मैं नीरव, अड़तीस वर्षीय एक सुदर्शन और सौम्य स्वभाव का प्रौढ़ पुरुष, आज अपने लिए लड़की देखकर आया हूँ।
आठ साल पहले मेरी शादी आरती से हुई थी। दो साल बीते, कोई संतान नहीं हुई। डॉक्टरों की सलाह से इलाज शुरू हुआ, और आखिरकार, चार साल बाद हमारा बेटा ‘आरव’ इस दुनिया में आया। पर खुशियाँ ठहरी नहीं। आरती ने बेटे को जन्म देकर हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
मैंने एक महीने तक खुद बेटे की परवरिश की, पर घर चलाने के लिए नौकरी ज़रूरी थी और नौकरी के लिए घर से बाहर निकलना भी। खास रिश्तेदारों से मदद मांगी, पर कोई भी तैयार नहीं था। सलाहें खूब मिलीं- माँ ने कहा, "मैं कब तक रहूँगी, दूसरी शादी कर ले, मेरा भी सहारा हो जाएगा।"
बहन ने अपने झुँझलाहट- भरे स्वर में कहा, "दो-दो बच्चे पाल रही हूँ, भाभी के मायके क्यों नहीं छोड़ देते बच्चे को?"
समय बीता, माँ भी साथ छोड़ गई। पिछले साल से आरव क्रैच में पल रहा था और मैं बस समय के हाथों खुद को ढो रहा था।
तभी एक मित्र ने शादी डॉट कॉम पर मेरी प्रोफ़ाइल बना दी। कई प्रस्ताव आए। पर जैसे ही लड़कियों को पता चलता कि मैं विधुर हूँ और एक छोटे बच्चे का पिता भी, वे धीरे से किनारा कर लेतीं।
एक बार एक लड़की बोली- "आप अच्छे हैं; लेकिन मैं किसी और के बच्चे की माँ बनने का मानसिक बोझ नहीं उठा सकती।"
दूसरी ने खुलकर कहा—"मैं एक नए जीवन की शुरुआत करना चाहती हूँ, न कि पहले से बनी ज़िम्मेदारियों में उलझना।"
एक तीसरी लड़की ने व्यंग्य से पूछा- "आपको बीवी चाहिए या बेटे के लिए आया?"
इन अनुभवों ने मेरी हिम्मत को तोड़कर रख दिया। मैं खुद से सवाल करने लगा- क्या मेरे बेटे का होना ही मेरी सबसे बड़ी कमी है?
तभी मृदुला का प्रस्ताव आया। वह भी विधवा थी, उम्र लगभग बत्तीस साल, रंग-रूप साधारण, पर बातचीत में गंभीर और संतुलित लगी। दो-तीन दिन बाद मैं बेटे को लेकर अचानक उसके घर पहुँच गया। वहाँ कोई नहीं था। आस-पड़ोस से पता किया, तो किसी ने मृदुला के बारे में कुछ संदेहजनक बातें बताईं कि उसके पहले पति की मौत आग में झुलसने से हुई थी और वह मायके लौट आई थी।
मैं भीतर तक हिल गया। लगा जैसे चलती राह में कोई बड़ा गड्ढा सामने आ गया हो। मन बना लिया कि रिश्ता नहीं जोड़ना है।
लेकिन तभी मृदुला और उसका परिवार आ गया। मृदुला ने आत्मीयता से मेरा स्वागत किया। खाने का सुंदर प्रबंध था, पर मेरा बेटा सिर्फ दूध-बिस्किट ही खाता था। मृदुला ने बिना किसी औपचारिकता के उसे अंदर ले जाकर दूध-बिस्किट दिए और उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे शांत किया।
मैं वापसी की राह पर था, मन में एक ‘न’ के साथ। पर घर पहुँचकर रात को आरव ने पूछ लिया-"पापा, आप नई मम्मी को कब लाओगे?"
"अभी नहीं बेटा।"
"पापा, आज जिन आंटी से मिलने गए थे, उनसे शादी कर लो न।"
"क्यों?"
"उन्होंने मुझे बिना कुछ कहे दूध-बिस्किट दे दिए और सिर पर हाथ रखकर प्यार किया... उन्हें कैसे पता चला कि मुझे बहुत भूख लगी है?"
बस उस क्षण मुझे एहसास हुआ, जो संवेदना एक माँ की हो सकती है, वही किसी में फिर से जन्म ले सकती है। मुझे यह भी समझ आया कि शायद मृदुला ने भी एक यातना से गुज़रकर वही ममता अर्जित की है, जो मेरे बेटे को चाहिए।
अब मैं मृदुला से विवाह के लिए ‘हाँ’ कहने जा रहा हूँ।
"मेरा फैसला सही तो है न?" - मैं मन ही मन विचार करने लगा, लेकिन इस बार, जवाब खुद मेरे अंदर से आया-
"हाँ, ये सिर्फ मेरा नहीं, आरव का भी फैसला है।"
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