के प्रकोप ने जो दृश्य दिखाए हैं, वे भयावह हैं। एक बार फिर सबसे पवित्र चार धाम यात्रा से जुड़े इस मार्ग पर केदारनाथ आपदा की कहानी प्रकृति ने दोहराई है। केदारनाथ की तरह यहाँ भी देशभर से यात्रा में आए अनेक श्रद्धालुओं को इस त्रासदी ने लील लिया है। दरअसल वर्तमान में समूचा हिमालयी क्षेत्र आधुनिक विकास और जलवायु परिवर्तन के खतरों से दो-चार हो रहा है। मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले उपग्रह चाहे जितने आधुनिक तकनीक से जुड़े हों, वे अनियमित हो चुके मौसम के चलते बादलों के फटने, हिम खंडों के टूटने और भारी बारिश होने की क्षेत्रवार जानकारी देने में असमर्थ ही रहे हैं। इसीलिए 2013 में केदारनाथ प्रलय, 2014 में दुनिया का स्वर्ग माने जाने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य की नदियों की बाढ़ से नरक में बदल जाने के संकेत नहीं मिल पाए थे। वर्षा की तीव्रता ऐसी मुसीबत बनी थी कि देखते-देखते स्वर्ग की धरती पर इठलाती- बलखाती नदियाँ-  झेलम, चिनाब और तवी ने अपनी प्रकृति बदलकर रौद्र रूप धारण कर लिया था। राज्य का जर्रा- जर्रा विनाश की कुरूपता में तब्दील हो गया था। अलगाववाद का प्रपंच अलापने में लगी राज्य सरकार का तंत्र पंगु हो गया था। तब सेना की मदद से इस भीषण त्रासदी से पार पाना संभव हो पाया था। इसी तरह 2021 में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के निकट हिमखंड के टूटने से तबाही मची थी। इससे धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आई और तपोवन विष्णुगाड पनबिजली परियोजना में काम कर रहे अनेक मजदूर काल के गाल में समा गए थे। हिमाचल प्रदेश में भी भू-स्खलन, बादल फटने और भारी बारिश से तबाही देखने में आ रही है; लेकिन मौसम तकनीक सटीक जानकारी नहीं दे पा रही है।        

मौसम विज्ञानी जता रहे हैं कि मानसून में लंबी बाधा के चलते देश के कई हिस्सों में सूखे के हालात निर्मित हो गए हैं और हिमाचल व उत्तराखंड में भीषण बारिश ने तबाही का तांडव रच दिया है। मानसून में रुकावट आ जाने से बादल पहाड़ों पर इकट्ठे हो जाते हैं और यही मूसलाधार बारिश के कारण बनते हैं। यह तबाही इसी का परिणाम है। तबाही के कारण मानसून पर डालकर  जवाबदेही से नहीं बच सकते। केदारनाथ में बिना मानसून के रुकावट के ही तबाही आ गई थी। अतएव यह कहना बेमानी है कि मानसून की रुकावट तबाही में बदली ? हकीकत में तबाही के असली कारण समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएँ जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की जो बाढ़ आई हुई है, वह है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक  औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखरों पर स्थित पहाड़ दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपनी ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहाँ रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते चले आ रहे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएँ की हैं। इस सूक्त में राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुम्बकं की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने के लिए मनुष्य को नीति और धर्म से बांधने की कोशिश की हैं। लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया।

आपदा प्रभावित धराली और हर्षिल क्षेत्र में बहने वाली भागीरथी नदी पर बनी 1300 मीटर लंबी और 80 मी. चौड़ी झील से पानी का रिसाव हो रहा है, इसे पोकलैंड मशीनों से तोड़ने की तैयारी है, जिसे रिसाव की थोड़ा प्रवाह बढ़ जाए और झील का जलस्तर घट जाए। यदि इस झील के बीच कोई बड़ा बोल्डर है, तो इसे नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। पहाड़ों में अतिवृष्टि के चलते इस नदी पर यह झील अस्तित्व में आ गई है। हिमालय में झील, तालाब और हिमनदों का बनना एक आश्चर्यजनक; किंतु स्वाभाविक प्रक्रिया है। चूँकि यह झील हर्षिल और धराली के लिए संकट बन गई है, इसे तोड़ा जाना जरूरी हो गया है। यदि यह प्राकृतिक प्रकोप के चलते टूटती है, तो धराली एवं हर्षिल को ओर खतरा बढ़ जाएगा। देहरादून सिंचाई विभाग के प्रमुख इंजीनियर सुभाष पांडे के नेतृत्व में अभियंताओं का एक 12 सदस्यीय दल हेलिकॉप्टर से झील के निरीक्षण में लगा है। झील के प्रवाह में यदि कोई चट्टान बाधा है, तो उसे रिमोट से नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। इस विधि से वही हिस्सा टूटता है, जितना तोड़ना जरूरी होता है।

हालाँकि अभी तक यह निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका है कि इस जल प्रलय का वास्तविक कारण क्या है ? भू-विज्ञानी असमंजस में हैं। सच्चाई जानने के लिए वे अब रिमोट सेंसिग डाटा एवं सेटेलाइट डाटा की प्रतीक्षा में है। इससे स्थिति स्पष्ट होगी की खीर गंगा नदी में आया सैलाब बादल फटने, हिमनद टूटने, भू-स्खलन से आया या फिर किसी अन्य कारण से आया। इस सिलसिले में सीबीआरआई रुड़की के मुख्य भू-विज्ञानी डॉ. डीपी कानूनगो का कहना है कि नदी में अचानक इतना सैलाब किस कारण से आया, यह कहना फिलहाल संभव नहीं है। भू-विज्ञानी प्राध्यापक एसपी प्रधान इस आपदा को प्राकृतिक और मानव- निर्मित दोनों ही कारण मान रहे हैं। इन विरोधाभासी अनुमानों से साफ है कि आई आपदा के बारे में कारण संबंधी दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है। दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर विकास करना आवश्यक होना चाहिए; लेकिन कथित विकास की चकाचौंध में राज्य सरकारें कोई संतुलित नीति बना भी लेती हैं, तो उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरतती हैं। यही वजह है पूरे हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की परियोजनाएँ हिमालय की आंतरिक सुगठित संरचना को नष्ट कर रही हैं।

इस आपदा ने यह जरूर जता दिया है कि उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों के खतरे बढ़ रहे है। राज्य में करीब 1266 ऐसी झीलें हैं। नेशलन डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 हिमनदों को खतरनाक श्रेणी के रूप में चिह्नित किया है। इनमें से पाँच को उच्च संकट की श्रेणी में रखा है। हालाँकि यह मुद्दा कोई नया नहीं है। 2013 में केदारनाथ जल प्रलय के बाद यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण हो गया था; क्योंकि चौड़ाबाड़ी ग्लेशियर झील के फटने से केदारनाथ में भीषण तबाही आई थी। इसके बाद से ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हिमनदों की निगरानी और इनसे बचाव के लिए अध्ययन करने की दिशा में पहल की गई थी; लेकिन अध्ययन के क्या निष्कर्ष निकलें और उनके अनुरूप समस्या से निपटने के क्या उपाय किए गए इस दिशा में कोई पारदर्शी जानकारी नहीं है। चमौली में वसुधारा ताल और पिथौरागढ़ की झीलों के अध्ययन की भी तैयारी की जा रही है; लेकिन इन अध्ययनों के कोई कारगर परिणाम निकलेंगे यह कहना मुश्किल है।      

उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहाँ निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएँ निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुँचाया है। टिहरी पर बँधे बाँध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियाँ  और झीलें भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी। ■

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

खान-पानः एक सेहतमंद सब्जी टमाटर

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के दैनिक आहार में टमाटर का एक जरूरी घटक बन जाना एक दिलचस्प कहानी है। योलांडा इवांस ने नेशनल जियोग्राफिक  पत्रिका के 5 जून, 2025 के अंक में मिथकों और लोककथाओं के माध्यम से टमाटर के बढ़ते चलन के बारे में लिखा है और बताया है कि कैसे टमाटर हमेशा से एक लोकप्रिय सब्जी नहीं था।

एक समय था जब इन्हें दुष्ट, बदबूदार और ‘ज़हरीला सेब’ माना जाता था। इन्हें अंधविश्वास और बीमारी से जोड़कर देखने का प्रमुख कारण यह था कि तांबे के बर्तनों में रखने पर इनकी अभिक्रिया लेड से होती थी। न्यू जर्सी के सलेम के किसानों द्वारा टमाटर पकाने के लिए एक अधिक उपयुक्त बर्तन के इस्तेमाल ने अमेरिका में लोगों की राय बदल दी।

टमाटर भारत की देशज वनस्पति नहीं थी; बल्कि ये 15वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों के साथ यहाँ आई थी। फिर 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इन्हें अपनाया, और पूरे देश में इनकी खेती शुरू की और इन्हें अपने भोजन में शामिल किया; लेकिन लोग तब भी टमाटर को लेकर एहतियात बरतते थे। जैसा कि स्वतंत्र पत्रकार सुश्री सोहेल सरकार ने लिखा है, 1938 में चिकित्सक डॉ. तारा चितले और उनके सहयोगियों ने लोगों को सर्दी-ज़ुकाम, स्कर्वी और आयरन की कमी के इलाज में टमाटर के फायदों के बारे में समझाने की कोशिश की थी; लेकिन लोगों की प्रतिक्रिया ठंडी ही रही।

बदलाव आखिरकार तब आया, जब ज़्यादा से ज़्यादा यात्रियों ने हमारे आहार में टमाटर शामिल करने की सिफारिश की, और भारत में राष्ट्रीय पोषण संस्थान के विशेषज्ञों ने हमारे दैनिक आहार में विटामिन और खनिजों के महत्त्व और टमाटर में इनकी प्रचुरता के बारे में बताया।

स्वास्थ्य लाभ- वनस्पति विज्ञान में टमाटर को एक फल माना जाता है। कैलिफोर्निया की आहार और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ सुश्री सिंथिया सास ने भी सेहत के लिए टमाटर के फायदे बताए हैं। इनमें से कुछ फायदे हैं - टमाटर एंटीऑक्सीडेंट से समृद्ध फल है, जो हृदय और मस्तिष्क को स्वस्थ रखते हैं। टमाटर का अधिक सेवन उच्च रक्तचाप को कम करता है (वरिष्ठ नागरिक ध्यान दें)। टमाटर में मौजूद सेल्यूलोज़ रेशेदार पदार्थ कब्ज की दिक्कत को दूर रखते हैं। टमाटर में लाइकोपीन नामक लाल कैरोटीनॉयड वर्णक 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को अल्जाइमर की समस्या से बचने में मदद कर सकता है। सुश्री सास की सलाह है कि टमाटर पकाने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे अच्छी तरह से धुले हुए हों और धूल-जनित कीटाणुओं से मुक्त हों।

टमाटर की खेती पूरे भारत में की जाती है, और प्रति एकड़ 5,000 से 10,000 पौधे लगाए जाते हैं। तेलंगाना कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जयशंकर का अनुमान है कि भारत में वर्ष 2022-2023 में 210 लाख टन टमाटर का उत्पादन हुआ था, जो चीन (680 लाख टन) के बाद दूसरे नंबर पर था। टमाटर की खेती करने वाले शीर्ष सात राज्य हैं: मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु। बैंगलुरु स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान टमाटर की विभिन्न किस्मों पर शोध कर रहा है। इनमें से एक है ‘अर्क रक्षक' जो कि एक रोग-प्रतिरोधी संकर किस्म है। दूसरी है ‘अर्क श्रेष्ठ' जो लंबे समय तक खराब न होने वाले टमाटर की पैदावार के लिए तैयार की जा रही है, ताकि इनका परिवहन (निर्यात) आसान हो सके।

आज, देश का लगभग हर घर अपने भोजन में टमाटर का उपयोग करता है। वर्तमान भारतीय व्यंजनों में टमाटर किसी न किसी रूप में शामिल है- चाहे टमाटर का सूप हो, चटनी हो, सालन हो या रसम, सैंडविच, बर्गर, पिज़्ज़ा हो या फिर सॉस के रूप में।

टमाटर का स्वाद चखने के बाद और यह जानने के बाद कि यह दुष्ट नहीं है, बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभ हैं, चलिए टमाटर डालकर कुछ पकाएँ और मज़े से खाएँ! (स्रोत फीचर्स)  ■

यात्रा वृत्तांतः ओह पहलगाम!

  - विनोद साव

सुबह ठण्ड बहुत ज्यादा थी हम देर तक यहाँ खड़े नहीं रह सके और जल्दी से फिर अपने होटल ‘रिविरा’ की ओर आते हैं। यह पहलगाम इलाके का गाँव मोवरा है। हम नदी किनारे दूर तक बसे सुन्दर- सुन्दर घरों को देखते हैं। यहाँ खड़े दुकानदार बताते हैं कि “ये जो छोटे छोटे बहुत से मकान आप देख रहे हैं ना साहब... वे सब भी होटल हैं। मकान दो कमरे का भी है, तब भी एक कमरे में मकान का मालिक है तो दूसरे कमरे में उसका पेइंग गेस्ट...बस गर्मियों के यही कुछ महीने तो हैं साहब, जब लोग पहाड़ों पर आ जाते हैं और हम लोग कुछ कमा लेते हैं।” तब समझ में आया कि कश्मीर में ‘टिप्स’ माँगने का चलन ज्यादा क्यों है? होटल, बाज़ार, टैक्सी में हर कहीं... और यह उनकी विवशता है। कितने भले और भोलेपन के साथ वे टिप्स माँग उठते हैं ये कहते हुए- “आखिर टिप्स तो बनती है साहब।” मिलने, नहीं मिलने पर भी उनके चेहरे से कृतज्ञता भरी मुस्कान जाती नहीं है...बनी रहती है।

पहलगाम यहाँ से अट्ठारह किलोमीटर है। पर लिद्दर नदी हमारा साथ नहीं छोड़ती। इसका रंग क्रिस्टल नीला है और यह घाटी की प्राकृतिक सुंदरता में और भी निखार लाता है। हम चोटियों- घाटियों में जहाँ भी जाते हैं, लिद्दर हमारी एक ओर चलती है। कभी हमारे साथ चढ़ते हुए, तो कभी उतरते हुए। कभी हमारी सड़क के नीचे से ओझल हो जाती है और फिर आगे बढ़कर मिल जाती है। छुप्पा - छुप्पी खेलती हुई फिर झेलम की आगोश में समा जाती है लिद्दर हूर की परी की तरह।

हमें पहलगाम से बेताब घाटी जाना है। हमारा ड्राइवर कहता है - “यहाँ से आपको दूसरी टैक्सी करनी पड़ेगी सर। यहाँ स्थानीय टैक्सी वालों का यूनियन है। उन्हीं की टैक्सियों में ही जाना पड़ता है। बाहर से आई टैक्सियों में नहीं। आप लोग घूमकर आ जाएँगे, तब फिर हम साथ हो जाएँगे।”

हम बेताब वैली के प्रवेशद्वार पर खड़े हैं। यहाँ फिल्म ‘बेताब’ बनी थी; इसलिए अब यह स्थान बेताब घाटी कहलाता है। हम दो सौ रुपये में दो टिकट लेते हैं। घोड़ी वाला हमारे पीछे पड़ता है। वह अल्बम में कई किस्म की फोटो दिखाता है और मोबाइल में वीडियो। इनमें पहाड़ों, झीलों, बाग बगीचों में नवजवानों के रूमानी दृश्य हैं। सुन्दर- सुन्दर चित्र हैं। वह कहता है “आपके भी ऐसे ही बढ़िया फोटो बन जाएँगे साब... घोड़ी सहित इस पूरे पैकेज का चलिए आप दोनों के लिए दो हजार लगा देंगे।”

हम पैंसठ सत्तर बरस की उम्र में खड़े पति-पत्नी हँस पड़ते हैं, ये कहते हुए “अरे बस करो भाई... अब घोड़ी चढ़ने की हमारी उमर नहीं रही।”

अब हम लकड़ी की दो धकेल गाड़ी में आ बैठे हैं घाटी घुमाने के लिए जिसे दो आदमी धकेल रहे हैं। बाहर से आए श्रमजीवी लोग हैं। कश्मीर के लोगों की तरह उन दोनों की भी दाढ़ियाँ हैं, जैसे मेरी हैं। मैं उन्हें कहता हूँ “अच्छे से घुमाना... मैं भी दाढ़ी वाला आदमी हूँ।” यह सुनकर वे अपनेपन से हँस उठते हैं। अब हमारे दोनों ओर बेताब घाटी की पहाड़ी सुन्दरता पसरी हुई है। दूर- दूर तक पहाड़ों की चोटियाँ और उस पर धूप में चमकती बर्फ जैसे चाँदी का हो वर्क। पहलगाम कश्मीर का प्रमुख रमणीय पर्यटन स्थल है। अमरनाथ की वार्षिक यात्रा का आधार कैंप है। धकेलने वाला भाई बताता है - “यह सामने जो चाँदी का वर्क मढ़े जैसी बर्फीली चोटी देख रहे हैं न... बस उसके नीचे अमरनाथ है। रास्ते में चन्दनवाड़ी है।”

हम यहाँ अपनी कुछ तस्वीरें उतरवाते हैं, श्रमजीवी भाइयों से। वे अच्छी तस्वीर लेते हैं और कुछ वीडियो भी। कुछ बालकों के पास खूबसूरत मेमने हैं बड़े बालों वाले जिन्हें रंगीन कर दिया है। वे पत्नी से आग्रह करते हैं - “मेम इस मेमने को अपनी गोद में रखकर तस्वीर उतरवा लें। उसके सौ रुपये लगेंगे।” चन्द्रा का मातृत्व उनकी आजीविका के प्रति जागा और वह एक कुर्सी में बैठकर मेमने को अपनी गोद में बिठाकर तस्वीर उतरवा ली, जिसे फेसबुक में पोस्ट करने से फिर धूम मच गई। मेम के साथ मेमना। शांति के दूत कबूतर का रेट फकत दस रुपये और नखरैल मेमना फोटो खिचाने का सौ रुपये लेती है।

यहाँ पहाड़ों में बकरी और भेड़ों के झुंड लेकर चरवाहे चलते देखे जा सकते हैं। शेक्सपियर के नाटक ’एज यू लाइक इट’ में जो विदूषक है, उसे एक चरवाहा व्यंग्य से कहता है कि ’सुनो! जिसे राजदरबार में शिष्टाचार माना जाता है, वैसा व्यवहार गाँव वालों के बीच हास्यास्पद माना जाता है।’ चरवाहा अंग्रेजी काव्य में ग्रीक काव्य की परंपरा की भाँति रोमांस का द्योतक है। उसका जीवन आनंदमय, चिंताहीन समझा जाता है। संभवतः यह बात दुनिया के सभी चरवाहों पर लागू होती है। ऐसा इन पहाड़ों के चरवाहों में भी दिखता है।

हम यहाँ से दूर जिस सड़क पर जा रहे थे, वह अत्यंत संकरी थी और इसलिए केवल सूडान यानी सबसे छोटी कार ही चल सकती थी। पाइन यानी देवदार के वृक्षों से लदे पहाड़ों की ऊँची- ऊँची चोटियों के करीब हम पहुँचते जा रहे थे। ये कुछ पहाड़ हैं, जिनकी तुलना स्विट्जरलैंड के आल्प्स पर्वत के आकार- प्रकार से की जाती है और इसलिए कश्मीर को स्विट्जरलैंड भी कह दिया जाता है; पर हिमालय का सौन्दर्य उसकी विराटता, अतुलनीय और बेमिसाल है। ड्राइवर कहता है - “हम आपको आरू वैली ले जा रहे हैं साब। यहाँ से अट्ठारह किलोमीटर है और इसका नज़ारा आते- जाते ही देख लीजिए। अंत में जाकर एक दरिया मिलेगा, वहाँ हम आपकी तस्वीर उतार लेंगे।” नदी को यहाँ दरिया कहते हैं।       

हम देख रहे थे इस दुर्गम मार्ग से उत्तुंग हिमालय को जिसके पहाड़ ऊँचे होते जा रहे थे और घाटियाँ नीचे और गहरी होती जा रही थीं। इन घाटियों और खाई- खंदकों जैसे इलाके में बनी संकरी सड़क पर कई ऐसे खतरनाक मोड़ आ रहे थे, जहाँ सड़क का किनारा एक इंच ही बच रहा होता और उसके बाद सैकड़ों फुट नीचे गहरी घाटी। पहाड़ों जैसी ऊँचाई देवदार पेड़ों की भी है। ऊँचे - ऊँचे दरख़्त जिसमें नोकदार पत्तियाँ होती थीं और जिसका सिरा होता था पहाड़ों की चोटियों की मानिंद। कश्मीर के सभी पेड़ नोकदार व धारदार होते हैं; ताकि बर्फ़बारी में बर्फ उन पर टिके नहीं और उनकी खूबसूरती व मस्ती बनी रहे। प्रकृति ने इन्हें वैसे ही जीवट और सुन्दर बनाया है, इनके रहवासियों की तरह। अंत में हमें यहाँ भी अमरनाथ से आती लिद्दर ही मिली थी अपने संकरे पाट; लेकिन तेज बहाव के साथ।

पहलगाम के छोटे और खूबसूरत पहाड़ी बाजार में दाना- पानी लिखा था, दाना- पानी रेस्त्रां में। यहाँ हमने कमल ककड़ी (ढेंस) जिसे हम मसालेदार खाते हैं उसे यहाँ मट्ठे के बघार में चावल के साथ खाया। 

हम भोजन कर बाजार के पीछे उस स्थान पर गए, जिसे बैसरन कहा जाता है। घोड़ी चढ़ने वालों ने हमसे संपर्क किया और बताया - “यहाँ से छह किलोमीटर दूर है साहब... आप दोनों का किराया साढ़े चार हज़ार लगेगा। अच्छे से घुमाकर ला देंगे।” अपने रीढ़ के दर्द से परेशान हमें घोड़ी चढ़ने से बचना था और हम पहले भी बचे थे। हमने मना कर दिया। यह 14 मई 2025 की बात है। इसके ठीक एक सप्ताह बाद 22 मई को जब हम कश्मीर यात्रा पूरी कर वापस अपने शहर दुर्ग पहुँच गए थे, तब इसी बैसरन में बड़ी अमानवीय घटना घट गई। यहाँ आतंकवादियों ने छब्बीस पुरुषों को उनके धर्म पूछकर बड़ी बेरहमी से उनके सबके सिर में बारी - बारी  से गोली मार दी और वे नवजवान अपनी पत्नी बच्चों के सामने रक्तरंजित होकर स्वर्ग सिधार गए...पर यह वह स्वर्ग नहीं है, जिसके लिए कश्मीर जाना जाता है। यह नरक से भी बदतर था। ये आतंकवादी केवल चार- पाँच लोग थे और सीमावर्ती जंगल से पैदल ही आए थे। यह आशंका हुई कि ये पाकिस्तान की सीमा से घुसे आतंकवादी हैं। ये पकड़े नहीं गए। फिर कुछ दिनों बाद भारत ने पाकिस्तान पर हमला कर दिया और उनके आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त किया। कश्मीर की वादियों में आतंक वादियों ने पहलगाम पर हमला किया; क्योंकि सबसे ज्यादा सैलानी यहीं आते हैं। आतंकवादी चाहते हैं कि कश्मीर आतंक के साये में ही जिए और उन पर इनका कब्ज़ा रहे। इसके प्राकृतिक स्रोतों पर अपना आधिपत्य जमाएँ और वे अपने हिसाब से यहाँ जंगल राज चला सकें, साम्प्रदायिक उन्माद फैला सकें। इसलिए इस बार आतंकवादियों ने सैलानियों पर सीधे हमला किया, ताकि वे आगे भी न आएँ।

ओह पहलगाम! अभी चार दिनों पहले तुम्हारी मुहब्बत भरी फिजा में हम डूबे हुए थे। भारत का स्वर्ग, वहाँ रहने वालों की खूबसूरती और सबका दिलकश अंदाज़, कश्मीरी, डोगरी और पश्तो की मिठास, अमन चैन और भाईचारा... इसमें कश्मीर के अवाम का क्या दोष था। दोष तो उन चन्द सिरफिरों का है, जो सैलानियों को मारकर वहाँ के रहवासियों के पेट पर प्रहार करते हैं। कायनात की सारी खुशी आजीविका के साधनों पर जिंदा रहती है दोस्तों... आजीविका छीन जाने से कुछ भी धरा नहीं रह जाता। कहाँ वो खूबसूरती का सबब और कहाँ ये खौफनाक मंजर...कहीं कोई मेल नहीं है।

कश्मीर हमारे देश का अकेला राज्य है जहाँ मुसलमान आबादी अधिक है। यहाँ लोग सुन्दर, सहयोगी, मधुर व्यवहार और आतिथ्य सत्कार से भरे हैं। सरकार का कहना है कि वर्ष 2024 में कश्मीर घाटी में ढाई करोड़ पर्यटक आए थे। देश की देशाटन प्रिय जनता ने साबित कर दिया कि उनकी पहली पसंद कश्मीर है; इसलिए इस आतंकवादी हमले के खिलाफ कश्मीर सहित हमारे देश भर के मुसलमानों ने और सबने साथ मिलकर भारत सरकार का समर्थन किया और अपनी एकजुटता का परिचय दिया; क्योंकि कश्मीर हमारा स्वर्ग है... और कश्मीरवासियों का जीवन भी स्वर्ग बने नरक नहीं। यह जिम्मेदारी भी हमारी बनती है। ■

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491 001, मो. 9009884014

प्रसंगः गुरु साध्य नहीं उत्प्रेरक तत्त्व मात्र है

  - सीताराम गुप्ता

कहा गया है कि अप्प दीपो भव लेकिन ये भी ठीक है कि हर व्यक्ति अपना दीपक अथवा गुरु नहीं बन सकता। स्वयं दीपक अथवा प्रकाश बनने के लिए भी उचित मार्गदर्शन अनिवार्य है और ये मार्गदर्शन एक गुरु के बिना, उसकी संगति के बिना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। लेकिन क्या एक योग्य गुरु की तलाश या चुनाव सरल है? यदि हममें योग्य गुरु की तलाश करने की योग्यता हो तो फिर गुरु की आवश्यकता ही क्या है? जो व्यक्ति एक अच्छे गुरु की तलाश करने की योग्यता रखता हो वह तो स्वयं अपना गुरु बन सकता है। व्यक्ति को जहाँ तक संभव हो आत्मविकास कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करना चाहिए। इक़बाल ने कहा है:

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,

ख़ुदा  बंदे से  ख़ुद पूछे  बता  तेरी  रज़ा क्या है?

 अज्ञेय लिखते हैं, ‘‘वास्तव में कोई भी किसी को सिखाता नहीं है, जो सीखता है, अपने ही भीतर के किसी उन्मेष से, प्रस्फुटन से सीख जाता है। जिन्हें गुरुत्व का श्रेय मिलता है, वे वास्तव में केवल इस उन्मेष के निमित्त होते हैं और निमित्त होने के लिए किसी गुरु अथवा व्यक्ति की क्या आवश्यकता है? सृष्टि में कोई भी वस्तु उन्मेष का निमित्त बन सकती है।’’ लोग कहते हैं कि गुरु के बिना पूर्णता नहीं मिलती, उत्कर्ष को नहीं पा सकते; लेकिन आज के तथाकथित गुरु ज्ञान कहाँ दे रहे हैं? आपको मुक्त कहाँ कर रहे हैं? आपको अपने आपको जानने का अवसर कहाँ उपलब्ध करा रहे हैं? आज के अधिकतर गुरु तो अपनी महत्ता सिद्ध करके पैसा कूटने में लगे हुए हैं।

परमहंस रामकृष्ण नहीं मिलते, तो नरेंद्रनाथ दत्त विवेकानंद नहीं बन सकते थे। नेत्रहीन स्वामी विरजानंद ने मूलशंकर को स्वामी दयानंद सरस्वती बना दिया। जब मूलशंकर ने स्वामी विरजानंद की कुटिया का द्वार खटखटाया, तो उन्होंने पूछा था- ‘‘कौन है?’’ मूलशंकर ने कहा था, ‘‘यही तो जानने आया हूँ।’’ जिज्ञासा मूलशंकर में थी। उसी जिज्ञासा, उसी ज्ञानलिप्सा ने उन्हें दयानंद सरस्वती बना दिया। हमारी सबसे बड़ी विडंबना है कि हम साधन को लक्ष्य अथवा साध्य मान लेते हैं। चाहे गुरु हों अथवा तीर्थस्थल हों, ये सब साधन हैं, उत्प्रेरक हैं। इनका अपना महत्त्व है; लेकिन मात्र साधन से, उत्प्रेरक से आप अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते।

गुरु का महत्त्व है, उसको हम मानें, उसके बताए मार्ग पर चलें; लेकिन ख़ुद चलें, अपना मार्ग ख़ुद तय करें। जब तक ख़ुद स्वयं को जानने का प्रयास नहीं करेंगे, तो हम प्रगति नहीं कर सकते। स्वयं को जानने के लिए बाह्य नहीं; अपितु अंतर्यात्रा करनी अनिवार्य है। इस सब की सामर्थ्य हमारे अंदर है। बस उसे पहचानना है। यहीं गुरु का काम प्रारंभ होता है। गुरु हमें हमारी क्षमताओं से परिचित करवाता है, बस और उसके बाद उसका काम समाप्त। खोज हमें स्वयं करनी है  यह खोज दूसरा कोई नहीं कर सकता। गुरु भी नहीं। पहुँचा हुआ गुरु भी नहीं। वह अपनी खोज करता है, हमें अपनी खोज करनी होती है। गुरु इसमें सहायक नहीं होता तो उसकी भूमिका का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता। 

 हाँ,  गुरु के प्रति सम्मान व श्रद्धा अनिवार्य है। यह सम्मान व श्रद्धा शिष्य व गुरु के मध्य सीखने- सिखाने का परिवेश निर्मित करने के लिए महत्त्वपूर्ण ही नहीं अनिवार्य भी है। लेकिन जब यही सम्मान व श्रद्धा किसी अयोग्य गुरु अथवा तथाकथित संत-महात्मा के प्रति उत्पन्न हो जाती है तो शिष्य ही नहीं समाज का विनाश भी निश्चित है। कई बार किसी बीमारी के उपचार के लिए हम किसी डॉक्टर के पास जाते हैं। यदि उस डॉक्टर के उपचार से बीमारी में आराम नहीं पहुँचता, तो हम फ़ौरन डॉक्टर बदल लेते हैं। इसी तरह से यदि भूलवश किसी अयोग्य गुरु अथवा तथाकथित संत-महात्मा के प्रति सम्मान व श्रद्धा उत्पन्न हो जाए तो इस बात का पता लगते ही उससे शीघ्र छुटकारा पाने में ही सबका कल्याण है।  ■

लोक कलाः हमारी सांस्कृतिक धरोहर है ऐपण

 
- ज्योतिर्मयी पन्त  

     सृष्टि में सभी जीव जंतुओं में मनुष्य को श्रेष्ठ माना गया है । उसके पास बुद्धि और विवेक का वरदान है। वह अपनी अनुभूतियों को अनेक माध्यमों से व्यक्त कर सकता है। अपनी भावनाओं को शब्दों और लय में बाँध कर कविता और गीत गाता है । वाद्य यंत्रों की संगत में संगीत के स्वर बनाता  है । प्रसन्नता में थिरकने लगता है, तो नृत्य करता है । लेखन से साहित्य रचता है । कभी गुफाओं की भित्तियों में चित्र अंकित करता है । प्रस्तर और मिट्टी की मूर्तियों का सृजन करता है । कभी रंग और कूची लेकर कागज, वस्त्र और दीवारों पर अपनी कल्पनाओं  को साक्षात रूप देता है । कहने का तात्पर्य है कि आदि काल से ही मनुष्य और विविध कलाओं का अंतरंग सम्बन्ध रहा है ।  

 ये विविध कलाएँ  लोक जीवन का  विशेष अंग बन कर किसी समाज की पहचान बन जाती हैं । कला के इन आयामों में चित्रकला का विशेष स्थान है । कुछ कलाएँ हमारे रोज के कार्यक्रमों और तीज- त्योहारों का अभिन्न अंग बन जाती हैं । इनमें उपयोग आने वाली वस्तुएँ भी घर में ही उपलब्ध  हो जाती हैं ।  

 ऐसी ही एक कला है उत्तराखंड की- ऐपण की कला, अल्पना तथा चित्रकला । पुराने समय से ही यह बहुत प्रचलित रही है परन्तु आधुनिकता के इस दौर में यह विलुप्ति के कगार पर पहुँच रही है । यह कला एक सांस्कृतिक धरोहर है जिसका संरक्षण आवश्यक है, पर पहले इसका परिचय -  

    ऐपण का महत्त्व

   ऐपण का हर घर में बहुत ही महत्त्व है । कोई भी त्यौहार हो सर्वप्रथम घरों में ऐपण दिए जाते हैं । घर की हर देहरी, दहलीज, पूजा स्थान को सबसे पहले गेरू यानी लाल मिट्टी से लीपा जाता है। फिर थोड़ा सूख जाने पर चावल को भीगा कर, पीस कर बनाए गए घोल, जिसे "बिस्वार" कहा जाता है से चित्रांकन किया जाता है । चावल के घोल में उँगलियों को डुबो कर मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठ अँगुलियों की सहायता से अलग - अलग तरह के चित्र बनाए जाते हैं । यों तो घर की देहरी और पूजा स्थान हमेशा ही ऐपण से सजे होते हैं । पर हर त्यौहार पर घर की महिलाओं का पहला काम ऐपण देना होता है ।  

देहरियों या देलियों पर अक्सर फूल बेल - बूटे तथा अन्य चित्र बनाए जाते हैं । परन्तु घर के अन्य भागों या पूजा स्थल पर पर्व विशेष पर आधारित चित्र अंकित किए जाते हैं । इन्हें चौकी कहा जाता है इन्हें ज्यामितीय आकारों, त्रिकोण, षटकोण, स्वस्तिक चिन्ह, ओंकार चिन्ह, सूर्य -चन्द्रमा, शंख -घंट, फल -फूल, अष्ट दल या अधिक दल वाले कमल के फूल से सजाया जाता है । सरस्वती चौकी, लक्ष्मी चौकी, जन्मवार – नामकरण, विवाह के अवसर पर धूल्यर्घ, कन्यादान आदि अवसरों के अनुसार चौकियाँ बनाई जाती हैं, हवन की वेदी के लिए या  घर में मंदिर और मूर्तियों के स्थान पर भी ऐपण अलग तरह के बनते हैं  । बच्चे के नामकरण के अवसर पर सूर्य चौकी बनाई जाती है इस दिन नवजात शिशु को पहली बार सूर्य दर्शन कराया जाता है । देहरी या अन्य ऊँचे स्थान पर  ऊपर से नीचे की ओर  खड़ी  लकीरें अंकित होती हैं, जिन्हें वसोधारा कहते हैं । बिस्वार में उँगलियों  को डुबो कर पाँच  या सात के अंतराल पर ऊपर से बूँदें इस तरह टपकाई जाती हैं  की खड़ी लकीरें सुन्दर और सीधी रहें। गहरे लाल रंग के गेरू से लिपे स्थान पर सफ़ेद चमकते नमूनें  जब उभरते हैं तो उनकी छटा दर्शनीय होती है । दीवाली के अवसर पर सारे घर में लक्ष्मी देवी के पैर, जिन्हें आंचलिक भाषा में `पौ` कहा जाता है , बनाये जाते हैं । इनको बनाने के लिए पहले दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बनाकर बिस्वार में डुबो देवी के पैर बनाये जाते हैं । फिर अनामिका उँगली से पैर की उँगलियाँ  बनाई जाती हैं । दोनों पैरों के बीच में गोल बिंदु सजाये जाते हैं। घर के चारों ओर से घर में देवी का प्रवेश हो, इसलिए देवी के पदचिह्न बनाये जाते हैं बाहर से घर की ओर ।  

 कार्तिक की  बड़ी एकादशी को बूढ़ी दीवाली के नाम से मनाया जाता है । इस दिन सूप में अंदर की ओर लक्ष्मी -गणेश -विष्णु का चित्र बनाया जाता है और बाहर  की तरफ दरिद्र जिसे भुँइयाँ कहते हैं, का चित्र बनाया जाता है जिसे सुबह गन्ने की डंडी से पीट -पीटकर पूरे  घर में घुमाया जाता है बाद में ओखली के पास पूजा होती है की दरिद्र फिर न आये।  

 हर पूजा-पर्व पर तुलसी के स्थान पर भी ऐपण दिए जाते हैं। घर की साफ सफाई और सजावट के लिए कभी भी ऐपण दिए जा सकते हैं पर त्यौहार पर अत्यावश्यक हैं पर किसी दुखद घटना या सूतक के समय नहीं बनाये जाते ।  

  घरों के फर्श दीवारों और देहरी पर ऐपण बहुत सुन्दर लगते हैं । इनके अतिरिक्त अन्य तरह की चित्रकला भी यहाँ बहुत प्रचलित है । जिन्हें  कागज़, वस्त्र या लकड़ी के पट्टों या दीवारों  पर बनाया जाता है । इन्हें `पट्टा` कहा जाता है। इनमें प्रमुख इस प्रकार हैं -

जन्माष्टमी का पट्टा   

  इसे दीवार पर या कागज़ पर बनाया  जाता है । इसमें कृष्ण जन्म से सम्बंधित सभी आख्यान जैसे-  बंदीगृह में कृष्ण जन्म, वसुदेव का उन्हें यमुनापार टोकरी में लेकर जाना , शेषनाग द्वारा सर पर रक्षा करना, नन्द के घर यशोदा के पास रखना, बाल लीलाएँ बकासुर आदि का वध, ऊखल में बंधना, गोपियों के साथ रास लीला, गाएँ चराना अर्थात कृष्ण का पूर्ण जीवन -वृत्त दिखाया जाता है। जन्माष्टमी को इसका पूजन होता है ।  

ज्यूँति का पट्टा 

 इसमें तीन देवियों- महालक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के साथ दाहिनी ओर श्री गणेश जी का चित्र बनाया जाता हैं । साथ में नीचे की ओर सोलह मातृकाओं का चित्र बनता है । बच्चे के षष्ठी कर्म, नामकरण, जनेऊ, विवाह आदि सभी शुभ कार्यों में इनका पूजन होता है अक्सर बुआ इस पट्टे को बनती हैं या लाती हैं । पूजा के बाद बुआ को उपहार मिलते हैं।  

पहले घर की महिलाएँ इसे बनाती थीं, लकड़ी की पतली डंडी में रूई लपेट कर कूची बनाकर लाल रंग  या स्याही से बनाती थीं । अब तो ये छपे हुए रूप में बाजार में मिल जाते हैं।  

मातृका पट्टा  

विवाह के अवसर पर ये पट्टा अलग से बनता है । इसमें गणेश और गौरा  के अलावा सोलह बिंदु या त्रिकोण षोडश मातृका के प्रतीक स्वरूप बनाये जाते हैं । वधू के गृह प्रवेश के समय द्वार पर इनकी पूजा होती है । वधू उनपर घी की धारा डालकर पूजा और आरती करती है । तब घर के अंदर आती है । विवाह के संस्कार पूर्ण  होने पर बाँस की टोकरी में लाल वस्त्र से ढक कर इसे वधू सर पर रख घर के पास जलाशय पर जाती है । वहाँ भी पूजा के बाद इसे विसर्जित किया जाता है ।

बट सावित्री  पूजा पट्टा 

   जेष्ठ माह में महिलाएँ बट सावित्री का व्रत और पूजन करती हैं । इस अवसर पर सत्यवान - सावित्री  की पूजा करती हैं । निर्जल उपवास किया जाता है इस व्रत का यहाँ उतना ही महत्त्व है जितना अन्यत्र करवा चौथ के व्रत का । यहाँ पट्टे में वट वृक्ष सत्यवान और सावित्री का चित्र  बना कर पूजा की जाती है और अखंड सौभाग्य की कामना की जाती है ।  

बट सावित्री  पूजा पट्टा 

 गंगा दशहरा पर्व के दिन लोग अपने घरों के दरवाज़ों के ऊपर इन पत्रों को लगते हैं । इसमें गणेश, शिव, हनुमान, आदि देवताओं के या ज्यामितीय चित्र बनाये जाते हैं । मान्यता है इन्हें द्वार पर लगाने से बरसात में बिजली गिरने का भय नहीं रहता ।  

षष्टी की चौकी  

इसे लकड़ी के पाटे पर गोबर से बनाया जाता है। इसमें तीन देवियों को बनाया जाता है। चारों ओर और बीच की खली जगह को आटे, हल्दी, रोली कुमकुम से सजाकर जौ से पूरा जाता है । छठी पूजन के बाद नाम कारण के दिन जलपूजन के बाद विसर्जित किया जाता है।  

सेली 

विभिन्न अवसरों पर आरती के लिए विशेष थाल बनाया जाता है जिसे सेली कहते हैं । आटे के दीये बनाकर थाल  में  किनारों में रखकर बेल बूटियों से  सजाया जाता है रंगों, फूलों की पंखुड़ियों से थाल को सजाते हैं । विवाह के समय दूल्हे का स्वागत इसी आरती से होता है ।  

वर की चौकी 

 विवाह के अवसर पर जहाँ वर का स्वागत करने के लिए धूल्यर्घ की चौकी बनाई जाती है । वहीं दूल्हे औए वर पक्ष के ब्राह्मण की पूजा के  लिए विशेष चौकियाँ बनाई जाती हैं। ये लकड़ी की चौकियों को पीले रंग से रंग कर अन्य रंगों से चित्रित किए जाते हैं जहाँ ब्राह्मण की चौकी को चारों ओर बेल - बूटे बना कर बीच में स्वास्तिक बना दिया जाता है वहीं वर की चौकी पर विशेष नमूना बनाया जाता है । 

इसके अतिरिक्त उत्तराखण्ड की महिलाओं का विशिष्ट परिधान ``रंग्वाली का पिछौड़ा `भी चित्रकला का अनुपम उदाहरण है । पहले कपड़े को पीले या केशरिया रंग में रंगा जाता है फिर लाल रंग से चारों ओर सुन्दर किनारों के नमूने बनाये जाते हैं ,बीच में बड़ा सा स्वास्तिक बनाकर उसके चारों खानों में शंख -घंट - सूर्य -चन्द्र बनाये जाते हैं । विवाह के समय मायके और ससुराल दोनों जगह बनाए जाते हैं । बाद में हर धार्मिक और पारिवारिक सांस्कृतिक अवसरों पर इसे अवश्य पहना जाता है । अब लोग समय की कमी का बहाना कर इसे घरों में नहीं बनाते वरना रंग्वाली का दिन शादी विवाह का एक विशेष दिन होता था। आधुनिक समय में ये बाजार में छपे हुए मिलने लगे हैं । इनसे रंग उतरने या फीके पड़ने का डर नहीं रहता ।  

  इन सभी की विशेषता यह है की इनकी सामग्री घर पर ही उपलब्ध हो जाती है । किसी कुशल कारीगर की आवश्यकता नहीं पड़ती । घर की सभी महिलाएँ मिलजुल कर कार्य संपन्न कर लेती हैं । उन्हें अपनी कलाओं को दिखाने का अवसर मिल जाता है । विषय प्रकृति पर आधारित होते हैं, जिसके सान्निध्य में वे दिन रात रहती हैं, फल- फूल, पेड़ -पौधे, चाँद- सितारे -सूर्य- जल -कलश-शंख घंट,  सभी चित्रों में शामिल होते हैं, स्वस्तिक चिह्न तो प्राचीन समय से ही विभिन्न संस्कृतियों का अंग रहा है । इसे सूर्य का और पवित्रता का प्रतीक भी माना जाता है । मिश्र और यूनान में भी इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं ।  

यह कला यद्यपि अभी तक प्रचलित है, पर बाजारीकरण के इस युग में इसकी मौलिकता को खतरा है अब प्लास्टिक में यह कला उपलब्ध हो रही है । 

कहते हैं हर व्यक्ति के अन्दर एक कलाकार छुपा होता है जो अवसर मिलने पर उजागर होता है  आशा है आज की पीढ़ी  आने वाली पीढ़ी को यह कलात्मक संस्कार भी देगी ताकि हमारी धरोहर सुरक्षित रहे संवर्धित हो सके । इसे  बचाकर रखना हमारा कर्तव्य है कि यह जीवित रह सके । ■

सम्पर्कः गुडगाँव , मो.  09911274074


स्वास्थ्यः अचानक ही चौथे स्टेज का कैंसर कैसे हो जाता है?

  - निशांत

इस वर्ष अप्रैल में मैंने अपने प्रिय मौसेरे भाई को कैंसर के हाथों खो दिया।

अन्नू भैया मुझसे लगभग 7–8 साल बड़े थे। 1980–90 के दौरान मुझे उनके साथ समय बिताना बोहुत अच्छा लगता था; क्योंकि हम दोनों के पास ही इफरात समय था और उनके पास साइकिल होती थी। बाद में उनके पास लूना या टीवीएस एक्सएल जैसी कोई मोपेड आ गई। मैं उनके साथ शहर के दूरदराज के बाजारों में जाता था। हम गन्ने का रस पीते थे। चार आने में मिलने वाले पान खाते थे। भोपाल की सेंट्रल लाइब्रेरी में बैठे रहते थे। वे बहुत बेफिक्री के दिन थे।

अन्नू भैया को शुरु से ही रेडियो और टेपरिकॉर्डर वगैरह सुधारना अच्छा लगता था। हमारे पास बाबा आदम के जमाने का रेडियो था, जिसके अंदर वाल्व जैसी चीज़ें धीरे-धीरे जलती थीं। उसके पार्ट्स मिलना बहुत कठिन था। मुझे याद है कि उसके पार्ट्स और एंटीना वगैरह के लिए हम दोनों ने न जाने कितनी दुकानों की खाक छानी। पतंग उड़ाना, साइकिल चलाना और मूँछ वाले बल्बों को जोड़कर सर्किट (सीरीज़) बनाना मैंने उनसे ही सीखा था।

बाद में अन्नू भैया की नौकरी रेलवे में लग गई। उनकी शादी हुई और एक बेटा भी हुआ जो अभी इंजीनियरिंग कर रहा है।

अन्नू भैया को 2017 की शुरुआत से ही सर दर्द होता रहा। वे बहुत मोटे काँच का चश्मा लगाते थे; इसलिए उन्होंने सोचा कि 50 की उम्र के बाद नज़र कमज़ोर होने के कारण सर दुखता होगा। वे इसे कई महीने तक नज़र अंदाज करते रहे। 2017 के अंत में उन्हें तेज दर्द हुआ और वे बेहोश हो गए। उनकी MRI कराई गई, जिससे पता चला कि उनके ब्रेन में ट्यूमर था।

उन्हें आनन - फानन में मुंबई लेकर गए जहाँ ऑपरेशन किया गया। भोपाल लौटने पर कैंसर अस्पताल में उनकी रेडियोथैरेपी और कीमोथैरेपी शुरू कर दी गई ताकि कैंसर पलटकर नहीं आ जाए।

कुछ महीने शांति से बीते (यह 2018 के बीच की बात है); लेकिन उनकी हालत दोबारा बिगड़ने लगी। हाथ-पैरों का काँपना, बोलने और खाने में कठिनाई और इस जैसे ही दूसरे लक्षण। MRI से पता चला कि कैंसर दोबारा आ गया था। फिर मुंबई का एक दौरा और दूसरा आपरेशन। रेडियोथैरेपी और कीमोथैरेपी के दूसरे राउंड शुरु हो गए।

पैसा पानी की तरह बहा जा रहा था। वे सरकारी कर्मचारी थे; लेकिन सरकारी तरीके से इलाज कराने में देरी होती; इसलिए परिवार ने सीधे ही प्राइवेट इलाज करवाना सही समझा। पत्नी और बेटे के साथ हवाई जहाज से आना जाना और कई-कई सप्ताह तक मुंबई में रुककर कैंसर का इलाज करवाना बहुत अधिक खर्चीला है। कई परिवार आर्थिक रूप से तबाह हो जाते हैं।

पिछले साल दीवाली के आसपास मुझे पता चला कि अन्नू भैया को Glioblastoma multiforme (GBM) नामक ग्रेड-4 कैंसर था। मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता था; इसलिए मैंने इंटरनेट पर सर्च किया। यह पढ़ते ही मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई कि यह सबसे खतरनाक किस्म का ब्रेन कैंसर था और इससे प्रभावित व्यक्ति के 2 या 3 साल से अधिक जीवित रहने की कोई संभावना नहीं थी। इसके बारे में मेरे सामने इतना सारा डेटा था कि मैंने बड़े बुझे दिल से यह मान लिया था कि हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। कैंसर की गिरफ्त में अन्नू भैया को 2 साल हो चुके थे और हम यह भी नहीं जानते थे कि डायगनोसिस से कितना समय पहले कैंसर ने उनके ब्रेन में जगह बनाई।

पिछले साल दीवाली के बाद अन्नू भैया की हालत बिगड़ती गई। उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया। मुंबई ले जाने पर डॉक्टरों ने कह दिया कि अब कोई ऑपरेशन नहीं किया जा सकता; क्योंकि कैंसर ब्रेन में बुरी तरह से फैल चुका था।

भोपाल वापसी पर वे बीच-बीच में अस्पताल में भर्ती होते रहे। अब शरीर में भयंकर तरह से झकझोरने वाले दौरे आने लगे थे। दिमाग पूरे शरीर पर से नियंत्रण खोता जा रहा था। एक मन कहता था कि अभी भी कोई चमत्कार हो सकता है; लेकिन दूसरा मन कहता था कि अब गिनती के ही दिन बचे हैं।

इस साल मार्च में अन्नू भैया अस्पताल में भर्ती हुए और कोमा में चले गए। वे पूरे एक महीने कोमा में पड़े रहे और डॉक्टरों ने कई बार परिवार से लाइफ सपोर्ट हटाने के बारे में कहा; लेकिन यह निर्णय लेने की किसी को भी हिम्मत नहीं हुई। अंततः 2 अप्रैल को लाइफ सपोर्ट हटा दिया गया और खेल खतम हो गया।

अन्नू भैया तो खैर प्रौढ़ हो चले थे। कैंसर अस्पताल में बहुत से नवयुवक और छोटे बच्चे देखने को मिले जो ग्रेड-4 लेवल के कैंसर से ग्रस्त थे और उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी।

आमतौर पर आखिरी स्टेज के कैंसर के लक्षणों को नज़र अंदाज करना बहुत कठिन है लेकिन कैंसर इतना जटिल रोग है कि यह भीतर-ही-भीतर व्यक्ति को खाता रहता है और किसी को पता ही नहीं चल पाता। कभी-कभी कैंसर के कोई लक्षण मौजूद नहीं होते और कभी-कभी बहुत मामूली लक्षण मौजूद होने पर भी व्यक्ति इस गफलत में रहता है कि उसे इतनी गंभीर बीमारी नहीं हो सकती। लोग अपने परिवार, बच्चों, नौकरी, मनोरंजन में इतने रमे रहते हैं कि कैंसर जैसे किसी रोग के होने का बुरा खयाल भी लोगों के मन में नहीं आता।

बहुत से कैंसर वाकई लक्षणहीन होते हैं। कई बार लोगों को पता ही नहीं होता कि किसी खास लक्षण का संबंध कैंसर से भी हो सकता है। लोग अपने शरीर में कुछ अजीब-सा अनुभव करते हैं लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लेते। कई बार लोगों के डॉक्टर भी इतनी दूर का नहीं सोच पाते और रोग कुछ सप्ताह में ही प्राणघातक हो जाता है।

इसके अलावा कैंसर के कुछ प्रकार भयंकर उग्रता से बढ़ते हैं और उनपर उपचार की किसी विधि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बहुत से मामलों में गरीबी या आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण अच्छा इलाज नहीं मिलना भी शीघ्र मृत्यु होने का बड़ा कारण होता है। कुछ खास तरह के कैंसर शरीर के भीतर कई सालों तक पनपते रहते हैं, जैसे अंडाशय का या आंतों का कैंसर। इन्हें साइलेंट किलर कहते हैं। इनके ट्यूमर को कभी-कभी डिटेक्ट होने लायक आकार तक बढ़ने में 10 साल तक लग जाते हैं।

कुल मिलाकर, कैंसर रोग की गंभीरता और जटिलता को मुझ जैसे बहुतेरे लोग तभी समझ पाते हैं जब उनका कोई प्रियजन इसकी चपेट में आकर गुम हो जाता है और कुछ महीनों के भीतर ही कोई खुशहाल परिवार बर्बाद हो जाता है।

और जब हममें से किसी के प्रियजन को यह रोग हो जाता है तब उन कुछ हफ्तों या महीनों के दौरान बहुत सी दूसरी चीज़ें हमारे लिए अर्थ खो बैठती हैं – ये वे दो कौड़ी की चीज़ें हैं जिनपर हम अपनी बेशकीमती ज़िंदगी का दारोमदार डाल देते हैं। हमें दुनिया भर की तुच्छ बातों और चीज़ों के सतहीपन का इल्म होने लगता है। हम यह परवाह नहीं करते कि बिल्डिंग के बाहर किसने हमारी पार्किंग की जगह हथिया ली या किसने हमारे पौधों से फूल तोड़ लिए। हम साल-दर-साल हर दिन नींद से जागने पर अपने प्रियजनों को और अपने पसंदीदा टीवी शो को देखना चाहते हैं। (हिन्दी ज़ेन से) ■

दस छोटी कविताएँ

     - छवि निगम 

1

नहीं चाहिए

नाल

न लगाम

न ही तुम।


2

जीवन क्या

खोजते रहना 

सही कॉन्टैक्ट नम्बर ऊपर वाले का

बस ।

3

रिश्ते आभासी मौजूदगी बॉयोमैट्रिक

आजकल तो

सिम गया

याददाश्त गई।

4

सागर और धरती घुटते हैं

ऊपर से शांत दिखें चाहे

भूकम्प को तरसते हैं

सुनामी को तकते हैं ।

5

फेस मास्क बरकरार हैं

दूरियाँ दरम्यान हैं

अपने इस दौर की

अजनबियत ही पहचान है ।

 6

कैनवास नहीं 

हर कोई यहाँ पर

ब्लैकहोल भी हैं

अपने रंग बचाना तुम ।

7

जुड़े

तो कहानी,

टूटे

तो कविता ।

8

रात का मुलम्मा

उतार फेंकता है

दिन

बड़ा संगदिल हुआ करता है

9

अगर डरो,

तो मौन से डरो

कि भीतर के शोर का

यही चरम है

10

विश्वासघात 

और ज़िन्दगी,

आपस में

व्युतक्रमानुपाती

हाइकुः स्वर्णिम यादें

  - कृष्णा वर्मा

1

हमारे साथ 

हम बनके खड़े 

बहरूपिए । 

2

बचे हैं गिले 

सड़क चौराहों पे 

मुक्त हो मिलें।

3

रहो दिलों में 

नदी प्रवाह में ज्यों 

रहता अर्घ्य।

4

किससे बाँटें 

दिल की पीठ पर 

लदी हैं यादें। 

5

कसमें वादे 

पीले पड़े पत्रों में 

स्वर्णिम यादें।  

6

साथ बैठाके 

जोड़ता था आँगन 

अनबन को। 

7

गाँठ लेते जो

सही वक़्त आत्मा क्यों

चरमराती। 

8

डर जाता है 

निशब्द प्रलापों से 

मेरा एकांत। 

9

सहमे दर्द 

मिले बांहों के घेरे 

छटे अँधेरे। 

10

जमके थका

पाने को नूर कहें 

लोग गुरूर। 

11

वक़्त मिजाज 

भीतरी कबूतर 

बनाओ बाज। 

12

रस्मों - रिवाज 

न पहुना सत्कार 

डूबे संस्कार। 

13

रील्स की धार 

नाचे मर्यादा कहाँ 

सुघड़ नार।

14

तुम्हारी कमीं 

लाख मुसकुराऊँ

आँखों में नमी।

15

स्पर्श कठोर 

बचे न अनुताप 

मरते राग। 

16

स्वजन घात 

कंठ रोआँसे स्वर 

आँखों में आब। 

17

उम्र की सांझ 

ठूँठ को देखकर 

बरसी आँखें। 

18

स्त्री या मिस्त्री 

चुन लिये ग़लत 

घर बर्बाद। 

19

प्रेम के मारे 

पुरजोश भँवरे 

मौत पुकारें। 

20

मृतक ढोए 

काँपे नदी- कलेजा 

उफन रोए। 

21

ध्वनि, न स्फोट 

लिखे निर्जीव शब्द 

मचाएँ शोर। 

22

मोती- सी बूँदें 

धरा के अधरों पे 

सजाएँ तृप्ति।

23

लाख बचाएँ 

जानती हैं हवाएँ 

आग लगाना। 

24

झुकी जो पीठ 

ढोया होगा ताउम्र 

विषम बोझ। 

25

कैसे सिलूँ मैं 

उधड़े सुकून को 

मिले न सिरा।


चार लघुकथाएँः

 - सुकेश साहनी

1. शिक्षाकाल 

"सर, मे आय कम इन?"- उसने डरते-डरते पूछा।

"आज फिर लेट? चलो, जाकर अपनी सीट पर खड़े हो जाओ।"

वह तीर की तरह अपनी सीट की ओर बढ़ा।

"रुको!"-टीचर का कठोर स्वर उसके कानों में बजा और उसके पैर वहीं जड़ हो गए। तेजी से नज़दीक आते कदमों की आवाज़-"जेब में क्या है? निकालो।"

कक्षा में सभी की नज़रें उसकी ठसाठस भरी जेबों पर टिक गई। वह एक- एक करके जेब से सामान निकालने लगा। कंचे, तरह-तरह के पत्थर, पत्र-पत्रिकाओं से काटे गए कागज़ों के रंगीन टुकड़े, टूटा हुआ इलैक्ट्रिक टैस्टर, कुछ जंग खाए पेंच-पुर्जे।

"और क्या-क्या है? तलाशी दो।"-उनके सख्त हाथ उसकी नन्ही जेबें टटोलने लगे। तलाशी लेते उनके हाथ गर्दन से सिर की ओर बढ़ रहे थे-"यहाँ क्या छिपा रखा है?" उनकी सख्त अँगुलियाँ खोपड़ी को छेदकर अब उसके मस्तिष्क को टटोल रहीं थीं।

वह दर्द से चीख पड़ा और उसकी आँख खुल गई।

"क्या हुआ बेटा?"- माँ ने घबराकर पूछा।

"माँ, पेट में बहुत दर्द हैं"- उसने पहली बार माँ से झूठ बोला-"आज मैं स्कूल नहीं जाऊँगा।"■

2. पिंजरे 

उसके क़दमों की आहट से चौंककर नीलू ने आँखें खोलीं, उसे पहचान कर धीरे से दुम हिलाई और फिर निश्चिन्त होकर आँखें बंद कर लीं। चारों पिल्ले एक दूसरे पर गिरते पड़ते माँ की छाती से दूध पी रहे थे। वह मंत्रमुग्ध-सा उन्हें देखता रहा।

नीलू के प्यारे-प्यारे पिल्लों के बारे में सोचते हुए वह सड़क पर आ गया। सड़क पर पड़ा टिन का खाली डिब्बा उसके जूते की ठोकर से खड़खड़ाता हुआ दूर जा गिरा। वह खिलखिलाकर हँसा। उसने इस क्रिया को दोहराया। तभी उसे पिछली रात माँ के द्वारा सुनाई गई कहानी याद आ गई जिसमें एक पेड़ एक धोबी से बोलता है, "धोबिया, वे धोबिया! आम ना तोड़..."

उसने सड़क के दोनों ओर शान से खड़े पेड़ों की ओर हैरानी से देखते हुए सोचा—"पेड़ कैसे बोलते होंगे? कितना अच्छा होता, अगर कोई पेड़ मुझ से भी बात करता!"

पेड़ पर बैठे एक बंदर ने उसकी ओर देखकर मुँह बनाया और फिर डाल पर उलटा लटक गया। यह देखकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।

ख़ुद को स्कूल के सामने खड़ा पाकर वह चौंक पड़ा। घर से स्कूल तक का लम्बा रास्ता इतनी जल्दी तय हो गया, उसे हैरानी हुई। पहली बार उसे पीठ पर टँगे भारी बस्ते का ध्यान आया। उसे गहरी उदासी ने घेर लिया। तभी पेड़ पर कोयल कुहकी। उसने हसरत भरी नज़र कोयल पर डाली और फिर मरी-मरी चाल से अपनी कक्षा की ओर चल दिया। ■

3. बोंजाई 

"मम्मी जाने दो न! "- मिक्की ने छटपटाते हुए कहा," मैदान में सभी बच्चे तो खेल रहे हैं! "

"कहा न, नहीं जाना! उन गंदे बच्चों के साथ खेलोगे?"

"मम्मी- वे गंदे नहीं हैं",फ़िर कुछ सोचते हुए बोला, "अच्छा- घर के बाहर सेठ अंकल के बरामदे में तो खेलने दो-"

"नहीं- सामने बिजी रोड है, किसी गाड़ी की चपेट में आ जाओगे।" मिसेज आनंद ने निर्णायक स्वर में कहा, "तुम्हें ढेरों गेम्स लाकर दिए हैं, कमरे में बैठकर उनसे खेलो।"

"मिक्की!" ड्राइंग रूम से मिस्टर आनंद ने आवाज़ दी।

"जी- पापा।"

"कम हियर।"

ड्राइंग रूम के बाहर मिक्की ठिठक गया। भीतर पापा के मित्र बैठे हुए थे। वह दाँतों से नाखून काटते हुए पसीने-पसीने हो गया।

उसने झिझकते हुए ड्राइंग रूम में प्रवेश किया।

"माय- सन!" आनंद साहब ने अपने दोस्त को गर्व से बताया।

"हैलो यंग मैन," उनके मित्र ने कहा, "हाऊ आर यू?"

"ज- जा- जी ई!" मिक्की हकलाकर रह गया। उसे पापा पर बहुत गुस्सा आया- क्या वह कोई नुमाईश की चीज है, जो हर मिलने वाले से उसका इस तरह परिचय करवाया जाता है।

मिस्टर आनंद फ़िर अपने मित्र के साथ बातों में व्यस्त हो गए थे। गमले में सजाए गए नींबू के बोंजाई के पास खड़ा मिक्की खिड़की से बाहर मैदान में क्रिकेट खेल रहे बच्चों को एकटक देख रहा था। ■

4. प्रक्षेपण

"रोहित, रमन अंकल के यहाँ से अख़बार माँग लाओ।"

"पापा...मैं वहाँ नहीं जाऊँगा..."

"क्या कहा? नहीं जाओगे!" उन्होंने गुस्से से रोहित को घूरा, "क्या वे अख़बार देने से मना करते हैं?"

"नहीं...पर" पाँच वर्षीय रोहित ने झुँझलाते हुए कहा, "...मैं कैसे बताऊँ... मैं जब अख़बार माँगने वहाँ जाता हूँ तो वे लोग न जाने कैसे-कैसे मेरी ओर देखते हैं।"

"किसी ने तुमसे कुछ कहा?"

सब्जी काट रही माँ हाथ रोकर बेटे की ओर देखने लगी, नीतू भी अपने छोटे भाई के नज़दीक आकर खड़ी हो गई।

"कुछ कहा तो नहीं पर..." उसे चेहरे पर अपनी बात न कह पाने की बेबसी साफ़ दिखाई दे रही थी, "मैं जब अख़बार माँगता हूँ तो वे लोग आपस में एक दूसरे की ओर इस तरह देखते हैं कि...मुझे अच्छा नहीं लगता है!"

"वे रोजाना अख़बार दे देते हैं...तुझसे कभी कुछ कहा भी नहीं, फिर क्यों नहीं जाएगा?" उन्होंने आँखें निकालीं।

"नवाब साहब को अच्छा नहीं लगता! ...कामचोर!" सब्जी काटते हुए माँ बड़बड़ाई।

"पापा, ये बहुत बहानेबाज हो गया है।" नीतू भी बोली।

"अब जाता क्यों नहीं?" उन्होंने दाँत पीसते हुए रोहित की ओर थप्पड़ ताना।

रोहित डरकर रमन अंकल के घर की तरफ़ चल दिया। बरामदे में उनका झबरा कटोरे से दूध पी रहा था। रोहित का मन हुआ-लौट जाए। उसने पीछे मुड़कर अपने घर की ओर देखा। उसे लगा, पापा अभी भी जलती हुई आँखों से उसे घूर रहे हैं।

उसने दीर्घ निःश्वास छोड़ी उसकी आँखों की चमक मंद पड़ती चली गई. उसने बेजान कदमों से रमन अंकल के घर में प्रवेश किया। ■

व्यंग्यः हर व्यक्ति अब महाज्ञानी !..

  - गिरीश पंकज

सुबह- सुबह जैसे ही लिखने का मूड बनाया, तभी पांडुरंगम का फोन आ गया - "मैंने एक वीडियो व्हाट्सएप किया है।  कुछ ही देर का है, उसको जरूर देखें, बहुत अच्छा लगेगा।" 

मैंने मन-ही-मन में चिढ़ते हुए कहा, ''जरूर। इसी काम के लिए तो हम इस धरा पर अवतरित हुए हैं।"

लेकिन प्रकट में कहा, ''भेज दीजिए ! मेरे पास तो फालतू समय है।"

 उन्होंने मेरे व्यंग्य-बाण की अनदेखी करते हुए धन्यवाद कहा और फोन रख दिया। मैंने सोचा, चलो, अब लेख पूरा कर लूँ, फिर पांडुरंग का वीडियो देख लूँगा। मगर लैपटॉप खोला ही था कि रंगास्वामी का फोन आ गया ;

" बंधुवर !! अभी मैंने विश्व की एक बड़ी समस्या पर बहुत बड़ा लेख लिखा है। अपने ब्लॉग में डाला है। उसे समय निकालकर पढ़ें, तो आनंद आ जाएगा। देर न करें ।फौरन पढ़ें।"

रंगास्वामी पुराने मित्र थे।

मैंने कहा, "जरूर देख लूँगा। कुछ समय दो।"

लेकिन मैं चक्कर में पड़ गया। पहले पांडुरंगम का फोन, अब रंगास्वामी का । देखना और पढ़ना ही पड़ेगा, वरना फिर इनका फोन आ जाएगा।  मैंने पहले पांडुरंगम का वीडियो देखा। पन्द्रह-बीस मिनट उसमें निकल गए, तो रंगास्वामी का फोन आ गया। "बंधु !आपने अब तक नहीं पढ़ा क्या?.. यह तो गलत बात है !"

मैंने कहा," पढ़ते ही वाला हूँ। अभी पांडुरंगम का वीडियो देख रहा था।"

रंगास्वामी ने चिढ़ते हुए कहा, "अरे,पांडुरंगम कुछ भी बनाता है। उसे देखना बेकार है। मैं दमदार लिखता हूँ। मेरा लेख पढ़ो और बताओ कैसा लिखा है। फोन करना। मैं इंतजार करूँगा।"

हद हो गई! अब तो पढ़ना ही पड़ेगा। मैंने उसका लेख पढ़ना शुरू किया। इतना लंबा लेख कि पढ़ते-पढ़ते ऊब गया। बीस मिनट लग गए। खोपड़िया ही घूम गई । समझ में नहीं आया कि बंदा लेख में कहना क्या चाहता है। तनाव से मुक्ति के लिए मैंने पानी का गिलास उठाया और गटागट पी गया। तभी रंगास्वामी का दुबारा फोन आ गया।

ज़नाब हँसते हुए पूछ रहे थे, "आपने मेरा लेख पढ़ लिया न? मैं व्हाट्सएप में आपका स्टेटस देख रहा था.. मुझे समझ में आ रहा था कि आप मेरा लेख पढ़ रहे हैं.. हाँ... हाँ... हाँ... कैसा लगा लेख?"

मन तो हुआ कह दूँ कि बेहद घटिया था; लेकिन पुराने संबंधों का लिहाज करते हुए कहा, ‘‘कमाल कर दिया। आपने जो मुद्दे अपने उठाए हैं, उन मुद्दों पर मैंने गंभीरतापूर्वक विचार किया है।"

यह अच्छा हुआ कि रंगास्वामी ने यह पूछा नहीं कि मैंने कौन-से मुद्दे उठाए हैं। अगर वह पूछ लेते तो मैं ठीक से बता नहीं पाता। पकड़ा जाता। मेरी बात सुनकर रंगास्वामी बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे, "आप बहुत अच्छे आदमी हैं। कल भी आपको एक लेख भेजूँगा। परसों भी भेजूँगा।"

मैंने कहा, "स्वागत है, आपका !" 

मन-ही-मन कहा, प्राण ले लो हमारे! फिर सोच लिया कि अब इस बंदे को ब्लॉक करना पड़ेगा।  इस वार्तालाप से मुक्त हुआ ही था कि  घुसपैठ कुमार का फोन आ गया, "भाई साहब ! आपको मैंने व्हाट्सएप किया है। बड़ा ही धाँसू लेख मिला है। आपको फॉरवर्ड किया है। आप इसे पढ़िए और कुछ सोचिए। हम ईंट-से-ईंट बजा देंगे।"

मैंने कहा, " ज़रूर। ईंट-से-ईंट बजा लेंगे, लेकिन पहले पढ़ तो लूँ। फिर वहीं टिप्पणी करता हूँ।"

घुसपैठ कुमार ने कहा, ''टिप्पणी से काम नहीं चलेगा। इस पर अपन चर्चा करेंगे कि हम आगे क्या कर सकते हैं। देश को हम कहाँ ले जा सकते हैं।"

मैंने सिर पीट लिया। सोचने लगा, पढ़ो भी और इनसे चर्चा भी करो। खैर,  मैंने उनका लेख पढ़ा और कुछ टिप्पणी भी कर दी, तो मुक्ति का एहसास हुआ। अब मैं विचार करने लगा कि मुझे किस विषय पर लेख लिखना था।  कुछ समझ ही नहीं आया। जो लिखना चाहता था, वह विषय आउट ऑफ माइंड हो गया।  कुछ देर सोचने के बाद अचानक विषय कौंधा : अरे हाँ, मैं तो समय पकाऊ लोगों पर लिखने वाला था। ऐसे लोगों पर जो आपका समय खा जाते हैं। मैंने अपनी डायरी में लिख लिया, 'समयखोरों से त्रस्त लेखक'।  फिर लिखना शुरू ही  किया था, तभी लपेटोराम का फोन आ गया। मैं जानता था कि यह बंदा भी बहुत बड़ा वाला पकाऊ है। फिर भी दुनिया में हम आए हैं, तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा, यही सोच कर फोन उठाना पड़ा। उन्होंने हैलो भी नहीं कहा और शुरू हो गए:

"बंधुवर! एक भयंकर धाँसू लेख आपको व्हाट्सएप किया है। बहुत बड़ा नहीं है। दो-तीन घंटा नहीं लगेगा। आधे घंटे में पढ़ लेंगे। आधे घंटे बाद में आपको फोन करूँगा।"

मेरा दिमाग भन्ना रहा था। कड़े शब्दों में बोल तो सकता था; लेकिन सिधवा मनुष्य की जो छवि बनी हुई है, उसे तोड़ना नहीं चाहता था; इसलिए विनम्र-भाव से कहा, "ज़रूर.. ज़रूर! स्वागत है।" फिर मैंने उनका लेख पढ़ना शुरू किया। उनका अपना नहीं था। आज से पचास साल पहले किसी लेखक ने कुछ भविष्यवाणी की थी। पढ़ते-पढ़ते एक घंटा हो गया। लेख खत्म नहीं हुआ, तो मैंने पढ़ना बंद कर दिया। पूरे एक डेढ़ घंटे बाद पकाऊराम जी का फोन आ गया।

"अरे, लेख पढ़ा ?.. कैसा लगा?.. मजा आ गया न?.. देखो, क्या भविष्यवाणी की थी अगले ने.. बिल्कुल सही उतर रही है.. ऐसे ग्रेट लोग हो चुके हैं दुनिया में..  कमाल है,धन्य है.. इसे कुछ और लोगों को फॉरवर्ड कर देना भाई। मज़ा आ जाएगा।"

अपनी ओर से वे नॉन स्टॉप बोलते रहे।  मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया। अंत में उन्होंने कहा,"अच्छा, फोन रखता हूँ।"

और सचमुच उन्होंने फोन रख भी दिया। वरना उनकी पुरानी आदत है; रखता हूँ, तो कहते हैं मगर फिर लगातार बात करते रहते हैं।  मैं समझ गया कि आज मैं कुछ लिख-पढ़ नहीं पाऊँगा। आज सिर्फ मुझे पढ़ना है और देखना है। लिखना स्थगित! और मैंने यह आजमाया भी। गुस्से में सोच लिया कि आज कुछ लिखना ही नहीं है। आज सिर्फ व्हाट्सएप से ही नज़रें चार करनी हैं। और एक-एक का व्हाट्सएप स्टेटस देखना शुरू। देखते-ही-देखते दोपहर के एक बज गए। भोजन किया और लौट करके आने के बाद फिर व्हाट्सएप देखने लगा। रामलाल का, श्यामलाल का, लल्लू का, कल्लू का। बस, शाम हो गई। चाय-नाश्ता करने के बाद फिर बचे हुए व्हाट्सएप संदेशों को देखना शुरू किया। आज हर व्यक्ति मुझे ज्ञानी लगा। ज्ञान के भंडार से भरपूर। रात को नौ बजे के बाद भूख लगी तो भोजन कर लिया। तभी पकाऊ राम का फिर फोन आ गया :

" भाई साहब! फिर एक लेख मैंने भेजा है। जरूर पढ़ना। आपके ज्ञान-चक्षु खुल जाएँगे।"

मेरा दिमाग बुरी तरह से भन्ना गया था। मन तो हुआ कि मैं उनसे कहूँ कि पहले आप अपने ज्ञान-चक्षु खोलिए। किसी को इतना भी परेशान मत कीजिए कि वह तनाव में आ जाए; लेकिन शिष्टाचार के मारे कुछ कहा नहीं। फिर मन में आया कि व्हाट्सएप ही स्थायी रूप से बंद कर दूँ। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह जो मनुष्य योनि मिली है, उसे सुख-चैन से जी लूँ, यही बहुत है। व्हाट्सएप के कारण जीना कठिन हो रहा है। पहले सोचा कि व्हाट्सएप बंद ही कर दूँ। फिर विचार किया कि मुझे भी तो अपना लेख लिखना है। अब तो मैं भी बदले की कार्रवाई करूँगा और जो-जो लोग मुझे अपना-अपना ज्ञान व्हाट्सएप करते हैं, उन सबको अपने ज्ञान का भी ओवरडोज जरूर दूँगा। हाँ नहीं तो!! इतना सोच कर मैं मुस्कुराया। अब मेरा तनाव धीरे-धीरे दूर होने लगा। फिर यूट्यूब में देशभक्ति वाले पुराने गाने सुनने लगा। फिर कुछ देर बाद तनावमुक्त हुआ तो नींद आने लगी और मैं निंदिया रानी की गोद में चैन से सो गया। ■

सम्पर्कः सेक़्टर -3, एचआईजी - 2 , घर नंबर- 2 , दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, मोबाइल : 9425212720,  ई मेल - girishpankaj1@gmail।com