उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Nov 2, 2025

उदंती.com, नवम्बर - 2025

वर्ष- 18, अंक- 4

बुद्ध से पूछा आपको क्या मिला ध्यान साधना से? बुद्ध ने कहा - मिला कुछ भी नहीं, खोया बहुत है- क्रोध, मोह, द्वेष, घृणा, बुढ़ापे और मौत का डर...

इस अंक में

अनकहीः बच्चों को खुला आसमान देना होगा  - डॉ. रत्ना वर्मा

प्रदूषणः दिवाली बाद गहराया देशव्यापी प्रदूषण - प्रमोद भार्गव

नवगीतः 1. लहर यहाँ भी आएगी 2. समय करता है जाप  - सतीश उपाध्याय 

धरोहरः चंदखुरी- माता कौशल्या और राम की भूमि होने का प्रमाण - राहुल कुमार सिंह

यादेंः यादगार एक्सप्रेस - विजय विक्रान्त

चिंतन- मननः जीवन की सुंदरता - अंजू खरबंदा  

कविताः झील के ऊपर अगहन माह के मेघ - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया 'प्राण'

परम्पराः बेटी विदा करने की प्रथा- खोईंछा - मांडवी सिंह

कविताः छोटी लड़की - आरती स्मित

कहानीः साफ -सुथरी आँखों वाले - सुकेश साहनी

कविताः सच सच बताना युयुत्सु - निर्देश निधि

कुण्डलिया छंदः कहाँ अब आँगन तुलसी - परमजीत कौर 'रीत'

किताबेंः गद्य की विभिन्न विधाएँ: एक अनिवार्य पुस्तक - प्रो. स्मृति शुक्ला

व्यंग्यः अफ़सरनामा - डॉ मुकेश असीमित

कथाः फैसला - पूजा अग्निहोत्री

लघुकथाः सहानुभूति - सतीशराज पुष्करणा

कविताः अपने आप से - विजय जोशी 

प्रेरकः क्रोध का उपचार कैसे करें? - निशांत

लघुकथाः गुब्बारा - श्यामसुन्दर 'दीप्ति'

पिछले दिनोंः दाऊ रामचंद्र देशमुख जयंती- लोक कलाकारों का भावनात्मक संगम

अनकहीःबच्चों को खुला आसमान देना होगा

- डॉ.  रत्ना वर्मा

 पिछले दिनों बच्चों के एक हास्पिटल के सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ कि दस में से एक बच्चा सप्ताह में एक बार या उससे भी कम बार बाहर खेलने जाता है। यह सर्वेक्षण एक से पाँच साल के बच्चों के बीच किया गया था। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि हम आज के इस अत्याधुनिक तकनीक के दौर में अपने बच्चों की परवरिश किस प्रकार के माहौल में कर रहे हैं,  जहाँ बचपन धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक विस्तार, खुलेपन और कल्पनाशीलता को खोता जा रहा है। आधुनिक भारतीय परिवेश में यह स्थिति और भी जटिल है। जब बच्चे कुछ समझदार होते हैं तो वे मोबाइल, टैबलेट और टीवी की चमक में  इतने खो जाते हैं कि बाहर का मैदान, धूल भरी गलियाँ, और पेड़ों की छाँव जैसे प्राकृतिक वातावरण को वे जान ही नहीं पाते। 

आज का बच्चा जन्म से ही स्क्रीन के वातावरण में पलता- बढ़ता है। माता-पिता सुविधा और सुरक्षा के नाम पर उसे मोबाइल थमा देते हैं; ताकि वह शांत रहे। शुरू में यह सब मासूम-सा लगता है; लेकिन यही आदत धीरे-धीरे उसका एकांत, उसका मनोरंजन और उसके लिए सीखने का माध्यम बन जाती है। पाँच साल से कम उम्र का बच्चा भी अब वीडियो देखकर खाना खाता है और डिजिटल गेम्स में खेलना सीखता है। 

भारतीय पारिवारिक ढाँचे में पहले बच्चों का खेलना, दौड़ना, मोहल्ले में साथियों के संग समय बिताना, उनके सामाजिक और भावनात्मक विकास का मूल हिस्सा था; लेकिन अब महानगरों में छोटे फ्लैट, बढ़ता ट्रैफ़िक, असुरक्षा का भय और स्कूल के बाद कोचिंग-क्लास का दबाव आदि ने बचपन की स्वाभाविक गतिविधियों को सीमित कर दिया है। माता-पिता यह सोचकर राहत महसूस करते हैं कि बच्चा घर में है, सुरक्षित है; पर यह सुरक्षा उसके मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आज भारी पड़ रही है।

बाहर खेलने का अभाव बच्चों में आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक झिझक और अवसाद जैसी स्थितियाँ पैदा कर रहा है। जब बच्चा स्क्रीन पर आभासी दुनिया में रहता है, तो वह वास्तविक संवाद और सहयोग की कला से दूर हो जाता है। उसकी कल्पनाशक्ति तैयार चित्रों, वीडियो और गेम्स के साँचे में ढल जाती है। वह खुद कुछ गढ़ने, खोजने या जोखिम लेने से बचता है, जबकि खेलना केवल शारीरिक व्यायाम नहीं; बल्कि जीवन के नियमों और असफलताओं से निपटने का अभ्यास भी होता है। जिसे आज की रोबोटिक होती जा रही दुनिया को जानना और समझना होगा। 

भारतीय समाज में पारिवारिक संबंध अब तकनीकी माध्यमों से बँधे दिखते हैं। परिवार एक साथ बैठा होता है, पर हर सदस्य अपनी स्क्रीन में डूबा है। बच्चे का अकेलापन उसे आभासी मित्रों की ओर खींचता है, जहाँ वास्तविक स्नेह या मार्गदर्शन का अभाव होता है। परिणामस्वरूप वह या तो आत्मकेंद्रित हो जाता है या फिर दूसरों के प्रभाव में आकर अपनी पहचान खो देता है।

यह प्रवृत्ति केवल मानसिक ही नहीं, शारीरिक रूप से भी खतरनाक है। लगातार स्क्रीन देखने से दृष्टि कमजोर होती है, शरीर की सक्रियता घटती है, मोटापा बढ़ता है और नींद पर भी असर पड़ता है। कई बच्चों में चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की कमी और आत्मसंयम का अभाव बढ़ता जा रहा है। वे जल्दी ऊब जाते हैं; क्योंकि स्क्रीन का तेज़ी से बदलता दृश्य-क्रम उनकी संवेदनशीलता को कम कर देता है।

बच्चों को खेलने के लिए खुले स्थानों की कमी भी इस संकट को बढ़ाती है। महानगरों में पार्क सीमित हैं, गाँवों में खेत और खाली मैदान अब निजी निर्माण में बदल रहे हैं। ऐसे में बच्चों के पास खेलने की जगह ही नहीं बचती। जहाँ जगह है भी, वहाँ माता-पिता का डर उन्हें रोक देता है- कहीं चोट न लग जाए, कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए। यह भय अनजाने में बच्चों की साहसिकता और आत्मनिर्भरता को कुंद कर देता है।

समस्या यह नहीं कि तकनीक बुरी है; बल्कि यह है कि उसका उपयोग संतुलित नहीं है। मोबाइल बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम भी बन सकता है; लेकिन जब वही शिक्षा खेलने, अनुभव करने और सामाजिक जुड़ाव का विकल्प बन जाए, तब वह विनाशकारी सिद्ध होती है। 

भारतीय संस्कृति में खेल को शिक्षा का अंग माना गया था- कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, रस्सी कूदना जैसे खेल बच्चों को सहयोग की भावना, रणनीति बनाना और धैर्य  रखना सिखाते थे। आज वे सब गाँव के खेल या पुराने जमाने के खेल कहकर खारिज कर दिए जाते हैं । 

इस स्थिति में सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवार की है। माता-पिता यदि बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करें, उनके साथ मैदान में जाएँ या सप्ताहांत पार्क ले जाएँ, तो धीरे-धीरे बच्चे स्क्रीन से बाहर आने लगते हैं। शिक्षा संस्थानों को भी खेल और रचनात्मक गतिविधियों को पढ़ाई जितना महत्त्व देना चाहिए, अन्यथा आने वाली पीढ़ी मानसिक रूप से थकी, असहिष्णु और आभासी दुनिया में खोई हुई होगी।

भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवा है, वहाँ बचपन का यह संकट भविष्य का सामाजिक संकट बन सकता है। मोबाइल ने बच्चों की उँगलियों को तेज़ कर दिया है; लेकिन उनकी संवेदना को सुन्न भी कर दिया है। यदि हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी आत्मविश्वासी, सृजनशील और सामाजिक रूप से संवेदनशील बने, तो हमें उनके बचपन को मुक्त करना होगा-खुला आसमान, मिट्टी की खुशबू और खेल की सहजता में उन्हें आगे बढ़ने देना होगा, तभी बचपन फिर से खिलखिलाएगा और घर की चारदीवारी से निकल कर खुले आसमान में पंख फैलाकर उड़ान भरेगा।

प्रदूषणः दिवाली बाद गहराया देशव्यापी प्रदूषण

 - प्रमोद भार्गव

देशव्यापी प्रदूषण गहराने की रिपोर्ट भले ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने दी है; लेकिन यह आशंका पूर्व से ही थी कि दिल्ली एनसीआर समेत पूरे देश में वायु प्रदूषण में वृद्धि दर्ज की जाएगी?  साँस, दमा और अस्थमा के रोगियों को परेशानी होगी; क्योंकि वायु गुणवत्ता बद से बदतर होने की श्रेणी में पहुँच जाएगी। यह स्थिति तब है, जब दिल्ली में प्रदूषण की समस्या से चिंतित शासन-प्रशासन तो रहता ही है, सर्वोच्च न्यायालय की चिंता भी पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर देखी जाती रही है। इसलिए न्यायालय ने हरित पटाखों को चलाने की अनुमति दी थी; लेकिन निगरानी की ऐसी कोई विधि सरकार के पास नहीं है कि हरित पटाखों की ओट में सामान्य पटाखे चलाए ही न जाएँ ? ग्रीन पटाखों को लेकर यह धारणा है कि तुलनात्मक रूप में वे सामान्य पटाखों से प्रदूषण मुक्त हैं; लेकिन इनकी पहचान आसान नहीं है। दरअसल पटाखे इतनी बड़ी मात्रा में पूरे देश में बनते हैं कि इनकी गुणवत्ता एवं मानक की परख करना असंभव है। इस दायित्व के निर्वहन की जवाबदेही ‘राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान’ (नीरी) की है अवश्य; किंतु मानक निर्धारण की नैतिक जिम्मेदारी पटाखे निर्माताओं और फिर उन पर निगरानी सरकारी तंत्र की है, जो अकसर दायित्व निभाने में लापरवाह रहता है; इसीलिए वायु गुणवत्ता प्रदूषण का सूचकांक दिल्ली में कई स्थानों पर एक्यूआई 351 के पार दर्ज किया गया। हरियाणा के जींद में यह प्रदूषण सबसे अधिक 421 पर दर्ज हुआ है। यही हकीकत हर साल बनी रहती है।    

रिपोर्ट के अनुसार राजधानी दिल्ली में सबसे अधिक प्रदूषित हवा बह रही है। दस शहरों में दिल्ली 10वें नंबर पर है। शेष 9 शहरों में 8 हरियाणा और एक राजस्थान का है। यानी दिल्ली के पड़ोसी राज्य हरियाणा की हवा अब देश के राज्यों में सबसे ज्यादा प्रदूषित हो चुकी है। सीपीसीबी देश के 271 नगरों की हवा की गुणवत्ता की निगरानी रखता है। इनमें से 20 नगरों की वायु इस बार दिवाली के बाद अच्छी रही है, जबकि 54 नगरों में संतोषजनक और 103 नगरों में मध्यम स्तर की रही है। दीपावली के बाद दिल्ली में पीएम 2.5 का चौबीस घंटे में औसत 488 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज हुआ, जो पिछले पाँच साल में सबसे अधिक है। यह स्थिति तब है, जब हरियाणा एवं पंजाब में 2024 के अनुपात में पराली जलाने की घटनाएं 77.5 प्रतिशत घटी हैं। यहाँ यह जानने की जरूरत है कि पीएम 2.5 की मात्रा एक्यूआई का ही एक भाग है। एक्यूआई वायु में मौजूद 2.5 पीएम-10 ओजोन व अन्य प्रदूषणकारी गैसों की मात्रा को गणना करके तय किया जाता है। दिल्ली में वैसे भी ठंड की शुरूआत होने के साथ ही हवा गहराने लगती है, और प्रदूषण का संकट बढ़ने लगता है। यह स्थिति लगभग प्रतिवर्ष निर्मित होती है; लेकिन विडंबना है कि इन तथ्यों को जानते-बूझते सरकार नजरअंदाज कर देती है। इसलिए प्रदूषण सुधार के जो चंद उपाय किए जाते हैं, वे बेअसर साबित होते हैं। अतएव प्रदूषण उत्सर्जन के कारण यथावत् बने रहते हैं।

हम जानते है कि बच्चे और किशोर आतिशबाजी के प्रति अधिक उत्साही होते हैं और उसे चलाकर आनंदित भी होते हैं। जबकि यही बच्चे वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से अपना स्वास्थ्य भी खराब कर लेते हैं। खतरनाक पटाखों की चपेट में आकर अनेक बच्चे आँखों की रोशनी और हाथों की अंगुलियाँ तक खो देते हैं। बावजूद समाज के एक बड़े हिस्से को पटाखा- मुक्त दिवाली रास नहीं आती है। इसीलिए अदालती आदेश के बाद यह बहस चल पड़ती है कि दिल्ली-एनसीआर में खतरनाक स्तर 2.5 पीएम पर प्रदूषण पहुँचने का आधार क्या केवल पटाखे हैं ? सच तो यह है कि इस मौसम में हवा को प्रदूषित करने वाले कारणों में बारूद से निकलने वाला धुआँ एक कारण जरूर है; लेकिन दूसरे कारणों में दिल्ली की सड़कों पर वे कारें भी हैं, जिनकी बिक्री निरंतर उछाल पर है। नए भवनों की बढ़ती संख्या भी दिल्ली में प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाया जाना भी दिल्ली की हवा को खराब करने का एक कारण है। इस कारण दिल्ली के वायुमंडल में पीएम 2.5 का स्तर बढ़ जाता है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर वायु का स्तर 10 पीएम से कम होना चाहिए। पीएम वायु में घुले-मिले ऐसे सूक्ष्म कण है, जो सांस के जरिए फेफड़ों में पहुँचकर अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं।

वायु के ताप और आपेक्षिक आर्द्रता का संतुलन गड़बड़ा जाने से हवा प्रदूषण के दायरे में आने लगती है। यदि वायु में 18 डिग्री सेल्सियस ताप और 50 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता हो तो वायु का अनुभव सुखद लगता है। लेकिन इन दोनों में से किसी एक में वृद्धि, वायु को खतरनाक रूप में बदलने लगती है। ‘राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मूल्यांकन कार्यक्रम‘ (एनएसीएमपी) के मातहत ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ वायु में विद्यमान ताप और आद्रता के घटकों को नापकर यह जानकारी देता है कि देश के किस नगर में वायु की शुद्धता अथवा प्रदूषण की क्या स्थिति है। मापने की इस विधि को ‘पार्टिकुलेट मैटर’ मसलन ‘कणीय पदार्थ’ कहते हैं। प्रदूषित वायु में विलीन हो जाने वाले ये पदार्थ हैं, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड। सीपीसीबी द्वारा तय मापदंडों के मुताबिक उस वायु को अधिकतम शुद्ध माना जाता है, जिसमें प्रदूषकों का स्तर मानक मान के स्तर से 50 प्रतिशत से कम हो। इस लिहाज से दिल्ली समेत भारत के जो अन्य नगर प्रदूषण की चपेट में हैं, उनके वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड का प्रदूषण कम हुआ है, जबकि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का स्तर कुछ बड़ा है।

सीपीसीबी ने उन नगरों को अधिक प्रदूषित माना है, जिनमें वायु प्रदूषण का स्तर निर्धारित मानक से डेढ़ गुना अधिक है। यदि प्रदूषण का स्तर मानक के तय मानदंड से डेढ़ गुना के बीच हो तो उसे उच्च प्रदूषण कहा जाता है। और यदि प्रदूषण मानक स्तर के 50 प्रतिशत से कम हो, तो उसे निम्न स्तर का प्रदूषण कहा जाता है। वायुमंडल को प्रदूषित करने वाले कणीय पदार्थ, कई पदार्थों के मिश्रण होते हैं। इनमें धातु, खनिज, धुएँ, राख और धूल के कण मिले होते हैं। इन कणों का आकार भिन्न-भिन्न होता है। इसीलिए इन्हें वर्गीकृत करके अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा गया है। पहली श्रेणी के कणीय पदार्थों को पीएम-10 कहते हैं। इन कणों का आकार 10 माइक्रोन से कम होता है। दूसरी श्रेणी में 2.5 श्रेणी के कणीय पदार्थ आते हैं। इनका आकार 2.5 माइक्रोन से कम होता है। ये कण शुष्क व द्रव्य दोनों रूपों में होते हैं। वायुमंडल में तैर रहे दोनों ही आकारों के कण मुँह और नाक के जरिए श्वास नली में आसानी से प्रविष्ट हो जाते हैं। ये फेफड़ों तथा हृदय को प्रभावित करके कई तरह के रोगों के जनक बन जाते हैं। आजकल नाइट्रोजन डाइऑक्साइड देश के नगरों में वायु प्रदूषण का बड़ा कारक बन रही है।  

औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति, आधुनिक विकास के ऐसे नमूने हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे हैं। लेकिन दिवाली पर रोशनी के साथ आतिशबाजी छोड़कर जो खुशियाँ मनाई जाती है, उनका व्यावहारिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पक्ष भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अकेली दिल्ली में पटाखों का कई हजार करोड़ का कारोबार होता है, जो कि देश में होने वाले कुल पटाखों के व्यापार का 25 फीसदी हिस्सा है। इससे छोटे-बड़े हजारों थोक व खुदरा व्यापारी और पटाखा उत्पादक मजदूरों की सालभर की रोजी-रोटी चलती है। इस लिहाज से इस व्यापार पर प्रतिबंध के व्यावहारिक पक्ष पर भी गौर करने की जरूरत है? यह अच्छी बात है कि शीर्ष न्यायालय सामान्य पटाखों पर रोक के साथ हरित पटाखे चलाने को प्रोत्साहित कर रही है। इससे स्वदेशी हरित पटाखा उद्योग विकसित होगा और भविष्य में दिल्ली को प्रदूषित महानगर होने की श्रेणी से भी मुक्ति मिल जाएगी।  

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 9981061100

दो नवगीतः

 सतीश उपाध्याय 

1. लहर यहाँ भी आएगी

राजहंस पाँखें फैलाओ,

लहर यहाँ भी आएगी 

नमी,जमीं पर  थिरक रही 

हरियल गीत सुनाएगी।


जरा मृदा की खिड़की खोलो 

गर्भ -नीर अकुलाते हैं 

भीतर की ठंडे कम्पन भी

 दहलीजों तक आते हैं ।

 

तुम मधुमासी भाव जगाना

 शीतलता मुस्काएगी 

राजहंस पाँखें फैलाओ 

लहर यहाँ भी आएगी ।

भीतर के भीगे पन्नों में 

बारिश के हस्ताक्षर हैं 

गर्भ में साँसें अभी हरी हैं 

 रिसते  पानी के स्वर हैं।

 

 नीलकंठ बन धीरे-धीरे 

हवा 'तपिश' पी जाएगी 

राजहंस पाँखें फैलाओ,

लहर यहाँ भी आएगी 

 

शापित सारे कालखंड 

जब टुकड़ों में बँट जाएँगे

नैसर्गिक सौंदर्य देख तब 

गीत परिंदे गाएँगे ।

 

निर्वाती फिर यही धरा

 तपोभूमि बन जाएगी

 राजहंस पाँखें फैलाओ 

लहर यहाँ भी आएगी ।

 

बिखरेगी फूलों की खुशबू 

और भ्रमर रसपान करेंगे 

पाषाणों को चूम चूम कर 

जल उसका गुणगान करेंगे।

 

 सारस, बगुले नीड़ बनाना 

मीन मीत बन जाएगी 

राजहंस पाँखें फैलाओ 

लहर यहाँ भी आएगी ।

2. समय करता है जाप

समय नदी की धारा

शोर मचाए

कभी बहे  चुपचाप।


नए परिधान पहन

फूटीं फिर कोपलें

अतीत है धुँधला

वर्तमान में चलें

गतिशील है सपने

उनमें प्रवाह है

उनींदी कलियों को

 सूरज की चाह है।।

 

कदमों की जारी

रहे पदचाप।।

 

झर रहे भीतर

मीठे- से झरने

वक्त चला आया

खालीपन भरने

कैनवास है थिर

रंग  ही बदले हैं

झाँक रहे उजियारे

जो भीतर पले हैं।

 

धड़कन है शीतल

और तन में है ताप।।

 

साँसों में लय है

मन में है ताल

राहों में बिखरे

कितने सवाल

उपवन से फूल का 

 ताज़ा अनुबंध

बाँटेगा दूर तक

 वो अपनी सुगंध।

 

जीवन फूँके शंख

समय करता है जाप।


धरोहरः चंदखुरी- माता कौशल्या और राम की भूमि होने का प्रमाण

 - राहुल कुमार सिंह

भरोसे पर संदेह हो और भरोसा सच्चा हो तो उस पर किया गया हर संदेह अंततः उसे मजबूती देता है, कमजोर नहीं करता; इसलिए अपने संदेहों पर भरोसा रहे कि वे सत्य का मार्ग प्रशस्त करेंगे। सत्य, तथ्यों की तरह जड़ नहीं होता, जीवंत होता है और वह 'सच्चा-सच' है तो उस पर किया गया हर विचार, आपत्ति, उसके सारे पक्ष-कारक, अंततः उसकी चमक बनाए रखने में सहायक साबित होते हैं।

परलोक में भरोसा करने वाले जन-मानस के लिए इहलोक में प्रत्यक्ष और प्रचलित का महत्त्व कम नहीं होता। कोसल, कौशल्या, भांचा राम, सुषेण पर इसी तरह संदेह-भरोसे से विचार करने का प्रयास है, रहेगा। ध्यान रहे कि रामकथा के ग्रंथों में उसका लोकप्रिय पाठ तुलसीकृत रामचरित मानस है, तो शास्त्रीय मान्यता वाल्मीकि रामायण की है; किंतु पाठालोचन के विद्वान् इसके कम से कम तीन भिन्न पाठों को मान्यता देते हैं, इन पाठों में भी आंशिक भेद है। माना जाता है कि इसका कारण आरंभ में रामकथा का मौखिक रूप ही प्रचलित रहा, बाद में अलग-अलग लिखित रूप दिया गया। इसके साथ रामकथा और उसकी आस्था के लोक-प्रचलन की बहुलता और विविधता को, उस पर विचार-चिंतन के अवसर की तरह सम्मान करना समीचीन है।

रामलला, अयोध्या के साथ छत्तीसगढ़ में ननिहाल, भांचा राम और इससे संबंधित विभिन्न पक्षों की चर्चा फिर से हो रही है। इस क्रम में कुछ आवश्यक संदर्भों की ओर ध्यान दिया जाना प्रासंगिक होगा, इनमें मेरी जानकारी में चंदखुरी में कौशल्या मंदिर के सर्वप्रथम उल्लेख का संदर्भ इस प्रकार है-

The Indian Antiqury, VOL- LVI,-1927 में (राय बहादुर) हीरालाल का शोध लेख 'The Birth Place of the Physician Sushena' प्रकाशित हुआ था। 9 फरवरी 1913 को चंदखुरी में ग्रामवासियों ने उन्हें जलसेना (जल-शयन) तरई के बीच टापू पर रखे कुछ पत्थर बताए, जिन्हें वे बैद सुखेन मानकर पूजते हैं। हीरालाल ने यह भी उल्लेख किया है कि समान नाम के अन्य ग्रामों से इसकी भिन्न पहचान के लिए इसे ‘बैद चंदखुरी‘ कहा जाता है। (एक अन्य चंदखुरी रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर है, जिसमें अब बैतलपुर ग्राम नाम से लुथेरन चर्च के अमेरिकन इवेंजेलिकल मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ-आश्रम है।) इस विषयक मुख्य लेख की पाद टिप्पणी में कौशल्या के मंदिर का नामोल्लेख है।

प्रसंगवश, पुरातात्त्विक स्थलों के आरंभिक उल्लेख के लिए अलेक्जेंडर कनिंघम के सर्वे रिपोर्ट को खँगालना आवश्यक होता है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के महानिदेशक कनिंघम ने प्राचीन स्थलों के सर्वेक्षण के लिए 1881-82 में इस अंचल का दौरा किया था, जिसका प्रतिवेदन पुस्तक रूप में वाल्युम-17 में प्रकाशित है। इसमें देवबलौदा, राजिम, आरंग, सिरपुर आदि स्थलों के अलावा आरंग और रायपुर के बीच नवागाँव का उल्लेख मिलता है, किंतु चंदखुरी का उल्लेख नहीं है। 1909 के रायपुर गजेटियर में तुरतुरिया के साथ लव-कुश और कोसल का उल्लेख है; किंतु चंदखुरी का नहीं। इसी प्रकार 1973 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर में चंदखुरी का उल्लेख वहाँ के डेयरी फार्म के संदर्भ में हुआ है, न कि सुषेण या कौशल्या माता के लिए। स्थानीय स्रोतों द्वारा बताया जाता है- ‘तालाब के बीच टापू पर स्थित मंदिर अत्यंत प्राचीन है, जिसके गर्भगृह में रामलला को गोद में लिये माता कौशल्या की मूर्ति है। इस मंदिर का पुनरुद्धार सन 1973 में कराया गया।’

चंदखुरी स्थित ‘शिव मंदिर’ को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित करने की अधिसूचना तिथि 5.3.1986 दर्ज है। संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्त्व, छत्तीसगढ़ के प्रकाशन में इस स्मारक का उल्लेख इस प्रकार है-

‘राष्ट्रीय मार्ग क्रमांक 06 नागपुर-सम्बलपुर रोड पर 16 कि. मी. पर स्थित मंदिर हसौद से 12 किलोमीटर दूर चंदखुरी गाँव में बाएँ किनारे पर यह स्मारक अवस्थित है। इस मंदिर का निर्माण 10-11 वीं शती ईस्वी में हुआ था किन्तु इस मंदिर का अलंकृत द्वार तोरण किसी दूसरे विनष्ट हुए सोमवंशी मंदिर (काल- 8वीं शती ईस्वी) का है। इसकी द्वार शाखाओं पर गंगा एवं यमुना नदी देवियों का अंकन है। सिरदल पर ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी बैठी हुई हैं, जिसके एक ओर बालि-सुग्रीव के मल्लयुद्ध एवं मृत बालि का सिर गोद में रखकर विलाप करती हुई तारा का करुण दृश्य प्रदर्शित है। नागर शैली में निर्मित यह पंचरथ मंदिर है। इसमें मण्डप नहीं है। कुल मिलाकर यह क्षेत्रीय मंदिर का अच्छा उदाहरण है।’

इस विभागीय संरक्षित स्मारक का निरीक्षण 1993 में तत्कालीन प्र. उपसंचालक श्री जी. एल. रायकवार द्वारा किया गया था। श्री रायकवार ने इस स्मारक और स्थल के संबंध में जानकारी दी है कि- 

यह मंदिर मूल रूप से परवर्ती सोमवंशी शासकों के काल में निर्मित है, जिसका कलचुरि शासकों ने करवाया। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। प्रवेश द्वार पर गंगा तथा यमुना का अंकन है। सिरदल पर गजलक्ष्मी तथा धनुष बाण सहित राम लक्ष्मण, बालि सुग्रीव युद्ध, विलाप करती तारा, मिथुन आकृति एवं अंत में अस्पष्ट आकृति है। मंदिर के प्रांगण में पीपल के पेड़ के नीचे अस्पष्ट देव प्रतिमाएँ, नंदी, अस्पष्ट देवी प्रतिमा, नागयुग्म, शैवाचार्य, भारवाहकगण तथा स्तंभ पर अंकित भारवाहक आदि की खंडित प्रतिमाएँ तथा स्थापत्यखंड रखे हैं।

श्री रायकवार ने यह भी उल्लेख किया है कि इस ग्राम में अनेक प्राचीन सरोवर हैं। मंदिर के निकट के एक सरोवर के मेड़ पर पीपल के पेड़ के जड़ के बीच प्राचीन जलहरी लम्बी प्रणालिका सहित तथा एक आदमकद पुरुष प्रतिमा का उर्ध्व भाग, फँसी हुई रखी है। खंडित पुरुष प्रतिमा का ऊर्ध्व भाग संकलन योग्य है। ग्राम में एक स्थान पर परवर्ती काल के 11 वीं 12 वीं सदी ईस्वी के भग्न मंदिर का अवशेष विमान है। इस भग्न मंदिर का अधिष्ठान क्षत-विक्षत होने पर भी आंशिक रूप से बच रहा है। यहाँ पर एक शिवलिंग तथा खंडित नंदी रखा हुआ है। ग्राम के एक घर में खंडित तीर्थंकर की प्रतिमा तथा अत्यधिक क्षरित प्रतिमा रखी हुई है जिसकी ये पूजा करते हैं। चन्दखुरी नाम संभवतः चन्द्रपुरी का अपभ्रंश है। सोमवंशी अथवा कलचुरियों के काल में निःसंदेह यह महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थल रहा होगा।

यहाँ उपर्युक्त जानकारियों की प्रस्तुति का उद्देश्य, कि मूल स्रोत, प्राथमिकी-आरंभिक उल्लेख का विशेष महत्त्व होता है। साथ ही किसी स्थल विशेष पर विचार करते हुए, वहाँ से संबंधित दस्तावेज, अभिलेख आदि के साथ उस स्थान की प्रचलित परंपरा, नाम-शब्द, लोकोक्तियाँ, दंतकथाएँ, आस्था का भी न सिर्फ ध्यान रखना आवश्यक होता, बल्कि उनके संकेतों से खुलने वाली संभावनाओं को भी देखना-परखना होता है।

इस दृष्टि से विचारणीय कि छत्तीसगढ़ में ग्राम देवताओं के रूप में सुखेन जैसे नामों में देगन गुरु और परउ बइगा, बहुव्यवहृत और प्रतिष्ठित-सम्मानित है। देगन या दइगन, मूलतः देवगण गुरु अर्थात् वृहस्पति हो सकते हैं। परउ के अलावा अन्य- सुनहर, बोधी, तिजउ, लतेल बइगा जैसे कई नाम लोक में प्रचलित हैं। ऐसा माना जा सकता है कि इन नामों के प्रभावी बइगा, गुनिया, देवार, सिरहा, ओझा हुए, जिनकी स्मृति में थान-चौंरा बना दिया गया, जिसके साथ मान्यता जुड़ गई कि उनका स्मरण-पूजन, उस स्थान की मिट्टी या आसपास की वनस्पति, औषधि का काम करती है।

पारंपरिक-आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र में माधव और वाग्भट्ट का नाम कम प्रचलित है, किंतु चरक, सुश्रुत नाम बहुश्रुत हैं। महाभारत में अश्विनीकुमार-द्वय से उत्पन्न वैद्य-चिकित्सक के रूप में जुड़वा नकुल-सहदेव का नाम आता है, उसी तरह रामकथा के संदर्भ में योद्धा, धर्म नामक वानर के पुत्र और वालि (बालि) के श्वसुर सुषेण की प्रतिष्ठा है, जिसने अमोघ शक्ति प्रहार से मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी (के साथ विशल्यकरिणी, सावर्ण्यकरिणी जैसे नाम भी मिलते हैं।) के लिए हनुमान को भेजा था। इस आधार पर संभव है कि चंदखुरी में कोई प्रसिद्ध वैद्य हुआ हो, वहाँ रामकथा-प्रसंग का शिल्पांकन है ही, तो उस वैद्य को सम्मान सहित याद करने के लिए उसे रामकथा के वैद्य सुषेण जैसा मानते याद किया जाने लगा हो।

इस प्रकार प्राचीन शिव मंदिर के शिल्पांकन में रामकथा के प्रसंगों के साथ एक अन्य स्थिति पर विचार भी आवश्यक है। कौशल्या के प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण सामान्यतः प्राप्त नहीं होते और कहीं हों, तो सुस्थापित नहीं हैं। इसी तरह की स्थिति रामलला के साथ है। राम शिल्प में सामान्यतः द्विभुजी, धनुर्धारी दिखाए जाते हैं, मगर उनके बालरुप के लिए विशिष्ट प्रतिमाशास्त्रीय लक्षण का अभाव है। अतएव किसी नारी प्रतिमा के साथ शिशु रुप की प्रतिमा की पहचान कौशल्या और राम के रूप में की जा सकती है, विशेषकर तब यदि वह शिशु लिये हो और अंबिका का रूप न हो साथ ही तब विशेषकर, जब ऐसा शिल्पांकन रामकथा के अन्य प्रसंगों के साथ उपलब्ध हो।


इसी तरह चंदखुरी स्थल के प्राचीन शिव मंदिर के सिरदल पर रामकथा का बालि-सुग्रीव प्रसंग संबंधी शिल्पांकन, राम की सेना के वानर योद्धा सुषेण, जो बालि के श्वसुर भी हैं और वैद्य भी, इसलिए मूर्तिशिल्प में वानरमुख आकृति की पहचान बालि, सुग्रीव, हनुमान की तरह सुषेण के रूप में की जा सकती है, तो इस स्थान को कौशल्या माता और वैद्य सुषेण से संबद्ध करने का मूर्त आधार इस तरह भी संभव है।

नाम साम्य की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के अन्य ग्रामों कोसला, कोसलनार, केसला, कोसिर, कोसा और मल्हार से प्राप्त ‘गामस कोसलिय’ अंकित मृण-मुद्रांक और मल्हार से ही प्राप्त महाशिवगुप्त बालार्जुन के ताम्रपत्र में आए नाम कोसलनगर की चर्चा भी अप्रासंगिक न होगी। साथ ही चंदखुरी नाम पर विचार करते हुए, मरवाही के पड़खुरी, पथरिया के बेलखुरी, बसना के भैंसाखुरी के साथ इसी नाम के अन्य ग्रामों को भी संदर्भ में रखना होगा तथा यह भी उल्लेखनीय है कि जनगणना रिपोर्ट में इस गाँव का नाम Chandkhuri नहीं बल्कि Chandkhurai (चंदखुरई?) इस तरह दर्ज है। स्मरणीय कि महाभारत के वनपर्व में उल्लिखित (दक्षिण) कोसल के ऋषभतीर्थ की पहचान सक्ती के निकट स्थित स्थल गुंजी-दमउदहरा से निसंदेह की जाती है। इसी तरह वायु पुराण के मघ-मेघवंशी कोसल नरेशों के नाम वाले प्राचीन सिक्के मल्हार से प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध, प्रयाग-प्रशस्ति में दक्षिणापथ विजय क्रम में पहले जिन दो राज्यों का नाम आता है, वे कोसल और महाकांतार हैं।

मल्हार से प्राप्त आरंभिक ईस्वी सदी का

ब्राह्मी ‘गामस कोसलिया’ अभिलिखित मृण-मुद्रांक

इन कथा-मान्यताओं का आधार यहाँ शिल्प में तलाशने का प्रयास है, उसी तरह यहाँ ऐसे शिल्प की रचना किए जाने के आधार में, इस स्थल का रामकथा भूमि होने की संभावना को बल मिलता है। स्थानीय अन्य जानकारियों और पार्श्व-परिप्रेक्ष्य की संबंधित कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर आस्था सम्मत इतिहास की छवि के समग्र रूप को निखार सकने की प्रबल और व्यापक संभावना यहाँ है। (सिंहावलोकन से)

यादेंः यादगार एक्सप्रेस

 - विजय विक्रान्त, कनाडा

भारत छोड़े हुए एक लम्बा अरसा हो गया है। कैसे ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहाँ कैनेडा में गुज़ार दिया, इसका कोई अन्दाज़ा ही नहीं रहा। वक्त गुज़रता गया और इसी के साथ साथ ज़िन्दगी की गाड़ी ने भी अपनी रफ़्तातार तेज़ करनी शुरू करदी। तेज़ी का, यह न रुकने वाला आलम, हमेशा से ही अपनी भरपूर जवानी पर रहा है। 

फिर भी न जाने क्यों, दिल के किसी कोने में, पुरानी यादों के आगोश में जाकर गुम हो जाने के लिए तबीयत बेचैन रहती है। वो यादें, जो कभी हकीकत हुआ करती थीं, आज उन्हीं को तरोताज़ा करने को जी कर रहा है। जाने अंजाने में आज आपको भी अपने इस सफ़र में मैं ने अपना हमसफ़र बना ही लिया है।

चलो, आज ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तार को कीली पर टाँगकर, और कुछ आहिस्ता करके, जीने का मज़ा लिया जाए। यही वो तेज़ रफ़तार है, जिसकी वजह से हम ख़ुदा की बख़्शी हुई नियामतों से महरूम हो गए हैं।

चलो, एक बार थोड़ी देर के लिए बच्चे क्यों न बन जाएँ। याद करें उन लम्हों को जब मुहल्ले के मैदान में दोस्तों के साथ गिल्ली डण्डा, पिट्ठू, कबड्डी और कंचों से खेला करते थे। खुले आसमान में पतंगें उड़ाया करते थे और बारिश में झूम- झूमके नाचते, गाते और नहाते थे। यही नहीं, बारिश के बहते पानी में हम अपनी अपनी कागज़ की किश्तियाँ भी तैराया करते थे।

चलो, एक बार पशु पक्षियों के बीच में जाकर चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कुहुक, कबूतरों की गुटरगूँ, मुर्गों की बाँग, कौओं की कौं कौं, कुत्तों की भौं भौं, गऊओं के रँभाने और घोड़ों के हिनहिनाने में जो एक छुपा हुआ संगीत है उसे बड़े ग़ौर से ध्यान लगाकर सुनें। यही नहीं मोर को नाचता, ख़रगोशों को फुदकता और हिरनों को उछलता देखकर क्यों ना हम भी आज एक ठुमका लगाएँ।

चलो, एक बार खेतों में जाकर माटी की सुगन्ध, सरसों के पीले फूलों की चादर, गेहूँ की बालियों, बाजरे का सिट्टा, ज्वार और मक्की के भुट्टों में कुदरत का करिश्मा देखें।

चलो, एक बार फिर से उन्हीं खेतों में जाकर हल जोतते हुए किसान, बैलों का कुएँ से पानी निकालते हुए रहट की चर्रक चूँ, क्यारियों में पानी का चुपचाप गुमसुम बहना और पास के तालाब में तैरती हुई मछलियों के नाच को सराहें।

चलो, एक बार फिर से वो पुस्तकें पढ़ें, जिन पर बुकशेल्फ़ में रखे रखे धूल जम गई है। गुम हो जाएँ उन ख़्यालों में, जब इन्हीं किताबों की सोहबत में वक्त का पता ही नहीं चलता था। याद करें- अमीर ख़ुसरो, मिर्ज़ा ग़ालिब, बुल्ले शाह, वृन्दावन लाल वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, धर्मवीर भारती, महीप सिंह, भीष्म साहनी और बहुत सारे दिग्गज लेखकों को, जिन्होंने अपने साहित्य की सारी दुनिया में एक बहुत बड़ी छाप छोड़ दी है।

चलो, एक बार फिर से याद करें उन दिनों को जब फ़ॉउन्टेन पैन या फिर स्याही वाली दवात और कलम से लिखाई किया करते थे और स्याही को सुखाने के लिए ब्लॉटिंग पेपर का इस्तेमाल होता था। कभी -कभी तो इसी स्याही से किताबें और हाथ पैर काले- नीले हो जाते थे। कैसे भूल सकते हैं उन लम्हों को जब फ़ॉउन्टेन पैन लीक कर जाता था और जेब के ऊपर दुनिया का नक्शा बन जाता था।

चलो, एक बार फिर से छत पर जाकर बिस्तर के ऊपर पानी का छिड़काव किया जाए। उसके बाद सफ़ेद चादर ओढ़कर लम्बी तानकर सोया जाए। 

चलो, एक बार फिर से कुछ दोस्तों को साथ लेकर बस्ती से दूर पटेल पार्क में जाकर पिकनिक मनाई जाए। यादों की दुनिया को तरोताज़ा करते हुए दोराहा जाए, उन लम्हों को, जब ठण्डा करने के लिए देसी आमों को पानी की भरी हुई बाल्टी में डाला जाता था और देसी आम चूसने का मज़ा ही कुछ और होता था।

चलो, एक बार फिर से शहर के कोलाहल से दूर, पास वाले गाँव में तालाब किनारे बैठा जाए, वहाँ पर पानी में ठीकरों को ऐसे फेंका जाए कि वे तैरते नज़र आएँ। पत्थरों पर बैठकर पैरों को पानी में डालकर ठण्डा किया जाए। आसपास के खेतों में हल चलाते हुए किसान से कुछ अपने दिल की बात कही जाए और कुछ उसकी सुनी जाए। मौका मिले तो सर्सों के साग और मक्की की रोटियों के ज़ायके का भी लुत्फ़ उठाया जाए।

चलो, एक बार फिर से उन वाईनल रिकार्डों को, जिन्हें याद करके सुनना तो दूर रहा हाथ लगाए हुए भी एक बहुत लम्बा अरसा हो गया है, बड़ी मुद्दतों के बाद सुना जाए। इसी बहाने कुछ देर के लिए अपने आपको के.एल.सहगल, पंकज मलिक, लता मंगेशकर, सी.एच.आत्मा, बेग़म अख़्तर, किशोर कुमार, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, सचिनदेव बर्मन, आशा भोंसले, शान्ति हीरानन्द, शमशाद बेग़म, कमल बारोट, सुधा मल्होत्रा, ज़ोहरा बाई अम्बाला, मुकेश, मुहम्मद रफ़ी, जगजीत सिंह, तलत महमूद, गीता दत्त, रहमत कव्वाल, शंकर-शंभू कव्वाल, यूसफ आज़ाद, रशीदा ख़ातून, नुसरत फ़तेह अली ख़ान, सी. रामचन्द, हेमन्त कुमार, नूरजहाँ और सुरैया जैसे फ़नकारों के भूले बिसरे सदा बहार गीतों के आनन्द में डुबो दिया जाए। 

काश ज़िन्दगी की इस दौड़- धूप में यह सब मुमकिन हो पाता और हमें गुज़रे हुए दिनों के साथ थोड़ा वक्त गुज़ारने का मौका मिलता; लेकिन इन ख़ुशगवार पुरानी यादों के साथ- साथ ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा कड़वा सच भी जुड़ा हुआ है। कुछ यादें तो हम हमेशा- हमेशा के लिए भुला देना चाहते हैं। ऐसी यादों के लिए तो यही कहना वाजिब होगा।

भूली हुई यादों, मुझे इतना न सताओ,

अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ।

चिंतन- मननः जीवन की सुंदरता

 - अंजू खरबंदा  

मनुष्य का मन एक अद्भुत साधन है- विचारों का महासागर। इसी से सभ्यताएँ जन्म लेती हैं, इसी से ज्ञान का प्रवाह होता है और इसी से जीवन दिशा पाता है; लेकिन जब यही मन अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगे, तो सृजन का स्रोत ही पीड़ा का कारण बन जाता है। यही स्थिति है ओवरथिंकिंग की!

‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’ (भगवद्गीता – अध्याय 2, श्लोक 66)

इसका विस्तृत अर्थ है –‘जिसका मन अशांत है, उसे सुख कहाँ से प्राप्त

हो सकता है?’

यह श्लोक गीता का अत्यंत गूढ़ संदेश देता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब तक मन स्थिर और शांत नहीं होगा, तब तक कोई भी व्यक्ति सच्चे सुख, ज्ञान या आनंद को अनुभव नहीं कर सकता। बाहरी वस्तुओं से मिलने वाला आनंद क्षणिक होता है, किंतु मन की शांति ही स्थायी सुख का स्रोत है; इसीलिए ओवरथिंकिंग के संदर्भ में यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है। जब मन निरंतर विचारों, चिंताओं और कल्पनाओं में उलझा रहता है, तो वह 'अशांत' हो जाता है। उस अशांत मन में सुख, आनंद या स्वास्थ्य का निवास संभव नहीं। गीता का यह संदेश हमें याद दिलाता है कि मन को शांत करना ही जीवन को सुंदर बनाना है। जब विचारों का शोर कम होता है, तभी भीतर की आत्मा की आवाज़ सुनाई पड़ती है।

इस तरह कहा जा सकता है कि ओवरथिंकिंग मन की जड़ता है। जिस प्रकार कोई मशीन लगातार चलते-चलते थक जाती है और धीमी पड़ जाती है, उसी प्रकार निरंतर चिंतन मन को बोझिल और निष्क्रिय बना देता है। इसका परिणाम है- अनिद्रा, सिरदर्द, चिंता, चिड़चिड़ापन और कई शारीरिक बीमारियाँ। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है कि अधिकतर बीमारियों की जड़ मानसिक असंतुलन और तनाव ही है।

अब प्रश्न यह उठता है कि इससे बचा कैसे जाए? 

उत्तर सरल है जितना छोड़ना सीखेंगे, उतना स्वस्थ रहेंगे। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि हर परिस्थिति को वह नियंत्रित नहीं कर सकता। कई बार हालात को स्वीकार करना ही समाधान होता है। यदि हम हर छोटी घटना पर बार-बार विचार करेंगे तो मन पर बोझ बढ़ेगा; लेकिन यदि उन्हें सहज भाव से छोड़ देंगे, तो मन हल्का रहेगा। सोचिए, पर उतना ही जितना ज़रूरी हो।

सोचना मानवीय क्षमता है और जीवन के विकास का आधार भी! योजनाएँ बनाना, निर्णय लेना, भविष्य के लिए तैयारी करना-ये सब सोच पर ही निर्भर है; लेकिन जब यही सोच आवश्यकता से अधिक हो जाए, तो यह क्षमता विनाशकारी रूप ले लेती है। जैसे नमक भोजन का स्वाद बढ़ाता है पर आवश्यकता से अधिक होने पर स्वाद बिगाड़ भी देता है, ठीक वैसे ही सोच भी सीमित हो तो लाभकारी होती है और असीमित हो तो हानिकारक!

आधुनिक मनोविज्ञान यह बताता है कि ‘स्वस्थ मन ही स्वस्थ शरीर की चाबी है।’ यदि मन संतुलित, शांत और प्रसन्न है तो शरीर में भी सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। इसलिए ध्यान, योग, प्राणायाम, संगीत, लेखन या प्रकृति के बीच समय बिताना ओवर थिंकिंग को कम करने के सरल उपाय हो सकते हैं। अंततः जीवन का सार यही है वर्तमान क्षण को जीना! जो बीत गया उसे पकड़कर बैठना व्यर्थ है, और जो आने वाला है उसकी अनिश्चितताओं पर चिंता करना भी निरर्थक है । संतुलित विचार ही जीवन की दिशा बदलते हैं। याद रखिए 'मन को जितना हल्का रखेंगे, जीवन उतना ही सुंदर और स्वस्थ होगा।'

उपनिषद् का एक संदेश है : ‘शान्तो दान्त उपरतः तितिक्षुः समाहितो भवति’ (जो शांत, संयमी और सहनशील है, वही समाहित होकर सत्य को प्राप्त करता है।)

अतः स्वस्थ मन केवल स्वस्थ शरीर की ही नहीं, बल्कि मुक्त आत्मा की भी चाबी है। जब मन ओवरथिंकिंग के बोझ से मुक्त होता है, तभी भीतर का सच्चिदानंद स्वरूप प्रकट होता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है मुक्ति का मार्ग भीतर से ही निकलता है :

* छोड़ना एक साधना है। जिस बात का हल नहीं, उसे मन में बार-बार दोहराना केवल बोझ है।

* ध्यान और मौन विचारों की धारा को थामते हैं और आत्मा को चमकने का अवसर देते हैं।

* योग और प्राणायाम मन को अनुशासन में रखते हैं जैसे घोड़े की लगाम।

* सत्संग और अध्यात्म हमें यह स्मरण कराते हैं कि हम केवल शरीर-मन नहीं, बल्कि शुद्ध आत्मा हैं।

जैसे नदी अंततः सागर में मिलकर अपनी बेचैनी खो देती है वैसे ही मन जब आत्मा में विलीन होता है तब उत्तम स्वास्थ्य और सुख प्रकट होता है।

कविताः झील के ऊपर अगहन माह के मेघ

  - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया ‘प्राण’

नील गगन में रुई सरीखे फाहों के अम्बार लगे।

हे अगहन में दिखे मेघ! तुम हिम से लच्छेदार लगे।

निर्मल धवल कीर्ति के बेटे नभ के नव सरदार लगे।

पूरा जल कर चुके दान तुम सचमुच पानीदार लगे।


नीचे झील, झील का पानी दर्पण का आकार लगे।

इस दर्पण में सुगढ़ दूधिया जल घन एकाकार लगे।

निराकार से अजल सजल तुम प्रकट रूप साकार लगे।

सच पूछो तो श्वेत पटों से सजे हुए दरबार लगे।


बीच बसी थी बस्ती; लेकिन अब सूना संसार लगे।

कर्ज चुकाने की चाहत में सभी झील के पार लगे।

तुम्हें बसाना चाह रहे सब ताकि तनिक आभार लगे।

इसीलिए सारे रहवासी छोड़ चुके घर बार लगे।

परम्पराः बेटी विदा करने की प्रथा खोईंछा

 - मांडवी सिंह 

जीवन को देखने का सबका अपना अलग - अलग अंदाज है।

किसी के लिए  जीवन पद प्रतिष्ठा धन ऐश्वर्य की असीमित आकांक्षा है, तो किसी के लिए कबीरा की झीनी चदरिया, जिसे वह जीवन पर्यंत ज्यों की त्यों धरने में लिप्त रहता है। कहीं आशा निराशा का अपरिमित द्वंद है तो कहीं उल्लास, शोक, राग - विराग, उत्थान- पतन, अंधकार - प्रकाश का कोलाज। सभी अपने - अपने चश्मे से इसका अवलोकन करते हैं।

परंतु इन सबसे अलग भावना की नदी अपने मानिंद एक बालक की तरह इठलाती ,इतराती हुई तो कभी शांत चित्त से कलकल - छलछल बहती सम्पूर्ण परिवेश को अपने दामन में समेट लेती है। समतल और पहाड़ दोनों में एक समान यात्रा तय करती है।

ऐसी ही भावना की नदी को हृदय में समेटे, अतीत की खट्टी - मीठी यादों को सहेजे, जीवन के उतरते मध्यान्ह में मेरे मायके जाने की तैयारी हो रही है। जिस प्रकार छत और दीवार के बिना मकान की परिकल्पना नहीं की जा सकती, वैसे ही माँ और पिता के बिना मायके का स्नेक भी नगण्य रहता है । पैकिंग के साथ ही साथ सासु माँ की एक - एक हिदायत याद आ रही है…बहू सारा सामान रख लेना, थोड़े ढंग के कपड़े पहनकर जाना चार लोग देखते हैं। मेंहदी- महावर के बिना भी भला कोई मायके - सासुर जाता है!!!

सासू माँ की जो बातें कभी मन में झुंझलाहट भर देती थीं, आज पलकें भींगो रही है। भले असहनीय गठिया के दर्द से कराहती रहें; लेकिन खोइंछा (पूर्वोत्तर क्षेत्रों में बेटी - बहू को विदा के समय चावल या जीरा - हल्दी से आँचल भरने की प्रथा ) देने जरूर आ जाती थीं। आज उन्हें याद करते हुए मैंने सारी रस्में पूरी की। पतिदेव ने चुटकी ली…. ये पारंपरिक औरतों की तरह  रंग लगाकर सफर करना मेरी मॉर्डन बीवी ने कब से शुरू कर दिया? मैं बस मुस्कुराकर रह गई।

जिस गति से ट्रेन गतिमान थी मायके में गुजरा हर क्षण उसी गति से मेरे साथ चल रहा था। कहने को तो हम ये कहकर अपने मन को तसल्ली दे देते हैं कि माँ के बिना मायका कैसा? सांसारिक दृष्टिकोण से यह सही भी है; क्योंकि नई  पीढ़ी का अपना जंजाल है , अपना संसार है।

लेकिन उस धरती का क्या जहाँ आप बड़े हुए! वह बाग - बगीचा, नदी का तट, खेल का मैदान, खेत- खलिहान, सड़क, पगडंडी, स्कूल, बाजार, काली माई का स्थान, ब्रह्म बाबा का चौरा , जहाँ अनेक मन्नते मांगी गई, जिसका सवा रुपये का प्रसाद आज तक नही चढ़ा।

क्या ये अपनी बाहें फैलाए आपका इंतजार नहीं करते?

जन्मभूमि के कण - कण में आप अपना हिस्सा छोड़ आते हैं । लहलहाते खेत, नदी की धारा, हरिया काका, गोमती काकी सब में कहीं न कहीं आप महकते हो, वह भी मायका है। कुछ ऐसी ही भावना के साथ बतियाती मेरी यात्रा जारी थी। लंबी दूरी की ट्रेन में पूरा भारत दर्शन मिल जाता है। सामने की सीट पर एक महिला अपने दो बेटियों के साथ यात्रा कर रही है। एक परिवार गुजरात से नेपाल की यात्रा के लिए नई - नई योजनाओं में व्यस्त है।

सबसे ज्यादा गुजराती परिवार को दिक्कत है महिला के साथ लाए गए एक बोरी चावल से क्योंकि आने - जाने में वह थोड़ा बाधा उत्पन्न कर रहा था। कई प्रकार की बातें चल रही है । अमीरी - गरीबी, पिछड़ेपन इत्यादि की।

मैंने बहुत प्यार से पूछा “बोरी में क्या है ?” बहन!

महिला ने उत्तर दिया - घर का बासमती चावल है। जब भी मायके जाती हूँ, माँ नहीं मानती खोईंछा के नाम पर रख देती है। दीदी मुझे तो इसकी कीमत से ज्यादा कुली को देना पड़ता है; लेकिन माँ की खुशी के लिए रख लेती हूँ। आखिर जब तक माँ है, तभी तक  न मायका है, खोईछा है। माँ बहुत बूढ़ी हो गई है… इतना कहते ही उसका गला भर गया। …मेरे गले में भी दर्द जैसा एहसास होने लगा। आँखें सावन- भादो बन गई। मेरी सारी भावुकता और दर्शनिकता काफ़ूर हो गई। देहरी पर इंतजार करती माँ की छवि बलवती हो गई। गुजराती परिवार कुछ समझ नहीं पा रहा था। ट्रेन अपनी गति से हुंकार भरती आगे बढ़ रही थी।

भोपाल- 9826092951

कविताः छोटी लड़की

 - आरती स्मित 

लहरों से खेलती

वह छोटी लड़की

लिख रही अपना नाम

आसमान पर...


लहरों का श्वेत झाग 

और 

सागर का नीलाभ

बन गए हैं रंग  

हरियाते मुस्काते पेड़ ब्रश


वह 

भरकर मुट्ठी 

उछाल देती है सुनहरी रेत

और छितराकर रंग

बना देती है

स्याह दुनिया को ख़ूबसूरत


रेत उसकी आँखों को 

चुभती नहीं

सोनारंग बस जाता है

छलछलाती दोनों नदियों के

उन काले टापुओं में

जहाँ से दिखता है 

सब खिला-खिला 

नीला, रुपहला, सुनहला...


वह छोटी लड़की

अब भी मगन है

अपनी रंगीन दुनिया में

...

रेस लगा रही है लहरों से

और

हिला-हिलाकर उँगलियाँ

विशाल नीले कागज़ पर

कर रही है हस्ताक्षर

सुनहरे अक्षरों में


वह छोटी लड़की

नहीं जानती

कि

उम्र का बढ़ता कद

घोल देता है  

मुट्ठी भर स्याह रंग

जीवन में ….

कहानीः साफ -सुथरी आँखों वाले

 - सुकेश साहनी

दफ्तर से लौटा तो गेट के पास मटमैले रंग का एक लिफाफा पड़ा हुआ था। लिफाफे पर जगह-जगह ग्रीस के दाग और कालिख लगी हुई थी। लिफाफे के एक ओर मोटे-मोटे शब्दों में बचकाने ढंग से लिखा था-सत्ते उस्ताद।

पिछले हफ्ते मेरी एक कहानी स्थानीय अखबार में छपी थी। पाठकों के दो-तीन खत मुझे रोज ही मिल रहे थे। यह लिफाफा भी मुझे उसी तरह का लगा, पर लिफाफे की मोटाई और भेजने वाले का अपने नाम के आगे उस्ताद लिखना मुझे बहुत अटपटा लग रहा था। घर में प्रवेश करते ही मैंने उसे खोल डाला।

पत्र किसी सत्ते उस्ताद ने ही मुझे लिखा था। भीतर के कागजों पर भी जगह-जगह दाग-धब्बे लगे हुए थे और लिखावट तो बहुत ही बचकाना थी। पत्र में उसने मेरी सोने के हार वाली कहानी से प्रभावित होने की बात एक-दो पंक्तियों में लिखी थी। शेष पत्र में उसने अपने जीवन की कुछ घटनाओं के बारे में लिखा था। सत्ते उस्ताद ने क्या सोचकर मुझे अपने जीवन के बारे में लिखा होगा? हो सकता है, उसे लगता हो कि उसके जीवन में ऐसा कुछ है, जिस पर कहानी लिखी जा सकती है। जो भी हो, उस बचकाना ढंग से लिखे गए खत में मुझे ऐसी खुशबू महसूस हुई थी कि मैं उसके खत को पूरा पढ़े बिना नहीं छोड़ सका था। यही नहीं, उसकी कहानी को आपके साथ साझा भी करना चाहता हूँ-

सत्ते को नहीं याद कि उसके माँ-बाप कौन थे। बचपन की कोई स्मृति भी शेष नहीं है। जब उसने होश सँभाला तो खुद को बनारसी उस्ताद की शागिर्दी में पाया। धंधा-वही पाकेटमारी, उठाईगीरी या फिर जब जैसा दाँव लग जाए. जैसा कि अमूमन होता है, बनारसी उस्ताद की मौत के बाद उस्तादी की गद्दी अपने हुनर के बल पर सत्ते के हाथ आ गई थी और वह कहलाने लगा था- सत्ते उस्ताद।

सत्ते की अँगुलियों में बला का जादू था। उसके बारे में कहा जाता था कि उस्ताद पास बैठे आदमी के कपड़े उतार ले और उसको पता भी नहीं चले। चुस्ती-फुर्ती इतनी कि प्रतिद्वंद्वी वार करने की सोचे ही सोचे कि चारों खाने चित्त और सत्ते उस्ताद का कमानीदार चाकू उसकी गर्दन पर। अपने हुनर के बल पर सत्ते के दिन मजे में कट रहे थे। तभी एक विचित्र घटना घटी।

उस दिन सत्ते बहुत सवेरे ही घर से निकल पड़ा था। अपने शिकार का पीछा करते हुए वह बस अड्डे तक पहुँच गया था। वह लड़की बस में चढ़ गई थी। उसका पति भी उसके साथ था।

वह भी उनके पीछे-पीछे बस में चढ़ गया। उसने उचटती-सी निगाह चारों ओर डाली। लड़की और उसका पति ड्राइवर के पीछे वाली सीट पर बैठे हुए थे। बस लगभग भर चुकी थी। खिड़की के पास वाली खाली सीट पर वह भी बैठ गया।

आदत के मुताबिक सत्ते अपने आपसे उलझा हुआ था, "सत्ते गुरु, बहुत दिनों बाद मोटी मुर्गी हाथ लगी है...अबे देख...उसके गले में खालिस सोने की मटरमाला और हाथों में चम-चम करते कड़े। ...हाँ, अगर लड़की के साथ यह रखवाला न होता तो काम थोड़ा आसान हो जाता। साला...अब इस धंधे में भी कुछ रहा नहीं। लोग बहुत होशियार हो गए है। औरतों ने गहने पहनकर बाहर निकलना बंद कर दिया है। इक्का-दुक्का शिकार नजर आ भी जाए तो साथ में यह...बॉडीगार्ड ...अबे, लौंडिया का रखवाला तो इधर ही देख रहा है...कहीं इसे शक तो नहीं हो गया? ...तूने अभी किया ही क्या है, जो उसे शक हो जाएगा। बेट्टा, अब तेरी फूँक बहुत जल्दी सरक जाती है।

खिड़की से सीधी धूप सत्ते पर पड़ रही थी। वह पसीने-पसीने हो रहा था। ड्राइवर-कंडक्टर का कहीं पता नहीं था। लोग बस के न चलने से परेशान थे। इस बात को लेकर बस में तेज शोर हो रहा था। धूप जब असह्य हो गई तो सत्ते अपनी सीट से उठकर कंडक्टर की सीट के पास खड़ा हो गया। वह बार-बार रुमाल से अपना पसीना पोंछ रहा था।

लोगों के शोर का असर हुआ था। ड्राइवर ने अपनी सीट पर बैठकर बस स्टार्ट कर दी थी।

"सुनिए..."

"जी?" युवक के सम्बोधन से सत्ते बुरी तरह चौंक पड़ा। पहली बार उसने युवक की आँखों में सीधे देखा। सत्ते को उसकी आँखें बहुत अजीब लगीं।

"शायद आप धूप से परेशान हैं?" उसने मुस्कराकर कहा।

"जी हाँ," उधर की सीट पर सीधी धूप पड़ रही है।" अब वह सँभल गया था।

"आप चाहें तो यहाँ बैठ सकते है," युवक ने अपनी सीट की ओर संकेत किया, "मैं तो इन्हें छोड़ने आया था...यहीं उतर रहा हूँ।"

"शुक्रिया!" सत्ते को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ, अंधा क्या माँगे- आँखें। उसने देर नहीं की, युवती के बगल में धीरे से बैठ गया।

सीट पर बैठते ही सत्ते खुद से बातें करने लगा, "बेटा, आज ऊपर वाला मेहरबान है, रास्ते का एकमात्र काँटा भी दूर हो गया। अब तो मैदान बिल्कुल साफ है...इतना माल हाथ लग गया तो कई दिनों की छुट्टी. आखिर उस आदमी ने तुझमें क्या देखा, जो तुझे अपनी सीट दे दी?"

बस ने गति पकड़ ली थी। सत्ते ने युवती की ओर देखा, वह खिड़की से सिर टिकाए किसी गहरी सोच में डूबी हुई थी। कंडक्टर यात्रियों को टिकट के लिए आवाज दे रहा था। सत्ते के लिए यह जानना ज़रूरी था कि उसके शिकार की मंजिल क्या है, ताकि उसी के अनुसार वह भी अपना टिकट ले सके। उसने सीट से उठते हुए युवती से पूछा, "आपका टिकट? क्या मैं मदद कर सकता हूँ?"

वह चौंक पड़ी, फिर उसने पर्स खोला, तभी सत्ते ने आँखें भरकर उसके कड़ों की ओर देखा, तीन-तीन तोले से कम के नहीं होने चाहिए, उसने सोचा।

युवती ने पचास का नोट सत्ते की ओर बढ़ाते हुए कहा- "मुरादाबाद।"

उसने दो टिकट मुरादाबाद के लिये और अपनी सीट पर लौट आया।

बस पूरी रफ्तार से दौड़ने लगी थी। सत्ते ने इस बार थोड़ा ध्यान से युवती की ओर देखा। सत्ते की नजर लड़कियों के मामले में उसे कभी धोखा नहीं देती। पहली नजर में ही वह ताड़ लेता है कि लड़की सीधी-सादी है या खुर्राट, या फिर उसी की तरह कोई सड़क-छाप। शिकार के बारे में राय कायम करने के बाद ही वह आगे की योजना बनाता है। भोली-भाली लड़कियों के मामले में वह स्पर्श से शुरुआत करता है। वह जानता है, अच्छे घर की लड़कियाँ लज्जावश उसे बर्दाश्त करती रहती हैं और धीरे-धीरे पूरी तरह उसके चंगुल में फँस जाती हैं।

सत्ते की नजरें ड्राइवर के सामने वाले शीशे के बाहर सड़क पर स्थिर थीं...चेहरे पर दीन-दुनिया से बेखबरी का भाव लिये। बस की गति के साथ उसके और युवती के बीच की बची-खुची दूरी भी कम होती जा रही थी।

उसने पतलून से कटर निकालकर अपनी कमीज की ऊपर वाली जेब में रख लिया था, ताकि मौका मिलते ही इस्तेमाल कर सके।

सत्ते अजीब उलझन में था। वह पूरी तरह सक्रिय नहीं हो पा रहा था। युवती का पति उसके सामने आकर उसकी एकाग्रता को भंग कर देता था...क्या सोचकर उसने उसे अपनी पत्नी के साथ की सीट पर बैठने को कहा होगा...उस युवक ने निश्चित रूप से उसे शरीफ आदमी समझा होगा। सत्ते के यार-दोस्तों का कहना है कि गुंडई तो सत्ते की आँखों से हर वक्त टपकती रहती है...तो फिर? उस युवक की आँखें हवा में तैरती हुई आईं और उसके सामने स्थिर हो गईं...उसने ध्यान से देखा...ऐसी साफ-धुली आँखें उसने अपने जीवन में किसी की नहीं देखी थीं...बिल्कुल साफ, निर्दोष, चम-चम चमकती आँखें।

युवती ऊँघने लगी थी।

बस गजरौला अड्डे पर रुकी तो भीड़ का रेला बस में आया। चढ़ने-उतरने वालों के बीच धक्का-मुक्की का माहौल था। सत्ते को तो ऐसे ही मौके की तलाश रहती है। भीड़-भाड़ में अपना काम आसानी से निबटाकर वह खिसक लेता है।

इस बार वह चाहकर भी मौके का फायदा नहीं उठा सका। विचित्र-सी शिथिलता उस पर छाती जा रही थी। सत्ते को अपनी कमजोरी पर आश्चर्य हुआ, पर वह निश्चिंत था-अपने काम के लिए दो घंटे का समय उसके पास था।

बस अब चौड़ी- चिकनी सड़क पर पहले से कहीं तीव्र गति से भागी जा रही थी। ऐसा लगता था मानो युवती कई रातों की जागी हो, क्योंकि वह चाहते हुए भी खुद पर नियंत्रण नहीं रख पा रही थी। ऊँघते हुए उसका सिर बार-बार आगे की ओर लुढ़क जाता था। बस में दूसरे यात्री भी ऊँघने लगे थे। किसी का ध्यान सत्ते की ओर नहीं था। सत्ते के सामने स्वर्ण अवसर था, पर वह खुद को बेबस महसूस कर रहा था...उसकी आँखों के सामने धुंध -सी फैलती जा रही थी...उसने महसूस किया कि उसका शरीर धीरे-धीरे एक पेड़ में तबदील हो रहा है...पहले पैर तने के रूप में फिर बाहें शाखाओं के रूप में...धीरे-धीरे वह एक घने छायादार वृक्ष में बदल जाता है...तभी कहीं से थकी-हारी चिड़िया उड़ती हुई आती है और उसकी घनी छाया के बीच एक डाल पर सुस्ताने लगती है...वह हैरानी से देखता है...चिड़िया, चिड़िया न होकर बस वाली लड़की है! एकाएक धुंध बर्फ के रूप में गिरने लगती है...बेआवाज। चारों ओर बर्फ ही बर्फ है...एक नन्ही-सी बच्ची बाहें फैलाए उसकी ओर दौड़ी आ रही है...ठंड से उसका चेहरा और होंठ नीले पड़ गए हैं...वह उससे चिपट जाती है, काँपती आवाज में कहती है, "पापा...मुझे नींद आ रही है।"

बस के हार्न से सत्ते चौंक गया। बस अभी भी सड़क का सीना चीरते हुए दौड़ी जा रही थी...युवती का सिर सत्ते के कंधे से टिका हुआ था। वह गहरी नींद में थी। सत्ते अपने काम पर बिल्कुल चौकन्ना रहता है, झपकी लेने की बात तो वह सोच भी नहीं सकता है। आज उसके साथ यह क्या हो रहा है, उसने सोचा। सपने के बारे में सोचकर उसके शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई. इस सपने का क्या मतलब है? उसकी तो अभी शादी भी नहीं हुई...फिर...वह बच्ची। सपने के प्रभाव से वह खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा था। उसने युवती को उसी तरह सोने दिया।

बस के मुरादाबाद में प्रवेश करते ही ट्रैफिक के शोर से वह जाग गई. खुद को सत्ते के कंधे पर सिर टिकाए सोते देख वह शर्म से लाल हो गई, फिर संभलकर बैठ गई। अड्डे पर बस के रुकते ही वह अन्य सवारियों के साथ उतर गई। सत्ते को जैसे लकवा मार गया था। वह युवती को जाते देखता रहा।

तभी सत्ते को लगा, युवती ने पलटकर उसकी ओर देखा है। युवती की आँखों में उसे अपने लिए आदर के भाव दिखाई दिए। युवती की आँखें भी बिल्कुल अपने पति जैसी थीं...साफ-सुथरी। सत्ते को विचित्र अनुभूति हुई। उसने अब तक लोगों की नजरों में अपने लिए नफरत और घोर उपेक्षा के भाव ही देखे थे।

विचारों में डूबता-उतराता सत्ते बस-अड्डे से सीधे अपने कमरे में लौट आया। दो दिन तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला। आँखें मीचे चुपचाप चारपाई पर पड़ा रहा। दोस्तों ने समझा-उस्ताद नशा करने लगे हैं।

दो दिन बाद सत्ते उस्ताद अपने कमरे से बाहर आया तो उसे दुनिया बदली-बदली नजर आ रही थी। वह घर से सीधे इरफान के मोटर गैराज पहुँचा और उससे काम माँगा। इरफान ने डरकर उसे काम पर रख लिया।

कुछ दिनों बाद जब सत्ते के हाथ का हुनर मोटरों की मरम्मत में अपना रंग जमाने लगा, तो इरफान उसकी बहुत इज्जत करने लगा। कहने वाले कहते हैं कि सत्ते उस्ताद की अँगुलियाँ मोटरों के पेंच-पुर्जों से बातें करती हैं। इस तरह अब सत्ते उस्ताद इरफान मोटर गैराज की ज़रूरत हो गया है।

सत्ते के पुराने साथी एवं चेले-चापड़ कहते फिरते हैं- "सत्ते ने चूड़ियाँ पहन ली हैं...सत्ते उस्ताद चुक गए।" सत्ते इन बातों की फिकर नहीं करता। इस तरह के फिकरे सुनकर उसके होठों पर बारीक मुस्कान रेंग जाती है। सत्ते बहुत खुश है। उसके जीवन के सबसे खुशी भरे क्षण वे होते हैं- जब वह 'ड्राइविंग सीट' पर बैठा गाड़ी का ट्रायल ले रहा होता है और उसके बगल में निश्चित बैठा कार का मालिक उसकी ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखता है या फिर जब मोटर की स्पीड चेक करते हुए गाड़ी की गति खतरनाक हद तक बढ़ जाती है और उसके साथ बैठी मोटर की युवा मालकिन के चेहरे पर डर या असुरक्षा के भाव दिखाई नहीं देते। सत्ते उस्ताद के अनुसार उसके अतीत की पृष्ठभूमि में ये क्षण उसे ताकत देते हैं, उसे और भी मेहनत एवं ईमानदारी से काम करने के लिए प्रेरित करते हैं।

सत्ते उस्ताद की भेजी कहानी यहीं खत्म हो जाती है। कभी-कभी मुझे यह महसूस होता है कि यह कहानी सत्ते उस्ताद की कहानी न होकर, इस दुनिया के तमाम साफ-सुथरी आँखों वाले लागों की कहानी है। क्या आपको भी ऐसा लगता है!

कविताः सच सच बताना युयुत्सु

 -  निर्देश निधि

मैं राधा

अपने अलौकिक प्रेम को

तथाकथित धर्मयुद्धों के

लौकिक दावानलों में झुलसते

परित्यक्त होते देख,

खड़ी ठगी-सी आज

युद्ध के अंतिम दिन

कुरुक्षेत्र की धरा पर

तुम एकमात्र शेष कौरव से

पूछती हूँ युयुत्सु

चले थे थाम कर तथाकथित धर्मध्वजा

मार डाले अपने कितने ही सहोदर

धर्म के नाम पर तुमने

महल के अतीत से आतीं 

उनकी जीवन- किलकारियाँ

और नृशंस कुरुक्षेत्र के 

वर्तमान से गूँजती चीत्कारें उनकी

निर्जन महल के गलियारों में होते गुत्थमगुत्था

तुम्हारे युद्धरत, पर भयभीत कान

सुनते तो ज़रूर होंगे युयुत्सु

मैं राधा,

अपने परित्यक्त प्रेम को सीने में दबाए

आज युद्ध के अंतिम दिन

तुमसे पूछती हूँ-

कितना पछताए तुम युयुत्सु?

क्या उतना?

जितना मैं पछताई उसी छलिये से प्रेम कर

जिसने तुम्हें भी छला,

क्या करोगे अब विजेता बनकर

विनाश के गड्ढे में पड़े तुम

जीर्ण-शीर्ण हुई, कांतिहीन धर्मध्वज थामकर?

तुमसे कितना रोष होगा आज

गांधारी धृतराष्ट्र को,

जान सकते हो युयुत्सु?

क्या आज सराह पाए होंगे वे

तुम्हारे इस विजेता रूप को

खड़े होकर निर्वंशता के कूप की ढाँग पर

उनकी अंधी देह, अंधी सोच को

जिस धर्म के लिए त्यागा था तुमने

क्या वह किंचित् भी उपस्थित था

सारथी कृष्ण के पीछे खड़ी सेना में

देखा तो ज़रूर होगा तुमने भी

जिसके लिए अपनों ही से लड़े थे तुम

उस धर्म को सुबकते हुए कृष्ण की काँख में

फिर सामने देखकर ख़ुद रणछोड़ को

क्यों छोड़ नहीं सके थे तुम रण

सहोदर दुर्योधन के लिए?

या मुग्ध हो गए थे तुम भी

कृष्ण के लच्छेदार शब्दों पर

ठीक अर्जुन की तरह?

या बहक गए थे मेरी ही तरह

और सुन नहीं सके थे

कृष्ण की काँख में पड़े 

विवश धर्म की सुबकियाँ?

आज अभिमानी भीम द्वारा सताए जाने पर

कितना पछताए तुम

सच सच बताना युयुत्सु

इस ओर या उस छोर अंत तो मृत्यु ही होती न

सोचा तो होगा तुमने भी आज

मैं राधा, अपने प्रेम को

इन्हीं तथाकथित धर्म युद्धों की भेंट चढ़ते देख

ठगी-सी खड़ी, तुमसे पूछती हूँ-

क्या तुम भी ठगे नहीं गए मेरी तरह?

सच सच बताना युयुत्सु।

(युयुत्सु एक मात्र कौरव थे जो धर्म का साथ देकर पांडवों की ओर से लड़े और वही एकमात्र कौरव जीवित बचे। अपने सम्पूर्ण कुल को खो देने की पीड़ा सही। राधा ने भी धर्मयुद्धों के नाम पर अपने प्रेमी कृष्ण से अलग होने की पीड़ा सही।)


कुण्डलिया छंदः कहाँ अब आँगन तुलसी

 -  परमजीत कौर 'रीत'

1.

सुख के पल उत्सव लगें, दुख में बँधती आस ।

अपनों के जब साथ में, बीतें बारह मास ।।

बीतें बारह मास, रहे सबका मन खिलता ।

नहीं सताती धूप, शीत का जोर न चलता ।

कलरव करती साँझ, निशा की गोदी से कल ।

जन्मे उजली भोर, सुहाने दे सुख के पल ।।

2.

आशाओं के ओज से, डरे निराशा यक्ष ।

इक नन्ही- सी किरण भी,उजला करती कक्ष ।।

उजला करती कक्ष, तिमिर में राह दिखाती ।

बढ़े किरण की ओर, रोशनी बढ़ती जाती ।

रखते भरकर नीड़, नहीं अभिलाषाओं के ।

पंछी के दिनमान, सहारे आशाओं के ।।

3.

तुलसी आँगन बीच तब, शीशम भी थे द्वार ।

वट-वृक्षों की छाँव में, पलते थे संस्कार ।।

पलते थे संस्कार, समय था वह कुछ ऐसा ।

मन थे बहुत विशाल, भले था थोड़ा पैसा ।

साँझे थे दुख-दर्द, नजर थी रहती हुलसी ।

नहीं रहा वह काल, कहाँ अब आँगन, तुलसी ।।

4.

दफ्तर घर-परिवार सँग, सपनों का संसार ।

धार रही हैं नारियाँ, चतुर्भुजी अवतार ।।

चतुर्भुजी अवतार, घूमती चकरी ऐसे ।

यहाँ-वहाँ हर छोर, अछूता रहे न जैसे ।

कहती ‘रीत’ यथार्थ,कहीं नौकर या अफ़सर ।

खूब निभाये ‘रोल’, मिले जो भी, घर-दफ्तर ।।

5.

घर-बाहर की दौड़ में, छूटे एक न काम ।

ढूँढ रही है मानवी, जीवन के आयाम ।।

जीवन के आयाम, कभी तो पा जायेगी ।

उसका क्या अस्तित्व, कभी दिखला पायेगी ।

कहती ‘रीत’ यथार्थ, खुशी के खोज जवाहर ।

चलती रहती दौड़, मानवी की घर-बाहर ।।

6.

कितना भी कुचलो उसे, फैलेगी वो खूब ।

अपने तप-गुण-कर्म से, वन्दनीय है दूब ।।

वन्दनीय है दूब, ’ग्रहण’ में शुचिता लाती ।

पूजन वाली थाल, पूर्णता इससे पाती ।

दूर्वादल से लाभ, मधुर-फल पाने जितना ।

धैर्य, नम्रता ‘रीत’, सिखाती दूर्वा कितना ।।



किताबेंः गद्य की विभिन्न विधाएँ: एक अनिवार्य पुस्तक

 - प्रो. स्मृति शुक्ला

पुस्तकः गद्य की विभिन्न विधाएँ- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, मूल्य :260, पृष्ठ :120 संस्करण : 2022, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

हिन्दी साहित्य में कवि, उपन्यासकार, लघुकथाकार, बाल साहित्यकार, व्यंग्यकार, आलोचक और हिन्दी चेतना जैसी अन्तरराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका सहित कई पुस्तकों के संपादक के रूप में ख्यात रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ प्रतिष्ठित रचनाकार हैं।

अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘गद्य की विभिन्न विधाएँ’ को केन्द्र रखकर लिखी गई एक स्तरीय पुस्तक इस अर्थ में है कि यह रचनात्मक लेखन की विभिन्न विधाओं के स्वरूप को बखूबी प्रस्तुत करती है। पुस्तक में हर विधा के सभी आयामों पर सम्रगता से विचार किया गया है। किसी भी विधा के रचनात्मक लेखन की उत्कृष्टता उसकी भाषा के निर्धारण में अहं भूमिका होती है। एक साहित्यकार के रूप में रामेश्वर काम्बोज जी यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते हैं; इसलिए इस पुस्तक का प्रारंभ ही उन्होंने रचनात्मक लेखन और भाषिक प्रयोग से किया है। वे लिखते हैं - ‘‘जब हम अच्छी रचना (सभी विधाओं) की बात करते हैं, तो अच्छी भाषा की बात अनायास सामने आ जाती है। .... भाषा जड़ नहीं होती, क्योंकि वह प्रवहमान समाज की जीवनी शक्ति है। एक बात और रेखांकित करने योग्य है कि शब्दकोशीय भाषा की एक सीमा है, वाक्-भाषा इससे कहीं इससे कहीं और आगे है, कहीं अधिक बहुवर्णी और नवीनतम भावबोध की अनुचरी है। यह वही गोमुख है, जिसका जल शब्दकोश में आकर मिलता है और उसको सागर बनाता है।’’ आगे उन्होंने प्रत्येक रचनाकार को अपनी भाषा और शैली निर्मित करने का मशविरा दिया है। सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव भाषा पर भी होता है। साहित्यकारों को सकारात्मक चीजों को ग्रहण करना पड़ेगा। लेकिन भाषा का भ्रष्ट प्रयोग नहीं करना चाहिए। उन्होंने लिखा है - ‘‘हड़बड़ी में लिखना, छपने के लिये तुरंत प्रेषित कर देना, किसी भी लेखक की बड़ी दुर्बलता है। जो लिखा जाए, उसे शांत मन से कई-कई बार पढ़ा जाए। वर्तनी की अशुद्धियाँ लेखक को पाठकों में सम्मान नहीं दिला सकतीं।’’ यह बात सच है हिन्दी के जितने महान साहित्यकार हुए हैं उन सभी ने अपनी भाषा पर बहुत काम किया है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी के बड़े-बड़े लेखकों की भाषा का परिष्कार किया है। मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला से लेकर अज्ञेय तक सभी ने अपनी काव्यभाषा निर्मित करने हेतु अथक परिश्रम किया है, तभी वे श्रेष्ठ साहित्यकारों में परिगणित हुए हैं।

गद्य की रचनात्मक विधाओं में आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रा-संस्मरण, पुस्तक समीक्षा, डायरी-लेखन, साक्षात्कार, परिचर्चा, फीचर तथा प्रतिवेदन, गद्यकाव्य, लघुकथा और व्यंग्य जैसी विधाओं के स्वरूप के साथ विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं को शामिल करते हुए रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने इन विधाओं पर सम्यक् विचार करते हुए स्वयं के मत भी प्रस्तुत किए हैं। इन विधाओं की विकास यात्रा पर भी गंभीर चर्चा की है। यहाँ काम्बोज जी का प्रयास यह रहा है कि वे हर विधा में प्रकाशित नई से नई पुस्तकों को इसमें शामिल करें और इसमें वे पूर्णतः सफल भी हुए हैं।

इस पुस्तक में ‘आत्मकथा’ विधा पर बात करते हुए काम्बोज जी ने लिखा है - ‘‘आत्मकथा कोई स्वप्न सृष्टि न होकर जीवन के मधुर-तिक्त अनुभवों का स्मरण और उनकी प्रस्तुति है। आत्मकथा जीवन की वह फिल्म है, जिसमें कल्पना की गुंजाइश नहीं, यथार्थ का खुरदरापन हर कदम पर है। आत्मकथा लेखन अतीत की समस्याओं के लिए भावी समाधान के बारे में कल्पना ज़रूर कर सकता है।’’ हिन्दी की चर्चित आत्मकथाओं के विषय में भी लेखक ने महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ पुस्तक में दी है।

पुस्तक की सबसे खास बात यह है कि रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का गहन अध्ययन उनके लेखन में झलकता है। सभी रचनात्मक विधाओं की सैकड़ों पुस्तकें उन्होंने पढ़ी हैं; इस कारण उन्होंने ‘गद्य की विभिन्न विधाएँ’ पुस्तक में नए से नए रचनाकार की पुस्तकों का जिक्र भी ख्यात साहित्याकारों की पुस्तकों के साथ किया है। विभिन्न विधाओं की ऐसी श्रेष्ठ पुस्तकें प्रायः हिन्दी साहित्य में अलक्षित रह जाती है, जिनके लेखक स्वयं उनका प्रचार-प्रसार नहीं करते या किसी लेखकीय गुट के सदस्य नहीं होते, पर रामेश्वर काम्बोज जी की गुण ग्राहकता तथा जौहरी की- सी पारखी दृष्टि इन पुस्तकों पर गई है और आपने विभिन्न रचनात्मक विधाओं की ऐसी पुस्तकों को उल्लेखित किया है।

पुस्तक चार अध्यायों में विभक्त है। पहले अध्याय में रचनात्मक लेखन के सोपान के अन्तर्गत ‘भाषा एक संस्कार है’, ‘साहित्य और काव्य-भाषा’ तथा ‘कहानी की कहानी’ के अन्तर्गत तीन लेख हैं। अध्याय दो गद्य की विभिन्न रचनात्मक विधाओं का संक्षिप्त परिचय है तथा अध्याय तीन में विभिन्न रचनात्मक विधाओं का विस्तार से परिचय दिया गया है। अध्याय चार में रामेश्वर काम्बोज जी ने हिन्दी के सुधि पाठकों, जिज्ञासुओं और विद्यार्थियों के लिए कुछ विधाओं की परिचायात्मक अध्ययन सामग्री शामिल की है, जो विभिन्न विधाओं की स्तरीय रचनाओं से पाठक का परिचय कराती है। इसमें डॉ. सुषमा गुप्ता की डायरी ‘दुनिया को प्यार से ही बचाया जा सकता है’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की बहुपठित, बहुचर्चित और पठनीयता के रिकॉर्ड तोड़ने वाली पर्यावरण संरक्षण को केन्द्र में रखकर लिखी गई पुस्तक ‘हरियाली और पानी’ पर समीक्षा है। यह समीक्षा हिन्दी की चर्चित साहित्यकार विभिन्न विधाओं की विदुषी लेखिका डॉ.कविता भट्ट द्वारा की गई है। रश्मि शर्मा का यात्रा-वृत्तांत ‘गरुड़ पीढ़ी : अपनेपन की खुशबू’ भी पुस्तक में शामिल है।

प्रियंका गुप्ता का संस्मरण ‘उन आँखों का भूलना आसान है क्या’ और निर्देश निधि का संस्मरण ‘टहनी सचमुच माँ को बुला लाई’ ऐसे संस्मरण हैं, जिनमें अनुभूति का ताप और स्मृतियों का प्रत्यक्षीकरण पूरी जीवंतता से हुआ है। ‘अनुवाद भी सृजन होता है’ इस विषय पर डॉ. कुँवर दिनेश सिंह एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की सार्थक बातचीत परिचर्चा के उदाहरण के रूप में रखी गयी है। कुँवर दिनेश ने हाइकु का हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद और इसमें आने वाली कठिनाइयों का जिक्र करते हुए कहा है - ‘‘प्रत्येक विधा में अनुवाद का मेरा अपना एक अलग अनुभव रहा है। हाइकु को हिन्दी से अंग्रेजी में इसके प्रतीप क्रम में अनुवाद करना बहुत ही जटिल और श्रमसाध्य कार्य है। इसका सबसे बड़ा कारण है- हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में हाइकु के छंद, स्वरूप एवं संरचना में मूलभूत अंतर।’’ उन्होंने हाइकु अनुवाद के कुछ सुंदर उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट की है। गोपालबाबू शर्मा के हाइकु - ‘जीता या हारा/अकेला पड़ गया/ भोर का तारा’ का अनुवाद- victory or defeat/ solitary in the sky/ The bright morning star जैसे कई उदाहरण इस परिचर्चा में दिये हैं। डॉ. कुँवर दिनेश ने अनुवाद को पुनःसृजन माना है। निःसंदेह रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की यह पुस्तक हिन्दी गद्य की रचनात्मक विधाओं की समग्रता में पहचान कराने वाली अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। पाठक पुस्तक को पढ़कर विधा और शैली के अन्तर को बखूबी समझ सकता है।

लेखक का यह मानना उचित है कि ज्ञान-विज्ञान का, भाषा का और विचार का निरंतर विकास हो रहा है; इसलिए विधाओं का स्वरूप भी स्थिर नहीं है। यह भी एक तथ्य है कि एक ही विधा में दो-तीन विधाओं की आवाजाही हो सकती है या वे एक-दूसरे में घुलमिल सकती हैं। प्रायः संस्मरण और रेखाचित्र विधा में यह बात देखी जा सकती है।

गद्य की विभिन्न विधाएँ पुस्तक प्रत्येक विद्यालय और महाविद्यालय के पुस्तकालयों में होनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं की रचनात्मकता से परिचित हो सकें और लेखन में भाषा के महत्त्व को जान सकें। भाषा के प्रयोग में प्रायः जो अशुद्धियाँ और असावधानियाँ हम करते हैं, उन पर भी रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। ‘हिमांशु’ जी लम्बे समय तक केन्द्रीय विद्यालयों में प्रवक्ता और प्राचार्य पद पर कार्य करते हुए हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्ययन को सदैव महत्त्व देते रहे हैं तथा इस दिशा में विद्यार्थियों की अभिरुचि में अभिवृद्धि करने के सार्थक प्रयास करते रहे हैं; इसलिए पुस्तक उनके व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से संपृक्त होकर और मूल्यवान् हो गई है।

व्यंग्यःअफ़सरनामा

 - डॉ मुकेश असीमित 

अफ़सर नाम का प्राणी वह है, जो दफ्तरों में पाया जाता है। वैसे तो सरकारी, अर्ध-सरकारी, और गैर-सरकारी सभी दफ्तरों में यह पाया जाता है। कुछ अर्जित, कुछ जबरन, कुछ जुगाड़ू, और कुछ कबाड़ी - हर प्रकार के अफ़सर होते हैं। अफ़सर काम नहीं करते, काम की चिंता करते हैं। गधे की तरह जिम्मेदारियों का बोझ ढोते हैं- जिम्मेदारी काम करवाने की और साथ में काम की चिंता का बोझ उठाने की।

इनका कोई समय नहीं होता; ये समय और स्थान से परे, ब्रह्मस्वरूप होते हैं। ये ऑफिस के कण-कण और जड़-चेतन में विराजमान रहते हैं। इसलिए कुर्सी पर दिख सकते हैं, नहीं भी दिख सकते हैं, या दिखते हुए भी नहीं दिख सकते हैं और नहीं दिखते हुए भी दिख सकते हैं।

अफ़सर को कभी भी नौकर मत समझिए। इनके चाल-ढाल और रंग-ढंग सब अलग और जुदा-जुदा होते हैं। ये तो सारी जनता को अपना नौकर समझते हैं। नौकर के साथ चाकर जुड़ा होता है, लेकिन अफ़सर के साथ क्लब, विदेशी दौरे, महँगी शराब, और अनगिनत मीटिंग्स जुड़ी होती हैं।

अफ़सर का मुख्य भोजन रिश्वत है। ये सर्वाहारी होते हैं। वैसे तो रिश्वत में विविधता की परवाह नहीं करते, जो भी मिले खा सकते हैं। कुर्सी, टेबल, फाइल, पेन, पेंसिल, कूड़ा-कचरा, यहाँ तक कि सड़कें और पुल तक निगल सकते हैं। इनका पेट बहुत बड़ा होता है। इनके जूते भी बड़े आकार के होते हैं, जो हर समय इनके अधीनस्थ कर्मचारियों पर चलते रहते हैं। ये जूते कभी थकते नहीं, कभी रुकते नहीं।

ये सोचते बहुत हैं- दफ्तर के बारे में, काम के बारे में। सोचते-सोचते इन्हें अक्सर झपकी लेनी पड़ती है। बिना झपकी के, इनके ख्याल बेलगाम हो जाते हैं। पलकों में ख्यालों को बंद कर लेते हैं और फिर ख्यालों की 'वोमिट' करने के लिए मीटिंग बुलाते हैं। दफ्तरों में, फाइलों के ढेर के पीछे, आपको ये अक्सर झपकी लेते हुए मिलेंगे।

इनका मुख्य काम मीटिंग करना है। हर समस्या का हल मीटिंग ही होती है। किसी भी काम को टालने का, और कोई उपाय न हो तो मीटिंग; न करने का कोई और बहाना न हो तो मीटिंग। ये कोई भी काम अपने कंधे पर नहीं लेते और क्रेडिट से कोसों दूर रहते हैं। किसी भी निर्णय से पहले ये मीटिंग जरूर करते हैं, ताकि किसी भी असफलता का ठीकरा दूसरों के माथे पर फोड़ा जा सके।

अगर मीटिंग से समय मिले,  तो ये दौरे पर निकल जाते हैं। दौरे कई प्रकार के होते हैं, जो ज्यादातर मौसम के अनुसार तय किए जाते हैं। गर्मी हो, तो किसी ठंडे स्थान पर और सर्दी हो, तो किसी गर्म स्थान पर।

इनको ऑटोग्राफ देने का कोई शौक नहीं होता; फाइलों में इनके ऑटोग्राफ माँगे जाते हैं। ये शान से कहते हैं, जैसे दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन ने कहा था—"जाओ, पहले उसके ऑटोग्राफ लाओ, फिर उसके, फिर उसके... तब मेरे पास आना तुम... आखिर में मेरे ऑटोग्राफ!"

बड़े अफ़सर बड़े दौरे पर होते हैं, कभी-कभी विदेश तक चले जाते हैं। सेमिनार, जिमखाना, डाक बंगला और रेस्ट हाउस में इन्हें बहुतायत से देखा जा सकता है। अफ़सर को सबसे ज़्यादा डर यूनियन वालों से लगता है। इन्हें मालूम है कि इनसे बड़ा अफ़सर इनका तबादला कराए न कराए, यूनियन का अध्यक्ष ज़रूर करवा सकता है। डर इस कदर है कि अगर यूनियन अध्यक्ष की सलामी का भी जवाब नहीं दिया, तो इन्हें डर है कि यूनियन हड़ताल पर जा सकती है।

हर अफ़सर के ऊपर एक अफ़सर होता है, जो उसे हड़काता है। यह इस हड़कन को अपने पास नहीं रखते, तुरंत निर्लिप्त भाव से नीचे वाले को ट्रांसफर कर देते हैं। नीचे वाला बाबू को, और बाबू उसे अपनी जेब में रखकर हाथों से मसल देता है, जैसे चींटी को मसल रहा हो।

हर अफ़सर के ऊपर एक जासूस होता है, और वो इसकी बीवी के सिवा कोई दूसरा नहीं होता। और हर अफ़सर के नीचे दो-चार जासूस होते हैं, जो दिन भर ऑफिस की सभी जायज़-नाजायज़ गतिविधियों की गंध इन्हें सुँघाते रहते हैं।

अफ़सर को घर जेल लगता है और दफ्तर एक पिकनिक स्पॉट। अफ़सर के दफ्तर में घड़ी भी अफ़सर के हिसाब से चलती है। सर्दियों में धूप में मूँगफली खाते हुए दिखेंगे, और गर्मियों में ए.सी. की ठंडी हवा खाते हुए। अफ़सर जहाँ होता है, वहीं दफ्तर लग जाता है, बिल्कुल शहंशाह की तरह। जब तनाव होता है, तो मीटिंग होती है। मूड फ्रेश हो, तो मीटिंग होती है। कुछ नहीं हो रहा हो, तब एक मीटिंग तो ज़रूर आयोजित करनी होती है, सिर्फ इसलिए कि पता करें कि आज कुछ क्यों नहीं हो रहा दफ्तर में।

बाबू से पूछते रहते हैं, "अच्छा, बताओ, आज मैं कैसा लग रहा हूँ?" बाबू कहते हैं, "साहब जी, इस बात पर तो एक मीटिंग आयोजित कर ली जाए। सबकी सर्वसम्मति से पता भी लग जाएगा कि आप कैसे लग रहे हैं। अब मैं अकेला कहूँगा, जनाब, तो छोटे मुँह बड़ी बात होगी।" बस, इसी बात पर एक मीटिंग आयोजित करनी पड़ती है।

अफ़सर की नई टाई की प्रशंसा के लिए भी एक मीटिंग आयोजित की जाती है। नीचे ओहदे वाले दफ्तर में किसी कर्मचारी की खुशी बाँटने को पार्टी करते हैं, तो अफ़सर उस खुशी को काफूर करने के लिए मीटिंग करते हैं। अफ़सर होना मतलब कुर्सी और उस पर टँगा उनका कोट। कोट के अंदर अफ़सर का होना ज़रूरी नहीं है। जैसे भरत ने अयोध्या का राज्य चलाने के लिए राम जी की खड़ाऊँ ली थी, वैसे ही इनका कोट दफ्तर का राज्य चलाता है। इससे बढ़िया रामराज्य आपको देखने को नहीं मिलेगा।

ये कहीं भी जाएँ, अपना कोट कुर्सी पर टाँग देना नहीं भूलते। अगर बड़ा अफ़सर भी आ जाए, तो कोट देखकर कोई भी कह सकता है - "अफ़सर तो हैं; लेकिन किसी ऑफ़िशियल काम से इधर-उधर गए होंगे।" 

सम्पर्कः गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान 322201 mail ID drmukeshaseemit@gmail.com