जीवन की
लम्बी यात्रा में, खोये भी हैं मिल जाते,
जीवन है
तो कभी मिलन है, कट जाती दु:ख की रातें।
- जयशंकर प्रसाद


अंतरिक्ष यात्री खुद को
अंतरिक्ष की परिस्थितियों के मुताबिक ढालने लगते हैं। इस दौरान उनके खानपान से लेकर पोशाक
तक का ख्याल रखा जाता है। सामान्य पोशाक और स्थितियों में अंतरिक्ष में कदम नहीं
रखा जा सकता। आपने देखा होगा अंतरिक्ष यात्री हमेशा एक खास तरह की ड्रेस पहनते
हैं। एक भारी-भरकम सूट और उस पर हेलमेट और ऑक्सीजन मास्क भी लगा रहता है। अंतरिक्ष
में अंतरिक्ष यात्रियों को यही सूट पहनना पड़ता है। इसे स्पेस सूट कहते हैं। स्पेस
सूट की बदौलत ही अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष के प्रतिकूल माहौल में जीवित रह पाते
हैं।
अमूमन अंतरिक्ष यात्री 4 से
6 घंटे सोते हैं। यान में स्लीप सेंटर होता है। स्लीप सेंटर एक छोटे फोन बूथ की
तरह होता है, जिसमें स्लीपिंग बैग होता है। स्लीप सेंटर में
कंप्यूटर, किताबें और खिलौने भी रख सकते हैं। ब्रश करते समय
पानी भी बुलबुलों की तरह उड़ता है। यान में हाइड्रेटेड और डिहाइड्रेटेड सभी तरह का
भोजन होता है। असलियत यह है कि अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजने का एक
अहम मकसद होता है पृथ्वी से कई किलोमीटर दूर अंतरिक्ष में रहते हुए मनुष्यों पर उन
परिस्थितियों का असर देखना। यदि मनुष्य को कभी स्पेस में, ग्रहों या उपग्रहों पर लंबे समय तक रहना है, तो यह पता होना ज़रूरी है कि अंतरिक्ष में लंबे समय
तक रहने का इंसान पर असर क्या होता है। लेकिन खुद अंतरिक्ष यात्रियों पर हो रहे
प्रयोगों के असर पर नज़र रखता कौन है? अंतरिक्ष
यात्रियों के हर पल की हरकत और उनपर हो रहे असर को जाँचती है हज़ारों विशेषज्ञों की एक टीम, जो नासा के कंट्रोल हब या फिर नासा पेलोड ऑपरेशन्स
इंटीग्रेशन सेंटर के नाम से जानी जाती है।
कई बार स्पेस स्टेशन के
निवासी शिकायत करते हैं कि उन्हें अच्छा नहीं लग रहा है। शाइन कहती हैं कि ऐसी
सूरत में पता किया जाता है कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं। फिर उन्हें कम्फर्ट भोजन
दिया जाता है और उनकी स्थिति को देखा जाता है। शाइन के मुताबिक नियंत्रण केन्द्र की
कोशिश होती है कि वे उन्हें घर जैसा महसूस कराएँ।
बरसाती पानी को सहेजने के प्रयासों में भी कोई संजीदगी नज़र नहीं आती। खाली होते भूजल भंडारों के पुनर्भरण या उनके तर्कसंगत उपयोग की दिशा में हम ज़्यादा आगे नहीं बढ़े हैं। हालांकि अब यह सर्वमान्य है कि रूफ वॉटर हार्वेस्टिंग जैसे उपाय युद्ध स्तर पर करने की ज़रूरत है किंतु धरातल पर बहुत कम काम देखने को मिलता है।
दुपहर खाने के वक्त हम लोग ‘टॉप स्लिप’ पर पहुँच गए थे. टॉप स्लिप वह जगह है जहाँ से किसी समय सागौन के गोलों को पहाड़ की तली तक लुढ़का दिया जाता था. यहाँ सभी निजी वाहनों को खड़ा कर दिया जाता है. इसके आगे जाना हो तो जंगल विभाग से वाहन किराये पर लेना पड़ता है. यहाँ पर्यटकों के लिए आवासीय व्यवस्था भी अच्छी बनी है. रात्रि विश्राम करने वालों को जीप भी किराये से मुहैया करायी जाती है. यहाँ आनेवाले पर्यटक दो प्रकार के हैं; एक ऐसे जो पिकनिक या मौज मस्ती के लिए आते हैं और दूसरे, गंभीर किस्म के जो इन जंगलों/वन्य प्राणियों का बारीकी से अध्ययन करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का यहाँ आना पूर्व नियोजित रहता है. वे पहले से ही जंगल में कॉटेज, वाहन आदि आरक्षित करा लेते हैं. हम तो पहली श्रेणी के थे. वहाँ के सूचना केंद्र से पूछ ताछ करने पर पता चला कि जंगल में भ्रमण के लिए बस की व्यवस्था तो है परन्तु आवश्यक संख्या में पर्यटकों के न होने से उस दिन वह सेवा बंद थी. विकल्प के तौर पर हाथी की सवारी की जा सकती थी, परन्तु वे अभी जंगल से पहली या दूसरी फेरी कर लौटे नहीं थे. एक हाथी के लिए 400 रुपये देय था. हम लोगों ने एक हाथी के लिए पर्ची कटवा ली. वहाँ एक कैन्टीन भी थी और जंगल महकमे के कर्मियों के लिए आवास भी बने थे. अब क्योंकि भूख को तो लगना ही था, हम लोगोंने कैन्टीन का सदुपयोग किया.
कैन्टीन के पिछवाड़े कई शूकर घूम रहे थे. हमारे भाई को थोडा अचरज हुआ. सीधे पुनः सूचना केंद्र में बैठे रेंजेर महोदय से पूछा गया कि वे शूकर क्या जंगली थे. उसने संजीदगी से कहा, मजाक न समझें, वे वास्तव में जंगली ही हैं. यहाँ खाने को आसानी से मिल जाता है इसलिए वे निडर होकर चले आते हैं. हमने भी अपना कौतूहल दूर किया और जाना कि उस जंगल में ३५० से अधिक हाथी हैं और शेरों की संख्या १८ हैं. इसके अतिरिक्त, तेंदुए, चीतल, साम्भर, गौर, मेकाक बन्दर आदि भी बड़ी संख्या में हैं. पक्षियों की तो बहुत सारी प्रजातियाँ हैं. यह भी जानकारी मिली कि जंगल विभाग का ही एक बाड़ा है जिसमें 100 के लगभग हाथी रहते हैं. उन्हें सुबह छोड़ दिया जाता है और वे जंगल में भ्रमण कर शाम तक अपने डेरे में पहुँच जाते हैं. उन्हें देखना हो तो सुबह आना पड़ता है.
छत्तीसगढ़ में पारम्परिक खेलों के विकास से सम्बन्धित वर्णन तब तक अपूर्ण
है,
जब तक ऐसे खेलों का
उल्लेख न हुआ हो जिनमें गीत का प्रचलन हो। उन्हें हम खेलगीत कहते है। फुगड़ी, भौंरा, खुडुवा, अटकन-मटकन, व पोसम-पा ऐसे लोक खेल हैं, जो गीत के कारण लोक साहित्य में अपना
विशेष स्थान बना लिए हैं:
विशेष पर्व में गेड़ी तथा मटकी फोर के प्रचलन मिलते हैं, उसी तरह वर्षा ऋतु में फोदा का। शीत ऋतु
में उलानबांटी का और ग्रीष्म ऋतु में गिल्ली-डंडा की लोकप्रियता बढ़ जाती है।
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में लोक खेलों के सर्वाधिक स्वरूप सामूहिक हैं, किन्तु एकल रुप में भी उलानबाटी चरखी व
पानालरी का तथा दलगत में पतारीमार, अल्लगकूद, पिट्टूल, गिल्लीडंडा तथा भिर्री खेल का प्रचलन
मिलता है।