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Sep 1, 2025

प्रसंगः गुरु साध्य नहीं उत्प्रेरक तत्त्व मात्र है

  - सीताराम गुप्ता

कहा गया है कि अप्प दीपो भव लेकिन ये भी ठीक है कि हर व्यक्ति अपना दीपक अथवा गुरु नहीं बन सकता। स्वयं दीपक अथवा प्रकाश बनने के लिए भी उचित मार्गदर्शन अनिवार्य है और ये मार्गदर्शन एक गुरु के बिना, उसकी संगति के बिना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। लेकिन क्या एक योग्य गुरु की तलाश या चुनाव सरल है? यदि हममें योग्य गुरु की तलाश करने की योग्यता हो तो फिर गुरु की आवश्यकता ही क्या है? जो व्यक्ति एक अच्छे गुरु की तलाश करने की योग्यता रखता हो वह तो स्वयं अपना गुरु बन सकता है। व्यक्ति को जहाँ तक संभव हो आत्मविकास कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करना चाहिए। इक़बाल ने कहा है:

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,

ख़ुदा  बंदे से  ख़ुद पूछे  बता  तेरी  रज़ा क्या है?

 अज्ञेय लिखते हैं, ‘‘वास्तव में कोई भी किसी को सिखाता नहीं है, जो सीखता है, अपने ही भीतर के किसी उन्मेष से, प्रस्फुटन से सीख जाता है। जिन्हें गुरुत्व का श्रेय मिलता है, वे वास्तव में केवल इस उन्मेष के निमित्त होते हैं और निमित्त होने के लिए किसी गुरु अथवा व्यक्ति की क्या आवश्यकता है? सृष्टि में कोई भी वस्तु उन्मेष का निमित्त बन सकती है।’’ लोग कहते हैं कि गुरु के बिना पूर्णता नहीं मिलती, उत्कर्ष को नहीं पा सकते; लेकिन आज के तथाकथित गुरु ज्ञान कहाँ दे रहे हैं? आपको मुक्त कहाँ कर रहे हैं? आपको अपने आपको जानने का अवसर कहाँ उपलब्ध करा रहे हैं? आज के अधिकतर गुरु तो अपनी महत्ता सिद्ध करके पैसा कूटने में लगे हुए हैं।

परमहंस रामकृष्ण नहीं मिलते, तो नरेंद्रनाथ दत्त विवेकानंद नहीं बन सकते थे। नेत्रहीन स्वामी विरजानंद ने मूलशंकर को स्वामी दयानंद सरस्वती बना दिया। जब मूलशंकर ने स्वामी विरजानंद की कुटिया का द्वार खटखटाया, तो उन्होंने पूछा था- ‘‘कौन है?’’ मूलशंकर ने कहा था, ‘‘यही तो जानने आया हूँ।’’ जिज्ञासा मूलशंकर में थी। उसी जिज्ञासा, उसी ज्ञानलिप्सा ने उन्हें दयानंद सरस्वती बना दिया। हमारी सबसे बड़ी विडंबना है कि हम साधन को लक्ष्य अथवा साध्य मान लेते हैं। चाहे गुरु हों अथवा तीर्थस्थल हों, ये सब साधन हैं, उत्प्रेरक हैं। इनका अपना महत्त्व है; लेकिन मात्र साधन से, उत्प्रेरक से आप अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते।

गुरु का महत्त्व है, उसको हम मानें, उसके बताए मार्ग पर चलें; लेकिन ख़ुद चलें, अपना मार्ग ख़ुद तय करें। जब तक ख़ुद स्वयं को जानने का प्रयास नहीं करेंगे, तो हम प्रगति नहीं कर सकते। स्वयं को जानने के लिए बाह्य नहीं; अपितु अंतर्यात्रा करनी अनिवार्य है। इस सब की सामर्थ्य हमारे अंदर है। बस उसे पहचानना है। यहीं गुरु का काम प्रारंभ होता है। गुरु हमें हमारी क्षमताओं से परिचित करवाता है, बस और उसके बाद उसका काम समाप्त। खोज हमें स्वयं करनी है  यह खोज दूसरा कोई नहीं कर सकता। गुरु भी नहीं। पहुँचा हुआ गुरु भी नहीं। वह अपनी खोज करता है, हमें अपनी खोज करनी होती है। गुरु इसमें सहायक नहीं होता तो उसकी भूमिका का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता। 

 हाँ,  गुरु के प्रति सम्मान व श्रद्धा अनिवार्य है। यह सम्मान व श्रद्धा शिष्य व गुरु के मध्य सीखने- सिखाने का परिवेश निर्मित करने के लिए महत्त्वपूर्ण ही नहीं अनिवार्य भी है। लेकिन जब यही सम्मान व श्रद्धा किसी अयोग्य गुरु अथवा तथाकथित संत-महात्मा के प्रति उत्पन्न हो जाती है तो शिष्य ही नहीं समाज का विनाश भी निश्चित है। कई बार किसी बीमारी के उपचार के लिए हम किसी डॉक्टर के पास जाते हैं। यदि उस डॉक्टर के उपचार से बीमारी में आराम नहीं पहुँचता, तो हम फ़ौरन डॉक्टर बदल लेते हैं। इसी तरह से यदि भूलवश किसी अयोग्य गुरु अथवा तथाकथित संत-महात्मा के प्रति सम्मान व श्रद्धा उत्पन्न हो जाए तो इस बात का पता लगते ही उससे शीघ्र छुटकारा पाने में ही सबका कल्याण है।  ■

1 comment:

  1. गंभीर विवेचन, महत्वपूर्ण आलेख। हार्दिक बधाई

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