हमारे भीतर क्रोध तब उपजता है, जब हम स्वयं से तथा क्रोध उपजानेवाले दीर्घकालिक और तात्कालिक कारणों से अनभिज्ञ होते हैं। इस अनभिज्ञता के कारण ही क्रोध जैसे अप्रिय मनोभाव का उदय होता है। लालसा, अभिमान, उत्तेजना, ईर्ष्या और संदेह भी क्रोध का मूल हैं। चूँकि क्रोध हमारे भीतर ही जन्म लेता है; इसलिए हम ही इसके प्राथमिक कारक हैं। अन्य व्यक्ति तथा परिवेश आदि सदैव गौण होते हैं। प्रकृति के प्रलयंकारी विप्लव यथा भूकंप अथवा बाढ़ आदि द्वारा घटित विनाश एवं हानि का आकलन करना हमारे लिए कठिन नहीं है और उन्हें हम किंचित सहनशीलता से स्वीकार भी कर लेते हैं; लेकिन जब कोई व्यक्ति हमें क्षति पहुँचाता है , तो हमारा धैर्य चुक जाता है। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार भूकंप अथवा बाढ़ आदि के सुनिश्चित कारण होते हैं, उसी प्रकार हमारे भीतर क्रोध भड़कानेवाले व्यक्ति के भीतर भी हमें क्रुद्ध करने के लिए दीर्घकालिक एवं तात्कालिक कारण मौजूद होते हैं। ठीक वही कारक हमारे भीतर भी अवस्थित हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, यह संभव है कि हमसे दुर्व्यवहार करने वाले व्यक्ति के साथ एक दिन पहले किसी ने बुरा बर्ताव किया हो या उसके पिता ने उसपर बचपन में क्रूरता बरती हो। ये घटनाएँ उसके भीतर क्रोध उपजाने वाले तात्कालिक या सुषुप्त कारक हो सकतीं हैं। यदि हम इन कारणों या कारकों को अंतर्दृष्टि के साथ और बोधपूर्वक समझने लगेंगे तो क्रोध से मुक्ति सहज हो जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे ऊपर घातक प्रहार करने वाले व्यक्ति को यूँ ही जाने दिया जाए, उसे अनुशासित करना अति आवश्यक है ; लेकिन इसके पहले यह ज़रूरी है कि हम अपने भीतर से नकारात्मकता को बाहर निकाल फेंकें। किसी व्यक्ति की सहायता करने अथवा उसे सही मार्ग पर लाने के लिए हमारे भीतर करुणा होनी चाहिए। जब तक हम अन्य व्यक्तियों के दुःख की समानुभूति नहीं करेंगे, तब तक हम इस योग्य नहीं बन सकते कि उसे दुःख और भ्रान्ति के दलदल से बाहर निकाल सकें। क्रोध के उपचार के लिए इन बिन्दुओं पर भी मनन करना उपयोगी होगा:
किसी कष्टदायक परिस्थिति का सामना करने पर हमारे भीतर प्रतिरोध की भावना जन्म लेती है और हमारा क्रोध बढ़ने लगता है। हमारे क्रोध की अभिव्यक्ति सामनेवाले व्यक्ति के भीतर खलबली मचाती है और वह अपनी पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए फिर कुछ ऐसा कहता या करता है, जिससे हमारा क्रोध उग्र हो जाता है। यह एक चक्र की भांति है। इसलिए यह कहा जाता है कि ऐसी दशा में उस परिस्थिति से बाहर निकाल जाना ही सबसे उचित उपाय है; लेकिन ऐसे भी कुछ अवसर हो सकते हैं, जब यह उपाय कारगर न हो। यह और कुछ नहीं; बल्कि पलायन ही है।
हमारे अंगों की भांति ही क्रोध भी हमारी काया का ही एक भाग है। अंतस् में क्रोध उपजने पर हम इससे यह नहीं कह सकते- “दूर चले जाओ, क्रोध! मैं तुम्हें नहीं चाहता!” जब हमारे पेट में दर्द होता है तब हम यह नहीं कहते - “दूर हट जाओ, पेट! मत दुखो!” इसके उलट हम उसका उपचार करते हैं। ऐसा ही हमें क्रोध के साथ भी करना होता है। क्रोध और घृणा की उपस्थिति प्रेम और स्वीकरण के अभाव की द्योतक नहीं होती। प्रेम सदैव भीतर रहता है। उसकी खोज करनी पड़ती है।
क्रोध उपजने की दशा में कुछ सँभलें और अपने ग्रहणबोध का अवलोकन करें। यह कुछ कठिन है पर साधने पर सध जाता है। हम सभी बहुधा ही अनुभूतियों के संग्रहण में तत्परता दिखाते हैं और अनुचित भावनाओं को प्रश्रय देते हैं , जबकि हमारे भीतर करुणा और शांति का इतना विराट संचय होना चाहिए कि हम अपने विरोधियों से भी प्रेम कर सकें।
जब आपको किसी व्यक्ति पर क्रोध आये तो यह नहीं दर्शाएँ कि आप क्रुद्ध नहीं हैं। यह भी नहीं दिखाएँ कि आपको बिलकुल पीड़ा नहीं हुई है। यदि सामनेवाला व्यक्ति आपका प्रिय है, तो आपको उसे यह जताना चाहिए कि आपको उसके वचनों या कर्मों से दुःख पहुँचा है। उसे यह प्रेमपूर्वक बताएँ।
प्रारंभ में आप यह समझ नहीं पाएँगे कि आपके भीतर क्रोध कैसे उपजता है और यह भरसक प्रयत्न करने के बाद भी क्यों नहीं गलता। यदि आप अपने मनोभावों के प्रति जागरूक बनें और क्षण-प्रतिक्षण सजग एवं सचेत रहने का अभ्यास करेंगे, तो आप क्रोध की प्रकृति को पहचान जाएँगे और इससे छुटकारा पाना सरल हो जाएगा।
किसी भी व्यक्ति में क्रुद्ध होने के संस्कार अल्पवय में पड़ते हैं। इसका संबंध दिन-प्रतिदिन घटनेवाली घटनाओं से है। यदि आप भेदभाव किये बिना स्वयं की देखभाल करेंगे और मन में नकारात्मकता को हावी नहीं होने देंगे, तो आपकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होगी। गीता में कहा गया है - “भुने बीजों में कामना का अंकुर नहीं फूट सकता”, इस बात को मैं क्रोध पर भी लागू करता हूँ।
क्रोध और हताशा का प्रवाह बहुधा बहा ले जाता है, फिर भी मानव मन के किन्हीं कोटरों में प्रेम और क्षमा बची रह जातीं हैं। क्रोध प्रत्येक प्राणी को आता है पर मनुष्यों में यह योग्यता है कि वे दूसरे व्यक्ति से सार्थक संवाद स्थापित कर सकते हैं। हम मनुष्य क्षमाशील हैं। हम करुणावश अपना सर्वस्व भी न्योछावर करने की शक्ति व संकल्प रखते हैं। हम केवल क्रोध एवं दुःख का समुच्चय नहीं हैं। अपने क्रोध का अवसान करने शांति प्राप्त कर सकते हैं। केवल क्रोध को दूर करने के प्रयोजन के लिए ही नहीं; बल्कि स्वयं के भीतर उतरकर देखने के अभ्यास के फलस्वरूप हम अन्य मनोविकारों से भी छुटकारा पा सकते हैं। हम क्रोध के बीज को अंकुरण की प्रतीक्षा करते भी देख सकते हैं। वास्तविकता का भान होने पर हम यह जान जाते हैं कि क्रोध का मूल कारण हमारे भीतर ही निहित होता है और वह व्यक्ति निमित्त मात्र है, जिसपर क्रोध किया जा रहा है। वह हमारे क्रोध का पात्र नहीं है। क्रोध हमारे भीतर है; अतः हम ही उसका पात्र हैं।
यदि आपके घर में आग लग जाए, तो आप सबसे पहले क्या करेंगे? आप आग बुझाने का जतन करेंगे या आग लगानेवाले व्यक्ति-वस्तु की खोज करेंगे? उस घड़ी में यदि आप आग लगने के कारणों का अनुसंधान करने लगेंगे, तो आपका घर जलकर ख़ाक हो जाएगा। ऐसे में सर्वप्रथम आग बुझाना ही श्रेयस्कर है। अतः क्रोध की अवस्था में आपका अन्य व्यक्ति से वाद-विवाद जारी रखना उचित नहीं होता।
क्रोध आने की दशा में पानी पी लेना, सौ तक की गिनती गिनना, मुस्कुराना, या उस स्थान से दूर हट जाना समस्या का समाधान नहीं है। यह एक प्रकार का दमन ही है इसलिए मैं ऐसे उपायों का समर्थन नहीं करता। क्रोध एक आतंरिक समस्या है और इसका कोई बाहरी समाधान नहीं है।
तिक न्यात हंह की एक पुस्तक से एक कथा उद्घृत करना चाहूँगा:
एक धर्मावलम्बी महिला अमिताभ बुद्ध की नियमित आराधना करती थी। दिन में तीन बार घंटी बजाकर- ‘नमो अमिताभ बुद्ध’ मन्त्र का एक घंटा जप करना उसकी दिनचर्या में शामिल था। मन्त्र का एक हज़ार जप करने पर वह पुनः घंटी बजाती। यह आराधना करते उसे दस वर्ष हो रहे थे; पर उसके व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं आया। उसके भीतर क्रोध और अहंकार भरपूर था और वह लोगों पर चिल्लाती रहती थी।
उस महिला का मित्र उसे सबक सिखाना चाहता था। एक दिन महिला जब अगरबत्तियाँ जलाकर और तीन बार घंटी बजाकर ‘नमो अमिताभ बुद्ध’ मन्त्र का जप करने के लिए तैयार हुई तब उसके मित्र ने दरवाज़े पर आकर कहा, “श्रीमती नगुयेन, श्रीमती नगुयेन!” यह सुनकर महिला को बहुत गुस्सा आया; क्योंकि वह जप करनेवाली ही थी। वह मित्र दरवाजे पर खड़ा रहा और उसका नाम पुकारता रहा। महिला ने सोचा, मुझे अपने क्रोध पर विजय पानी है, मैं उसके पुकारने पर ध्यान ही नहीं दूँगी। वह ‘नमो अमिताभ बुद्ध’ का जप करने लगी।
वह व्यक्ति दरवाजे पर खड़ा था और बार-बार उसे पुकार रहा था, दूसरी ओर महिला का क्रोध बढ़ता जा रहा था। वह क्रोध से लड़ रही थी। उसके मन में आया, क्या मुझे जप रोककर उठ जाना चाहिए? लेकिन उसने जप करना जारी रखा। भीतर क्रोध की आग धधकती जा रही थी और बाहर जप चल रहा था, ‘नमो अमिताभ बुद्ध’। उसका मित्र उसकी दशा भाँप रहा था; इसलिए वह दरवाज़े पर खड़ा पुकारता रहा, “श्रीमती नगुयेन, श्रीमती नगुयेन!”
महिला और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसने अपने घंटी और आसनी फेंक दी, भड़ाम से दरवाजा खोला और मित्र से चीखती हुई बोली, “तुम ऐसा क्यों कर रहे थे? बार-बार मेरा नाम लेने की क्या ज़रूरत थी?
उसका मित्र मुस्कुराता हुआ बोला, “मैंने सिर्फ दस मिनट ही तुम्हारा नाम लिया और तुम इतना क्रोधित हो गईं! ज़रा सोचो, दस साल से तुम बुद्ध का नाम ले रही हो, वे कितना क्रोधित हो गए होंगे।?” (हिन्दी जेन से)


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