1. शिक्षाकाल
"सर, मे आय कम इन?"- उसने डरते-डरते पूछा।
"आज फिर लेट? चलो, जाकर अपनी सीट पर खड़े हो जाओ।"
वह तीर की तरह अपनी सीट की ओर बढ़ा।
"रुको!"-टीचर का कठोर स्वर उसके कानों में बजा और उसके पैर वहीं जड़ हो गए। तेजी से नज़दीक आते कदमों की आवाज़-"जेब में क्या है? निकालो।"
कक्षा में सभी की नज़रें उसकी ठसाठस भरी जेबों पर टिक गई। वह एक- एक करके जेब से सामान निकालने लगा। कंचे, तरह-तरह के पत्थर, पत्र-पत्रिकाओं से काटे गए कागज़ों के रंगीन टुकड़े, टूटा हुआ इलैक्ट्रिक टैस्टर, कुछ जंग खाए पेंच-पुर्जे।
"और क्या-क्या है? तलाशी दो।"-उनके सख्त हाथ उसकी नन्ही जेबें टटोलने लगे। तलाशी लेते उनके हाथ गर्दन से सिर की ओर बढ़ रहे थे-"यहाँ क्या छिपा रखा है?" उनकी सख्त अँगुलियाँ खोपड़ी को छेदकर अब उसके मस्तिष्क को टटोल रहीं थीं।
वह दर्द से चीख पड़ा और उसकी आँख खुल गई।
"क्या हुआ बेटा?"- माँ ने घबराकर पूछा।
"माँ, पेट में बहुत दर्द हैं"- उसने पहली बार माँ से झूठ बोला-"आज मैं स्कूल नहीं जाऊँगा।"■
2. पिंजरे
उसके क़दमों की आहट से चौंककर नीलू ने आँखें खोलीं, उसे पहचान कर धीरे से दुम हिलाई और फिर निश्चिन्त होकर आँखें बंद कर लीं। चारों पिल्ले एक दूसरे पर गिरते पड़ते माँ की छाती से दूध पी रहे थे। वह मंत्रमुग्ध-सा उन्हें देखता रहा।
नीलू के प्यारे-प्यारे पिल्लों के बारे में सोचते हुए वह सड़क पर आ गया। सड़क पर पड़ा टिन का खाली डिब्बा उसके जूते की ठोकर से खड़खड़ाता हुआ दूर जा गिरा। वह खिलखिलाकर हँसा। उसने इस क्रिया को दोहराया। तभी उसे पिछली रात माँ के द्वारा सुनाई गई कहानी याद आ गई जिसमें एक पेड़ एक धोबी से बोलता है, "धोबिया, वे धोबिया! आम ना तोड़..."
उसने सड़क के दोनों ओर शान से खड़े पेड़ों की ओर हैरानी से देखते हुए सोचा—"पेड़ कैसे बोलते होंगे? कितना अच्छा होता, अगर कोई पेड़ मुझ से भी बात करता!"
पेड़ पर बैठे एक बंदर ने उसकी ओर देखकर मुँह बनाया और फिर डाल पर उलटा लटक गया। यह देखकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
ख़ुद को स्कूल के सामने खड़ा पाकर वह चौंक पड़ा। घर से स्कूल तक का लम्बा रास्ता इतनी जल्दी तय हो गया, उसे हैरानी हुई। पहली बार उसे पीठ पर टँगे भारी बस्ते का ध्यान आया। उसे गहरी उदासी ने घेर लिया। तभी पेड़ पर कोयल कुहकी। उसने हसरत भरी नज़र कोयल पर डाली और फिर मरी-मरी चाल से अपनी कक्षा की ओर चल दिया। ■
3. बोंजाई"मम्मी जाने दो न! "- मिक्की ने छटपटाते हुए कहा," मैदान में सभी बच्चे तो खेल रहे हैं! "
"कहा न, नहीं जाना! उन गंदे बच्चों के साथ खेलोगे?"
"मम्मी- वे गंदे नहीं हैं",फ़िर कुछ सोचते हुए बोला, "अच्छा- घर के बाहर सेठ अंकल के बरामदे में तो खेलने दो-"
"नहीं- सामने बिजी रोड है, किसी गाड़ी की चपेट में आ जाओगे।" मिसेज आनंद ने निर्णायक स्वर में कहा, "तुम्हें ढेरों गेम्स लाकर दिए हैं, कमरे में बैठकर उनसे खेलो।"
"मिक्की!" ड्राइंग रूम से मिस्टर आनंद ने आवाज़ दी।
"जी- पापा।"
"कम हियर।"
ड्राइंग रूम के बाहर मिक्की ठिठक गया। भीतर पापा के मित्र बैठे हुए थे। वह दाँतों से नाखून काटते हुए पसीने-पसीने हो गया।
उसने झिझकते हुए ड्राइंग रूम में प्रवेश किया।
"माय- सन!" आनंद साहब ने अपने दोस्त को गर्व से बताया।
"हैलो यंग मैन," उनके मित्र ने कहा, "हाऊ आर यू?"
"ज- जा- जी ई!" मिक्की हकलाकर रह गया। उसे पापा पर बहुत गुस्सा आया- क्या वह कोई नुमाईश की चीज है, जो हर मिलने वाले से उसका इस तरह परिचय करवाया जाता है।
मिस्टर आनंद फ़िर अपने मित्र के साथ बातों में व्यस्त हो गए थे। गमले में सजाए गए नींबू के बोंजाई के पास खड़ा मिक्की खिड़की से बाहर मैदान में क्रिकेट खेल रहे बच्चों को एकटक देख रहा था। ■
4. प्रक्षेपण
"रोहित, रमन अंकल के यहाँ से अख़बार माँग लाओ।"
"पापा...मैं वहाँ नहीं जाऊँगा..."
"क्या कहा? नहीं जाओगे!" उन्होंने गुस्से से रोहित को घूरा, "क्या वे अख़बार देने से मना करते हैं?"
"नहीं...पर" पाँच वर्षीय रोहित ने झुँझलाते हुए कहा, "...मैं कैसे बताऊँ... मैं जब अख़बार माँगने वहाँ जाता हूँ तो वे लोग न जाने कैसे-कैसे मेरी ओर देखते हैं।"
"किसी ने तुमसे कुछ कहा?"
सब्जी काट रही माँ हाथ रोकर बेटे की ओर देखने लगी, नीतू भी अपने छोटे भाई के नज़दीक आकर खड़ी हो गई।
"कुछ कहा तो नहीं पर..." उसे चेहरे पर अपनी बात न कह पाने की बेबसी साफ़ दिखाई दे रही थी, "मैं जब अख़बार माँगता हूँ तो वे लोग आपस में एक दूसरे की ओर इस तरह देखते हैं कि...मुझे अच्छा नहीं लगता है!"
"वे रोजाना अख़बार दे देते हैं...तुझसे कभी कुछ कहा भी नहीं, फिर क्यों नहीं जाएगा?" उन्होंने आँखें निकालीं।
"नवाब साहब को अच्छा नहीं लगता! ...कामचोर!" सब्जी काटते हुए माँ बड़बड़ाई।
"पापा, ये बहुत बहानेबाज हो गया है।" नीतू भी बोली।
"अब जाता क्यों नहीं?" उन्होंने दाँत पीसते हुए रोहित की ओर थप्पड़ ताना।
रोहित डरकर रमन अंकल के घर की तरफ़ चल दिया। बरामदे में उनका झबरा कटोरे से दूध पी रहा था। रोहित का मन हुआ-लौट जाए। उसने पीछे मुड़कर अपने घर की ओर देखा। उसे लगा, पापा अभी भी जलती हुई आँखों से उसे घूर रहे हैं।
उसने दीर्घ निःश्वास छोड़ी उसकी आँखों की चमक मंद पड़ती चली गई. उसने बेजान कदमों से रमन अंकल के घर में प्रवेश किया। ■
बहुत सुन्दर है सभी लघुकथाएँ, हार्दिक शुभकामनाएँ सर जी।
ReplyDelete-भीकम सिंह
बाल मनोविज्ञान की चारों लघुकथाएँ मन कों छू गईं।अभिभावक, अध्यापक कभी उनको समझने की कोशिश ही नहीं करते।सुंदर सृजन के लिए आपको हार्दिक बधाई ।सुदर्शन रत्नाकर
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