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Oct 1, 2025

उदंती.com, अक्टूबर 2025


 वर्ष 18, अंक- 3


मन की कंदीलें जलीं, भरने लगा उजास। 
अवसादी परिवेश में, लौट रही फिर आस।।
                                            - हरेराम समीप


इस अंक में 

अनकहीः अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा - डॉ.  रत्ना वर्मा

पर्व-संस्कृतिः समुद्र-मंथन से अवतरित  लक्ष्मी के रूप में समाई प्रकृति - प्रमोद भार्गव

कविताः 1. दीप क्या है? 2. दीपक जलते रहना - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पर्व- संस्कृतिः छत्तीसगढ़ की दीपावली में मिट्टी कला - डॉ. सुनीता वर्मा

दो कविताएँः 1. दिवाली आई है, 2. एक दिवाली दिल में... - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह 

कविताः ज्योति का उत्सव मनाएँ  - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

पर्यावरणः तेज़ आवाज़ और आपके कान - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पर्व संस्कृतिः जाने कहाँ गए वो दिन... - प्रियंका गुप्ता

कविताः क्या रखा है अब इन बातों में - डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री

संस्मरणः पार्क की सुनहरी शाम - जैस्मिन जोविअल

वृद्ध दिवसः  अनुभव का पिटारा है इनके पास - जेन्नी शबनम

दो लघुकथाएँः 1. आम आदमी, 2. और यह वही था - डॉ. शंकर पुणतांबेकर

दो लघुकथाएँः 1. मकान, 2. संतू  - श्याम सुन्दर अग्रवाल

पंजाबी कहानीः विषधर - बचिंत कौर - अनुवाद : सुभाष नीरव

कविताः आत्मदीप - हरिवंशराय बच्चन 

व्यंग्यः अमीर बचाइए, सिस्टम बचेगा - जवाहर चौधरी  

नज़्में: दीवाली के दीप जले - फ़िराक़ गोरखपुरी

 किताबेंः ‘कुछ रंग’ ग्राम्य जीवन की संवेदनाओं का रंगमंच -  पूनम चौधरी

 कविताः जगमग जगमग - सोहन लाल द्विवेदी

अनकहीः अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा

- डॉ.  रत्ना वर्मा
 मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव: 

माध्वीन: सन्त्वोषधी:। मधु नक्तमुतोषसो

मधुमत्पार्थिव रजः। मधु: द्यौरसंतु नः पिता।

(ऋग्वेद, मंडल 1, सूक्त 90, ऋचा-6-7 )

अर्थात् मधुर वायु हमारे लिए संचरण करें, नदियों में मधुर जल भरा रहे। सभी औषधियाँ मधुरता से युक्त हों। रात और दिन मधुर हों, पृथ्वी का अणुमात्र भूमिकण मधुरता से युक्त हो। अन्तरिक्ष हमारे लिए माधुर्यपूर्ण हो।

मानव सभ्यता का इतिहास यह बताता है कि हर युग में मनुष्य ने सुख और समृद्धि की तलाश की है; किंतु इस सुख की खोज में कभी- कभी हम अपनी जड़ों को, अपनी प्रकृति को भूल जाते हैं। आज का भारत और विश्व इसी चुनौती के दौर से गुजर रहा है। इस वर्ष भीषण बारिश और बाढ़ ने कई राज्यों को डुबो दिया, उत्तराखंड जैसी पर्वतीय भूमि में तबाही का दृश्य हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि कहीं विकास के नाम पर हमने प्रकृति से छेड़छाड़ की बहुत बड़ी कीमत तो नहीं चुका दी?

आधुनिक समय में विकास को प्रायः ऊँची इमारतों, चौड़ी सड़कों, बड़े बाँधों और उद्योगों से जोड़ा जाता है; लेकिन क्या यही विकास का वास्तविक स्वरूप है? यदि हमारे बच्चों को स्वच्छ वायु, निर्मल जल और सुरक्षित पर्यावरण न मिले, तो यह कैसा विकास हुआ? वास्तविक विकास वही है, जिसमें मनुष्य और प्रकृति दोनों साथ- साथ फलें- फूलें। यदि हम केवल भौतिक सुविधाएँ बढ़ाते जाएँ और धरती की जीवनदायिनी शक्तियों को नष्ट करते रहें, तो यह विकास नहीं, विनाश की ओर कदम है। 

ऋग्वेद का उपर्युक्त मंत्र हमें यही याद दिलाता है कि हमारा लक्ष्य ऐसा समाज हो, जहाँ पर्यावरण शुद्ध और जीने लायक हो। 

हाल की आपदाएँ केवल प्राकृतिक दुर्घटनाएँ नहीं थीं, बल्कि हमारे असंतुलित विकास की परिणति थीं। पिछले कई दशकों से विशेषज्ञ चेतावनी देते आए हैं कि पहाड़ों को काटकर, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोककर, जंगलों को नष्ट करके और सुरंगों व विशाल भवनों का निर्माण करके हम धरती को खोखला कर रहे हैं; किंतु अफसोस यह है कि इन चेतावनियों को अक्सर अनसुना कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि बाढ़, भूस्खलन, सूखा और जलवायु असंतुलन हमारे जीवन का हिस्सा बन गए। जब नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाँधा जाता है, तो वे किसी दिन बंधन तोड़कर तबाही मचाती हैं। जब वनों को काटा जाता है, तो वर्षा का संतुलन बिगड़ता है और भूमि अपनी जलधारण क्षमता खो देती है। यही कारण है कि पहले जो वर्षा वरदान होती थी, आज वह अभिशाप लगने लगी है।

अब प्रश्न यह है कि हम कैसा जीवन और कैसा पर्यावरण चाहते हैं? यदि हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ सुखमय जीवन जिएँ, तो हमें अभी से ठोस कदम उठाने होंगे। हम उन्हें केवल आधुनिक भवन, गाड़ियाँ और तकनीक न दें, बल्कि स्वच्छ वायु, निर्मल जल, सुरक्षित वन और संतुलित जलवायु भी दें। यही हमारी ओर से उन्हें सबसे बड़ी शुभकामना होगी।

हमारे शास्त्रों में पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत दर्शन निहित है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद– सभी में प्रकृति के तत्त्वों को देवतुल्य माना गया है। वायु, जल, अग्नि, भूमि, सूर्य- ये सभी पूजनीय हैं। यह पूजा केवल अनुष्ठान नहीं; बल्कि हमें यह स्मरण कराती है कि इन तत्त्वों की रक्षा करना ही मानव का परम कर्तव्य है।

ओ३म् शं नो वात: पवतां शं नस्तपतु सूर्य:।

शं न: कनिक्रदद्देव: पर्जन्योऽअभि वर्षतु (यजुर्वेद 36/10)

अर्थात हे परमेश्वर! पवन हमारे लिए सुखकारी चले, सूर्य हमारे लिए सुखकारी तपे, अत्यन्त उत्तम गुणयुक्त विद्युत् रूप अग्नि हमारे लिए कल्याणकारी हो और गरजता हुआ मेघ हमारे लिए सब ओर से सुख की वर्षा करे।

यह मंत्र हमें स्पष्ट संदेश देता है कि व्यक्तिगत सुख तभी संभव है जब धरती का कल्याण हो। यदि पृथ्वी का स्वास्थ्य बिगड़ेगा, तो मनुष्य की कोई भी सुविधा उसे सुख नहीं दे पाएगी। पेड़ केवल ऑक्सीजन नहीं देते, वे मिट्टी और जल को भी बाँधकर रखते हैं; अतः पहाड़ों को काटना, नदियों को बाँधना या सुरंगों से छलनी करना- रोकना होगा। कोयला, पेट्रोलियम जैसी प्रदूषणकारी ऊर्जा से हटकर सौर, पवन और जल–ऊर्जा का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण है-  प्रत्येक नागरिक को यह समझना होगा कि पर्यावरण का संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं; बल्कि हर घर की, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। हाँ, सरकारों को भी यह तय करना होगा कि किसी भी विकास परियोजना का मूल्यांकन केवल आर्थिक लाभ से न किया जाए, बल्कि उसके पर्यावरणीय प्रभाव को सर्वोपरि रखा जाए।

आज जब हम बार–बार प्रकृति के क्रोध का सामना कर रहे हैं, तो हमें यह मानना होगा कि यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि हमारे गलत निर्णयों का परिणाम है। यदि हम सचमुच सुखी जीवन और आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित भविष्य चाहते हैं, तो हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा।

ऋग्वेद का मंत्र हमें प्रकृति की मधुरता की याद दिलाता है और यजुर्वेद का शांति मंत्र हमें यह सिखाता है कि शांति और कल्याण तभी संभव है, जब पृथ्वी स्वस्थ हो। अतः हमारा संकल्प यही होना चाहिए- विकास हो, लेकिन ऐसा विकास जो पर्यावरण के अनुकूल हो, जो वायु और जल को शुद्ध रखे, जो पृथ्वी को आने वाले युगों तक जीवनदायिनी बनाए रखे।

पर्व-संस्कृतिः समुद्र-मंथन से अवतरित लक्ष्मी के रूप में समाई प्रकृति

  - प्रमोद भार्गव

समुद्र-मंथन के दौरान जिस स्थल से कल्पवृक्ष और अप्सराएँ मिलीं, उसी के निकट से महालक्ष्मी मिलीं। ये लक्ष्मी अनुपम सुंदरी थीं, इसलिए इन्हें भगवती लक्ष्मी कहा गया है। श्रीमद् भागवत में लिखा है कि ‘अनिंद्य सुंदरी लक्ष्मी ने अपने सौंदर्य, औदार्य, रंग, रूप और महिमा से सबका चित्त अपनी ओर खींच लिया।‘ देव-असुर सभी ने गुहार लगाई कि लक्ष्मी हमें मिलें। स्वयं इंद्र अपने हाथों पर उठाकर एक अद्भुत व अनूठा आसन लक्ष्मी को बैठने के लिए ले आए।  जब वे चलती थीं, तो उनकी पाजेब से मधुर ध्वनि प्रस्फुटित होती थी। ऐसे में ऐसा लगता था, मानो कोई सोने की लता इधर-उधर घूम रही है। इस लक्ष्मी को विष्णु ने अपने पास रख लिया।‘

समुद्र-मंथन में लक्ष्मी मिलीं, इसे हम यूँ भी ले सकते हैं कि लक्ष्मी के मायने धन-संपदा या सोने-चांदी की विपुलता से भी होता है। समुद्र-मंथन के क्रम में जब देव-दानव समुद्र पार कर गए तो सबसे पहले हिरण्यकशिपु दैत्य को सोने की खदान मिली थी। इसे हिरकेनिया स्वर्ण-खान आज भी कहा जाता है। इस खदान पर वर्चस्व के लिए भी देव और असुरों में विवाद व संग्राम छिड़ा था। अंततः हिरण्यकशिपु का इस पर अधिकार माना गया, क्योंकि इसे ही यह खान दिखाई दी थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं, कि इस सोने की खान को खोजने में हिरणयकशिपु की ही प्रमुख भूमिका रही थी। 

 दरअसल लक्ष्मी के विलक्षण रूप का वर्णन प्रकृति के रहस्यों से भी जुड़े हैं। वैसे तो देवी लक्ष्मी के अनेक रूप हैं, परंतु उनका सर्वाधिक प्रचलित रूप वह है, जिसमें देवी पूर्ण रूप से खिले हुए पद्म-प्रसून पर अविचल मुद्रा में बैठी हुई हैं। उनके दोनों हाथों में नालयुक्त कमल हैं। साथ ही उनके दोनों तरफ कमल-पुष्प पर ही दो हाथी अपनी ऊपर उठाई सूँडों में घड़े लिए हुए लक्ष्मी का जल से अभिषेक कर रहे हैं। लक्ष्मी के इस रूप और इससे भिन्न रूपों का कौतुक-वृत्तांत रामायण से लेकर अधिकांश पुराणों में अंकित है। 

इन लक्ष्मी का जलाभिषेक करते गजों से घनिष्ठ संबंध है। जब देवों ने असुरों के साथ मिलकर सागर-मंथन किया तो उसमें से चौदह प्रकार के रत्नों की प्राप्ति हुई। इन्हीं रत्नों में ऐरावत नाम का हाथी और लक्ष्मी भी थीं। समुद्र-मंथन से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी और गज का जन्मजात संबंध स्वाभाविक है। लक्ष्मी को पृथ्वी के प्रतीक के रूप में भी माना गया है। इस नाते उन्हें भूदेवी भी कहा जाता है। वैसे भी विष्णु की दो पत्नियाँ थीं। एक लक्ष्मी और दूसरी पत्नी श्रीदेवी हैं। यजुर्देव में कहा भी गया है,

‘श्रीश्च ने लक्ष्मी श्रीश्च पतन्यो।’ 

भूदेवी होने के कारण लक्ष्मी पृथ्वी की प्रतीक हैं। इस नाते गज जलद अर्थात मेघों के प्रतीक हैं। इसीलिए वर्षा पूर्व बादलों के गरजने की क्रिया को मेघ-गर्जना कहा जाता है। जब तक धरती पर बादल बरसते नहीं हैं, तब तक फसलों के रूप में अन्न-धान्य पैदा नहीं होते हैं। लक्ष्मी का जल से अभिषेक करते गजों का प्रतीक भी यही है कि गज बरसकर पृथ्वी को अभिसिंचित कर रहे हैं, जिससे पृथ्वी से सृजन संभव हो सके। इस कारण लक्ष्मी को सृजन की देवी भी कहा जाता है।

सौभाग्य लक्ष्मी को उपनिषद् में ‘सकल भुवन माता’ कहा गया है। सृजन अर्थात सृष्टि माता-पिता दोनों के संसर्ग से संभव है। अस्तु लक्ष्मी मातृशक्ति की और गज पितृशक्ति के प्रतीक हैं। गज को पुरुषार्थ का प्रतीक भी माना गया है। गोया, लक्ष्मी और गगन के समतुल्य गज संसार के माता-पिता माने जा सकते हैं। गज दिशाओं के प्रतीक भी हैं, इसलिए इन्हें दिग्गज भी कहा जाता है। इस कारण वे राज्य की चतुर्दिक् सीमाओं के भी प्रतीक हैं। वैसे भी पुरातन काल में जो चतुरंगी सेनाएँ हुआ करती थीं, उनमें गज-सेना भी होती थी, जो सीमांत प्रांतरों में चारों दिशाओं में तैनात रहती थी।

कमल पर आरूढ़ लक्ष्मी से कमल का गहरा व आत्मीय रिश्ता है। सृष्टि के कर्ता ब्रह्मा स्वयं कमलभव हैं, जो भगवान विष्णु की नाभि से प्रस्फुटित कमल पर ही विराजमान हैं। इसी कारण विष्णु को ‘पद्मनाभ’ और ‘पद्माक्षी’ कहा गया है। कमल पर बैठी होने के कारण लक्ष्मी को ‘कमला’ भी कहा जाता है। कमल की यह विशेषता है कि वह कीचड़ में पैदा होने के पश्चात् भी स्वच्छ है, स्वछंद है एवं निर्मल है। जल में जीवन-यापन करते हुए भी वह निर्लिप्त है। अनेक पांखुरियों से युक्त व खिला होते हुए भी वह एकात्मता का द्योतक है। कमल की जड़, नाल, पंखुड़ियाँ व बीज सब मानव उपयोगी हैं, इसलिए कमल को समष्टिगत गुणों वाले पुष्पों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। व्यष्टि में समष्टि का समन्वयात्मक संदेश देता हुआ कमल लोकमंगल का आह्वान कराता है, इसलिए ऋषि-मुनियों ने कमल को सांस्कृतिक प्रधानता व सर्वोच्चता की पहचान से निरूपित किया है। 

लक्ष्मी का जल से अभिषेक करते हुए कलश, पूर्ण-कलश अर्थात लोक मंगलकारी कलशों के प्रतीक हैं। जल जीवन का आरंभिक उद्गम स्थल होने के साथ, जीवन का प्रमुख आधार भी है। जल से ही पद्म उत्पन्न हुआ है और पद्म से ब्रह्मा और ब्रह्मा से संपूर्ण सृष्टि। इसी कारण कलश को हिरण्यगर्भ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। कलश के संदर्भ में सांस्कृतिक मान्यता है कि इसमें त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास है। कलश के मुख पर ब्रह्मा, ग्रीवा में शिव और मूल में विष्णु तथा मध्य में मातृगणों का निवास होता है। अर्थात् ये सभी देव-गण कलश में प्रतिष्ठित होकर किसी मांगलिक कार्य को सकारात्मक गति देने का काम करते हैं। इस कारण कलश भी लक्ष्मी के समान ही सृष्टि और महाशक्ति का प्रतीक माना गया है।

मूर्ख और अशुभ का प्रतीक माने जाने के बावजूद उल्लू धन की देवी भगवती का वाहन है। हालाँकि ऋग्वेद के श्री-सूक्त में वैभव की देवी लक्ष्मी की विस्तार से चर्चा है, लेकिन इस वृत्तांत में उल्लू को लक्ष्मी के वाहन के रूप में कहीं नहीं दर्शाया गया है। समुद्र-मंथन से लक्ष्मी तो प्रकट हुईं, लेकिन उल्लू के प्रकट होने का विवरण नहीं है। कहते हैं कि जब लक्ष्मी को धन की देवी के रूप में प्रतिष्ठा मिल गई, तो उनकी स्थान-स्थान पर पूजा होने लग गई। इस कारण उन्हें अलग वाहन की आवश्यकता अनुभव होने लगी। उन्हें भगवान विष्णु के व्यस्त रहने के कारण भी अपने उपासकों के पास जाने में विलंब होने लगा। ऐसे में लक्ष्मी के लिए ऐसे वाहन की खोज शुरू हुई, जो विष्णु के वाहन गरुड़ की तुलना में उड़ान भरने में दक्ष तो हो ही, रात में भी उड़ान भरने में समर्थ हो; क्योंकि लक्ष्मी के भक्त धन-वैभव की पूजा रात्रिकाल में ही दीपों की रोशनी में करते हैं। अब हम सब जानते ही हैं कि जीव-जगत्    के अधिकतर प्राणी रात में आहार-भक्षण के बाद निद्रा में लीन हो जाते हैं। केवल उल्लू ही रात में जागता है और आहार के लिए शिकार को भटकता है। गोया, निशाचर उल्लू रात में विचरण करने के कारण लक्ष्मी

के वाहन के रूप में उपयुक्त ठहरा दिए गए और उल्लू लक्ष्मी के वाहन के रूप में उपयोग में आने लग गए। इन वृत्तांतों से भगवती लक्ष्मी के प्रकृति से जुड़े रूप का स्पष्ट आभास होता है। 

सम्पर्कः  शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224,09981061100

दो कविताएँ

 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

1.दीप क्या है? 

दीप क्या है, सिर्फ़ मिट्टी से बना है

यह उजालों की सही आराधना है।

 

एक चादर तान ली काली गगन ने

फिर भी सीना दीप का निडर तना है ।

 

आँसुओं की इस धरा पर क्या कमी

पर अधर से कब कहा-हँसना मना है।

 

यह मत कहो, टूटा न तम का दर्प है

टिमटिमाती लौ का संघर्ष ठना है।

 

ज्योति का यह रथ न रोके से रुकेगा

अँधेरों के हौसले भी देखना है।


आलोक की धारा, धरा पर बह उठी

हर आँख में आलोक ही आँजना है। 


2. दीपक जलते रहना

बहुत अँधेरा
दूर सवेरा
दीपक जलते रहना ।

छोटी बाती
एक न साथी
तुझको सब कुछ सहना ।


पथ अनजाना
चलते जाना
दुख न किसी से कहना ।

तुझको घर-घर
बनकर निर्झर
अँधियारो में बहना ।

पर्व- संस्कृतिः छत्तीसगढ़ की दीपावली में मिट्टी कला

- डॉ. सुनीता वर्मा

दीपावली सारे उत्तर भारत का एक प्रमुख पर्व है। छत्तीसगढ़ में भी यह सर्वत्र मनाया जाता है। उत्तर भारत में यह लक्ष्मी पूजा का दिन है। बंगाल में इसे काली पूजा के दिन के रूप में मनाते हैं। स्पष्ट है कि यह उत्सव, देवी-पूजा की तरह शक्ति की आराधना है। सामान्यजन के बीच लक्ष्मी घन-धान्य और सुख- सम्पदा का प्रतीक है। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ में अनेक जगहों में मिट्टी की लक्ष्मी बना जाती है, पर अनेक जगहों पर तस्वीरों या काँसे- पीतल की मूर्तियों से भी काम चलाया जाता है। लक्ष्मी पूजा और प्रतिमा निर्माण की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए डॉ. ब्रजभूषण श्रीवास्तव ने लिखा है - “'सैन्धव, सभ्यता में समृद्धि की देवी या देवता के रूप में किसी की प्रतिष्ठा थी या नहीं थी, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता.... । ऋग्वेद में श्री और लक्ष्मी का प्रयोग अमूर्त संज्ञा के रूप में किया गया है। श्री शब्द का प्रयोग तेज, सौन्दर्य, शोभा, कान्ति, कीर्ति, विभूति तथा सम्पदा के अर्थों में हुआ है। लक्ष्मी का प्रयोग संज्ञा के रूप में किया गया है... श्री अथवा लक्ष्मी की प्रतिष्ठा ईसवी सन्‌ आरंभ होने के पूर्व ही देवी के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी । मौर्य शुंग काल में अलंकारों से सुशोभित अनेक देवियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं ...। प्राचीन भारतीय कला में लक्ष्मी का गजलक्ष्मी रूप सर्वाधिक लोकप्रिय है।  श्री शुक्त में इस देवी को हस्तिनाद प्रमोदिनी अर्थात्‌ हाथी की चिंघाड़ से प्रसन्न होने वाली कहा गया है । (ब्रजभूषण श्रीवास्तव, प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान व मूर्ति कला)

बाद में पुराणों में गजलक्ष्मी के इस रूप को विस्तार दिया गया। “छत्तीसगढ़ अंचल में भी गजलक्ष्मी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई  हैं।  पहली प्रतिमा राजीव लोचन मंदिर के प्राकार के प्रवेश द्वार के सिरदल के ललाट बिन्दु पर बना गई है। तथा दूसरी प्रतिमा इसी मंदिर के एक महामण्डप के एक स्तम्भ पर उकेरी ग है। ( डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर : राजिम, मूर्तिकला, हिन्दी ग्रन्थ अकादमीभोपाल )

दूसरी शती ईसवी पूर्व के भरहुत स्तूप की वेदिका पर ऐसी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो लक्ष्मी की ही जान पड़ती हैं। इसमें कहीं देवी पद्मस्थिता है और कहीं पद्मग्रहा है। इसी रूप में साँची और बोध गया में अंकन हुआ है ....। गुप्तकाल तक आते-आते लक्ष्मी का विष्णु पत्नी रूप प्रतिष्ठित हो गया। गुप्तकालीन देवगढ़ के मंदिर में एक प्रतिमा उपलब्ध है, जिसमें विष्णु शेष-शय्या पर शयन कर रहे है और लक्ष्मी उनके चरण दबा रही हैं.... श्री ब्रजेन्द्र नाथ शुक्ल ने खजुराहों मंदिर में स्थित सिंहवाहिनी प्रतिमा का उल्लेख किया है।

छत्तीसगढ़ में दीपावली के अवसर पर बनने वाली तथा पूजित होने वाली मूर्तियों को देखकर यह स्प्ष्ट
होने लगता है कि इन मूर्तियों में भी गजलक्ष्मी की परम्परा का अत्यंत प्राचीन रूप आज तक सुरक्षित है।

ग्रामीण कुम्हारों द्वारा बनाई जाने वाली इनमें से अधिकतर मूर्तियाँ, सवर्णो से भिन्न अनेक जातियों के घरों में इस अवसर पर पूजा के उपयोग में लाई जाती हैं। दीपावली के पर्व पर पूजित देवी श्री लक्ष्मी के युगलरूप को अथवा विष्णु के साथ उसकी प्रतिमा को इस अंचल में संभवत: इस अवसर पर कहीं दिखाया नहीं जाता

, पर चतुर्भुजी लक्ष्मी का रूप अंचल के विभिन्न रूप में सर्वत्र देखने को मिलता है। इससे यह सूचित होता कि दीपावली के पर्व पर श्री सम्पदा की देवी लक्ष्मी अपने स्वतंत्र रूप में जनमानस द्वारा लम्बे अवसर पर लम्बे अरसे से पूजित होती रही है। इस अवसर पर बनने वाली लक्ष्मी की मूर्तियों आधी पकी मूर्तियाँ कहीं जा सकती हैं। नवाचार के रूप में इन मूर्तियों में किए गए रंग के काम को लिया जा सकता है। इनमें से ज्यादातर रंग, रंग-संयोजन के सुन्दर कलात्मक उदाहरण नहीं कहे जा सकते। चित्र में प्रदर्शित लक्ष्मी मूर्तियाँ इस तथ्य का प्रमाण हैं कि कलाकारों की सहज मानसिकता से ये निर्मित हैं। बेशक इनमें अनुपात की सुघड़ता कहीं भी कम नहीं हैं; लेकिन परम्परा से भिन्न किसी प्रतिमा का सृजन करना इस कलाकारों का उद्देश्य नहीं रहा है। इसमें इतनी बारीकी तो है ही कि वे प्रतिमा निर्माण की परंपरा को ध्यान में रखते हुए अपनी मूर्ति के अंगों को उचित रूप दें । इसीलिए चतुर्भुजी लक्ष्मी के दो हाथों में पैसा गिराने वाले लोटे को रखा गया है। पद्महस्त धारिणी की यह कल्पना ग्रामीण सरलता की सूचक तो है ही, एक अर्थ में वह आधुनिक प्रभाव की सूचक भी है। श्री की देवी के रूप में समृद्धि की स्वामिनी होने के बावजूद अतीत की मूर्तियों में लक्ष्मी मुद्रा के रूप में धन देती हुई नहीं दिखाई गई है। अतः यह कल्पना तो आधुनिक युग की कल्पना ही कही जा सकती है। हो सकता है कि मौद्रिक विनिमय के व्यापक प्रसार के बाद मध्ययुग में ही इस कल्पना को रूप मिल चुका हो। इन मूर्तियों के मुख पर कुछ भी ऐसा विशिष्ट भाव नहीं होता । मुख और नेत्रों के माध्यम से कलाकार प्रायः ही एक शान्त छवि संप्रेषित करता लगता है। प्रचुर परिमाण में बनाई जाने वाली इन मूर्तियों में ज्यादातर कुम्हार एक व्यावसायिक भूमिका निभाते नजर आते हैं। मूर्ति के स्त्री रूप के गढ़न में ही नहीं वरन उनके रंगों में भी ग्रामीण स्त्रियों की झलक पाई जाती है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह के चटक रंग वाले कपड़े बहुतायत से पहने जाते हैं, इन मूर्तियों के रंग उसकी याद भी दिलाते हैं । कहा जा सकता है कि आमतौर पर इन मूर्तियों में समसामयिक सभ्यता का प्रभाव रंग लेपन के स्तर पर ही पड़ा है। इस कारण से ग्रामीण खरीददारों के बीच उनकी लोकप्रियता संभवत: बढ़ी है; लेकिन पहले के सादे रंगों की अनगढ़ कलात्मकता इससे कम ही हुई है।

दीपावली के अवसर पर कुम्हार कलाकारों के काम को लक्ष्मी की मूर्तियों के अतिरिक्त उसी की पूजा के लिए बनाए जाने वाले विशिष्ट प्रकार के दीयों में भी देखा जा सकता है। ये दीये घर-घर में जला जाने वाले दीयों से भिन्न होते हैं और इसकी कलात्मकता स्पष्ट रूप से उजागर होती है। इनके निर्माण में परम्परागत रूढ़ि का पालन नहीं किया गया है। लगभग डेढ़ फुट ऊँचे बेलनाकार आधार पर टिके ये दिये चाक्षुष और स्पर्श दोनों ही अनुभवों को एक कलात्मक सृजन के रूप में बदलते हैं। दीयों के छोटे बर्तन जैसे आकार होते है उन्हें ऐसे वर्तुल ढंग से सजाया जाता जाता है, जिससे वे सुन्दरता और उपयोगिता दोनों ही दृष्टि से विशिष्ट लगते हैं। बेलनाकार स्तंभ और बीच की जगह यानी गर्दन आनुपातिक ढंग से पतली होती है। पूरा स्तंभ बीच-बीच में उँगलियों से दबाया जाकर सुनहरे रंगों से रँगा जाता है, जबकि संपूर्ण स्तंभ लाल मिट्टी के रंग का होता है। इसके साथ नजर आने वाले कलश सामान्य छोटे घड़ों जैसे होते हैं। सारांश यह कि दीयों में कलाकार अपने कौशल का भरपूर प्रदर्शन करते नजर आते है। डोंगरगाँव में प्राप्त इन दीयों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के पूर्वी अंचल में भी इस तरह के दीये प्राप्त होते हैं। ऊँचाई में तो वे इन्हीं दीयों के समान होते है ; किन्तु उनकी बनावट और रंगों में थोड़ा प्रभाव ओड़िसा से उन दीयों का होता है, जिसे पर्व के अतिरिक्त अन्य दिनों में भी उपयोग में लाया जाता हैपूर्वी अंचल में इन दीयों को रूखा कहा जाता है। ऐसे दीये रायगढ़ अंचल में अधिक प्राप्त होते हैं। इस संदर्भ में यह भी ध्यातव्य है कि रायगढ़ अंचल में कुम्हारों की एक जाति ओड़िसा से आकर बसी हुई है।

लक्ष्मी की पूजा के इन दीयों के अतिरिक्त जानवरों को, विशेषकर हाथी को भी एक साथ कई दीयों वाला रूप दिया जाता हैपक्षियों को भी दीपक धारण किए हुए बनाये जाने की प्रथा इस अंचल में प्रचलित है। इसके कल्पनात्मक सौन्दर्य की कल्पना तो इसके त्रिआयामी स्वरूप को देखकर ही की जा सकती है, जिसमें यह कारीगरी का ही नहीं; बल्कि कला का भी उत्कृष्ट प्रतीक बन जाता है। इस तरह के दीये सारे छत्तीसगढ़ में प्राप्त होते हैं; जिनमें दीयों के अतिरिक्त हाथी की विभिन्न मुद्राएँ बड़ी रोचक होती है।

अपने रायगढ़ प्रवास के दौरान मैंने हाथी दीये देखे थे, जो महावत विहीन थे पर, जिनमें हाथी की सूँ
वराह के थूथन से थोड़ी ही लम्बी मालूम पड़ती थी। मूलतः जनजातीय कल्पना से जुड़ी ये प्रतिमाएँ विशिष्ट प्रतिभाशाली कलाकारों के द्वारा तरह-तरह से बनाई जाती
हैं। यह भी एक रोचक तथ्य है कि लक्ष्मी पूजा से जुड़े इन दीयों को लक्ष्मी की प्रतिमा के साथ ही जोड़कर बनाया जाता है। और इन लक्ष्मी मूर्तियों को दीपाधार की तरह बनाया जाता है।  इसके बावजूद इसमें पद्मस्थित लक्ष्मी की प्रतिमा विधि को सुरक्षित रखा गया है। विशिष्ट परम्परा के अनुकूल पद्मस्थित लक्ष्मी के पूर्णांग सौन्दर्य को इन दीयों के जलने के बाद ही परिलक्षित किया जा सकता है। यह कहना थोड़ा मुश्किल है कि दीपाधार के रूप में या दीये के रूप में स्वयं लक्ष्मी की प्रतिमा के उपयोग की परम्परा कितनी पुरानी है। यह जरूर है कि आर्य पूर्व समय से मातृ-देवी की परंपरा को जोड़ते हुए निशा वर्मा के कुछ ऐसी देवी मूर्तियों की मौजूदगी अत्यंत प्राचीन काल से जारी रहने की बात की है, "जिसमें स्त्री मूर्ति के सिर के भाग के दोनों तरफ दीयों की आकृतियाँ भी मौजूद है। गौरतलब है कि ये मूर्तियाँ मिट्ठी के शिल्प के रूप में ही प्राप्त हुई है।''! (निशा वर्मा - द टेराकोटाज ऑफ बिहार)

कल्पना और कला के रूप में बेशक थोड़ी ग्रामीण अनगढ़पन के साथ ये दीये विशिष्ट प्रदर्शककारी कला के गुणों से संपन्न हैं। अनुष्ठान विषय के आशयों से सहज भाव से प्रतिबद्ध इस कलात्मक निर्माण को अगर विशिष्ट संरक्षण प्राप्त हो सके, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें कला की स्मरणीय उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जा सकता हैं।

 दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी की पूजा के अन्य उपादानों में लक्ष्मी के निवास को मंदिर के रूप में मिट्टी का बनाया जाता है। राजनांदगाँव के मोहारा गाँव से प्राप्त मंदिर भी अपने आप में ग्रामीण कलात्मकता का ही प्रतीक है। अपने रंग और आकार दोनों में ही प्रस्तुत चित्र का यह मंदिर, मंदिर स्थापत्य कला का सहज अनुकरण मात्र नहीं है। इसमें देव खटोली और मंदिर के शिल्प का समन्वय दिखाई पड़ता है। पक्की मिट्टी का यह निर्माण अपने आकार अनुकूल रंग के कारण ही नहीं; बल्कि आकार के मौजूद विशिष्ट कल्पनाशीलता के कारण अधिक आकर्षक लगता है । इसका आकर्षण उन खाली जगहों में है जहाँ वे परिप्रेक्ष्य के साथ अधिक उन्मुक्त रिश्ता बनाती है। अगर यह मंदिर दीवारों से घिरा होता, तो संभवत: इतना आकर्षक नहीं लगता। छूटी हुई जगहों के कारण लालित्य ही नहीं यह उपयोगिता भी संभव होती है कि इन पोली जगहों के द्वारा मूर्ति को ठीक से प्रकाश मिल सके । अविकसित कली और विकसित पुष्पों को मंदिर के स्तम्भों और शीर्ष भाग पर लाल, हल्का पीला, हल्का हरा चित्रित करने के कारण सफेद छुही के रंग के मंदिर का आकर्षण और भी अधिक बढ़ गया है। वास्तव में कलाकार ने इस मंदिर को अटपटी कल्पनाशीलता में बनाया है; लेकिन इसकी ज्यामिती अनगढ़पन इसे इसके स्थिर धार्मिक आशय से मुक्त करती है।

झलमला- यह एक प्रकार की झरोखे दार हंडी होती है। इस हंडी को निर्माण के दौरान गीले में ही
आकर्षक ढंग से चाकू से काट दिया जाता है और यह आकर्षक झरोखेनुमा हंडी बन जाती है। हंडी को पका लिया जाता है
, जिस पर लाल रंग करने के बाद फूल-पत्ती, ज्यामितिक आलेखन द्वारा सजा दिए जाते हैं। रात में इसमें जलता दिया रखकर घर के ऊँचे हिस्से में टाँग दिया जाता है। इसी संदर्भ में छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य साहित्यकार श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की झलमला कहानी सर्वप्रसिद्ध है।

दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के काम की जो चर्चा अभी तक की गई है, उसमें सर्व भारतीय पौराणिकता का तत्व अधिक प्रमुख है। मिट्टी की मूर्तियों के निर्माण में या दीपकों के निर्माण में कलाकारों की प्रतिभा अभिव्यक्त जरूर हुई हैं

; लेकिन इन निर्माणों में अन्तर्निहित सर्वभारतीय धार्मिक आशय ही इन निर्माणों के प्रमुख उद्देश्य है। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि दीपावली के समय ही छत्तीसगढ़ में दीप पर्व  से जुड़े और कई पर्व मना जाते है। जिनमें मिट्टी के काम को विशिष्ट प्रतीकों के रूप में देखा जा सकता है। इस पर्व के बारे में अपने आप में ही यह तथ्य दिलचस्प है कि लक्ष्मी की पूजा के उत्सव के समय ही छत्तीसगढ़ में गौरा- गौरी का पर्व मनाया जाता है।  इस पर्व के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए राजेश कुमार कश्यप पांडे ने लिखा है-  “छत्तीसगढ़ क्षेत्र की भी अपनी अलग पहचान है जहाँ तीज-त्योहार के अलावा कुछ पर्व ऐसे भी है, जिन्हें क्षेत्र की जन- जातियाँ बड़े धूमधाम एवं उत्साह से मनाती हैं। इन्हीं पर्वों में एक पर्व है- गौराजो कि 'शिव-पार्वती' अर्थात्‌ गौरा-गौरी के विवाह की कथा है। गाँव-देहात में इसे गौरा बैठाना भी कहते हैं। इस पर्व के साथ-साथ एक और भी परंपरा जुड़ी हुई है, जिसके बगैर ये पर्व अधूरा- सा लगता है और वो है सुआ नाच, जिसके माध्यम से ग्रामीण महिलाएँ इस पर्व में होने वाले खर्च के लिए आवश्यक घन राशि एकत्रित करती है। सुआ नाच आपसी सहयोग और विश्वास पर आधारित एक ऐसी स्वस्थ परम्परा है, जो कि आजकल के जबरिया चंदा उगाही जैसी दूषित परम्परा से बिल्कुल भिन्न है।'  ( राजेश कुमार पांडेय- नवभारत दैनिक- 1 दिसम्बर 1992)

इन उत्सवों का जिक्र इसलिए किया जा रहा है; क्योंकि इन दोनों में ही छत्तीसगढ़ी कला के उदाहरण देखे जा सकते हैं। गौरा-गौरी के त्योहार में शिव और पार्वती की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। ये मूर्तियाँ बहुत बड़े आकार की नहीं होती । जहाँ पर गौरा-गौरी की स्थापना की जाती है, वहाँ पर स्तंभ भी मिट्ठी के बनाये जाते हैं । विवाह के इस उत्सव में इस उत्सव का रूप जन- जातिगत विशेषताओं से परिपूर्ण है। वाद्य यंत्रों से लेकर स्त्रियों और पुरुषों के उन्मत्त नृत्य तक सभी दृश्यों में इन मिट्ठी की मूर्तियों के प्रति जो भाव व्यक्त किए जाते हैं

, वे सवर्ण पूजा परम्परा से भिन्न मालूम पड़ती है। वैसे भी इसमें मुख्य कार्य का संपादन बैगा और गोंड़ जाति के लोग करते हैं। प्रमुख रूप से यह गोड़ों का त्योहार है । गौरा-गौरी की मूर्तियों को उत्सव के रूप में ही अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस उत्सव में जनजाति का मन उन्मुक्त होकर सामने आता है। स्त्रियाँ बाल खोलकर झूमती हैं मानों साक्षात् देवी की ऊर्जा उनके भीतर भर गई हो । पुरुष भी गाते- बजाते- नाचते अपने शरीर को कोड़ों से पीटते हैं। इन सबके दौरान मूर्ति को एक प्रतीक के रूप में ही माटी के बने मंदिर में रखा जाता है। ये मूर्तियाँ कच्ची मिट्टी की बनी होती हैं तथा इन मूर्तियों को कलात्मक दृष्टि से किसी विशेष महत्त्व की मूर्ति की तरह नहीं देखा जा सकता | शिव की अत्यंत प्राचीन परंपरागत प्रतिमाओं से तो इसका संबंध स्थापित कर सकना संभव ही नहीं है । उदाहरण के लिए डॉ. व्ही.पी. सिं ने पटना संग्रहालय में गुप्त काल की प्रतिमा का चित्रण करते हुए कहा है- “इसमें शिव और पार्वती के विवाह का दृश्य उपस्थित किया गया है। शिव के बाईं ओर पार्वती खड़ी है पार्वती के हाथ में एक दर्पण है और दूसरा हाथ शिव के हाथ में है। शिव चतुर्भुजी है। उनके चारों हाथों में से तीन में त्रिशूल, डमरू और कपाल है तथा एक दाहिना हाथ पार्वती का दाहिना हाथ पकड़े हुए है। शिव- पार्वती के विवाह की इस प्रतिमा को कल्याण सुन्दर प्रतिमा कहा जाता है।( डॉ. व्ही.पी. सिं – भारतीय कला को बिहार की देन- बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना)

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस पर्व में लोक ने प्रतिमा निर्माण में सिर्फ अपनी कला को व्यक्त करने की कोशिश नहीं की है,  बल्कि इस पर्व में व्यवहृत गीत-संगीत और नृत्य में उनकी कला चेतना की भी अभिव्यक्ति हुई है।

रचनाकार के बारे मेः शिक्षा : इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स में पी.एच.डी., पुरस्कार : मध्य दक्षिणी सांस्कृतिक केंद्र नागपुर में फोक एंड ट्राइबल पेंटिंग पुरस्कार।, अखिल भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला में कालिदास पुरस्कार तथा कई राज्य स्तरीय सम्मान, प्रदर्शनीः  रायपुर, भिलाई, भोपाल, जबलपुर, उज्जैन, इंदौर के साथ देश के सभी बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, केरल, कोलकाता, कोचीन, नागपुर आदि में चित्रकला प्रर्दशनी के साथ ही कई राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी प्रतियोगिता एवं चित्रशाला में भागीदारी।   सम्पर्कः फ्लैट नं.-242, ब्लाक नं.-11, आर्किड अपार्टमेंटतालपुरीभिलाई (छत्तीसगढ़) , मो. 094064 22222   

दो कविताएँः

 - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

1. चल घर चल,  दिवाली आई है







बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है,

अनमोल हैं ये घड़ी-पल, दिवाली आई है।

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


अमावस की रात में आशा के दीप जलाए,

तेरे अपने जोह रहे बाट तेरी टिकटिकी लगाए,

मन में एक धुन लगाए, तू अब आए, अब आए,

प्रेम की राह निकल, सबने नज़र टिकाई है,

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


बूढ़े माँ-बाप बैठे, गिन रहे एक-एक पल,

तेरे इंतज़ार में कब से दोनों हो रहे बेकल,

तेरी राह में दोनों ने, पलकों की दरी बिछाई है,

खो रहे धैर्य का बल, आँखें भी भर आई हैं,

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


आँगन में, बीह में, घर में, माँ ने बुहार लगाई है,

माँ ने पकवान बनाए, पिता ने मिठाई लाई है,

बेटे-बहू-पोते की एक झलक को तरस रहे दोनों, 

देख, शाम रही है ढल, घोर कालिमा छाई है,

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


शहर की चकाचौंध में, तूने गाँव की डगर बिसराई है,

देख वहाँ माँ ने माटी के दीयों की लड़ी सजाई है,

प्रात: से ही पिता ने राम-राम की रट लगाई है,

शरीकों के भी दीये जल गए, तूने क्यों देर लगाई है?

बंधु, चल घर चल, दिवाली आई है।


2. एक दिवाली दिल में...

दिवाली आई है

हमने घर आँगन की

करी सफ़ाई है,

घर की अटारी पर

सब ओर हमने

दीपमाला सजाई है।


रोशनी के इस त्यौहार पर

स्वयं से विचार कर

मैंने कुछ पल एकाकी होकर

अपने अन्तस् में जोत जलाई है

अपने दिल में दिवाली जगाई है।


दीया है, बाती है,

घी-तेल हैं, दियासलाई है,

मिल जाए प्रेम की अनल

कितनी आस लगाई है!

कविताः ज्योति का उत्सव मनाएँ

  - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव






इस तरह प्रिय 

ज्योति का उत्सव मनाएँ।


द्वार, देहरी पर बनाकर

अल्पनाएँ,

इंद्रधनु के रंग से

उनको सजाएँ

करें स्वागत-

परिजनों-अभ्यागतों का

लोकमंगल हित करें

शुभ प्रार्थनाएँ।


टाँग लें 

सुंदर कन्दीलें

निज गवाक्षों पर

झरें जिनसे

रोशनी के 

मन्द मृदु निर्झर

देखने को

ज्योति का

यह पर्व अनुपम

गगन के तारे

धरा पर उतर आएँ।


झिलमिलाती 

झूमती-सी

झालरें विद्युत् लड़ी की

जगमगाते दीपकों से

कर रही हों

जुगलबंदी- सी

और फुलझड़ियों से

झरते फूल झर- झर

झर- झरर

बाँचते हों ज्यों कथा

उल्लास की।


मनहरण इस रागिनी के

साथ हम भी

चलो कोई गीत सुमधुर

गुनगुनाएँ

दूर करने को सघन तम

इस धरा का

एक दीपक नेह का

हम भी जलाएँ।

पर्यावरणः तेज़ आवाज़ औरडी आपके कान

 - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

हमारे सभी त्यौहार हमें खुशी-उल्लास देते हैं, लेकिन हमारा दीपों का यह त्योहार साथ में बहुत ज़्यादा शोर भी देता है। सल्फर डाईऑक्साइड जैसे हानिकारक उत्सर्जन को कम करने और पटाखे फोड़ने पर होने वाले शोर को कम करने के लिए ग्रीन पटाखों का इस्तेमाल करने की लगातार अपील की जाती है। इन्हें सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत निर्देशों, जैसे लड़ियों वाले पटाखों के निर्माण और बिक्री पर प्रतिबंध, के ज़रिए अनिवार्य किया है; लेकिन हर साल इस त्यौहार के मौसम में पटाखों की तेज़ आवाज़ें गूँजती रहती हैं।

लोगों की चिंता पटाखों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण पर केंद्रित रहती है: लेकिन उतनी ही चिंता की बात यह है कि बहुत तेज़ आवाज़ या धमाके हमारी सुनने की क्षमता को नुकसान पहुँचा सकते हैं। पटाखों से इतर, साल भर होने वाले शोर या ध्वनि प्रदूषण पर अन्य तरह के प्रदूषण की तुलना में कम ध्यान दिया जाता है। ऐसा लगता है कि शोर को हमारे आसपास के पर्यावरण के हिस्से के रूप में अधिक आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, खासकर तब जब यह शोर आप स्वयं पैदा कर रहे हों।

ध्वनि तरंगों के माध्यम से आगे बढ़ती है। इन तरंगों में ऊर्जा होती है। जितनी अधिक ऊर्जा होगी, उतनी ही ज़्यादा तीव्र तरंग होगी और उतनी ही तेज़ आवाज़ होगी। ध्वनि की तीव्रता मापने के लिए डेसिबल (डीबी) पैमाने का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक लघुगणकीय पैमाना है, इसलिए जब ध्वनि स्तर 10 डेसिबल बढ़ता है तो इसका मतलब होता है कि ध्वनि की तीव्रता दस गुना बढ़ गई है। डीबी पैमाने पर, मानव श्रवणशक्ति की शुरुआत 0 डीबी पर सेट की गई है। एक फुसफुसाहट की ध्वनि की माप इस पैमाने पर 30 डेसिबल आती है, और सामान्य बातचीत की ध्वनि की माप 60 डेसिबल।

तेज़ धमाके के साथ फूटने वाले पटाखे की ध्वनि तीव्रता, 10 फीट दूर मापने पर, 140 डेसिबल आती है। यह तीव्रता कान के कॉक्लिया (आंतरिक कान में एक सर्पिलाकार रचना जो ध्वनि तरंगों को विद्युत संकेतों में बदलती है) में मौजूद रोम कोशिकाओं को आसानी से नुकसान पहुँचा सकती है। कॉक्लिया कान के परदे के माध्यम से कंपन प्राप्त करता है और फिर रोम कोशिकाएँ उन्हें तंत्रिका संकेतों में बदल देती हैं। इन रोम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचने से वे ध्वनि के प्रति कम संवेदनशील हो जाती हैं। नतीजतन, रोम कोशिका द्वारा प्रतिक्रिया करने और तंत्रिका संकेतों को मस्तिष्क तक भेजने के लिए तेज़ या ऊंची आवाज़ की आवश्यकता होती है। रोम कोशिकाएँ मध्यम आवाज़ के असर के बाद कुछ हद तक ठीक हो सकती हैं। लेकिन हमारी त्वचा कोशिकाओं के विपरीत, ये कोशिकाएँ पुनर्जनन में असमर्थ हैं। इसलिए बार-बार होने वाले आघातों से उबरना इन कोशिकाओं के लिए मुश्किल हो सकता है। नतीजतन, लगातार तेज़ शोरगुल के कारण सुनने की क्षमता घट सकती है।

छोटे बच्चों के संवेदनशील कानों के लिए तेज़ आवाज़ें एक गंभीर खतरा हैं, क्योंकि सुनने की क्षमता में मामूली कमी भी उनकी सीखने की क्षमता को कम कर सकती है। शोर के अत्यधिक संपर्क के कारण होने वाला ध्वनि आघात अक्सर कान बजने (टिनिटस) की समस्या पैदा करता है, जिसमें कहीं कुछ आवाज़ न होने पर भी आपको कानों में सीटी बजने सी आवाज़ सुनाई देती रहती है। यह ‘सीटी की आवाज़' क्षतिग्रस्त रोम कोशिकाओं की असामान्य विद्युत गतिविधि का संकेत है। आम तौर पर, यह आवाज़ कम हो जाती है, लेकिन लंबे समय तक लगातार शोर- शराबे के संपर्क में रहने से यह आपके जीवन का स्थायी लक्षण बन सकती है। बेशक, टिनिटस बुज़ुर्गों को भी हो सकता है, जो उम्र से सम्बंधित क्षति के कारण पैदा होता है।

लंबे समय तक मध्यम- तीव्रता वाली आवाज़ों (शोरगुल) के संपर्क में रहने से भी सुनने की क्षमता ठीक वैसे ही कम हो सकती है, जैसे तेज़ आवाज़ें सुनने से होती है। भारतीय शहरों की सड़कों पर यातायात का शोर एक दिन में 60 से 102 डेसिबल तक मापा गया है। साल 2008 में इंडियन जर्नल ऑफ ऑक्यूपेशनल एंड एनवायरनमेंटल मेडिसिन में हैदराबाद शहर के यातायात पुलिसकर्मियों पर किया गया एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था। अध्ययन में पाँच साल की सेवा के बाद सभी ट्रैफिक पुलिसकर्मियों में सुनने की क्षमता में कमी पाई गई थी, ऐसे ही नतीजे सुब्रतो नंदी और सारंग धात्रक को भारत में व्यावसायिक शोर पर किए गए सर्वेक्षण में मिले थे। 

इयरप्लग जैसे निवारक उपाय सुनने की क्षमता में कमी के जोखिम को कम करने में मदद करते हैं। निर्माण उद्योग जैसे कुछ पेशों में ज़रूरत के अनुसार इयरप्लग अपनाए जा रहे हैं, लेकिन इसे और अधिक व्यापक बनाने की ज़रूरत है। शायद, ग्रीन पटाखों के चलन में आने के पहले ही, त्यौहार की रातों में इयरप्लग पहनना एक आम दृश्य बन जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

पर्व संस्कृतिः जाने कहाँ गए वो दिन...

  - प्रियंका गुप्ता 

लीजिए जी, एक बार फिर से आ गया दीपावली का त्योहार...रोशनी, फुलझड़ियाँ, पटाखे, दीए और तरह-तरह के पकवानों का मौसम...। बाहर का मौसम भी तो जैसे गुलाबी होने लगा है। गुनगुनी धूप से गमकते दिन और झुरझुरी भरी कोमल-सी रातें...खुशियों के दिन जैसे अन्दर तक महसूस करने का वक़्त होता है ये...। त्योहार तो होते ही हैं न ऐसे...? पर क्या आपको सच में लग रहा कि हमारे आसपास दीपावली या आम भाषा में बोलें तो, दिवाली का त्योहार अपनी शिद्दत से नज़र आ रहा?

यूँ लगता है मानो अभी ज़्यादा साल नहीं बीते हैं, जब दशहरे के पहले से ही हम बच्चे पटाखों का कलेक्शन शुरू कर देते थे। माँ-बाप की ताकीद के बावजूद मौका पाते ही कभी सुरसुरी बम, तो कभी चुटपुटिया, कभी लहसुनिया और कभी-कभी तो रस्सी बम भी फोड़कर पूरे मोहल्ले को हिला डालते थे। ज़्यादा अहिंसावादी टाइप बालक अपने किसी साथी के पीछे चुपके से थैली में हवा भरकर उसके बम भी फोड़कर उसी की आवाज़ से दहलकर उसके काँप उठने के दृश्य को याद कर-करके घण्टों पेट पकड़कर हँसा करते थे।  

पूरे साल चाहे माँगने पर भी नए कपड़ों के लिए माँ कितना भी टालती रहें; पर दीपावली पर पूजा में नए कपड़े ही पहनने हैं, इस मान्यता के चलते मिले नए कपड़े को माँ के सो जाने पर चुपके से पहनकर घण्टों तक भी खुद को शीशे में निहारकर खुद ही की तारीफ़ से फूले नहीं समाते थे। पूजा के समय के लिए आए खील- बताशे- चीनी के खिलौने और मिठाइयाँ हम सब से बचाकर छुपाने में माँ को किसी देश के ‘टॉप- सीक्रेट’ राज़ छुपाने का ही एहसास होता रहा होगा...और उन्हें ढूँढने में हम खुद को करमचन्द और व्योमकेश बक्षी के चेले ही मानते थे।  

बिजली की झालरें हाँलाकि तब भी हुआ करती थी, पर वे ज़्यादातर रईसों के शौक़ माने जाते थे।  आम परिवारों में तो दीए, मोमबत्तियाँ और कंदीलें ही रौशन होकर अपनी छटा बिखरा देती थी। पूजा के समय भी कौन कम्बख़्त भगवान को याद करता था...? भगवान भी तब सिर्फ़ इम्तिहानों में ही याद आते थे न...? हम बच्चों की तो एक आँख मिठाइयों पर होती थी और दूसरी पटाखों पर...। 

हाँ, एक बात हम सब के लिए तब भी रहस्य थी...आखिर ये गुब्बारे के अन्दर जलता दिया रखते कैसे हैं? ऐसे दीयों से भरे गुब्बारे हवा में उड़ाने वालों के हुनर के प्रति हमारा मन एक अनाम श्रद्धा से भर जाता था। 

फिर घर में जैसे ही सफ़ाई शुरू होती, पूरा घर किसी युद्धभूमि जैसा नज़ारा पेश करता था—बक्से-बिस्तर छत पर, किताबें यहाँ-वहाँ, और माँ की सख़्त निगरानी में हर कोना चमकाया जाता था। उस बीच हम बच्चों के हिस्से में कुछ-न-कुछ काम आता ही था - दीयों को पानी में भिगोकर तैयार करना, रुई की बत्तियाँ बनाना और फिर गिनती करना कि इस बार कितने ज़्यादा दीये जलेंगे। मोहल्ले के बच्चों में भी होड़ मचती थी...किसके आँगन में ज़्यादा दीए सजे हैं, किसके दरवाज़े पर कंदील सबसे ख़ूबसूरत लग रही है। सच कहिए, उन टिमटिमाते दीयों की पंक्तियों में जो सादगी और अपनापन था, वह आज के बिजली की चकाचौंध भरे लाइट्स में कहाँ?

आज दुनिया बहुत बदल गई है। आज न तो नए, महँगे कपड़े खरीदने के लिए बच्चों में किसी त्योहार के इंतज़ार का धैर्य है, न पिज़्ज़ा-बर्गर के मायाजाल से निकलकर खील-बताशे और मिठाइयाँ ढूँढने में मिलने वाले उस सुख का एहसास ही...। आज के बच्चे बहुत जल्दी बड़े होकर इस पटाखे-फुलझड़ियों की दुनिया से बाहर निकल आए हैं। आज की ये कच्ची-अधपकी पीढ़ी वर्च्युअल दुनिया के मकड़जाल में उलझकर वहीं सारे तीज-त्योहार मनाकर मशीनी खुशियाँ ही मना लेने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान रही है। 

आज तो अक्सर दीपावली की रात भी जैसे सन्नाटे में डूबी होती है, बस बीच-बीच में कहीं दूर से किसी पटाखे की धमक सुनाई दे जाए तो और बात है। मानते हैं कि इन सब पटाखों-फुलझड़ियों से वातावरण प्रदूषित होता है, कई शारीरिक तकलीफ़ें भी होती हैं। बारूद-भरे पटाखों की जगह किसी और तरह के पटाखों की ईजाद हो जाए, इसमें कुछ दिक्कत की बात नहीं है। पर आपस में मिलने-जुलने, खुशियाँ बाँटने और ढेर सारी यादें बटोरने में तो कोई बुराई नहीं न? फिर क्यों आज के समय में त्योहारों से ये सब भी कहीं गायब हो गई हैं?

अच्छी बात है कि आज हम पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़्यादा सतर्क-सचेत हो गए हैं, पटाखों से दूर हो ही गए हैं, पर कभी फ़ुर्सत मिले तो सोचिएगा...इस सतर्कता और सजगता के चलते हमारे अन्दर खुशियों की हहराती नदी से खिली हरियाली कहीं असमय ही तो काल-कवलित नहीं हो रही है?

सम्पर्कः ‘प्रेमांगन’, एम.आई.जी-292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या-एक, कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (उ.प्र), ईमेल: priyanka.gupta.knpr@gmail.com ब्लॉग: www.priyankakedastavez.blogspot.com


कविताः क्या रखा है अब इन बातों में

  -डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री






थी अव्यक्त- सी, कुछ पीड़ाएँ
जीवन- रथ सी कुछ उपमाएँ
गत  जीवन के मौन मुखर हो
प्रायः  मुझे जगाते हैं रातों में
 
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो-
क्या रखा है अब इन बातों में।
 
जो कुछ अपने थे या सपने थे
जिया विकल क्यों उन्हें पुकारे
निशा का ये जाने कौन प्रहर हो
बालू का घर न टूटे बरसातों में।
 
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में।
 
प्रेम से प्रतिक्षण उसे बिठाया
प्यार से सिर भी था सहलाया
पग पखारे, टीका भोग लगाया
फिर क्रूर घड़ी क्यों आघातों में।
 
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में।
 
क्यों मुझे निरंतर छेड़ रही हैं
गवाक्षों से ये कुटिल वेदनाएँ
द्वार खड़ी ये मुझे ही पुकारें
प्राण पखेरू भौंरे -से पातों में
 
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में ।

संस्मरणः पार्क की सुनहरी शाम

  - जैस्मिन जोविअल

हर रोज़ की तरह आज भी शाम को टहलते हुए मैं पार्क पहुँची।

ताज़ा हवा चेहरे को छू रही थी, लहराते पेड़ जैसे आपस में गुप्त बातें कर रहे हों, और हिलते पत्ते हवा के साथ कोई मधुर गीत गा रहे हों। दूर बच्चों की खिलखिलाहट वातावरण को और भी जीवंत बना रही थी। ढलते सूरज की लालिमा पेड़ों के बीच से छनकर ज़मीन पर सुनहरी परछाइयाँ बिखेर रही थी।

उस पल मुझे लगा- यह साधारण-सी शाम भी अपने भीतर कितनी कहानियाँ समेटे हुए है- शांति की, अपनेपन की, और उन छोटी-छोटी खुशियों की, जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं।

पार्क कई हिस्सों में बँटा हुआ है। दूर फ़ुटबॉल ग्राउंड में बच्चे पूरी उमंग में खेल रहे हैं और उनकी  माताएँ  किनारे बैठकर उन्हें प्रोत्साहित कर रही हैं। वॉलीबॉल का मैच भी चल रहा है- हर सर्व और स्मैश पर युवाओं की उमंग देखते ही बनती है। बीचों-बीच शेड एरिया में लोग योग और ध्यान में मग्न हैं। पास ही जॉगिंग ट्रैक पर लोग अपनी-अपनी गति से दौड़ रहे हैं, कानों में हेडफ़ोन, अपनी ही दुनिया में खोए हुए, जैसे हर किसी की ज़िंदगी अपनी अलग लय में बह रही हो।

फूलों से सजी क्यारियाँ, झाड़ियों में चहचहाते पक्षी, और हवा में घुली खुशबू इस पूरे माहौल को जीवंत बना देती हैं। यह पार्क सिर्फ़ हरियाली का नहीं, बल्कि जीवन के हर रंगों का संगम है- एक छोटी-सी दुनिया, जहाँ हर पल ज़िंदा है।

बेंच पर बैठे कुछ युवाओं की नज़रें केवल मोबाइल स्क्रीन पर लगी हैं। मैं सोचती हूँ- कौन इन्हें बताए कि यह पल, यह समा, यह समय कभी लौटकर नहीं आएगा। कहीं पढ़ा था- ' 'Enjoy little things', छोटी-छोटी खुशियों को जीना सीखो; लेकिन आज की दुनिया में मानो सारी खुशियाँ फ़ोन की चारदीवारी में बंद हो गई हैं।

फिर अचानक कुछ अद्भुत सुनाई दिया—एक प्यारी, मासूम हँसी। और उसके साथ एक मधुर गीत भी गूँज रहा था। वह आवाज़ जैसे पूरे पार्क को रंगों और खुशियों से भर रही थी। मैं उस आवाज़ की ओर बढ़ी और अपनी पसंदीदा जगह- झूले तक पहुँच गई।

आज झूलों पर लगभग 68 साल की आंटी झूल रही थीं। हल्की हवा में झूलते हुए उनका गुनगुनाना और मुस्कान, उम्र की किसी सीमा की परवाह किए बिना खुशी का एहसास दे रहा था। उनकी मुस्कान देखकर मेरे भीतर हल्की गर्मी फैल गई- जीवन की सारी उलझनें, सारी थकान, सारी फिक्र पलभर में गायब हो गईं।

मैंने सोचा—आज मैं झूला झूलूँगी। कोई देखे या न देखे, मैं अपने भीतर के बच्चे को जीऊँगी।

1 अक्टूबरः वृद्ध दिवसः अनुभव का पिटारा है इनके पास

  - डॉ. जेन्नी शबनम 

मानव तथा मौसम का स्वभाव एक-सा होता है। कब, क्या, कैसे, कौन, कहाँ, क्यों परिवर्तित हो जाए, पता ही नहीं चलता। यों मानव-जीवन तथा मौसम प्रकृति के हिस्से हैं, जिनका परिवर्तन निश्चित व नियत समय पर होता है; परन्तु कई बार ऐसे अप्रत्याशित रूपांतरण होते हैं, जो न निर्धारित हैं न अपेक्षित। मौसम का पूर्वानुमान और ज्योतिष की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हो जाती है; परन्तु सभी की कामना होती है कि जीवन तथा मौसम सदैव उचित व अनुकूल रहे, जिससे जीवन कष्टपूर्ण एवं दुःखमय न बने।  

मानव-जीवन जन्म से मृत्यु तक की यात्रा है, जिसमें कई पड़ाव आते हैं। हर पड़ाव पर व्यक्ति से अपेक्षित कुशल-व्यवहार की आशा रहती है। जैसे बच्चों के लिए खाना, खेलना, पढ़ना, अनुशासन में रहना इत्यादि अपेक्षित हैं, वैसे ही वयस्क तथा वृद्ध के लिए कुछ आचरण व कार्य निश्चित होते हैं। वयस्क एवं प्रौढ़ धनोपार्जन- कार्य में लगे रहते हैं तथा वृद्ध अवकाश ग्रहण करने के बाद अपने घर व बच्चों के साथ समय व्यतीत करते हैं। वृद्ध व्यक्ति का जीवन अनुभवों से भरा होता है, अतः उन्हें उचित आदर-सम्मान देना चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन) ने वृद्धजन के सम्मान के लिए 14 दिसम्बर 1990 में वृद्ध दिवस मनाने की घोषणा की थी। 1 अक्टूबर 1991 के दिन पहली बार वृद्ध दिवस मनाया गया। अब हर वर्ष अक्टूबर की पहली तिथि को विश्व भर में 'अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस' मनाया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 जुलाई 2022 तक बुज़ुर्गों की आबादी 14.9 करोड़ थी। वर्ष 2036 तक बुज़ुर्गों की संख्या 22.7 करोड़ होने का अनुमान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में पुरुषों का औसत जीवनकाल 70-75 वर्ष और स्त्रियों का 75-80 वर्ष है।  

सामान्यतः व्यक्ति जब प्रौढ़ रहता है तब जीवन के सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने की योजना बनाता है। बच्चों की शिक्षा व विवाह, उत्तम आवास, समुचित स्वास्थ्य-सुविधा, परिवार के जीवन स्तर को उन्नत करना, भविष्य के लिए कुछ धन एकत्रित करना इत्यादि के लिए हर व्यक्ति प्रयासरत रहता है। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते-करते जब व्यक्ति उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचता है, तब समझ आता है कि उसने अपने जीवन को यूँ ही समाप्त कर दिया, कभी स्वयं के लिए जिया ही नहीं। यदि आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है, तो वृद्धावस्था थोड़ी सरल व सहज होती है; परन्तु आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो वृद्धावस्था अत्यन्त दयनीय व कष्टप्रद हो जाती है, विशेषकर अस्वस्थ होने की अवस्था में।  

हर व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करें। यह देखा गया है कि माता-पिता कठिन परिश्रम कर बच्चों को विदेश भेजने के लिए इच्छुक व तत्पर रहते हैं। जो बच्चे पढ़ने या नौकरी के लिए विदेश चले गए, उनके माता-पिता गौरवान्वित होते हैं; क्योंकि बच्चों की सफलता पर माता-पिता को स्वयं के सफल होने की अनुभूति होती है। ऐसे माता-पिता को समाज से भी सम्मान मिलता है। पर जब उनकी वृद्धावस्था आती है तब वे अकेलेपन का अनुभव करते हैं। जो बच्चे विदेश चले गए, उनमें से अधिकतर वापस नहीं लौटते हैं। कई बार देखा गया है कि वृद्ध माता-पिता की बीमारी या मृत्यु पर भी वे नहीं आ पाते। यह अत्यन्त दुःखद स्थिति है; परन्तु इसमें दोष किसी का नहीं। कई बार विदेश में कार्यरत बच्चे चाहकर भी नहीं आ पाते हैं; क्योंकि उनका कार्य या छुट्टी इसमें बाधा बनती है। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को पैसे भेजकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता से मानसिक-जुड़ाव नहीं रखते, अतः वे चिन्ता भी नहीं करते कि माता-पिता को उनकी कितनी आवश्यकता है। कई घटनाएँ ऐसी देखी गईं हैं कि माता-पिता की मृत्यु पर बच्चे वीडियो कॉल द्वारा दाह-संस्कार का हिस्सा बने हैं। 

एक दुःखद घटना समाचारपत्र में छपी कि एक वृद्धा माँ सोफ़े पर बैठी द्वार की ओर देखती हुई छह माह से मृत पड़ी कंकाल बन गई थी। उस माँ के बच्चे विदेश में थे। निःसन्देह वे अपनी माँ के सम्पर्क में नहीं रहते होंगे, इसलिए उन्हें पता नहीं था कि उनकी माँ छह माह पहले मर चुकी है। सच! कुछ बच्चे कितने असंवेदनशील होते हैं! समाचारपत्र में आए दिन पढ़ने को मिलता है कि बच्चों ने वृद्ध माता-पिता को पीटा, खाने-खाने को तड़पाया, एक-एक पैसे के लिए तरसाया, अस्वस्थ होने पर देखभाल नहीं की, अत्यधिक अस्वस्थ होने पर महँगा उपचार नहीं करवाया। भाइयों के बीच कलह है कि माता-पिता को कौन रखे। बच्चों ने माता-पिता की सम्पत्ति अपने नाम करके उन्हें घर से निकाल दिया और उनसे कोई सम्पर्क न रखा। समाज में जगहँसाई के डर से माता-पिता को घर में रखा, पर इतनी मानसिक यंत्रणा दी कि वे साथ रहने के बदले मर जाना चाहते हैं। बच्चों ने वृद्ध माता-पिता से उकताकर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए। बिना बताए रेलवे स्टेशन या मन्दिर या वृद्धाश्रम में वृद्ध माता-पिता को छोड़ दिया। वृद्ध को भूलने की बीमारी होने पर यदि वे घर से चले गए, तो उनके बच्चों ने कोई खोज-ख़बर नहीं ली। जीवन से तंग आकर किसी वृद्ध ने आत्महत्या कर ली आदि।

इसी समाज में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्होंने बिना दिखावा, बिना अपेक्षा, बिना सम्पत्ति के लालच अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा की, बहुत आदर-सत्कार किया और उनका मानसिक सम्बल बने रहे। कई घरों में आज भी बच्चे अपने माता-पिता से सलाह लेकर कोई कार्य करते हैं, चाहे उम्र कितनी भी हो। हालाँकि ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है; परन्तु यह भी सच है।  

हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा उत्तम एवं विवाह समृद्ध घर में हो तथा वे सदैव सुखी रहें। इसके लिए वे जीवन भर की पूँजी लगा देते हैं, चाहे आर्थिक स्थिति कितनी भी निम्न क्यों न हो। अपनी वृद्धावस्था की चिन्ता न कर बच्चों के सुख-सुविधा के लिए जीना भारतीय परम्परा है, जिसे हर व्यक्ति अपने सामर्थ्य से अधिक निभाता है। संतान अगर सुपात्र हो, तो वृद्धावस्था सुखद व्यतीत होता है। शारीरिक कष्ट कम या अधिक तो सभी को भोगना पड़ता है। लेकिन संतान स्वार्थी, अहंकारी, कृतघ्न, दुष्ट, निकम्मी, असभ्य, उदण्ड हो, तो वृद्धावस्था अत्यन्त कष्टकारी होता है। ऐसी संतान शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से कष्ट देती है और वृद्ध माता-पिता लाचार होकर सब सहने को विवश होते हैं।  

वृद्ध होना जीवन-क्रम का नियम है। परन्तु वृद्धावस्था की कठिनाइयाँ ऐसी हैं, जिसे सोचकर हर प्रौढ़ चिन्तित रहता है। माना जाता है कि स्वभाव से बाल्यावस्था और वृद्धावस्था एक समान हैं। व्यक्ति वृद्धावस्था में बच्चों-सा आचरण करने लगता है; परन्तु बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में एक बहुत बड़ा अंतर है। बच्चे अगर हठ करें या कोई अनुचित माँग रखें तो माता-पिता उसे मनाते हैं और हठ पूरी भी करते हैं, वहीं अगर कोई वृद्ध हठ करे या कोई उचित माँग भी करे तो उनके बच्चे अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं।  

वृद्ध का मनोविज्ञान वृद्ध के अलावा कोई नहीं समझता है। हर वृद्ध की इच्छा होती है कि उनके बच्चे उनके साथ थोड़ा समय व्यतीत करें, उनके स्वास्थ्य की देखभाल करें, बच्चों के जीवन में क्या हो रहा है जानें, अपना सुख-दुःख और अनुभव बच्चों से बाँटें, बच्चों के बच्चे का पालन-पोषण करें, बच्चों के महत्त्वपूर्ण निर्णय में उनकी सहभागिता हो या कम-से-कम इसकी सूचना मिले इत्यादि। कुछ वृद्धों की यह इच्छा पूरी होती है, पर अधिकतर वृद्धों की इच्छाएँ उनके मन में ही दम तोड़ देती हैं। जिन बच्चों को उँगली पकड़कर चलना सिखाया, अक्षर-अक्षर पढ़ना सिखाया, रात-रातभर जागकर पालन-पोषण किया, हर समय उनकी छत्रछाया बनकर रहे, वे ही बच्चे अब कहते हैं कि तुमने क्या किया, हर माँ-बाप का जो कर्त्तव्य है वह तुमने किया, तो इसमें विशेष क्या किया? पालन-पोषण में अगर थोड़ी भी चूक हो गई हो, तो बच्चे दोषारोपण करते हैं बिना यह सोचे कि उनके माता-पिता तब युवा थे और सब कुछ धीरे-धीरे सीख रहे थे, कुछ त्रुटि तो हुई ही होगी। कोई भी मनुष्य पर्फेक्ट नहीं होता, तो माता-पिता से यह उम्मीद क्यों?  

वृद्धावस्था ज्ञान और अनुभव का पिटारा होता है, जिसे व्यक्ति समय-समय पर खोलता है और चाहता है कि अगली पीढ़ी उनसे सीख लें, ताकि उनका जीवन सुगम, सरल व सफल हो। नई पीढ़ी को यह लगता है कि पुरानी पीढ़ी नासमझ है, समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है जिसे वे जानते-समझते नहीं हैं, उनके पुराने ज्ञान या अनुभव का क्या लाभ। नई पीढ़ी उनकी बातों को अनसुना करती है या  ''निरर्थक बातें मत करो'' कहकर चुप करा देती है। यह सही है कि बदलते समय के अनुसार नए तकनीक का ज्ञान अधिकतर वृद्धों को नहीं है; परन्तु जीवन का अनुभव उनके पास ख़ूब होता है, जिससे नई पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है।

नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में दूरी व टकराव का कारण जेनेरशन गैप, शिक्षा का स्तर, आर्थिक स्थिति, परम्परा, परिवेश, व्यवसाय, निर्भरता, तकनीक, नई खोज, जीवन जीने की नई पद्धति, रहन-सहन, परिधान, दिखावा, दिनचर्या, लालच, बुद्धिमता, सोच-विचार, भावनात्मक दूरी, संवेदनशीलता, संवेदनहीनता, बीमारी, लम्बी बीमारी, शारीरिक अक्षमता, बच्चों-सा व्यवहार, संयुक्त परिवार, एकल परिवार, बहुमंज़िला फ्लैट, खान-पान, भोज और पार्टी, मद्यपान, धूमपान, अनुशासन इत्यादि है। इस दूरी को पाटकर और वृद्धों के अनुभव से सीख लेकर अगर नई पीढ़ी कार्य करती है, तो निःसन्देह उनका जीवन सरल-सुगम होगा।  

अधिकतर वृद्ध वृद्धावस्था को शाप सममझते हैं; क्योंकि शारीरिक और आर्थिक निर्भरता उन्हें लाचार बना देती है, जिससे उन्हें आत्मग्लानि होती है। वृद्धजनों की समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि उनके अपने उन्हें सम्मान देना तो दूर, नाता तक तोड़ लेते हैं। ऐसे में उपेक्षित वृद्ध अपना शेष जीवन कैसे व्यतीत करें, यह उनके जीवन का बहुत बड़ा प्रश्न बन जाता है। छोटे बच्चों का पालना-पोषण करना जितना ही आनन्ददायक होता है, वृद्ध की देखभाल करना उतना ही अधिक कष्टदायक होता है। बच्चों के नियत समय पर बड़े होने और निर्भरता समाप्त होने का पता होता है; लेकन वृद्ध की अस्वस्थता एवं शारीरिक निर्भरता के समाप्त होने का कोई नियत समय नहीं है। 

एक अवस्था के बाद पूर्णतः स्वस्थ रहना किसी भी वृद्ध के लिए सम्भव नहीं होता है। इसलिए कितनी भी अच्छी संतान हो, एक समय के बाद वह थक व ऊब जाती है। अक्सर वृद्ध अपनी असहाय अवस्था पर शोक मनाते हैं और अपने जीवन की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ऐसे में संतान को चाहिए कि थोड़ा समय ही सही अपने बुज़ुर्गों के साथ बिताएँ, ताकि उनका मनोबल गिरे नहीं, मानसिक सम्बल मिले और उन्हें यह अनुभूति हो कि उनके बच्चे साथ हैं।  

परन्तु ऐसा भी नहीं है कि वृद्धावस्था में आपसी कटुता का सारा दोष बच्चों का ही है। वृद्ध होने पर भी माता-पिता द्वारा घर में अपना वर्चस्व बनाए रखना, बच्चों पर अत्यधिक अनुशासन करना, बच्चों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करना, तनिक भी असुविधा होने पर बच्चों पर दोषारोपण करना, बच्चों की आर्थिक स्थिति से भिज्ञ रहकर भी अनावश्यक व्यय करना, बच्चों द्वारा कुछ अच्छा समझाने पर अपमान का अनुभव करना, बिना बात घर में कलह करना, बच्चों के बच्चों पर अपना अधिकार समझना, बच्चों के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करना, बच्चों की असुविधा का ध्यान न रखना, वृद्धावस्था को स्वीकार न करना, नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य न बिठाना इत्यादि कारण हैं, जिससे बच्चों के साथ सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं।  

अतः वृद्धावस्था में किसी भी रूप में अपनी संतान पर बोझ बनना सबसे बड़ा अपराध है, इसे हर व्यक्ति को समझकर व मानकर चलना चाहिए। भावनात्मक एवं मानसिक निर्भरता तो उचित है, परन्तु शारीरिक और आर्थिक रूप से निर्भर न बनना ही श्रेयस्कर है। हालाँकि यह सभी के लिए संभव नहीं है, परन्तु चेष्टा अवश्य करनी चाहिए। वृद्ध स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक योग-अभ्यास, नियमित व संयमित दिनचर्या का पालन करें। अस्वस्थ होने पर तुरन्त चिकित्सा करवाएँ ताकि कोई भी बीमारी बढ़े नहीं। अनावश्यक रूप से बच्चों के मामले में हस्तक्षेप न करें। जितना सम्भव हो आत्मनिर्भर रहें। सभी बच्चों को समान रूप से प्यार करें तथा उनमें आपसी मनमुटाव या दुराव की भावना न भरें। स्वयं को हमेशा व्यस्त रखें और सदैव सकारात्मक सोचें।