- प्रगति गुप्ता
हकते हुए प्रवेश करने वाली दयाजी आज कुछ ज्यादा ही चुप थीं। उन्होंने किसी के गुड मॉर्निंग का जवाब नहीं दिया। उनका व्यवहार मौजूद महिलाओं और थेरेपिस्ट के लिए अप्रत्याशित था। दया जी पिछले आठ महीनों से कमर-दर्द के निदान हेतु सेंटर आ रही थीं। थेरेपिस्ट डॉ. वेद ने उनसे पूछ लिया- “दया जी आर यू ऑल राइट?”
जवाब न मिलने पर वेद थेरेपी शुरू करने के उद्देश्य से उनके निकट पहुँचा। अकस्मात दयाजी की तेज आवाज हॉल में गूँज उठी-"डॉक्टर! मेरे पति कहते हैं- तुमने थेरेपी के नाम पर डेढ़ लाख रुपये को आग लगा दी।... दर्द में रत्ती भर भी फर्क नहीं!... वहाँ गप्पे हाँकने जाती हो या...?... मर जाती तो फूँकने के बाद, कुछ दिन रोना होता... कम से कम फिर शांति तो रहती।"
दया जी अब फफक कर रो पड़ी। सुई पटक सन्नाटा छा गया। उसने दया जी को समझाने की कोशिश की-"दया जी! फिजियोथेरेपी से कभी जल्दी तो कभी देर से तकलीफ़ का समाधान होता है। आप भी ठीक...!"
अभी वेद की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि दया जी फट पड़ी- “मैं समझती हूँ डॉक्टर! मगर रुपयों को दाँत से पकड़ने वाला मेरा पति...। घर बनाने में लगी हुई मेरी मेहनत की कीमत अगर मृत्यु है, तो क्या फर्क पड़ता है। शरीर दर्द के साथ जलाया जाए या दर्द के बगैर!”
अब पसरा हुआ सन्नाटा, और भी घना हो गया था। कुछ महिलाएँ दया जी को शांत करने में जुट गईं। परिवार के लिए समर्पित महिला की पीड़ा ने वेद को भी भावुक कर दिया।
कुछ देर बाद खुद को संयत कर दया जी ने कहा- “ सॉरी!... मेरी वजह से सभी की थेरेपी रुक गई है।... मुझे अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। आज शारीरिक और मानसिक दर्द आपस में कुछ ज्यादा ही जोर से टकरा गए कि धमाका हो गया।”
अब दया जी सामान्य होने की कोशिश में लगी थीं। ■
बहुत सुंदर भावपूर्ण लघुकथा।बधाई । सुदर्शन रत्नाकर
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