उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Sep 1, 2025

लोक कलाः हमारी सांस्कृतिक धरोहर है ऐपण

 
- ज्योतिर्मयी पन्त  

     सृष्टि में सभी जीव जंतुओं में मनुष्य को श्रेष्ठ माना गया है । उसके पास बुद्धि और विवेक का वरदान है। वह अपनी अनुभूतियों को अनेक माध्यमों से व्यक्त कर सकता है। अपनी भावनाओं को शब्दों और लय में बाँध कर कविता और गीत गाता है । वाद्य यंत्रों की संगत में संगीत के स्वर बनाता  है । प्रसन्नता में थिरकने लगता है, तो नृत्य करता है । लेखन से साहित्य रचता है । कभी गुफाओं की भित्तियों में चित्र अंकित करता है । प्रस्तर और मिट्टी की मूर्तियों का सृजन करता है । कभी रंग और कूची लेकर कागज, वस्त्र और दीवारों पर अपनी कल्पनाओं  को साक्षात रूप देता है । कहने का तात्पर्य है कि आदि काल से ही मनुष्य और विविध कलाओं का अंतरंग सम्बन्ध रहा है ।  

 ये विविध कलाएँ  लोक जीवन का  विशेष अंग बन कर किसी समाज की पहचान बन जाती हैं । कला के इन आयामों में चित्रकला का विशेष स्थान है । कुछ कलाएँ हमारे रोज के कार्यक्रमों और तीज- त्योहारों का अभिन्न अंग बन जाती हैं । इनमें उपयोग आने वाली वस्तुएँ भी घर में ही उपलब्ध  हो जाती हैं ।  

 ऐसी ही एक कला है उत्तराखंड की- ऐपण की कला, अल्पना तथा चित्रकला । पुराने समय से ही यह बहुत प्रचलित रही है परन्तु आधुनिकता के इस दौर में यह विलुप्ति के कगार पर पहुँच रही है । यह कला एक सांस्कृतिक धरोहर है जिसका संरक्षण आवश्यक है, पर पहले इसका परिचय -  

    ऐपण का महत्त्व

   ऐपण का हर घर में बहुत ही महत्त्व है । कोई भी त्यौहार हो सर्वप्रथम घरों में ऐपण दिए जाते हैं । घर की हर देहरी, दहलीज, पूजा स्थान को सबसे पहले गेरू यानी लाल मिट्टी से लीपा जाता है। फिर थोड़ा सूख जाने पर चावल को भीगा कर, पीस कर बनाए गए घोल, जिसे "बिस्वार" कहा जाता है से चित्रांकन किया जाता है । चावल के घोल में उँगलियों को डुबो कर मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठ अँगुलियों की सहायता से अलग - अलग तरह के चित्र बनाए जाते हैं । यों तो घर की देहरी और पूजा स्थान हमेशा ही ऐपण से सजे होते हैं । पर हर त्यौहार पर घर की महिलाओं का पहला काम ऐपण देना होता है ।  

देहरियों या देलियों पर अक्सर फूल बेल - बूटे तथा अन्य चित्र बनाए जाते हैं । परन्तु घर के अन्य भागों या पूजा स्थल पर पर्व विशेष पर आधारित चित्र अंकित किए जाते हैं । इन्हें चौकी कहा जाता है इन्हें ज्यामितीय आकारों, त्रिकोण, षटकोण, स्वस्तिक चिन्ह, ओंकार चिन्ह, सूर्य -चन्द्रमा, शंख -घंट, फल -फूल, अष्ट दल या अधिक दल वाले कमल के फूल से सजाया जाता है । सरस्वती चौकी, लक्ष्मी चौकी, जन्मवार – नामकरण, विवाह के अवसर पर धूल्यर्घ, कन्यादान आदि अवसरों के अनुसार चौकियाँ बनाई जाती हैं, हवन की वेदी के लिए या  घर में मंदिर और मूर्तियों के स्थान पर भी ऐपण अलग तरह के बनते हैं  । बच्चे के नामकरण के अवसर पर सूर्य चौकी बनाई जाती है इस दिन नवजात शिशु को पहली बार सूर्य दर्शन कराया जाता है । देहरी या अन्य ऊँचे स्थान पर  ऊपर से नीचे की ओर  खड़ी  लकीरें अंकित होती हैं, जिन्हें वसोधारा कहते हैं । बिस्वार में उँगलियों  को डुबो कर पाँच  या सात के अंतराल पर ऊपर से बूँदें इस तरह टपकाई जाती हैं  की खड़ी लकीरें सुन्दर और सीधी रहें। गहरे लाल रंग के गेरू से लिपे स्थान पर सफ़ेद चमकते नमूनें  जब उभरते हैं तो उनकी छटा दर्शनीय होती है । दीवाली के अवसर पर सारे घर में लक्ष्मी देवी के पैर, जिन्हें आंचलिक भाषा में `पौ` कहा जाता है , बनाये जाते हैं । इनको बनाने के लिए पहले दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बनाकर बिस्वार में डुबो देवी के पैर बनाये जाते हैं । फिर अनामिका उँगली से पैर की उँगलियाँ  बनाई जाती हैं । दोनों पैरों के बीच में गोल बिंदु सजाये जाते हैं। घर के चारों ओर से घर में देवी का प्रवेश हो, इसलिए देवी के पदचिह्न बनाये जाते हैं बाहर से घर की ओर ।  

 कार्तिक की  बड़ी एकादशी को बूढ़ी दीवाली के नाम से मनाया जाता है । इस दिन सूप में अंदर की ओर लक्ष्मी -गणेश -विष्णु का चित्र बनाया जाता है और बाहर  की तरफ दरिद्र जिसे भुँइयाँ कहते हैं, का चित्र बनाया जाता है जिसे सुबह गन्ने की डंडी से पीट -पीटकर पूरे  घर में घुमाया जाता है बाद में ओखली के पास पूजा होती है की दरिद्र फिर न आये।  

 हर पूजा-पर्व पर तुलसी के स्थान पर भी ऐपण दिए जाते हैं। घर की साफ सफाई और सजावट के लिए कभी भी ऐपण दिए जा सकते हैं पर त्यौहार पर अत्यावश्यक हैं पर किसी दुखद घटना या सूतक के समय नहीं बनाये जाते ।  

  घरों के फर्श दीवारों और देहरी पर ऐपण बहुत सुन्दर लगते हैं । इनके अतिरिक्त अन्य तरह की चित्रकला भी यहाँ बहुत प्रचलित है । जिन्हें  कागज़, वस्त्र या लकड़ी के पट्टों या दीवारों  पर बनाया जाता है । इन्हें `पट्टा` कहा जाता है। इनमें प्रमुख इस प्रकार हैं -

जन्माष्टमी का पट्टा   

  इसे दीवार पर या कागज़ पर बनाया  जाता है । इसमें कृष्ण जन्म से सम्बंधित सभी आख्यान जैसे-  बंदीगृह में कृष्ण जन्म, वसुदेव का उन्हें यमुनापार टोकरी में लेकर जाना , शेषनाग द्वारा सर पर रक्षा करना, नन्द के घर यशोदा के पास रखना, बाल लीलाएँ बकासुर आदि का वध, ऊखल में बंधना, गोपियों के साथ रास लीला, गाएँ चराना अर्थात कृष्ण का पूर्ण जीवन -वृत्त दिखाया जाता है। जन्माष्टमी को इसका पूजन होता है ।  

ज्यूँति का पट्टा 

 इसमें तीन देवियों- महालक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा के साथ दाहिनी ओर श्री गणेश जी का चित्र बनाया जाता हैं । साथ में नीचे की ओर सोलह मातृकाओं का चित्र बनता है । बच्चे के षष्ठी कर्म, नामकरण, जनेऊ, विवाह आदि सभी शुभ कार्यों में इनका पूजन होता है अक्सर बुआ इस पट्टे को बनती हैं या लाती हैं । पूजा के बाद बुआ को उपहार मिलते हैं।  

पहले घर की महिलाएँ इसे बनाती थीं, लकड़ी की पतली डंडी में रूई लपेट कर कूची बनाकर लाल रंग  या स्याही से बनाती थीं । अब तो ये छपे हुए रूप में बाजार में मिल जाते हैं।  

मातृका पट्टा  

विवाह के अवसर पर ये पट्टा अलग से बनता है । इसमें गणेश और गौरा  के अलावा सोलह बिंदु या त्रिकोण षोडश मातृका के प्रतीक स्वरूप बनाये जाते हैं । वधू के गृह प्रवेश के समय द्वार पर इनकी पूजा होती है । वधू उनपर घी की धारा डालकर पूजा और आरती करती है । तब घर के अंदर आती है । विवाह के संस्कार पूर्ण  होने पर बाँस की टोकरी में लाल वस्त्र से ढक कर इसे वधू सर पर रख घर के पास जलाशय पर जाती है । वहाँ भी पूजा के बाद इसे विसर्जित किया जाता है ।

बट सावित्री  पूजा पट्टा 

   जेष्ठ माह में महिलाएँ बट सावित्री का व्रत और पूजन करती हैं । इस अवसर पर सत्यवान - सावित्री  की पूजा करती हैं । निर्जल उपवास किया जाता है इस व्रत का यहाँ उतना ही महत्त्व है जितना अन्यत्र करवा चौथ के व्रत का । यहाँ पट्टे में वट वृक्ष सत्यवान और सावित्री का चित्र  बना कर पूजा की जाती है और अखंड सौभाग्य की कामना की जाती है ।  

बट सावित्री  पूजा पट्टा 

 गंगा दशहरा पर्व के दिन लोग अपने घरों के दरवाज़ों के ऊपर इन पत्रों को लगते हैं । इसमें गणेश, शिव, हनुमान, आदि देवताओं के या ज्यामितीय चित्र बनाये जाते हैं । मान्यता है इन्हें द्वार पर लगाने से बरसात में बिजली गिरने का भय नहीं रहता ।  

षष्टी की चौकी  

इसे लकड़ी के पाटे पर गोबर से बनाया जाता है। इसमें तीन देवियों को बनाया जाता है। चारों ओर और बीच की खली जगह को आटे, हल्दी, रोली कुमकुम से सजाकर जौ से पूरा जाता है । छठी पूजन के बाद नाम कारण के दिन जलपूजन के बाद विसर्जित किया जाता है।  

सेली 

विभिन्न अवसरों पर आरती के लिए विशेष थाल बनाया जाता है जिसे सेली कहते हैं । आटे के दीये बनाकर थाल  में  किनारों में रखकर बेल बूटियों से  सजाया जाता है रंगों, फूलों की पंखुड़ियों से थाल को सजाते हैं । विवाह के समय दूल्हे का स्वागत इसी आरती से होता है ।  

वर की चौकी 

 विवाह के अवसर पर जहाँ वर का स्वागत करने के लिए धूल्यर्घ की चौकी बनाई जाती है । वहीं दूल्हे औए वर पक्ष के ब्राह्मण की पूजा के  लिए विशेष चौकियाँ बनाई जाती हैं। ये लकड़ी की चौकियों को पीले रंग से रंग कर अन्य रंगों से चित्रित किए जाते हैं जहाँ ब्राह्मण की चौकी को चारों ओर बेल - बूटे बना कर बीच में स्वास्तिक बना दिया जाता है वहीं वर की चौकी पर विशेष नमूना बनाया जाता है । 

इसके अतिरिक्त उत्तराखण्ड की महिलाओं का विशिष्ट परिधान ``रंग्वाली का पिछौड़ा `भी चित्रकला का अनुपम उदाहरण है । पहले कपड़े को पीले या केशरिया रंग में रंगा जाता है फिर लाल रंग से चारों ओर सुन्दर किनारों के नमूने बनाये जाते हैं ,बीच में बड़ा सा स्वास्तिक बनाकर उसके चारों खानों में शंख -घंट - सूर्य -चन्द्र बनाये जाते हैं । विवाह के समय मायके और ससुराल दोनों जगह बनाए जाते हैं । बाद में हर धार्मिक और पारिवारिक सांस्कृतिक अवसरों पर इसे अवश्य पहना जाता है । अब लोग समय की कमी का बहाना कर इसे घरों में नहीं बनाते वरना रंग्वाली का दिन शादी विवाह का एक विशेष दिन होता था। आधुनिक समय में ये बाजार में छपे हुए मिलने लगे हैं । इनसे रंग उतरने या फीके पड़ने का डर नहीं रहता ।  

  इन सभी की विशेषता यह है की इनकी सामग्री घर पर ही उपलब्ध हो जाती है । किसी कुशल कारीगर की आवश्यकता नहीं पड़ती । घर की सभी महिलाएँ मिलजुल कर कार्य संपन्न कर लेती हैं । उन्हें अपनी कलाओं को दिखाने का अवसर मिल जाता है । विषय प्रकृति पर आधारित होते हैं, जिसके सान्निध्य में वे दिन रात रहती हैं, फल- फूल, पेड़ -पौधे, चाँद- सितारे -सूर्य- जल -कलश-शंख घंट,  सभी चित्रों में शामिल होते हैं, स्वस्तिक चिह्न तो प्राचीन समय से ही विभिन्न संस्कृतियों का अंग रहा है । इसे सूर्य का और पवित्रता का प्रतीक भी माना जाता है । मिश्र और यूनान में भी इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं ।  

यह कला यद्यपि अभी तक प्रचलित है, पर बाजारीकरण के इस युग में इसकी मौलिकता को खतरा है अब प्लास्टिक में यह कला उपलब्ध हो रही है । 

कहते हैं हर व्यक्ति के अन्दर एक कलाकार छुपा होता है जो अवसर मिलने पर उजागर होता है  आशा है आज की पीढ़ी  आने वाली पीढ़ी को यह कलात्मक संस्कार भी देगी ताकि हमारी धरोहर सुरक्षित रहे संवर्धित हो सके । इसे  बचाकर रखना हमारा कर्तव्य है कि यह जीवित रह सके । ■

सम्पर्कः गुडगाँव , मो.  09911274074


No comments:

Post a Comment