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Aug 1, 2025

उदंती.com, अगस्त - 2025

वर्ष -18, अंक - 1


कोई रंग नहीं होता बारिश के पानी का, 

लेकिन जब बरसता है,

 सारे ब्रम्हांड को रंगीन बना देता है।  


इस अंक में

अनकहीः सिर्फ एक स्कूल भवन नहीं गिरा, पूरी व्यवस्था ढह गई - डॉ. रत्ना वर्मा

शौर्य गाथाः कैप्टन केशव पाधा के जज्बे को सलाम  - शशि पाधा

आलेखः देश विभाजन की त्रासदी - प्रमोद भार्गव

लघु संस्मरणः वास्तविक शिक्षण - जैस्मिन जोविअल

रेखाचित्रः भेरूदादा - ज्योति जैन

कविताः सच्चा दुभाषिया - निर्देश निधि

हाइबनः नदी का दर्द - डॉ. सुरंगमा यादव

साक्षात्कारः प्रेरणा देती हैं विज्ञान कथाएँ - डॉ. जयंत नार्लीकर - चक्रेश जैन

लघुकथाः कुछ नहीं खरीदा  - सुदर्शन रत्नाकर

हाइकुः मेघ चंचल  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जीव-जगतः कुदरत को सँवारती तितलियाँ - डॉ. पीयूष गोयल

क्षणिकाएँ-  1. बताना ज़रा...  - हरकीरत हीर

चार लघुकथाएँ-  1. पगड़ी की आख़िरी गाँठ....  - जयप्रकाश मानस

प्रेरकः आपन तेज सम्हारो आपे  - प्रियंका गुप्ता

तीन बाल कविताएँ-  1.बोझ करो कम... - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

व्यंग्यः श्रद्धांजलि की बढ़ती सभाएँ  - अख़्तर अली

कविताः रूठ गईं हैं फुर्सतें - निर्देश निधि

कहानीः सौगात  - सुमन कुमावत

कविताः आँखों की बातें - अंजू निगम

किताबेंः अक्षरलीला- लघु छंद में विराट अनुभूति - रश्मि विभा त्रिपाठी

जीवन दर्शनः डॉ. अब्दुल कलाम: मानवता की मिसाल - विजय जोशी

अनकहीः सिर्फ एक स्कूल भवन नहीं गिरा, पूरी व्यवस्था ढह गई

डॉ. रत्ना वर्मा 

झालावाड़ जिले में एक सरकारी स्कूल की छत ढहने से सात मासूम बच्चों की जान चली गई। यह खबर सिर्फ एक हादसा नहीं है - यह पूरे देश की व्यवस्था पर एक गहरी चोट है। दिल दहल जाता है- यह सोचकर कि एक स्कूल, जो बच्चों के भविष्य की नींव होना चाहिए, वह उनकी कब्रगाह बन गया।

राजस्थान के झालावाड़ के सरकारी स्कूल के भवन ढहने से हुई बच्चों की मौत ने बहुत गहरे तक व्यथित तो किया ही, यह सोचने पर विवश भी किया कि इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जाए- शासन- प्रशासन को, व्यवस्था को या भवन- निर्माण करने वाले ठेकेदारों को? गंभीर सवाल यह है कि अगर भवन पुराना जर्जर  या कमजोर था, तो वहाँ स्कूल क्यों चल रहा था । यह केवल एक स्थानीय समाचार नहीं था, यह पूरे राष्ट्र के लिए एक चेतावनी थी। इस घटना ने केवल कुछ परिवारों की दुनिया नहीं उजाड़ी; बल्कि पूरी व्यवस्था को आईना दिखाया है, एक ऐसा आईना जिसमें प्रशासनिक लापरवाही, राजनैतिक उपेक्षा और संवेदनहीन तंत्र का कुरूप चेहरा साफ दिखाई देता है। 

हर बार की तरह, हादसे के तुरंत बाद प्रशासन सक्रिय हुआ। पाँच शिक्षकों और कार्यवाहक प्रधानाध्यापक को निलंबित किया गया। सभी सरकारी भवनों का तत्काल ऑडिट कराने के निर्देश दिए गए। तकनीकी रिपोर्ट देने के लिए विशेषज्ञ समिति गठित की गई और जर्जर भवनों को खाली कराने तथा छात्रों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर पढ़ाई की बात कही गई। और अंत में मृतकों के परिजनों को मुआवजा, नए भवन मृतक बच्चों के नाम पर करने जैसी बातें करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली । यानी वही सब कुछ जो हर त्रासदी के बाद की जाती है। 

लेकिन सवाल यह है  कि केवल निलंबन, जाँच और मुआवजा ही समाधान है? क्या जिन बच्चों की जान गई, उनके माता-पिता कभी इस दर्द से उबर पाएँगे? क्या कुछ लाख रुपये उनकी कोख उजड़ने की पीड़ा को भर सकते हैं? सच बहुत कड़वा होता है - दरअसल, असली दोषी वे अधिकारी हैं, जो शिकायतों पर कान नहीं देते, वे राजनेता हैं, जो फीता काटने और फोटो खिंचवाकर प्रचार- प्रसार के लिए स्कूलों का उद्घाटन तो करते हैं; लेकिन मरम्मत के नाम पर फंड देने से करतराते हैं, और वे ठेकेदार हैं, जो खराब गुणवत्ता वाली निर्माण- सामग्री का उपयोग करके बच्चों की ज़िंदगी से खेलते हैं। जिस देश में करोड़ों रुपये से वीआईपी गेस्ट हाउस, एयरपोर्ट लाउंज, और मंत्रियों के बंगले रोज़ चमकाए जाते हैं, वहाँ बच्चों के लिए एक मजबूत स्कूल- भवन बनाना क्या इतनी बड़ी चुनौती है?

इस तरह की घटनाओं से निपटने के लिए अब वक्त आ गया है कि हम खोखली राजनीतिक बयानबाजी और कागजी कार्यवाही से ऊपर उठ कर बात करें- यह नियम बनें कि हर सरकारी स्कूल भवन का वार्षिक ऑडिट अनिवार्य हो।। स्कूल भवनों की मरम्मत और रखरखाव के लिए अलग बजट हो, और उसमें पारदर्शिता हो। शिकायतों को नजरअंदाज करने वाले अधिकारियों के सिर्फ निलंबन से काम नहीं चलेगा; बल्कि उनपर सख्त कानूनी कार्रवाई हो। बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं को अपराध मानते हुए एफआईआर दर्ज की जाए। सबसे महत्त्वपूर्ण ग्राम पंचायत और स्थानीय समुदाय को विद्यालय भवन निरीक्षण में सहभागी बनाया जाए और उनकी शिकायतों की सुनवाई हो। 

अगर समय पर भवन का निरीक्षण होता, मरम्मत की जाती, शिकायतों पर कार्रवाई होती-  तो हादसा होता ही नहीं। जाहिर है बच्चों की मौत किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं हुई, यह एक मानव-निर्मित त्रासदी है, और इसके लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए। 

एक बात जो सबसे ज़्यादा चुभती है, वह यह कि हमारे देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चलती है। एक तरफ हैं निजी स्कूल, जिनकी ऊँची-ऊँची इमारतें हैं, एसी क्लासरूम हैं, खेल मैदान, लाइब्रेरी, डिजिटल स्मार्ट बोर्ड और मोटी फीस। । वहाँ वे बच्चे पढ़ते हैं, जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं। दूसरी तरफ़ हैं- ऐसे सरकारी स्कूल, जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं। जहाँ न टेबल-कुर्सियाँ होती हैं, न पर्याप्त शिक्षक, न खेल का मैदान, न शौचालय और कई जगह तो पक्की छत भी नहीं होती। 

सबसे बड़ा सवाल यही है कि इन दोनों व्यवस्थाओं की अनुमति कौन देता है? हमारा शासन – प्रशासन ही न ? जो एक तरफ़ निजी शिक्षा को बढ़ावा देता है और दूसरी तरफ़ सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के लिए कोई प्रयास ही नहीं कता।  ऐसा लगता है हम यह मान चुके हैं कि गरीब के बच्चों को बस नाम के लिए शिक्षा चाहिए,  वह भी जान की कीमत पर?

यह सोचना भी एक बड़ी भूल होगी कि यह हादसा सिर्फ़ झालावाड़ का है। सच तो यह है कि देश भर के हजारों सरकारी स्कूल जर्जर भवनों में चल रहे हैं, जहाँ छतें टपकती हैं, दीवारें दरकती हैं और जहाँ शौचालय, पीने का पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ तक नहीं हैं। देश के दूरदराज के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, और जो होते हैं वे भी शिक्षा छोड़कर प्रशासनिक कामों में उलझे रहते हैं। नतीजा एक खोखली होती शिक्षा व्यवस्था, और उसमें दम तोड़ते बच्चों के सपने।

पर अब भी समय है कि हम जागरूक बनें अपने अधिकारों के लिए, लड़ें अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए । हमें आगे आना होगा और सवाल उठाना होगा और इस तरह की लापरवाहियों के जिम्मेदार लोगों  से जवाब माँगना  होगा; क्योंकि बच्चों की मौत पर चुप रह जाना, सिर्फ़ संवेदनहीनता नहीं, एक सामूहिक अपराध है।

शौर्य गाथा- कैप्टन केशव पाधा के जज्बे को सलाम

असम्भव शब्द किसी सैनिक के शब्द कोश में नहीं होता

  -  शशि पाधा

ये  किस मिट्टी से बने हैं ? क्या इनके संकल्प, जुनून और देश भक्ति के जज़्बे का कोई मापदंड हो सकता है ? क्या कोई पर्वत, सागर, जंगल या गोलियों की बौछार इनकी राह रोक सकते हैं ? क्या कोई ऐसा अभियान है जिसे कोई  सैनिक ‘असम्भव’ कह सकता है? - शायद नहीं।

‘असम्भव’ शब्द  किसी भी सैनिक के कर्म-धर्म  के शब्द कोश में लिखा ही नहीं गया है। जब भी  मातृभूमि की रक्षा की घड़ी आती है तो वह पूरी निष्ठा और संकल्प  के साथ अपना सैनिक धर्म निभाता है। उस समय  कोई भी विपरीत परिस्थिति उसका मार्ग नहीं रोक सकती।  

भारतीय सेना के पराक्रम और शौर्य की अनगिनत कहानियाँ इतिहास के पन्नों में लिखी जा चुकी हैं। इन्हें  जब भी पढ़ें,  तो गर्व से सर ऊँचा भी हो जाता है और कृतज्ञता के उद्दात भाव से नत मस्तक भी। इन्हीं रणबाँकुरों में से एक  सैनिक के दृढ़ निश्चय की गौरव गाथा को  पाठकों के साथ साझा करते हुए मुझे असीम गर्व  की अनुभूति हो रही है। 

भारतीय सेना की महत्त्वपूर्ण  पलटन 9 पैरा कमांडोज़  (जो अब  स्पेशल फोर्सेस के नाम से जानी जाती है)  उन दिनों जम्मू के पास जिन्द्राह गाँव के पहाड़ी इलाके में तैनात थी। वर्ष 1971 में भारत-पाक सीमाओं पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। शत्रु कभी भी आक्रमण का दुस्साहस कर सकता था। इसी लिए सैनिक नीतियों  के अनुसार इस विशेष  कमांडो पलटन को अक्तूबर माह में ही सीमा क्षेत्र में अपने मोर्चे स्थापित करने की आज्ञा मिल चुकी थी।

पलटन की एक टुकड़ी, ‘अल्फा ग्रुप’ जम्मू के पास के सीमा क्षेत्र छम्ब सेक्टर में  तैनात थी। युद्ध कब आरम्भ होगा, इसकी पहल कौन करेगा, इसका तो किसी को भी पता नहीं था। लेकिन एक बात तो निश्चित थी कि युद्ध अब टलेगा नहीं। सीमा पर बसे आस-पास के गाँव खाली हो चुके थे और भारतीय सैनिकों ने सीमा रेखा के पास के सुरक्षित स्थानों पर  बंकर/ मोर्चे  खोदकर अपने रहने का स्थान बना लिया था। पास के गाँव के एक स्कूल के कमरे में रसोई  भी बन गई थी | युद्ध की तैयारियाँ, योजनाएँ और विकल्प आदि के लिए सैनिक अधिकारी लगभग हर रोज़ ही किसी न किसी सुरक्षित स्थान पर मुलाकात करते थे।

 इसी बीच नवम्बर के अंत में इस पलटन के अधिकारी  कैप्टन केशव पाधा गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें इलाज के लिए जम्मू के सैनिक हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया। उनका बुखार बहुत तेज रहता था और इसके कारणों का पता नहीं चल रहा था। पलटन एक परिवार की तरह होती है और उसका कमान अधिकारी एक पिता/संरक्षक  की तरह हर सदस्य के कुशल क्षेम के प्रति चिंतित रहता  है। इसी भावना से प्रेरित होकर पलटन के कमान अधिकारी जनरल सभरवाल  3 दिसंबर, 1971 की सुबह जम्मू हॉस्पिटल में केशव से मिलने और वहाँ के डॉक्टरों से उनका हाल-चाल जानने के लिए आए। 

तेज़ बुखार से पीड़ित होते हुए भी केशव ने जनरल सभरवाल से कहा, “सर, मुझे अपनी बीमारी  की कोई चिंता नहीं है। इस समय  मेरी पलटन को मेरे जवानों को मेरी आवश्यकता है। कर्तव्य की इस घड़ी में मैं पलटन से दूर कैसे रह सकता हूँ। आप डॉक्टर से कहकर मुझे हॉस्पिटल से छुट्टी दिलवा दीजिए और अपने साथ ले चलिए। मैं वहाँ अपने साथियों के बीच रहूँगा तो जल्दी ठीक हो जाऊँगा।”

जनरल सभरवाल ने उनकी हालत देखी और बड़े स्नेह से कहा, “वहाँ चिकित्सा का कोई बंदोबस्त नहीं है। थोड़ा- सा भी आराम होते ही आप वापिस आ जाना। अभी युद्ध तो हो नहीं रहा।”

उनकी बात सुनकर केशव कुछ निराश तो हुए; लेकिन और कोई विकल्प ही नहीं था। डॉक्टर उन्हें जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे ।

‘अभी युद्ध तो हो नहीं रहा’- यह सुबह की बात है और उसी शाम लगभग 6:30 बजे पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों ने जम्मू के हवाई अड्डे और आस- पास के सीमा क्षेत्र के पास बम गिराने शुरू कर दिए। जम्मू का हवाई अड्डा हॉस्पिटल के इतने पास था कि लगता था जैसे जहाजों से गिराये गोले वहीं पर गिर रहे हों | लगभग पाँच मील दूर तवी नदी पर बना एक मात्र पुल था, जो पूरे भारत को जम्मू कश्मीर, लेह लद्दाख से जोड़े रखता था। शत्रु के लिए यही  मुख्य लक्ष्य थे और पाकिस्तान के लड़ाकू विमान बार-बार उन पर हमला कर रहे थे।

 चारों ओर से सायरन की आवाजें और गोला-बारूद के धमाकों का शोर जम्मू के आकाश को भेदने लगा। 

 केशव बहुत देर तक  सैनिक हॉस्पिटल के कमरे में बड़ी बेचैनी से चक्कर काट रहे थे। 

सैनिक अधिकारी की ट्रेनिंग का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह भी है  कि वह  युद्ध के समय अपने सैनिकों का नेतृत्व करे। केशव भी उस घड़ी अपने अल्फा ग्रुप के जवानों के साथ मिलकर भारत की सीमा से शत्रु को खदेड़ने के लिए तत्पर थे। लेकिन, उनकी गंभीर हालत में हॉस्पिटल के नियम उन्हें जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। 

उस समय केशव अपने आप को बहुत असहाय महसूस कर रहे थे। उनका सहायक कमांडो जगत राम भी,  जिसे पलटन में ‘फाइटर’ के नाम से पुकारा जाता था, उनके साथ कमरे के अन्दर-बाहर चक्कर काट  रहा था। दोनों के मन में एक ही जज्बा था कि कैसे जाकर अपने साथियों के साथ मोर्चा  सँभालें। उनका कर्तव्य उन्हें बुला रहा था और वह इसे पूर्ण करने का मार्ग ढूँढ रहे थे।

युद्ध शुरू होने के बाद लगभग आधी रात हो चुकी थी। केशव ने फाइटर से कहा,  “अब मैं और नहीं रुक सकता। जाओ, बाहर देखो कि क्या कोई यहाँ से निकलने का रास्ता है। क्या बाहर कोई टैक्सी या गाड़ी मिल सकती है?”

 सुरक्षा के कारण से वहाँ से निकलने के सारे रास्ते बंद थे। सड़क पर  कोई गाड़ी नहीं चल रही थी। कुछ देर के बाद फाइटर ने आकर कहा, “ साहब, बाहर एक एम्बुलेंस अभी-अभी सीमा क्षेत्र से घायल सैनिकों को लेकर आई है।  मुझे पता चला है कि कुछ ही देर में  यह गाड़ी पुन: अखनूर तक जा रही है।”

9 पैरा जिस युद्ध क्षेत्र में तैनात थी, अखनूर शहर की छावनी उसी मार्ग में स्थित थी| केशव ने बिना समय गँवाए जल्दी से हॉस्पिटल के कमान अधिकारी के  लिए  एक कागज़ पर छोटा सा नोट लिखा।  उन्होंने लिखा- ‘मेरी पलटन, मेरे जवान इस समय सीमा पर मोर्चे सँभाले हुए हैं । मेरा यही कर्तव्य है कि मैं युद्ध के समय अपनी टीम के  साथ रहूँ। इस लिए मैं आपकी आज्ञा के बिना, अपनी जिम्मेवारी पर हॉस्पिटल छोड़कर सीमा क्षेत्र की ओर जा रहा हूँ।’

कागज़ पर लिखा यह नोट उन्होंने अपने कमरे के टेबल पर रख दिया और रात के अँधियारे में अपने सहायक के साथ बाहर खड़ी एम्बुलेंस में जा बैठे।

 यह गाड़ी उन्हें जम्मू से अखनूर तक ले आई। केशव की टीम उस स्थान से लगभग एक घंटे की दूरी पर ‘छम्ब सैक्टर’ में  तैनात थी। उस  समय  कोई भी वाहन सीमा क्षेत्र की ओर नहीं जा रहा था। यह दोनों कुछ मील पैदल चलते रहे। थोड़ी देर बाद इन्हें एक ट्रक दिखाई दिया जो ‘छम्ब सेक्टर’ की ओर गोला बारूद लेकर जा रहा था। उस ट्रक ने इन्हें युद्ध क्षेत्र से लगभग एक मील दूर सड़क पर उतार दिया| 

उस समय दोनों ओर से अँधाधुँध गोलियों की बौछार चल रही थी। घोर अँधेरे में भी केशव को अपने ग्रुप के मोर्चों के सही स्थान का अनुमान था। इनकी पलटन के ‘अल्फा ग्रुप’ के सैनिक  छ्म्ब क्षेत्र में बहने वाली ‘मुनाव्वर तवी’ के किनारे बनाये गए  मोर्चों से प्रहार कर शत्रु को सीमा लाँघकर इस पार आने से रोकने का यथा सम्भव प्रयत्न कर रहे थे। दोनों ओर से गोलियों की बौछार को झेलते हुए केशव और फाइटर उस रात अपने ग्रुप के साथ आ मिले। केशव ने जैसे ही मोर्चे  में प्रवेश किया, वहाँ बैठे कैप्टन मकेरियस और बाकी जवान इन्हें देखकर खुशी से उछल  पड़े और सब आपस में  गले मिले। आखिर बरसों से साथ निभाने का संकल्प जो लिया था इन सब ने।

उस दिन और पूरी रात  घमासान युद्ध हुआ। छम्ब क्षेत्र का यह अभियान बहुत महत्त्वपूर्ण था। अगर शत्रु पक्ष इस क्षेत्र को जीत लेने में सफल हो जाता तो उनका अखनूर तक पहुँचने का मार्ग आसान हो जाता। अखनूर छावनी के रास्ते शत्रु जम्मू और पुंछ आदि सीमा क्षेत्रों तक आसानी से पहुँच सकता था। शत्रु बार-बार युद्ध रणनीति बदल-बदलकर चारों और से इस क्षेत्र को जीतने का प्रयास कर रहा था।  हर बार उनके इस हमले को हमारे शूरवीर सैनिकों ने बड़ी बहादुरी से रोका और उन्हें खदेड़ने में सफल भी हुए। इसी मुठभेड़ में पाकिस्तानी टेंकों के गोले इनके मोर्चे के इतने आस-पास गिरे कि मोर्चा टूटकर ढह  गया। मिट्टी के ढेर में दबे हुए  केशव, मकेरियस और अन्य  सैनिक देर तक उस घुप अँधेरे और मिट्टी की परतों में एक दूसरे को टटोलते रहे।  केवल  इस बात से आश्वस्त होने के लिए कि सब साथी सुरक्षित और जीवित हैं। 

 इस अभियान में शत्रु पक्ष के बहुत से सैनिकों की जान गई। बहुत से सैनिकों को बंदी भी बनाया गया। इस  युद्ध में 9 पैरा कमांडोज़ के ‘अल्फा ग्रुप’ के दो जवान वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ गंभीर रूप से घायल हुए; लेकिन हमारे शूरवीर योद्धाओं ने अपनी मातृभूमि पर शत्रु को पैर तक नहीं रखने दिया और हर क्षेत्र  में उन्हें परास्त किया।

दो दिन और दो रात से लगातार युद्ध चल रहा था। इसी बीच पलटन के कमान अधिकारी सैनिकों की खोज खबर लेते हुए  इनके मोर्चे तक पहुँचे। वहाँ  केशव को  देखते ही  हैरान रह  गए और पूछने लगे , “आप कैसे यहाँ पहुँचे?”

केशव का माथा छूकर कहा, “आपको तो अभी भी तेज़ बुखार है। हॉस्पिटल से छुट्टी कैसे मिली?”

 कैप्टन केशव ने बड़े संयत स्वर में संक्षिप्त- सा उत्तर दिया, “सर! मैं अपने को रोक नहीं सकता था।”

इनके कंधे पर हाथ रखकर कमान अधिकारी ने केवल यही कहा, “सही निर्णय लिया है आपने।”

गीता में  महाभारत के युद्ध के समय श्री कृष्ण ने अर्जुन से  कहा था -

“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।”

भगवान् कृष्ण के उद्बोधन के ये  शब्द प्रत्येक सैनिक के जीवन का मूल मन्त्र है और हर परिस्थिति में उनमें ऊर्जा का संचार करते हैं। समय कोई भी हो, कोई भी युद्ध हो, भारत की सेना का प्रत्येक शूरवीर  सैनिक देश रक्षा के अपने दृढ़ निश्चय और संकल्प से कभी विमुख नहीं होता।

कैप्टन केशव के इस साहसिक और अनुकरणीय निर्णय का उल्लेख भारतीय सेना की वीरता से सम्बन्धित पुस्तक ‘Killer Instinct’ में भी उद्धृत है। सैनिक शिक्षा संस्थानों में भी इस घटना को प्रेरक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत  किया जाता है।

9 पैरा स्पेशल फोर्सेस में सेवाएँ  देने के बाद केशव ने 1 पैरा स्पेशल फोर्सेस की कमान सँभाली। मेजर जनरल का  पद पाकर, सेवानिवृत्त होने से पहले इन्होंने कमांडर स्पेशल फोर्सेस का पदभार भी सँभाला । जनरल केशव को  भारतीय सेना में उल्लेखनीय सेवाएँ  देने के लिए राष्ट्रपति की ओर से ‘अति विशिष्ट सेवा मैडल’ और ‘विशिष्ट सेवा मैडल’ से अलंकृत किया गया। भारत-पाक युद्ध के 50 वर्ष पूरे होने पर आज़ादी के अमृत महोत्सव से सम्बन्धित लेखों में भारत के प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’  (दिनांक 13  सितम्बर, 2021) के मुख पृष्ठ पर वर्ष 1971 के युद्ध की इस घटना का विशेष उल्लेख किया गया।

9 पैरा स्पेशल फोर्सेस ने वर्ष 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक करके पाकिस्तान के क्षेत्र में घुसकर आतंकवादियों के ट्रेनिंग कैम्प बर्बाद किए  थे। यह भारतीय  सेना की एकमात्र  पलटन है , जो अदम्य साहस और शौर्य के प्रतीक  ‘अशोक चक्र’ से  चार बार अलंकृत है।

आलेखःदेश विभाजन की त्रासदी

  - प्रमोद भार्गव

स्वतंत्रता संघर्ष के बीच महात्मा गांधी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा था कि अगर कांग्रेस बंटवारे को स्वीकार करना चाहती है तो उसे मेरी लाश के ऊपर से गुजरना होगा। जब तक मैं जीता हूँ, मैं कभी भी हिन्दुस्तान का बँटवारा स्वीकार नहीं करूँगा और जहाँ तक मेरा वश चलेगा, कांग्रेस को भी स्वीकार नहीं करने दूँगा। अलबत्ता ऐसा एकाएक क्या हुआ कि जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल को बँटवारे के समर्थन में खड़े होना पड़ गया। लार्ड माउंटबेटन से पहली मुलाकात में ही गांधी उनके वाग्जाल की गिरफ्त में ऐसे आए कि उनकी ‘प्राण जाए, पर वचन न जाए' की वचनबद्धता भंग हो गई। कांग्रेस मुस्लिम अलगाववाद के आगे घुटने टेकती चली गई। नतीजतन 'भारत और पाकिस्तान स्वतंत्रता अधिनियम' पर ब्रिटिश संसद में मोहर लगा दी गई। ब्रितानी हुकूमत में औपनिवेशिक दासता झेल रहे अखंड भारत को विभाजित कर दो स्वतंत्र देश बनाकर पृथक्-पृथक् सत्ता का हस्तांतरण करने का निर्णय ले लिया। संपूर्ण सत्ता सौंपने का दिन 14 अगस्त 1947 निश्चित किया। यह दिन भी एक तरह से दोनों देशों के स्वतंत्रता सेनानियों को चिढ़ाने की दृष्टि से मुकर्रर किया गया; क्योंकि इसी दिनांक को जापान मित्र देशों के समक्ष आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुआ था। 

बंगाल का विभाजन

अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने की दृष्टि से बंगाल-विभाजन एक ऐसा षड्यंत्रकारी घटनाक्रम रहा, जो भारत विभाजन की नींव डाल गया। इस बँटवारे के फलस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसी उग्र जन-भावना फूटी की बंग-भंग विरोध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। दरअसल जब गोरी पलटन ने समूचे भारत को अपनी अधीनता में ले लिया, तब क्रांतिकारी संगठनों और विद्रोहियों के साथ कठोरता बरतने के लिए 30 सितंबर 1898 को भारत की धरती पर वाइसराय लार्ड कर्जन के पैर पड़े। कर्जन को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ले रहे क्रांतिकारियों के दमन के लिए भेजा गया था। इस संग्राम पर नियंत्रण के बाद फिरंगी इस बात को लेकर चिंतित व सतर्क थे कि कहीं इसकी राख में दबी चिंगारी फिर न सुलग पड़े। क्योंकि अंग्रेज भली भाँति जान गए थे कि 1857 का सिलसिला टूटा नहीं है। अंग्रेजों को यह भी शंका थी कि कांग्रेस इस असंतोष को पनपने के लिए खाद-पानी देने का काम कर रही है। कर्जन ने अंग्रेजी सत्ता के संरक्षक बने मुखबिरों से ज्ञात कर लिया कि इस असंतोष को सुलगाए रखने का काम बंगाल से हो रहा है। वाकई स्वतंत्रता की यह चेतना बंगाल के जनमानस में एक बेचैनी बनकर तैर रही थी। यह बेचैनी 1857 के संग्राम जैसे रूप में फूटे, इससे पहले कर्जन ने कुटिल क्रूरता के साथ 1905 में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। जबकि इस बंग-भंग का विरोध हिंदू और मुसलमानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर किया था। इस बँटवारे का मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल इलाके को बंगाल कहा गया। अर्थात जिस भूखंड पर हिंदू-मुस्लिम संयुक्त भारतीय नागरिक के रूप में रहते चले आ रहे थे, उनका मानसिक रूप से सांप्रदायिक विभाजन कर दिया। इस विभाजन से सांप्रदायिक भावना की एक तरह से बुनियाद डाल दी गई, वहीं दूसरा इसका सकारात्मक परिणाम यह निकला कि पूरे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया। यानी फिरंगी-सत्ता के विरुद्ध एक जुटता ने देशव्यापी उग्र भावना का संचार अनजाने में कर दिया। लेकिन कर्जन ने इसे कुटिल चतुराई से मुस्लिम लीग की स्थापना में बदल दिया।

मुस्लिम लीग की स्थापना

कर्जन की दुर्भावना की चालाकी व रहस्य तत्काल तो बंग-भंग के रूप में ही नजर आई, लेकिन वास्तव में पूर्वी बंगाल की लकीर खींच देने का अर्थ मुसलमानों में ऐसी भावना जगाना भी था, जो उन्हें हिंदुओं के विरुद्ध एकजुट करने का काम करें। इस कुटिल दृष्टि के चलते कर्जन ने मुसलमानों में मुगल बादशाहों, जमींदारों और जागीरदारों के जमाने को बहाल करने का लालच दिया। यही नहीं कर्जन ने अपने वाक्चातुर्य से ढाका के नवाब सलीमुल्ला को बंगाल विभाजन का समर्थन और अचानक उदय हुए स्वदेशी आंदोलन का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया। सलीमुल्ला कर्जन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सक्रिय होकर कुछ नवाबों को बरगलाकर दिसबंर 1906 में ‘मुस्लिम लीग’ संगठन खड़ा कर दिया। स्वदेशी आंदोलन को विफल करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने सलीमुल्ला के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच संप्रदाय के आधर पर दंगे भड़काने का काम भी शुरू कर दिया। यहीं से हिंदुओं की हत्या करने और उनकी संपत्ति लूटने व हड़पने का सिलसिला शुरू हो गया।

इस दुर्विनार स्थिति के निर्माण होने पर ब्रिटिश पत्रकार एच डब्ल्यू नेविंसन ने ‘गार्जियन’ अखबार में लिखा भी’, ‘ब्रिटिश न्यायिक अधिकारी जानबूझकर हिंदुओं पर अत्याचार के साक्ष्यों को नजरअंदाज करते हैं और मुस्लिमों के कथन पर एक तरफा यकीन करते हैं।’ इस खबर पर लंदन में ब्रिटिश संसद के सदस्य सीजी ओ डेनल ने गंभीरता से लेते हुए हाउस ऑफ कामंस में कहा, ’क्या मैं जान सकता हूं कि अपनी संपत्तियों को उनके धर्म के आधार पर बाँटने की नीति का हिस्सा बन गई है ?’ तब तक भारत में कर्जन की जगह लेने के लिए लार्ड मिंटो को भारत भेज दिया गया। मिंटो ने आने के साथ ही ‘फूट डालों और राज करो’ की अनीति को पुख्ता कर दिया।

मुस्लिमों के लिए पृथक मतदाता सूची

गवर्नर जनरल और वायसराय मिंटो ने मुस्लिम पृथक्तावादियों के साथ मिलकर एक नई चाल चली। इसके तहत बंग-भंग विरोध आंदोलन को देश के एक मात्र ‘मुस्लिम-प्रांत’ की खिलाफत के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। नतीजतन मुस्लिम नेता पूरी ताकत से बँटवारे के समर्थन में आ खड़े हुए। इसी समय आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मिंटो से शिमला में मिला और मुस्लिमों के लिए पृथक् ‘मतदाता सूची’ बनाए जाने की माँग उठा दी। मिंटो इस मंशा पूर्ति के लिए ही भारत भेजे गए थे कि मुस्लिमों को हिंदुओं के विरुद्ध एक समुदाय के रूप में खड़ा किया जाए। अतएव मिंटो ने नगरपालिकाओं, जिला मंडलों और विधान परिषदों में मुस्लिमों की संख्या आबादी के अनुपात में बढ़ाने की पहल कर दी। यही नहीं मुस्लिमों को महत्त्व ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी के आधार पर भी रेखांकित की गई। मिंटो ने आगा खान को इन बिंदुओं को सुझाया कि इस समय बृहद् बंगाल से काटकर बनाए गए असम सहित पूर्वी बंगाल के 1 लाख 6 हजार 540 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में मुस्लिमों की आबादी 1 करोड़ 80 लाख थी। जबकि हिन्दू मात्र 1 करोड़ 20 लाख थे। इसी कालखंड में हिंदुओं के खिलाफ मुल्लाओं ने घृणित प्रचार की कमान अपने हाथ में ले ली। एक लाल पुस्तिका छापी गई। जिसमें कहा गया – ‘हिंदुओं ने इस्लाम के गौरव को लूटा है। उन्होंने हमारा धन और सम्मान लूटा है। स्वदेशी का जाल बिछाकर हमारी जान लेना चाहते हैं; इसलिए मुसलमानों, हिंदुओं के पास अपना धन मत जाने दो। हिंदुओं की दुकानों का बहिष्कार करो। वह सबसे नीच होगा, जो उनके साथ ‘वंदे मातरम्’ कहे।'

जिन्ना और हिंदू- मुस्लिमों के

 बीच पैदा हुई दरार

इस सब के बावजूद कांग्रेस को उच्च शिक्षित और वकील मोहम्मद अ
ली जिन्ना से समन्यवादी सहयोग की उम्मीद थी। जिन्ना के नेतृत्व में शिक्षित व युवा मुस्लिम सहयोगी बने भी रहे। लेकिन बरतानी हुकूमत के पास हिंदू-मुस्लिम एकता और सद्भावना नष्ट-भ्रष्ट करने की औजार थी। अतएव 1909 में मार्ले-मिंटो सुधारों के अंतर्गत मुस्लिमों के लिए अलग मतदाता सूची की माँग मंजूर कर ली गई। इस पहल ने हिंदु-मुस्लिम एकता की राह में स्थायी दरार उत्पन्न कर दी: क्योंकि विधान परिषद में चुने का यह एक अधिकार था, जिससे पल्ला झाड़ लेना मुस्लिम नेताओं के लिए आसान नहीं रहा। बावजूद जिन्ना, मौलाना अबुल कलाम आजाद और मोहम्मद अली कांग्रेस के साथ रहे। यहाँ तक की गांधी के खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन में दोनों समुदाय कंधा मिलाकर साथ रहे। इस आंदोलन के देशव्यापी प्रभाव से अंग्रेजों को नाको चने चबाने पड़े थे। किंतु चौरा-चौरी में हुई हिंसा के कारण गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। 4 फरवरी 1922 को घटी इस घटना की पृष्ठभूमि में गोरखपुर के चौरा-चौरी के थानेदार ने कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की पिटाई कर दी थी। नतीजतन गुस्साई भीड़ के थाने में आग लगा दी, जिससे 23 पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई थी। हालाँकि तीन आम नागरिक भी मारे गए थे। गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस पर मोतीलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, जिन्ना और चितरंजन दास ने नाराजगी जताई।

कैबिनेट मिशन

6 दिसंबर 1946 ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय शिष्टमंडल भेजा। ये लार्ड लारेंस, स्टेफर्ड क्रिप्स और एवी अलेक्जेंडर थे। इन्हें शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए भेजा गया था। इस मिशन ने कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों से बातचीत की और सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए हिंदू-मुस्लिमों के बीच साझा सत्ता की योजना को मूर्त रूप देना चाहा। इस संवाद में अनेक विरोधाभासी पहलू सामने आए। जिन्ना भारत के साथ रहना तो चाहते थे: लेकिन संविधान में मुसलमानों को विशेष राजनीतिक संरक्षण गारंटी चाहते थे। जिसमें हिंदुओं के साथ बराबरी की माँग प्रमुख थी। यही वह दौर था, जिसमें ठीक दीपावली पर्व के बीच नोआखली में भयंकर सांप्रदायिक दंगे भड़के। मुस्लिम बहुल इलाके में हिंदू नरसंहार, मंदिरों का विध्वंस और आगजनी की दर्जनों घटनाएँ घटी। हिंदू महिलाओं का अपहरण, दुष्कर्म और धर्मांतरण कराकर जबरन विवाह भी रचाए गए। इन घटनाओं से गांधी को जबरदस्त सदमा पहुँचा और शांति के लिए नोआखली पहुँच गए। बहरहाल, कैबिनेट मिशन की शिमला बैठक में कोई कारगर परिणाम नहीं निकला।

भारत विभाजन की अंत:कथा

लार्ड माउंटबेटन इतना चतुर निकला कि उसने विभाजन के लिए जिन्ना, नेहरू, पटेल और यहाँ तक की गांधी को भी मना लिया। भारत को दो स्वतंत्र राष्ट्रों में भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। यही नहीं पंजाब और बंगाल को भी कपड़े की तरह दो टुकड़ों में चीर दिया गया, जिससे भारत हमेशा गृह- कलह की आँच से सुलगता रहे। यह पाकिस्तान के अस्तित्व से भी ज्यादा खतरनाक था। ब्रिटिश अधिकारियों ने जानबूझ कर 652 भारतीय रियासतों की प्रभुसत्ता उन्हें वापस सौंप दी। उन्हें भारत या पाकिस्तान मिल जाने की छूट तो थी ही, स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने की छूट भी दे दी गई थी। अर्थात् भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ विभाजन तो आधा सच है, पूरा सच तो देश के 652 टुकड़े कर देने का है। यह क्षेत्रीयता से कहीं ज्यादा सांप्रदायिक बँटवारा था। यह अलग बात है कि सरदार पटेल की दृढ़ता से इन रियसतों का विलय भारतीय गणतंत्र में हो गया। अतएव 14 एवं 15 अगस्त की मध्यरात्रि को भारत तब स्वतंत्र हुआ, जब दुनिया सो रही थी और सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसा  भारत जन्म लेकर आँख खोल रहा था।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981961100

लघु संस्मरणः वास्तविक शिक्षण

  - जैस्मिन जोविअल

जब मैंने एक टीचिंग आर्टिस्ट के रूप में अपनी यात्रा शुरू की, दिल में उत्साह था: लेकिन दिमाग में ढेर सारी शंकाएँ। पहली जिम्मेदारी मिली- पहली कक्षा के नन्हे बच्चों के साथ, वह भी मदर्स डे से ठीक पहले। मैंने सरल सा काम दिया: “अपनी मम्मी की तस्वीर बनाओ।”

सोचा था, बच्चे फूल, साड़ियाँ, मुस्कानें बनाएँगे।

लेकिन एक छोटी सी लड़की- चश्मा लगाए, दो प्यारी चोटी बाँधे- अपनी ड्राइंग के साथ आई। उसमें एक गौरैया अपने बच्चों को दाना खिला रही थी।

मैंने हैरानी से पूछा, “तुमने अपनी मम्मी की जगह एक चिड़िया क्यों बनाई?”

वह मुस्कराकर बोली, “जानवरों और चिड़ियों की भी तो मम्मी होती हैं। क्या वे मदर्स डे नहीं मना सकतीं?”

उस एक सवाल ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। उस मासूम- सी बच्ची ने जो कहा, उसमें जीवन की गहराई थी- माँ का रिश्ता सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं, वह तो हर दिल की भाषा है।

उस दिन मैंने सिखाया नहीं,  केवल सीखा।

बच्चों की आँखों से दुनिया देखने की कोशिश की।

और जाना कि शिक्षण सिर्फ पढ़ाने का नाम नहीं; बल्कि साथ मिलकर बढ़ने का  नाम है।

 jasminemaggo@gmail.com


रेखाचित्रः भेरूदादा

 - ज्योति जैन

लोग कहते हैं, यादों में चेहरे होते है, या बातें होती है। स्थान होते है, या कोई घटनाएँ  होती है। लेकिन मेरी यादों में इन सबके साथ एक खुशबू भी बसी हुई है और वो खुशबू है माँ की अनुपस्थिति में भेरू के हाथ की गोल-गोल, फूली हुई, सिगड़ी पर सिंकी रोटियों की, भाप की खुशबू।

माँ  के हाथ की रसोई का मुकाबला तो दुनिया का कोई शेफ नहीं कर सकता। लेकिन उसकी अनुपस्थिति में माँ  के समान भाव से ही भोजन कराना, आह..। यही तो भेरू किया करते थे।

भेरू की याद आते ही आँखों के सामने आता है, धुसर रंगों की हॉफ स्लीव शर्ट, गहरे रंगों की पेंट, वो भी पांयचे मुड़े हुए। थोड़े से लंबे...,बिना माँग के..तेल डले भूरे बाल।  लंबा चेहरा,  बालों के ही समान भूरापन लिए हल्की भूरी आँखें, नुकीली भूरी मूँछें,  दन्तपंक्ति कतार में लेकिन तंबाकू के सेवन से पीली।

और हाथ, स्त्री के हाथ के समान कोमल और उतने ही कुशल जितने एक स्त्री के हाथ होते है।, हम बच्चों के लिए जिनके हृदय मे अपार स्नेह भरा हुआ...। ये भेरू थे।

 बरसों पुरानी बात, लेकिन यादें इतनी पुरानी भी नहीं हुई कि धूमिल हो जाए।

मैं कुछ बरस धार अपनी मौसी के यहाँ  रही। मौसाजी और मौसी सरकारी नौकरी में अधिकारी थे, सो नौकरों-चाकरों की कमी नहीं थी। भेरूदादा, बावर्ची सहित सभी कुछ काम करते थे। मैं और मौसी के बच्चे पोचोपाटी स्कूल से आते ही बस्ता हाथ से फेंकते उसके पहले भेरूदादा बस्ता हाथ में ले लेते थे।

"बाई साब...! हाथ धो लो.. मैं थाली परोसता हूँ।" कहते-  कहते वे बुझने की कगार पर पड़ी सिगड़ी की खिड़क़ी खोलकर दो-चार लकड़ी के कच्चे कोयले डालते, हाथ धोकर आते तब तक  थाली परोस देते, घी के तड़क़े वाली तुअर दाल और कभी गवारफली, करेला, लौकी की सब्जी. और सिगड़ी पर फूली गर्म रोटी, आह....क्या स्वाद था।

भोजन करते करते गपियाना  मेरा प्रिय शगल था।

"भेरू दादा... बताओ ना...! आपके घर में बच्चे नहीं हैं क्या..?"

 "हैं ना बाई साब ...!" वह प्रेम से जवाब देते।

" तो वह यहाँ क्यों नहीं रहते ..?" मेरी सहज उत्सुकता होती थी।" और आप यहाँ  हो तो उनके लिए खाना कौन बनाता है..?"

" उनकी माँ बनाती है ना बाई साब...!

उनकी वाणी में हमारे लिए सम्मान की कभी कमी नहीं होती। वे हमेशा बाई साब कहकर ही बोलते.. और बहुत धीरज के साथ हर बात का जवाब देते।

" तो फिर वह यहाँ  क्यों नहीं रहते.. हमारे साथ..?" मेरे सवाल खत्म ही नहीं होते थे।

 मैं कहने को तो कह दिया करती थी। लेकिन उनके चेहरे की मुस्कुराहट के पीछे अपने परिवार से दूर रहने की पीड़ा तब नहीं समझ पाती थी।

मौसाजी का सरकारी क्वार्टर था। सरकारी क्वार्टर का, और वह भी अगर अफसर का हो तो उसका अलग ही आनंद रहता है। बड़े कमरे.. ऊँची दीवारें और बाहर जंगला लगा हुआ आँगन।

 उस दिन उस आँगन में  गर्मी की छुट्टियों में हम पकड़म पाटी...लंगड़ी खेलने बाहर आ गए। पीछे पीछे भेरूदादा  चप्पल लेकर दौड़ते--"बाई साब.... चप्पल पहन लो। पाँव जल जाएँगे। साबजी भी गुस्सा होंगे"।

"चप्पल तब पहनेंगे भेरूदादा.. जब आप भी हमारे साथ खेलोगे। मैं ठुनकती।

  "बाई साब खेलूँगा... पहले थोड़ा काम करने दो..।"

 लेकिन बालहठ तो बालहठ होता है। और भेरूदादा  एक पाँव की लँगड़ी से हमारे साथ खेलना शुरू हो जाते। अचरज की बात थी कि हमें चप्पल पहनाने को दौड़ते भेरूदादा  के पाँव में कभी चप्पल नहीं होती थी।

भेरूदादा  की याद आती है तो अपने साथ और कई यादें ले आती है। घर में अभाव लेकिन चेहरे पर अमीरी, ऐसा भाव हम आज नौकरों में देख पाते हैं क्या ? और एक मिनट ...! उन्हें मैं नौकर क्यों कह रही हूँ ? वो तो भेरूदादा थे।

जी हाँ .., भेरूदादा  को घर में कभी नौकर का दर्जा नहीं दिया। मुझे याद है मौसाजी जब उन्हें आवाज देते, भेरूजी कहकर आवाज देते थे। कितना सम्मान का भाव, तब शायद नौकर, नौकर नहीं, घर के एक सदस्य के समान ही होते थे। परिवार की जिम्मेदारियाँ  उन पर भी थी। बच्चे-परिवार उनका भी था, लेकिन मौसी के परिवार के लिए उनका समर्पित भाव उन्हें इस घर का हिस्सा बना देता था।

 जब यादों को खँगालने बैठती हूँ तो पाती हूँ कि वो घर का सबकुछ होने के साथ-साथ हमारे तो सखा भी थे। मुझे याद है खुरदुरी फर्शी पर पेम से अष्ट चंग पे के खांचे तैयार करना। इमली के चिंए निकाल करके उन्हें पानी डालकर फर्शी पर घिसकर पांसे तैयार करना। और घर में से ही अलग-अलग तरह की चीजें या बाहर अलग-अलग तरह के पत्थर निकाल करके गोटियाँ  तैयार करना। ये सारे काम भी तो भेरूदादा  ही करते थे और फिर हम बच्चों के साथ पूरी ईमानदारी के साथ अष्ट चंग पे खेलते और हम बच्चे पूरी बेईमानी से उन्हें हराने पर तुले रहते थे और मजे की बात ये है कि भेरूदादा  हारकर भी खुश होते थे। ये तो फिल्म में अब कहते है कि जीतकर हारने वाले को बाजीगर कहते है लेकिन भेरूदादा तो इतने पुराने बाजीगर थे और हँसते-हँसते जीती हुई बाजी हार जाते थे।

भेरूदादा के काम सीमित नहीं थे बाहर साइकिल पर डब्बा लेकर कुल्फी वाला जाता और हमारे आवाज देते ही दौड़कर उनका जाना, खुल्ले पैसे जो कि मौसाजी उन्हें देकर रखते थे दो-चार आने.. वो ले करके हमारे लिए कुल्फी लाना, प्रेम से बिठाकर खिलाना और मुँह गंदा होने पर बकायदा गीले कपड़े से पोंछना...तब वेट टिशु कहाँ होते थे ...?  

और शाम होते-होते यदि गर्मी का मौसम है तो बाहर ओटले पर पानी छींटना ताकि हमारे नन्हे पैर जलने से बच जाएँ। कहीं थोड़ी दूर तक घुमाने ले जाना ..ये सारे काम भी भेरूदादा खुशी-खुशी करते थे और रात को सोने से पहले कहानी सुनाना भी उन्हीं की तो जिम्मेदारी थी। कई बार छत पर तारों को देखते हुए वो तारों की, चाँद की कहानी सुनाते।

एक बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस तरह से कहानी बना लेता है, ये बातें अब समझ आती है और  सम्मान के साथ-साथ उन पर आश्चर्य करने का मन करता है। कहाँ  से ले आते थे वो इतने विचार? मुझे लगता है अब वो इतने विचार लाते तो क्या एक बड़े लेखक नहीं बन जाते? लेकिन सबकी अपनी नियति होती है। तो भेरूदादा बहुत सुंदर शब्दों में पिरोकर वो सब कहानियाँ सुनाते। उस वक्त तो समझ में नहीं आया, लेकिन अब जब उनकी सारी यादें समेटती हूँ..खंगालती हूँ..तो थैली में से निकले सिक्कों के भांति यादें खनखनाकर नीचे गिरती है, मैं उनको थाम लेती हूँ, उठा लेती हूँ सहेज लेती हूँ और पुन: डोरी वाली कपड़े की थैली में डाल देती हूँ.।

और अब जब मैं बड़ी हो गई हूँ, समझदार तो पता नहीं हुई कि नहीं; लेकिन बड़ी हो गई हूँ ,तो मुझे वह याद सामने आती है जब भेरूदादा  का चेहरा आखिरी बार देखा था।वह अदब से हाथ बांधे मौसाजी के सामने खड़े थे ...घर जाने के लिए छुट्टी माँग रहे थे। मौसाजी अपने धीमे  लेकिन रौबीले लहजे में उन्हें मना कर रहे थे-- "अभी नहीं होगा भेरूजी.. आपको पता है मैं दौरे पर जा रहा हूँ। तीन-चार दिन तो लग जाएँगे। तब तक आप को रुकना होगा।"

" साहब जी बच्चे की तबीयत ...

"हाँ .. हाँ  ..भेरूजी..! हम समझते हैं। मौसाजी ने पूरी बात ही नहीं सुनी। "लेकिन तीन-चार दिन तो आपको निकालना होगे। वहाँ  कुछ व्यवस्था करवा दो। हम दौरे पर से आते हैं तब आपको छुट्टी देंगे।"  मानो फैसला सुना कर मौसाजी तो उठ गए थे। और भेरूदादा बिना अपराध के भी अपराधी के समान सिर झुकाकर खड़े थे। अब समझ में आता है कि गरीब होना भी तो अपराध नहीं था...?

तब इतनी समझ नहीं थी कि भेरूदादा की उस बात की गंभीरता क्या थी..।

 मौसाजी के दौरे पर से आते ही भाई मुझे लेने आ गए थे और मैं वापस मंदसौर चली गई। उस दिन के बाद से भेरूदादा नजर नहीं आए। तब इतनी समझ भी नहीं थी कि उस दिन के बाद क्या हुआ.. पूछा जाए। खेलकूद के दिन थे तो धमाचौकड़ी ही सूझती थी। अगली बार धार गई तो नई केयरटेकर गीता भाभी थी।

लेकिन अब याद करती हूँ तो भेरूदादा का वह आखरी बार देखा चेहरा जेहन में आ जाता है।

 और अब.. जब मैं शायद समझदार हो गई हूँ , तो सोचती  हूँ कि क्या वह देर होने पर भी समय रहते अपने घर पहुँच पाए होंगे..? क्या उनका बच्चा ठीक होगा..? बेतुके सवाल पूछ -पूछ भेरूदादा का माथा खाने वाली मैं इतनी छोटी क्यों थी कि घर के बड़ों से सवाल नहीं कर पाई.. ?  वह सब यादें  और चेहरे अभी भी मेरे घर की दीवारों के आलियों में क्यों सजे हुए हैं...?  पता नहीं ..!

भेरूदादा हमारे मौसाजी के  परिवार के लिए समर्पित थे, उनके परिवार के लिए कौन समर्पित रहता होगा...?

सम्पर्कः 1432/24, नंदानगर, इन्दौर- 452011, मो. 930031812


कविताःसच्चा दुभाषिया

  -  निर्देश निधि

वो जिंदगी भर अपनी भाषा में

दूसरों के शब्द बोलता रहा


हर शब्द को उचित अर्थ की

डिजिटल तराजुओं में 

तोलता रहा

 

अपने शब्दकोशों की तरलताओं को

दूसरों की विचार गंगाओं में

घोलता रहा

 

अपने कुछ शब्द बोलने को

जीवन भर तरसता रहा

 

अपने मन के ज्वार-भाटों से

सिर्फ खुद को ही सचेत किया

 

एक भी शब्द कभी

अपनी मर्जी से

इधर-उधर न किया

 

अपनी पहचान का

शब्द मात्र भी

अपने वजूद की चादर में

कभी न सिया

 

वो तो रहा आजीवन

सिर्फ और सिर्फ

सच्चा दुभाषिया।


हाइबनःनदी का दर्द

  - डॉ. सुरंगमा यादव

बदरीनाथ धाम के लिए हम सब बदायूँ से सुबह सात बजे निजी वाहन से निकले। हल्द्वानी तक तो पहाड़ी और मैदानी रास्तों में अधिक अंतर पता न चला; परन्तु उसके बाद हम जैसे -जैसे ऊपर चढ़ते गए, पहाड़ काटकर बनाए  गए गोल घुमावदार रास्ते रोमांच मिश्रित भय की अनुभूति कराने लगे। जब गाड़ी ओवरटेक होती, तो नीचे गहरी खाई देखकर जान ही सूख जाती। पहाड़ों से बहते हुए झरने दुग्ध की धवल धार से प्रतीत हो रहे थे। मन में सहसा प्रश्न  उठा, अपने  अंतस्तल से निर्मल, शीतल, शुद्ध जलधार प्रवाहित करने वाले पहाड़ों को कठोर क्यों कहते हैं? दूर तक फैले ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर बहते हुए झरनों की पतली धार आँसुओं की सूखी रेखा-सी  प्रतीत हो रहे थे। शायद अपनी ऊँचाई  के कारण एकाकी पहाड़ स्वयं को ही अपना सुख-दुःख सुनाकर हँसते-रोते रहते हैं।  जागेश्वर जी पहुँचते- पहुँचते अँधेरा हो गया। ड्राइवर ने रात्रि में आगे चलने से मना किया, तो हम लोग रात्रि विश्राम के लिए वहीं रुक गए। प्रातः हमने अपनी यात्रा पुनः शुरू की।  दोपहर होते- होते हम उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बदरीनाथ धाम पहुँच गए। अलकनंदा  का जल हल्का हरा रंग लिये हुए इतनी तीव्र गर्जना और वेग के साथ बह रहा था, मानो पहाड़ रूपी पिता के घर से विदा लेते समय मन में भावनाओं का रेला उमड़ पड़ा हो। जल इतना निर्मल कि उसमें पड़े हुए पत्थर भी साफ नजर आ रहे थे। यही पहाड़ी नदियाँ सागर से मिलने की आतुरता में अपने मैदानी सफर में कितनी मलिन हो जाती हैं!

सागर दूर

मैदानों संग नदी

हुई बेनूर।


साक्षात्कारःप्रेरणा देती हैं विज्ञान कथाएँ- डॉ. जयंत नार्लीकर

  - चक्रेश जैन

वर्ष 2008 में डॉ. जयंत नार्लीकर का इंदौर आना हुआ था। तब विज्ञान संचारक चक्रेश जैन ने ‘विज्ञान कथा’ विषय पर उनके साथ भेंटवार्ता की थी। प्रस्तुत है उनकी यह भेंटवार्ता...

सवाल: विज्ञान कथाएँ लिखने की प्रेरणा किससे मिली? 

जवाब: देखिए, प्रेरणा मुझे अपने गुरू फ्रेड हॉयल से मिली है। उन्होंने बहुत अच्छी विज्ञान कथाएँ लिखी हैं। उनकी पहचान एक विख्यात वैज्ञानिक के रूप में भी है। मैंने सोचा कि यदि एक वैज्ञानिक विज्ञान कथाएँ लिखे तो वह लोगों को विज्ञान की वास्तविकताओं के बारे में काफी अच्छी तरह से बता सकता है। 

सवाल: आपकी पहली विज्ञान कथा कौन-सी है? 

जवाब: मेरी पहली विज्ञान कथा ‘कृष्ण विवर’ (ब्लैक होल) थी। यह मैंने मराठी में लिखी है। मुम्बई की मराठी विज्ञान परिषद ने एक कथा प्रतियोगिता आयोजित की थी। इसमें मैंने अपनी विज्ञान कथा भेज दी। मैं यह नहीं चाहता था कि आयोजकों पर मेरी लोकप्रियता का प्रभाव पड़े। इसलिए मैंने एक नकली नाम नारायण विनायक जगताप चुना। शायद वे मेरी हैंडराइटिंग से परिचित होंगे, ऐसा सोचकर मैंने अपनी पत्नी से कहा कि वे इस कहानी को अपनी हैंडराइटिंग में लिखे। हुआ यह कि उस विज्ञान कथा को पहला पुरस्कार मिला। आयोजकों ने नारायण विनायक जगताप को पत्र लिखा कि आपको पुरस्कार के लिए चुना गया है। परिषद के अधिवेशन में आप आमंत्रित हैं, लेकिन आपको टीए-डीए नहीं दिया जाएगा। उसके बाद मैंने सोचा कि मैं अपने नाम से ही लिखूँ। 

मुम्बई से किर्लोस्कर नाम की एक पत्रिका निकलती है। तब उसके संपादक श्री मुकुन्दराव किर्लोस्कर थे। उन्होंने कहा कि आप हमारी पत्रिका के लिए विज्ञान कथाएँ लिखिए, तब मैंने पहली विज्ञान कथा लिखी। 

सवाल: ऐसी कोई घटना जिसने आपको विज्ञान कथा लिखने के लिए प्रेरित किया हो? 

जवाब: मेरी अधिकांश विज्ञान कथाएँ, हम जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं, उन विषयों पर हैं। जैसे भोपाल में गैस त्रासदी हुई या कोई अभिनव कम्प्यूटर मिल गया तो उसका प्रभाव मन पर पड़ा और ऐसा लगा कि उसे कथा के रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जाए।

सवाल: आपकी विज्ञान कथाओं की थीम क्या है? 

जवाब: मेरी कहानियों की कोई एक विशेष थीम नहीं है। मैं भविष्य की ओर देखता हूँ। विज्ञान का रूप आगे चलकर क्या होगा, उस रूप को लिखता हूँ। 

सवाल: आप कितनी विज्ञान कथाएँ लिख चुके हैं? 

जवाब: मैंने 25 से अधिक विज्ञान कथाएँ और उपन्यास लिखे हैं। हिंदी उपन्यास आगंतुक नाम से प्रकाशित हुआ है। इसकी मुख्य थीम है कि पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर भी जीवन हो सकता है। मेरा अंग्रेज़ी में एक उपन्यास दी रिटर्न आफ वामन नाम से है। इसमें पृथ्वी पर पहले भी कोई अति विकसित संस्कृति होने और उसके विनाश के कारणों की चर्चा की गई है। 

सवाल:  विज्ञान कथाओं का उद्देश्य क्या है? 

जवाब: देखिए, विज्ञान कथा लिखने के कई उद्देश्य हैं। पहला, स्वान्त: सुखाय है। लिखने से एक तरह का सुकून मिलता है। दूसरा, समाज में विद्यमान अंधविश्वासों को विज्ञान कथाओं के माध्यम से दूर किया जा सकता है। तीसरा, भावी विज्ञान के स्वरूप के बारे में लोगों को बताया जा सकता है।

सवाल: क्या विज्ञान कथाओं से अनुसंधान की नई दिशा या प्रेरणा मिलती है? 

जवाब: हाँ मिल सकती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल ने जो पहली विज्ञान कथा लिखी थी, उसमें उन्होंने कल्पना की थी कि अंतरिक्ष में वायु के विशाल मेघ हैं, लेकिन तब लोगों को विश्वास नहीं हुआ था कि इस तरह के मेघ हो सकते हैं। बाद में माइक्रोवेव टेक्नॉलॉजी से ऐसे मेघ दिखाई दिए। हो सकता है विज्ञान कथाओं से अनुसंधान को नई दिशा मिले। हालांकि, कोई नई कल्पना साइंटिफिक जर्नल में नहीं छप सकती, क्योंकि वह मनगढंत भी हो सकती है। 

सवाल: बच्चों को परी कथाओं से संतुष्ट नहीं किया जा सकता। वे चांद-सितारों के जन्म-मरण, रोबोट आदि के बारे में जानना चाहते हैं। बच्चों के लिए किस तरह की विज्ञान कथाएँ होनी चाहिए? 

जवाब: दूरदर्शन पर कुछ वर्षों पहले स्टार ट्रैक नाम की विज्ञान कथा दिखाई गई थी। इसे सभी ने देखा, लेकिन बच्चों ने इसे बहुत पसंद किया। वे पूरे सप्ताह इस सीरियल का इंतज़ार करते थे। दरअसल, इस सीरियल में विभिन्न ग्रहों की रोमांचक यात्राओं की रोचक कहानी है। इन यात्राओं की कथाओं को कई विज्ञान लेखकों ने मिलकर लिखा है। इसमें अंतरिक्ष यान, लेज़र आदि के प्रयोगों के बारे में दिखाया गया है। इससे वैज्ञानिक कल्पनाओं को बढ़ावा मिला। मुझे लगता है कि आधुनिक युग में बच्चों के लिए विज्ञान कथाएँ होनी चाहिए, जो उनका दिल बहला सकें और साथ ही उन्हें विज्ञान की ओर आकर्षित भी कर सकें। 

सवाल: आप यह सोचते हैं कि विज्ञान कथाएँ लोगों में विज्ञान में रुचि पैदा करती हैं? 

जवाब: मेरा अनुभव है कि पहले लोग विज्ञान कथाओं के बारे में यही सोचते थे कि वे केवल विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी हैं। उसमें मनोरंजन जैसी कोई चीज़ नहीं है। यदि अच्छी विज्ञान कथाएँ लिखी जाएँ तो इनसे लोगों के मन में विज्ञान के प्रति जो भय है, उसे दूर किया जा सकता है। 

सवाल: विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के प्रयास हो रहे हैं। हमें इस दिशा में किस तरह के प्रयासों पर ज़ोर देना चाहिए?

जवाब: वास्तव में देखा जाए तो ये प्रयास अनेक दिशाओं में किए जा सकते हैं। टेलीविज़न, रेडियो आदि पर इस तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा सकते हैं। समाचार पत्रों में विज्ञान का एक पूरा पृष्ठ दिया जा सकता है, लोकप्रिय व्याख्यानों का आयोजन किया जा सकता है। रोज़मर्रा के वैज्ञानिक उपकरणों की जानकारी रोचक ढंग से दी जा सकती है। प्रदूषण, ऊर्जा संकट के दुष्परिणामों की तस्वीर भी लोगों के बीच रखी जा सकती है। कुल मिलाकर विज्ञान के वास्तविक चेहरे से लोगों को अवगत कराया जा सकता है।

सवाल: अच्छी विज्ञान कथाओं की कसौटी क्या है? 

जवाब: पहले यह बताता हूँ कि क्या नहीं होना चाहिए। विज्ञान कथाएँ ऐसी नहीं होनी चाहिए, जिसमें केवल परियों के जादू की चर्चा हो। उनमें भय और आतंक की घटनाओं का भी उल्लेख नहीं होना चाहिए। वास्तव में विज्ञान कथाएँ ऐसी होनी चाहिए जो विज्ञान के नियमों की जानकारी दें और भविष्य की ओर देख सकें। विज्ञान कथाओं के सकारात्मक पक्ष के बारे में यही कहा जा सकता है कि विज्ञान में हुई उन्नति से समाज पर जो प्रभाव पड़ेगा, उसे कथा के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाए। 

सवाल: हिंदी में विज्ञान कथाओं का अभाव क्यों है? 

जवाब: मैं सोचता हूँ, अधिकांश साहित्यकार ऐसे हैं जिन्होंने विज्ञान नहीं पढ़ा है। वे अत्यंत प्रभावशाली साहित्यकार भले हों, लेकिन विज्ञान सम्बंधी साहित्य को ज़रा डर से देखते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसी कोई नई बात है, जो साहित्य में नहीं बैठती। यह सोच धीरे-धीरे दूर होती जा रही है। यह मराठी का परिदृश्य है। हिंदी में भी यही स्थिति है। कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकार जिनकी कलम में ताकत है, यदि वे वैज्ञानिकों से चर्चा करके विज्ञान की जानकारी लें और उसे कथा या उपन्यास के रूप में लिखें, तो निश्चित रूप से विज्ञान कथा साहित्य समृद्ध होगा। मुझे ऐसा नहीं लगता कि विज्ञान कथाएँ लिखने के लिए विज्ञान में पीएच.डी. होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

लघुकथाःकुछ नहीं खरीदा

  - सुदर्शन रत्नाकर

वह बीच पर बैठी लहरों को उठते -गिरते देख रही थी।  सैंकड़ों सैलानी अलग अलग क्रीड़ाओं का आनन्द ले रहे थे।  कई घूम रहे थे, कई धूप का सेवन कर रहे थे। उस द्वीप का मूल निवासी दो घंटे तक बीच का चक्कर लगाता रहा।  कुछ लोगों ने उससे स्टोल और मालाओं के दाम पूछे पर ख़रीदा कुछ नहीं। एक घंटे बाद वह फिर आया। उसने क़ीमत आधी कर दी थी। लेकिन किसी ने तब भी कुछ नहीं ख़रीदा ।  साँझ ढलने से पहले वह एक बार फिर आया।  इस बार उसने क़ीमत और भी कम कर दी।  अब बहुत सारे लोगों ने उसका सामान ख़रीद लिया था। पर वह कह रहा था कि उसने वस्तुओं की सिर्फ़ लागत ली है।  उसे लाभ कुछ भी नहीं हुआ।

लाखों का ख़र्चा कर के इस टापू पर आकर मनोरंजन करने वाले सैलानी यहाँ की कला को नहीं ख़रीद सकते।  मूल निवासियों की सहायता नहीं कर सकते। उसे बहुत अचरज हो रहा था। अनायास ही  उसके मुख से निकला," कितने ओछे हैं लोग। "

उसका बारह वर्षीय बेटा भी वहीं खेल रहा था, बात सुन कर बोला,"आपने भी तो कुछ नहीं ख़रीदा मम्मा । "

सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001, मोबाइल 9811251135

हाइकुःमेघ चंचल

 - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

1

बजा मांदल

घाटियों में उतरे

मेघ चंचल।

2

चढ़ी उचक

ऊँची मुँडेर पर

साँझ की धूप।

3

नन्हा सूरज

भोर ताल में कूदे

खूब नहाए।

4

लहरें झूला

खिल-खिल करता

चाँद झूलता।

5

शोख़ तितली

खूब खेलती खो-खो

फूलों के संग।

6

सिहरा ताल

लिपटी थी धुंध की

शीतल शॉल।

7

उठते गए

भवन फफोले-से

हरी धरा पे।

8

ठूँठ जहाँ हैं

कभी हरे-भरे थे

गाछ वहाँ पे।

9

घायल पेड़

सिसकती घाटियाँ

बिगड़ा रूप।

10

लोभ ने रौंदी

गिरिवन की काया

घाटी का रूप।

11

हरी पगड़ी

हर ले गए बाज़

चुभती धूप।

12

हरीतिमा की

ऐसी किस्मत फूटी

छाया भी लूटी।

13

कड़ुआ धुआँ

लीलता रात-दिन

मधुर साँसें।

14

सुरभि रोए

प्राण लूट रही हैं

विषैली गैसें।

15

मुँह बाए हैं

प्यासे पोखर जहाँ

नीर वहाँ था।

16

तरसे कूप

दो घूँट मिले जल

सूखा हलक।

17

गीत न फूटे

अब सूखे कण्ठ से

मौसम रूठे।

18

पाखी भटके

न तरु-सरोवर

छाँव न पानी।

19

सुगंध लुटी

पहली वर्षा में लो

दुर्गंध उड़ी।

20

वसुधा-तन

रोम-रोम उतरा

विष हत्यारा।

21

दुर्गंध बने

घातक रसायन

माटी मिलके।

22

क्षय-पीड़ित

हुआ नील गगन

साँसें उखड़ी।

23

तन झुलसा

घायल सीने का भी

छेद बढ़ा है।

24

गुलाब दुखी

बिछुड़ी है खुशबू

माटी हो गया।

25

घास जो जली

धरा गोद में पली

गौरैया रो।


जीव-जगतःकुदरत को सँवारती तितलियाँ

 - डॉ. पीयूष गोयल

“तितलियां उड़ते हुए फूल हैं, और फूल बंधी हुई तितलियां हैं” – पोंस डेनिस एकौचर्ड लेब्रुन

प्रकृति के रहस्यों में फूल और तितलियों का सामंजस्य किसी से नहीं छिपा है। लेकिन मनुष्य सहित उनके अनेक प्राकृतिक दुश्मन हैं; जैसे कीट, पक्षी, छिपकलियां आदि। 2006 में ब्रिटिश काउंसिल द्वारा निर्मित, सोन्या वी. कपूर द्वारा निर्देशित प्रसिद्ध डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘वन्स देयर वाज़ ए पर्पल बटरफ्लाई’ में इनके अवैध व्यापार (illegal butterfly trade) को दर्शाया गया है। तितलियों की कई प्रजातियों को भारत से चीन, ताइवान और कई अन्य देशों में तस्करी (butterfly smuggling), अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों (international wildlife market) में सजावट और अन्य सजावटी मूल्य के लिए जीवित या मृत ले जाया जाता है।

तितलियां फूलों से भले ही रसपान करती हैं, पर उनकी मौजूदगी कभी भी फूलों की सुंदरता को नष्ट नहीं करतीं। यह मनुष्य के लिए एक बड़ा सबक होना चाहिए।

तितलियां जब एक फूल से दूसरे फूल पर विचरण करती हैं, तो वे अपने नन्ही-नन्ही टांगों तथा अपनी छोटी-सी सूंड पर फूलों के कुछ परागकण समेटकर दूसरे फूल पर ले जाती हैं। इससे पेड़-पौधों में प्रजनन शुरू होता है। परागकणों को एक से दूसरे फूल तक पहुंचाकर तितलियां कई वनस्पतियों, खास कर गाजर, सूरजमुखी, फलियों और पुदीना आदि के पौधों में फूलों से फल बनने की प्रक्रिया (pollination process) में सहायता करती हैं; अर्थात हमारी भोजन की थाली में बहुत सारी हरी-भरी सब्ज़ियों (vegetable pollination) को पहुंचाने में मदद करती हैं, जिन्हें हम अनदेखा करते हैं। अर्थशास्त्रियों ने इन सभी परागणकर्ताओं की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (ecosystem services by pollinators) का मूल्यांकन लगभग 235-577 अरब अमेरिकी डॉलर आंका है। धीरे-धीरे अब इन पौधों और परागण करने वाले जीवों का आपसी सम्बंध टूटने से जैव-विविधता (biodiversity loss) और खेती पर बुरा असर पड़ने लगा है। समय आ गया है कि तितलियों की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए उनकी सराहना और समर्थन किया जाए।

तितलियों की समृद्ध पारिस्थितिकी के लिए पर्यावरणीय कारकों, जैसे नमी, तापमान और उनकी इल्लियों के लिए पोषक पौधों की उपलब्धता ज़रूरी है। चूंकि तितलियां विशिष्ट पौधों पर ही अंडे देती हैं, इनके लिए घरों की छतों पर या बागवानी वाली जगह (butterfly gardening) पर सुगंधित, मीठे, रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे लगाए जा सकते हैं। एक टिकाऊ तितली उद्यान (butterfly habitat garden) बनाने के लिए दो प्रकार के पौधे लगाए जा सकते हैं: (1) पोषक पौधे – पीले सूरजमुखी, ब्लैक-आइड सुसान, गोल्डनरॉड्स, गुलाबी जो-पाई वीड, फायरवीड, रेड बी बाम/बर्गमोट, मेक्सिकन सूरजमुखी, बैंगनी कोनफ्लॉवर, वर्बेना, जंगली एस्टर्स, आयरनवीड, लंबा बुडालिया जैसे पौधे तितलियों को पसंद आने वाले रंगों से भरपूर पौधे होते हैं, जिन पर तितलियां अंडे देती हैं, तथा वे उनकी इल्लियों (कैटरपिलर) के लिए भोजन का काम करते हैं, तथा (2) मकरंद पौधे – ये वयस्क तितलियों के लिए भोजन का काम करते हैं। तितलियां खुली धूप वाली जगह पसंद करती हैं, हवादार जगह पर उन्हें हवा से बचाने के लिए जितना सम्भव हो सके प्रयास करना चाहिए। हालांकि तितलियों को पानी पीने के लिए कीचड़-भरी जगह पसंद होती है, लेकिन एक उथला कटोरा और उसके चारों तरफ पानी में भीगा स्पंज रखने से उनके नाज़ुक शरीर के उतरने में मदद होती है। झुंड को बुलाने के लिए बगीचे में गीली रेत का कटोरा रखा या मिट्टी का पोखर (mud puddling zone for butterflies) भी बनाया जा सकता है।

इनकी आबादी और विविधता को संरक्षित (butterfly conservation) करने के लिए भारत के कई राज्यों में तितली पार्कों (butterfly parks in India) की स्थापना की गई है। पर कुछ ही स्थानों पर इनका संरक्षण करना जैव विविधता को बढ़ावा नहीं देगा, इसके लिए सभी के प्रयास की ज़रूरत होगी।

कई लोग तितलियों को सजावट और सजावटी सामानों के रूप में बड़े पैमाने पर दीवारों पर, कागज़ों पर सजाते हैं, और इनका अन्य तरह से इस्तेमाल भी किया जाता है। कई देशों में रात में शादी समारोह (wedding butterfly release) में बड़ी संख्या में तितलियां छोड़ी जाती हैं। शोरगुल वाले माहौल में वे उड़ नहीं पाती हैं, और मर जाती हैं। हमें अपना व्यवहार बदलने की ज़़रूरत है।

यहां यह बता देना लाज़मी है कि परागण की विशेषज्ञ होने के साथ-साथ तितलियां जैव-संकेतक (bioindicators of ecosystem health) हैं, और पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले मामूली और छोटे-छोटे बदलावों को भांपकर संकेत दे सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

हरकीरत हीर की क्षणिकाएँ

 1. बताना ज़रा 

 बरसों से

 यूँ ही हरे के हरे हैं

ऐ वक़्त !

बताना तो सही

तू वाकई भर देता है 

ज़ख़्म ..!?!

2. मासूम

बड़ी 

मासूम सी थी

मेरी नज़्म

ज़िंदगी की खरोचें

उसे

समझदार किए जाती हैं ..

3.तेरा नाम

अब तलक भी

मिलता है 

इक सुकून सा 

तेरे नाम से

कैसे कह दूँ दिल से

भुला दे तुझको ...!?!

4. छलती रही

जीने के लिए

लिख -लिख कर

मुहब्बत भरे लफ़्ज़

ख़ुद को ही छलती रही 

वगरना 

मुहब्बत तो

कब की दफ़ना दी थी

नज़्म ने ...

5. तोहमत

ऐ नज़्म !

ज़रा संभल संभल कर 

रखना

कागज़ पर लफ़्ज़ों के क़दम 

यहाँ लोग मासूमों पर

बहुत जल्द

उछाल देते हैं 

तोहमतों के लफ़्ज़ ...

6. तारीफ़ 

इतनी भी

तारीफ़ मत कर

मेरी नज़्म के अल्फ़ाज़ की

न जाने

क्या क्या छिन गया है 

यहाँ तक

पहुंचते पहुंचते ....

7.जहाँ कभी

जहाँ कभी

आख़िरी बार मिले थे

बरसों बाद

फिर वहीं मिले

 वही पत्थर,चाँदनी रात,सर्द हवा

दोनों ख़ामोश थे

बस दरमियाँ

मुहब्बत सिसकती रही ....

8. बद्दुआ

चलो माना

सारे इल्ज़ामात

बेबुनियाद थे मेरे

नहीं देते बद्दुआ मेरे अश्क

ख़ुदा करे

जो तुमने मेरे साथ किया

ख़ुदा वही 

तुम्हारे साथ करे ...!


सम्पर्कः 18 ईस्ट लेन, सुंदरपुर 

गुवाहाटी 781005 (असम)

जयप्रकाश मानस की चार लघुकथाएँ

 1. पगड़ी की आख़िरी गाँठ

वह स्टेशन के बेंच पर बैठा अपनी पगड़ी सँभाल रहा था जब मैंने पहली बार उसे देखा। सूती कपड़े की वह धूलभरी पगड़ी उसके काँपते हाथों में किसी अंतिम विरासत की तरह लिपटी हुई थी। 

"बाबूजी, ये पगड़ी..." मैंने हिचकिचाते हुए पूछा। 

उसकी आँखों में एक झरना फूट पड़ा - "बेटा, ये मेरे बेटे की है। आज से ठीक एक साल पहले, जब वह इसी स्टेशन पर उतरा था, किसी ने सिर्फ़ इसी पगड़ी के लिए उसे..." 

उसका गला भर आया। मैं जानता था कि पिछले साल यहाँ के स्टेशन पर एक युवक की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी; क्योंकि उसकी पगड़ी ‘गैर-स्थानीय’ लग रही थी। 

"बेटा, मैं हर हफ़्ते यहाँ आकर इसे बाँधता हूँ," उसने कहा, "जैसे इसी तरह बाँधता हुआ वह कभी मुझे दिख जाएगा।" 

अचानक उसने पगड़ी खोली। मैं चौंक गया - उसके सिर पर गहरे निशान थे, जैसे कोई ताज़ा ज़ख़्म। 

"ये?" 

"वही दिन...जब मैंने अपनी पगड़ी उतारकर उसके सिर पर रखी थी...लोगों ने मेरे ही सिर पर पत्थर मार दिए थे।" 

ट्रेन के आने की आवाज़ ने हमें चौंकाया। उसने फिर से पगड़ी बाँधनी शुरू की। मैंने देखा - उसकी हर गाँठ में एक नाम बँधा हुआ था: सहिष्णुता, संस्कृति, मानवता... 

और अंतिम गाँठ जो बची थी, उसमें बस एक ही शब्द था – ‘इंसान‘।

2. बची हुई हवा का हिसाब

एक आदमी ने सबसे ऊँची इमारत से छलाँग लगा दी। उसके गिरने की आवाज किसी ने नहीं सुनी; क्योंकि सबके कानों में बज रहा था बाजार का शोर।  हवा तक नहीं हिली। नीचे फुटपाथ पर एक कुत्ता था, जिसने सिर्फ़ नाक सिकोड़ी और सामने पड़े रोटी के टुकड़े की ओर बढ़ गया। एक बच्चे ने इशारा किया- "मम्मी, वह चुप क्यों है?"

माँ ने उसका हाथ झटक दिया - "चुपचाप चलो। यह कोई फुटपाथ नहीं।’’

सुबह अख़बार वाले ने खबर छापी—"शहर का AQI सुधरा, एक कम हुआ साँस लेने वाला।" पुलिस वाले ने लाश उठाई, दफ़नाया, और रिपोर्ट में लिखा—"कोई शक नहीं, स्वाभाविक मौत।" 

उसकी जेब से एक डायरी मिली। आख़िरी पन्ने पर लिखा था- "मैं जब गिरूँगा, तो हवा में जगह बन जाएगी। किसी और की साँस चलेगी इस ख़ालीपन में।" 

डायरी को कचरे के ढेर में फेंक दिया गया। उसी शाम एक कागज़ उड़ता हुआ किसी की बालकनी में जा घुसा। वहाँ एक आदमी ने उसे पढ़ा, सोचा, और खिड़की बंद कर ली। बाहर शहर की हवा में अब भी वही गंध थी- आधी सड़ी हुई, आधी बची हुई। 

3. प्रयोगशाला

पहले दिन उन्होंने प्रयोगशाला में एक पिंजड़ा रखा। उसमें एक चूहा था। बोर्ड पर लिखा गया - ‘स्वच्छता अभियान’।

दूसरे दिन चूहे के गले में एक छोटी-सी घंटी बाँध दी गई। बोर्ड बदला गया — ‘आत्मनिर्भर चूहा’।

तीसरे दिन पिंजड़े के बाहर एक बिल्ली की मूर्ति रख दी। चूहा सहमकर कोने में दुबक गया। बोर्ड पर लिखा - ‘सुरक्षित चूहा’।

चौथे दिन मूर्ति हटाकर असली बिल्ली ले आए। चूहे ने घंटी बजा-बजाकर आत्महत्या कर ली। बोर्ड पर लिखा गया— "दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना"।

पाँचवें दिन नया चूहा लाया गया। इस बार पिंजड़े में एक छोटा- सा झंडा रख दिया। बोर्ड पर लिखा — ‘राष्ट्रभक्त चूहा’।

छठे दिन जब बिल्ली ने चूहे को खा लिया, तो प्रयोगकर्ताओं ने एक दूसरे की ओर देखा। फिर बोर्ड पर लिखा गया — ‘चूहे की मृत्यु नहीं, बल्कि बिल्ली के पेट में देश-सेवा’।

सातवें दिन प्रयोगशाला के बाहर एक नया बोर्ड लगा - ‘चूहा मुक्त प्रयोगशाला’।

अंदर, एक नए पिंजड़े में बंद बंदर ने अपनी आँखें मूँद लीं ।

4. अंतिम बिल

उस दिन अस्पताल के गेट पर जो हुआ, वह कोई नई बात नहीं थी। प्राइवेट वार्ड नंबर 5 के बाहर खड़े डॉक्टर ने फाइल खोली - "तीन लाख बीस हज़ार रुपये बकाया हैं।" परिवार वाले एक-दूसरे का चेहरा देखते रहे, जैसे उनकी आँखों में ही कोई जवाब छिपा हो।

मृतक का बेटा अपनी जेब टटोल रहा था - वहाँ सिर्फ़ एक पुराना रुमाल और दो सिक्के थे। उसकी बहन ने अपने गले से चेन उतारी, पर नर्स ने नाक सिकोड़कर कहा - "यह तो नकली है।"

तभी अस्पताल के गार्ड ने शव को ले जाने से मना कर दिया। "बिना पेमेंट रसीद के लाश भी नहीं जाएगी," उन्होंने कहा, जैसे कोई नियम पढ़ रहे हों। मृतक की पत्नी ने दीवार से सिर टकराया - उसके सिर से खून बह रहा था, पर कोई डॉक्टर नहीं आया।

अगले दिन सुबह जब अस्पताल का सफाईकर्मी वार्ड साफ करने आया, तो उसने देखा - शव अभी भी वहीं पड़ा था, और परिवार वाले फर्श पर सोए हुए थे। उनके हाथों में एक ख़ाली थैला था - शायद किसी से उधार माँगने जाने की तैयारी में।

जब अख़बार वालों ने पूछा कि शव क्यों नहीं उठाया गया, तो अस्पताल प्रबंधन ने बयान दिया - "हमारी नीति है कि बकाया बिना शव नहीं दिया जाएगा। मृत्यु के बाद भी मरीज हमारी जिम्मेदारी है।"

 लेखक के बारे में- जन्म 2 अक्टूबर, 1965, शिक्षा- एम.ए (भाषा विज्ञान) एमएससी (आईटी), भारतीय एवं विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाओं का प्रकाशन। विभिन्न विधाओं पर अनेक कृतियाँ । संप्रति: छ.ग.शासन में वरिष्ठ अधिकारी। सम्पर्क: एफ-3, आवासीय परिसर, छग माध्यमिक शिक्षा मंडल (पेंशनवाड़ा), रायपुर, छत्तीसगढ़, 492001, ईमेल: srijan2samman@gmail.com, मोबाइल- 94241-82664



प्रेरकःआपन तेज सम्हारो आपे

 - प्रियंका गुप्ता

आज आपको एक कहानी सुनाने का दिल कर रहा। बहुत पहले की बात है, जब किसी जंगल में एक बेहद ज़हरीले साँप का सामना एक बहुत सिद्ध महात्मा से हुआ। साँप अपनी फितरत का मारा...महात्मा को भी उसने कोई साधारण इंसान समझकर डँसना चाहा। अब सिर्फ हमसे-आपसे ही थोड़ी न भूल होती है इंसान पहचानने में...कभी-कभी जानवर भी ऐसे ही गलतियाँ कर जाते हैं। अब जब उसने अपनी शक्ति के दंभ में बाबाजी से पंगा लेने की कोशिश की, तो उन्होंने भी अपनी ताक़त दिखा दी, और उसे मन्त्र के बल पर अवश कर दिया। अब साँप बहुत रोया-तड़पा, हाथ- पैर जोड़े तो महात्मा ने उसे इस वायदे के साथ बंधनमुक्त किया कि अब आइन्दा वो किसी निर्दोष को नहीं सताएगा। 

काफी वक्त बीत गया। साँप ने अपना वायदा निभाया और किसी को भी नहीं डँसा। धीरे-धीरे आसपास के इलाकों में यह बात फैल गई और फिर तो सब एकदम ढीठ हो गए। अब तो छोटे-छोटे बच्चे भी मज़े के लिए उसके पास जाते, उसे कोंचते...वह जान बचाकर भागना चाहता तो ईंट-पत्थर मार-मारकर उसे लहूलुहान कर देते...। हालात इतने बिगड़े कि साँप बिलकुल मरणासन्न हो गया। उसमे इतनी ताक़त भी नहीं बची थी कि वह अपने बिल के अन्दर भी जा सकता। आखिरकार उसे मरा जानकर बच्चों ने उधर आना छोड़ दिया।

साँप अपनी आख़िरी साँसे गिन रहा था कि उन्हीं महात्मा का फिर उसी रास्ते से गुज़रना हुआ। साँप की ऐसी दुर्दशा देखकर वे चकित रह गए। पहले तो उसका इलाज किया, फिर सब हाल सुनकर उन्होंने माथा पीट लिया। जब साँप के होशो-हवास दुरुस्त हुए तब उन्होंने समझाया- ‘‘मैंने तुम्हें किसी निर्दोष को बेवजह सताने को मना किया था। अपनी शक्ति का अहसास दुनिया को कराने से थोड़े न रोका था। इस दुनिया की नब्ज़ पकड़ना सीखो, यहाँ तुम जितना झुकोगे, दुनिया तुमको उससे ज़्यादा झुकाएगी, इतना कि एक दिन तुम खुद भूल जाओगे कि तुम असल में थे क्या।’’

साँप को बाबाजी की बात समझ आ गई। उसके बाद से उसने दोनों काम किए। पहला तो यह कि उसने किसी को बेवजह सताया या डँसा नहीं, और दूसरा किसी को बिना बात खुद पर हावी होते देख उसने फन काढ़ने के साथ ही फुफकारना शुरू कर दिया। उस दिन से जैसे सबके दिन बहुर गए। न तो साँप के काटने से कोई अकारण मरा, और न साँप का जीवन किसी खतरे में पड़ा...।

अब आप यह सोच रहे होंगे कि आज मैं यह कहानी आपको क्यों सुना रही हूँ? इसकी एक वजह है। अक्सर हम-आप भी इसी साँप की तरह हो जाते हैं। सामने वाले के आगे विनम्र होते-होते हम अपनी शक्ति पहचानना और दर्शाना भी भूल जाते हैं, जबकि सामने वाला हमें कमज़ोर समझकर हम पर हावी ही होता चला जाता है, कुछ इतना कि हमारा दम घुटने लगे।

तो बस याद रखिए- जब और जहाँ ज़रुरत हो, अपना फन भी काढ़िए और एक ज़ोरदार फुफकार भी मारिए, ताकि सामने वाले को भी आपकी शक्ति का अहसास हो सके।  

कभी-कभी नाग होने में कोई बुराई नहीं। 

तीन बाल कविताएँः

  - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

1.बोझ करो कम

बहुत बड़ा है बस्ता उसमें,
भरीं किताबें बीस।
और साथ में रखीं कापियाँ,
गिनकर पूरी तीस।
हम लादे अपने कंधे पर,
निकला जाता दम।
बोझ करो कम।

उसी बेग में ठूँस रखी है,
पानी की बोतल।
माँ ने रखे उसी बस्ते में,
मीठे-मीठे फल।
इतना सारा बोझ कंधे पर,
कितना! हाय सितम।
बोझ करो कम।

इतना वज़न, कंधे पर, इससे,
हुए चकत्ते लाल।
रोज भुगतना पड़ता है सब,
हमको पूरे साल।
कोई नहीं समझता है क्यों,
हम नन्हो का ग़म।
बोझ करो कम।

2. सबसे छोटा होना

सभी समझते मुझको भोंदू
कहते नन्हा छौना।
पता नहीं क्यों लोग मानते,
मुझको महज़ खिलौना
कभी हुआ सोफा गीला तो,
डाँट मुझे पड़ती है।
बिना किसी की पूछताछ माँ,
मुझ पर शक करती है।
मैं ही क्यों रहता घेरे में,
गीला अगर बिछौना।
चाय गिरे या ढुलके पानी,
मैं घोषित अपराधी।
फिर तो मेरी डर के मारे,
जान सूखती आधी।
पापा के गुस्से के तेवर,
मुझको पड़ते ढोना।
दिन भर पंखे चलते रहते,
बिजली रहती चालू।
दोष मुझे देकर सब कहते,
यह सब करता लालू।
बहुत कठिन है भगवन घर में,
सबसे छोटा होना।

3. आज नहीं 

तो कल पहुँचूँगी
पंख मिलें तो उड़ूँ गगन में,
पहुँचूँ अंतरिक्ष के द्वार।
आज नहीं तो कल पहुँचूँगी,
मैं ग्रह नक्षत्रों के पार।
खोज करूँगी कहाँ एलियन,
उड़न तश्तरी का घर है।
जगह, जहाँ से झरता रहता,
ओम-ओम पावन स्वर है।
अपने ध्रुव भैया को दूँगी,
बाल पुस्तकें मैं उपहार।
मंगल के घर कौन-कौन है,
बुध का महल बड़ा कितना।
शनि की भू पर कितने पर्वत,
शुक्र भूमि पर जल कितना।
कहाँ दौड़ते टू व्हीलर हैं,
कहाँ दौड़ती मोटर कार।
कहाँ कहाँ पर गेहूँ चावल,
की फसलें हैं लहरातीं।
कहाँ-कहाँ पर सुर बालाएँ,
मंगल लोक गीत गातीं।
कहाँ-कहाँ पर बजती टिमकी,
होती नूपुर की झंकार।
कहाँ-कहाँ पर तितली भौंरे,
फूलों पर मँडराते हैं।
कहाँ-कहाँ पर गीत पपीहा,
कोयल मीठे गाते हैं।
कहाँ-कहाँ के आसमान से,
रुई-सी झरती रोज़ फुहार।
बोझ करो कम बस्ते का जी,
बोझ करो कम।

व्यंग्यःश्रद्धांजलि की बढ़ती सभाएँ

  - अख़्तर अली 

यह बहुत चिंता की बात है कि इन दिनों छुट्टी, जन्मदिन और शादी के इतने कार्यक्रम नहीं हो रहे हैं जितनी श्रद्धांजलि सभाएँ आयोजित हो रही हैं । शोक संदेशों की सुनामी आई हुई है । एक दिन में एक आदमी जितनी श्रद्धांजलि सभा में जा रहा है, उससे दुगनी सभाओं में नहीं जा पा रहा है; क्योंकि एक व्यक्ति एक ही समय में तीन चार स्थानों पर तो नहीं पहुँच सकता ।

श्रद्धांजलि सभा की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए परिवार के एक सदस्य को इसी काम के लिए नियुक्त कर दिया गया है । वह व्यक्ति दुकान, गोदाम, वसूली, टेंडर, ख़रीदी जैसे किसी काम में नहीं जाता । वह सिर्फ और सिर्फ श्रद्धांजलि सभा में शामिल होकर वहाँ अपने परिवार का नेतृत्व करता है । यही उसकी ड्यूटी है । परिवार में यही वह व्यक्ति है, जो सबसे पहले काम पर निकलता है और सबसे अंत में घर लौटता है । सब से अधिक वर्क लोड इसी पर है । परिवार में सब से अधिक यही व्यक्ति खटता और थकता है ।

पहले लोग थियेटर, होटल, गार्डन, मॉल जाते थे, अब जिसे देखो वह श्रद्धांजलि सभा में जा रहा है । लोगों का रेला का रेला एक ही दिशा की ओर बढ़ रहा है । अब तो कोई किसी से पूछता भी नहीं कि कहाँ जा रहे हो ? लोगों को जाता देख समझ जाते हैं- हम सब की मंज़िल एक है ।

एक श्रद्धांजलि सभा के बाद उसी स्थान पर एक समान्य सभा रखी गई, जिसका एजेंडा था- शोक सभाओं से बिगड़ते बजट पर कैसे नियंत्रण करे ? सामान्य सभा में इस बात पर चर्चा हुई कि अब तो यह रोज़ का काम हो गया है । हम अपनी - अपनी गाड़ी में एक ही स्थान से चलकर एक ही स्थान पर आते हैं और यहाँ से एक ही स्थान पर जाते हैं । जरा सोचिए, हम पेट्रोल पर कितना अनावश्यक पैसा खर्च कर रहे हैं । क्यों न हम सब मिलकर दिन भर की गाड़ी बुक करा ले । दोपहर और रात का खाना किसी ढाबे में खाकर देर रात तक घर पहुँचेंगे । सबने प्रस्ताव का समर्थन किया और श्रद्धांजलि को इंजाय किया जाने लगा । जब लोग रात को घर पहुँचते, तो उन्हें अगले दिन की सूची थमा दी जाती।

इन लोगों ने अपना व्हाट्सएप ग्रुप भी बना लिया है । श्रद्धांजलि संबंधित सभी सूचनाएँ इसी ग्रुप में डाली जाती हैं । जिस दिन श्रद्धांजलि की कोई सभा नहीं होगी, उस दिन भी हम एकत्रित होंगे और मस्ती करेंगे, ऐसा तय किया था; लेकिन ऐसा कोई दिन इन्हें नसीब नहीं हुआ । समूह में एक ऐसा भी प्रस्ताव आया था कि अलग - अलग श्रद्धांजलि देने के बजाय क्यों न संयुक्त रूप से सामूहिक श्रद्धांजलि दे दी जाए । इसका सभी ने एक स्वर में यह कहते हुए विरोध किया कि इससे तो मज़ा किरकिरा हो जाएगा । अतः यह प्रस्ताव ध्वस्त हो गया ।

श्रद्धांजलि के बढ़ते अवसर को भाँपते हुए अब लोग कपड़े भी इसी के अनुसार सिलवाने लगे हैं। इन्होंने श्रद्धांजलि को इतना आत्मसात् कर लिया है कि पत्नी से प्रेम की बाते भी दुःख भरे स्वर में करने लगे हैं । सब्जी मार्केट में सब्जी का भाव इस तरह पूछते हैं, मानो शोक प्रगट कर रहे हैं । शादी में जाते हैं, तो दूल्हे से कहते हैं - होनी को कौन टाल सकता है, जो होना था वह हो गया, सब ऊपर वाले की इच्छा अनुसार होता है, हिम्मत से काम लेना ।

अब वो इस काम के कुशल कारीगर माने जाते हैं, जो अक्सर युवाओं को समझाते हैं कि यह एक सरल क्रिया है, इसे जटिल मत बनाओ श्रद्धांजलि की बढ़ती हुई संख्या के चलते अब यह धीरे धीरे महज औपचारिकता का रूप लेती जा रही है, इसमें से वेदना और संवेदना के भाव लुप्त होते जा रहे है । मृत्यु की संख्या इतनी अधिक होती जा रही है कि जीवन सहम गया है । फिर भी कोई प्रश्न नही कर रहा है, सवाल खड़ा नहीं कर रहा है कि मृत्यु पर रोकथाम क्यों नहीं हो रही है ? कभी कोई मृत्यु मुखर हो जाती है, तब वह जीवित लोगों की ज़ुबान से बात करती है । जागरूक लोगों के ज़हन में लाशों ने ट्रैफ़िक जाम कर दिया, तो बात उठी ।

जो कभी नहीं होता, वह भी एक दिन होता है। तो एक दिन श्रद्धांजलि सभा से लौटते हुए समूह में यह बात उठाई गई कि मृत्यु की इस बढ़ती संख्या पर कोई चिंता ही नहीं कर रहा है । स्वाभाविक मौत तो स्वीकार है; लेकिन दुर्घटना में लोग लगातार मर रहे है, हत्या आम बात हो गई है। इन मौतों को तो रोका जा सकता है । चिंतन - मनन के बाद यह बात सामने आई कि चालाक राजनीतिज्ञ और होशियार अफ़सरों के साथ अब हमें एक सद्गुरु की सख्त ज़रूरत है, जो शासन, प्रशासन और आम जन को सही मार्ग दिखायेगा ।

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