सुबह ठण्ड बहुत ज्यादा थी हम देर तक यहाँ खड़े नहीं रह सके और जल्दी से फिर अपने होटल ‘रिविरा’ की ओर आते हैं। यह पहलगाम इलाके का गाँव मोवरा है। हम नदी किनारे दूर तक बसे सुन्दर- सुन्दर घरों को देखते हैं। यहाँ खड़े दुकानदार बताते हैं कि “ये जो छोटे छोटे बहुत से मकान आप देख रहे हैं ना साहब... वे सब भी होटल हैं। मकान दो कमरे का भी है, तब भी एक कमरे में मकान का मालिक है तो दूसरे कमरे में उसका पेइंग गेस्ट...बस गर्मियों के यही कुछ महीने तो हैं साहब, जब लोग पहाड़ों पर आ जाते हैं और हम लोग कुछ कमा लेते हैं।” तब समझ में आया कि कश्मीर में ‘टिप्स’ माँगने का चलन ज्यादा क्यों है? होटल, बाज़ार, टैक्सी में हर कहीं... और यह उनकी विवशता है। कितने भले और भोलेपन के साथ वे टिप्स माँग उठते हैं ये कहते हुए- “आखिर टिप्स तो बनती है साहब।” मिलने, नहीं मिलने पर भी उनके चेहरे से कृतज्ञता भरी मुस्कान जाती नहीं है...बनी रहती है।
पहलगाम यहाँ से अट्ठारह किलोमीटर है। पर लिद्दर नदी हमारा साथ नहीं छोड़ती। इसका रंग क्रिस्टल नीला है और यह घाटी की प्राकृतिक सुंदरता में और भी निखार लाता है। हम चोटियों- घाटियों में जहाँ भी जाते हैं, लिद्दर हमारी एक ओर चलती है। कभी हमारे साथ चढ़ते हुए, तो कभी उतरते हुए। कभी हमारी सड़क के नीचे से ओझल हो जाती है और फिर आगे बढ़कर मिल जाती है। छुप्पा - छुप्पी खेलती हुई फिर झेलम की आगोश में समा जाती है लिद्दर हूर की परी की तरह।
हमें पहलगाम से बेताब घाटी जाना है। हमारा ड्राइवर कहता है - “यहाँ से आपको दूसरी टैक्सी करनी पड़ेगी सर। यहाँ स्थानीय टैक्सी वालों का यूनियन है। उन्हीं की टैक्सियों में ही जाना पड़ता है। बाहर से आई टैक्सियों में नहीं। आप लोग घूमकर आ जाएँगे, तब फिर हम साथ हो जाएँगे।”हम बेताब वैली के प्रवेशद्वार पर खड़े हैं। यहाँ फिल्म ‘बेताब’ बनी थी; इसलिए अब यह स्थान बेताब घाटी कहलाता है। हम दो सौ रुपये में दो टिकट लेते हैं। घोड़ी वाला हमारे पीछे पड़ता है। वह अल्बम में कई किस्म की फोटो दिखाता है और मोबाइल में वीडियो। इनमें पहाड़ों, झीलों, बाग बगीचों में नवजवानों के रूमानी दृश्य हैं। सुन्दर- सुन्दर चित्र हैं। वह कहता है “आपके भी ऐसे ही बढ़िया फोटो बन जाएँगे साब... घोड़ी सहित इस पूरे पैकेज का चलिए आप दोनों के लिए दो हजार लगा देंगे।”
हम पैंसठ सत्तर बरस की उम्र में खड़े पति-पत्नी हँस पड़ते हैं, ये कहते हुए “अरे बस करो भाई... अब घोड़ी चढ़ने की हमारी उमर नहीं रही।”
अब हम लकड़ी की दो धकेल गाड़ी में आ बैठे हैं घाटी घुमाने के लिए जिसे दो आदमी धकेल रहे हैं। बाहर से आए श्रमजीवी लोग हैं। कश्मीर के लोगों की तरह उन दोनों की भी दाढ़ियाँ हैं, जैसे मेरी हैं। मैं उन्हें कहता हूँ “अच्छे से घुमाना... मैं भी दाढ़ी वाला आदमी हूँ।” यह सुनकर वे अपनेपन से हँस उठते हैं। अब हमारे दोनों ओर बेताब घाटी की पहाड़ी सुन्दरता पसरी हुई है। दूर- दूर तक पहाड़ों की चोटियाँ और उस पर धूप में चमकती बर्फ जैसे चाँदी का हो वर्क। पहलगाम कश्मीर का प्रमुख रमणीय पर्यटन स्थल है। अमरनाथ की वार्षिक यात्रा का आधार कैंप है। धकेलने वाला भाई बताता है - “यह सामने जो चाँदी का वर्क मढ़े जैसी बर्फीली चोटी देख रहे हैं न... बस उसके नीचे अमरनाथ है। रास्ते में चन्दनवाड़ी है।”
हम यहाँ अपनी कुछ तस्वीरें उतरवाते हैं, श्रमजीवी भाइयों से। वे अच्छी तस्वीर लेते हैं और कुछ वीडियो भी। कुछ बालकों के पास खूबसूरत मेमने हैं बड़े बालों वाले जिन्हें रंगीन कर दिया है। वे पत्नी से आग्रह करते हैं - “मेम इस मेमने को अपनी गोद में रखकर तस्वीर उतरवा लें। उसके सौ रुपये लगेंगे।” चन्द्रा का मातृत्व उनकी आजीविका के प्रति जागा और वह एक कुर्सी में बैठकर मेमने को अपनी गोद में बिठाकर तस्वीर उतरवा ली, जिसे फेसबुक में पोस्ट करने से फिर धूम मच गई। मेम के साथ मेमना। शांति के दूत कबूतर का रेट फकत दस रुपये और नखरैल मेमना फोटो खिचाने का सौ रुपये लेती है।यहाँ पहाड़ों में बकरी और भेड़ों के झुंड लेकर चरवाहे चलते देखे जा सकते हैं। शेक्सपियर के नाटक ’एज यू लाइक इट’ में जो विदूषक है, उसे एक चरवाहा व्यंग्य से कहता है कि ’सुनो! जिसे राजदरबार में शिष्टाचार माना जाता है, वैसा व्यवहार गाँव वालों के बीच हास्यास्पद माना जाता है।’ चरवाहा अंग्रेजी काव्य में ग्रीक काव्य की परंपरा की भाँति रोमांस का द्योतक है। उसका जीवन आनंदमय, चिंताहीन समझा जाता है। संभवतः यह बात दुनिया के सभी चरवाहों पर लागू होती है। ऐसा इन पहाड़ों के चरवाहों में भी दिखता है।
हम यहाँ से दूर जिस सड़क पर जा रहे थे, वह अत्यंत संकरी थी और इसलिए केवल सूडान यानी सबसे छोटी कार ही चल सकती थी। पाइन यानी देवदार के वृक्षों से लदे पहाड़ों की ऊँची- ऊँची चोटियों के करीब हम पहुँचते जा रहे थे। ये कुछ पहाड़ हैं, जिनकी तुलना स्विट्जरलैंड के आल्प्स पर्वत के आकार- प्रकार से की जाती है और इसलिए कश्मीर को स्विट्जरलैंड भी कह दिया जाता है; पर हिमालय का सौन्दर्य उसकी विराटता, अतुलनीय और बेमिसाल है। ड्राइवर कहता है - “हम आपको आरू वैली ले जा रहे हैं साब। यहाँ से अट्ठारह किलोमीटर है और इसका नज़ारा आते- जाते ही देख लीजिए। अंत में जाकर एक दरिया मिलेगा, वहाँ हम आपकी तस्वीर उतार लेंगे।” नदी को यहाँ दरिया कहते हैं।
हम देख रहे थे इस दुर्गम मार्ग से उत्तुंग हिमालय को जिसके पहाड़ ऊँचे होते जा रहे थे और घाटियाँ नीचे और गहरी होती जा रही थीं। इन घाटियों और खाई- खंदकों जैसे इलाके में बनी संकरी सड़क पर कई ऐसे खतरनाक मोड़ आ रहे थे, जहाँ सड़क का किनारा एक इंच ही बच रहा होता और उसके बाद सैकड़ों फुट नीचे गहरी घाटी। पहाड़ों जैसी ऊँचाई देवदार पेड़ों की भी है। ऊँचे - ऊँचे दरख़्त जिसमें नोकदार पत्तियाँ होती थीं और जिसका सिरा होता था पहाड़ों की चोटियों की मानिंद। कश्मीर के सभी पेड़ नोकदार व धारदार होते हैं; ताकि बर्फ़बारी में बर्फ उन पर टिके नहीं और उनकी खूबसूरती व मस्ती बनी रहे। प्रकृति ने इन्हें वैसे ही जीवट और सुन्दर बनाया है, इनके रहवासियों की तरह। अंत में हमें यहाँ भी अमरनाथ से आती लिद्दर ही मिली थी अपने संकरे पाट; लेकिन तेज बहाव के साथ।पहलगाम के छोटे और खूबसूरत पहाड़ी बाजार में दाना- पानी लिखा था, दाना- पानी रेस्त्रां में। यहाँ हमने कमल ककड़ी (ढेंस) जिसे हम मसालेदार खाते हैं उसे यहाँ मट्ठे के बघार में चावल के साथ खाया।
हम भोजन कर बाजार के पीछे उस स्थान पर गए, जिसे बैसरन कहा जाता है। घोड़ी चढ़ने वालों ने हमसे संपर्क किया और बताया - “यहाँ से छह किलोमीटर दूर है साहब... आप दोनों का किराया साढ़े चार हज़ार लगेगा। अच्छे से घुमाकर ला देंगे।” अपने रीढ़ के दर्द से परेशान हमें घोड़ी चढ़ने से बचना था और हम पहले भी बचे थे। हमने मना कर दिया। यह 14 मई 2025 की बात है। इसके ठीक एक सप्ताह बाद 22 मई को जब हम कश्मीर यात्रा पूरी कर वापस अपने शहर दुर्ग पहुँच गए थे, तब इसी बैसरन में बड़ी अमानवीय घटना घट गई। यहाँ आतंकवादियों ने छब्बीस पुरुषों को उनके धर्म पूछकर बड़ी बेरहमी से उनके सबके सिर में बारी - बारी से गोली मार दी और वे नवजवान अपनी पत्नी बच्चों के सामने रक्तरंजित होकर स्वर्ग सिधार गए...पर यह वह स्वर्ग नहीं है, जिसके लिए कश्मीर जाना जाता है। यह नरक से भी बदतर था। ये आतंकवादी केवल चार- पाँच लोग थे और सीमावर्ती जंगल से पैदल ही आए थे। यह आशंका हुई कि ये पाकिस्तान की सीमा से घुसे आतंकवादी हैं। ये पकड़े नहीं गए। फिर कुछ दिनों बाद भारत ने पाकिस्तान पर हमला कर दिया और उनके आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त किया। कश्मीर की वादियों में आतंक वादियों ने पहलगाम पर हमला किया; क्योंकि सबसे ज्यादा सैलानी यहीं आते हैं। आतंकवादी चाहते हैं कि कश्मीर आतंक के साये में ही जिए और उन पर इनका कब्ज़ा रहे। इसके प्राकृतिक स्रोतों पर अपना आधिपत्य जमाएँ और वे अपने हिसाब से यहाँ जंगल राज चला सकें, साम्प्रदायिक उन्माद फैला सकें। इसलिए इस बार आतंकवादियों ने सैलानियों पर सीधे हमला किया, ताकि वे आगे भी न आएँ।
ओह पहलगाम! अभी चार दिनों पहले तुम्हारी मुहब्बत भरी फिजा में हम डूबे हुए थे। भारत का स्वर्ग, वहाँ रहने वालों की खूबसूरती और सबका दिलकश अंदाज़, कश्मीरी, डोगरी और पश्तो की मिठास, अमन चैन और भाईचारा... इसमें कश्मीर के अवाम का क्या दोष था। दोष तो उन चन्द सिरफिरों का है, जो सैलानियों को मारकर वहाँ के रहवासियों के पेट पर प्रहार करते हैं। कायनात की सारी खुशी आजीविका के साधनों पर जिंदा रहती है दोस्तों... आजीविका छीन जाने से कुछ भी धरा नहीं रह जाता। कहाँ वो खूबसूरती का सबब और कहाँ ये खौफनाक मंजर...कहीं कोई मेल नहीं है।
कश्मीर हमारे देश का अकेला राज्य है जहाँ मुसलमान आबादी अधिक है। यहाँ लोग सुन्दर, सहयोगी, मधुर व्यवहार और आतिथ्य सत्कार से भरे हैं। सरकार का कहना है कि वर्ष 2024 में कश्मीर घाटी में ढाई करोड़ पर्यटक आए थे। देश की देशाटन प्रिय जनता ने साबित कर दिया कि उनकी पहली पसंद कश्मीर है; इसलिए इस आतंकवादी हमले के खिलाफ कश्मीर सहित हमारे देश भर के मुसलमानों ने और सबने साथ मिलकर भारत सरकार का समर्थन किया और अपनी एकजुटता का परिचय दिया; क्योंकि कश्मीर हमारा स्वर्ग है... और कश्मीरवासियों का जीवन भी स्वर्ग बने नरक नहीं। यह जिम्मेदारी भी हमारी बनती है। ■
सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491 001, मो. 9009884014
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