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Oct 1, 2025

अनकहीः अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा

- डॉ.  रत्ना वर्मा
 मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव: 

माध्वीन: सन्त्वोषधी:। मधु नक्तमुतोषसो

मधुमत्पार्थिव रजः। मधु: द्यौरसंतु नः पिता।

(ऋग्वेद, मंडल 1, सूक्त 90, ऋचा-6-7 )

अर्थात् मधुर वायु हमारे लिए संचरण करें, नदियों में मधुर जल भरा रहे। सभी औषधियाँ मधुरता से युक्त हों। रात और दिन मधुर हों, पृथ्वी का अणुमात्र भूमिकण मधुरता से युक्त हो। अन्तरिक्ष हमारे लिए माधुर्यपूर्ण हो।

मानव सभ्यता का इतिहास यह बताता है कि हर युग में मनुष्य ने सुख और समृद्धि की तलाश की है; किंतु इस सुख की खोज में कभी- कभी हम अपनी जड़ों को, अपनी प्रकृति को भूल जाते हैं। आज का भारत और विश्व इसी चुनौती के दौर से गुजर रहा है। इस वर्ष भीषण बारिश और बाढ़ ने कई राज्यों को डुबो दिया, उत्तराखंड जैसी पर्वतीय भूमि में तबाही का दृश्य हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि कहीं विकास के नाम पर हमने प्रकृति से छेड़छाड़ की बहुत बड़ी कीमत तो नहीं चुका दी?

आधुनिक समय में विकास को प्रायः ऊँची इमारतों, चौड़ी सड़कों, बड़े बाँधों और उद्योगों से जोड़ा जाता है; लेकिन क्या यही विकास का वास्तविक स्वरूप है? यदि हमारे बच्चों को स्वच्छ वायु, निर्मल जल और सुरक्षित पर्यावरण न मिले, तो यह कैसा विकास हुआ? वास्तविक विकास वही है, जिसमें मनुष्य और प्रकृति दोनों साथ- साथ फलें- फूलें। यदि हम केवल भौतिक सुविधाएँ बढ़ाते जाएँ और धरती की जीवनदायिनी शक्तियों को नष्ट करते रहें, तो यह विकास नहीं, विनाश की ओर कदम है। 

ऋग्वेद का उपर्युक्त मंत्र हमें यही याद दिलाता है कि हमारा लक्ष्य ऐसा समाज हो, जहाँ पर्यावरण शुद्ध और जीने लायक हो। 

हाल की आपदाएँ केवल प्राकृतिक दुर्घटनाएँ नहीं थीं, बल्कि हमारे असंतुलित विकास की परिणति थीं। पिछले कई दशकों से विशेषज्ञ चेतावनी देते आए हैं कि पहाड़ों को काटकर, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोककर, जंगलों को नष्ट करके और सुरंगों व विशाल भवनों का निर्माण करके हम धरती को खोखला कर रहे हैं; किंतु अफसोस यह है कि इन चेतावनियों को अक्सर अनसुना कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि बाढ़, भूस्खलन, सूखा और जलवायु असंतुलन हमारे जीवन का हिस्सा बन गए। जब नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाँधा जाता है, तो वे किसी दिन बंधन तोड़कर तबाही मचाती हैं। जब वनों को काटा जाता है, तो वर्षा का संतुलन बिगड़ता है और भूमि अपनी जलधारण क्षमता खो देती है। यही कारण है कि पहले जो वर्षा वरदान होती थी, आज वह अभिशाप लगने लगी है।

अब प्रश्न यह है कि हम कैसा जीवन और कैसा पर्यावरण चाहते हैं? यदि हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ सुखमय जीवन जिएँ, तो हमें अभी से ठोस कदम उठाने होंगे। हम उन्हें केवल आधुनिक भवन, गाड़ियाँ और तकनीक न दें, बल्कि स्वच्छ वायु, निर्मल जल, सुरक्षित वन और संतुलित जलवायु भी दें। यही हमारी ओर से उन्हें सबसे बड़ी शुभकामना होगी।

हमारे शास्त्रों में पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत दर्शन निहित है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद– सभी में प्रकृति के तत्त्वों को देवतुल्य माना गया है। वायु, जल, अग्नि, भूमि, सूर्य- ये सभी पूजनीय हैं। यह पूजा केवल अनुष्ठान नहीं; बल्कि हमें यह स्मरण कराती है कि इन तत्त्वों की रक्षा करना ही मानव का परम कर्तव्य है।

ओ३म् शं नो वात: पवतां शं नस्तपतु सूर्य:।

शं न: कनिक्रदद्देव: पर्जन्योऽअभि वर्षतु (यजुर्वेद 36/10)

अर्थात हे परमेश्वर! पवन हमारे लिए सुखकारी चले, सूर्य हमारे लिए सुखकारी तपे, अत्यन्त उत्तम गुणयुक्त विद्युत् रूप अग्नि हमारे लिए कल्याणकारी हो और गरजता हुआ मेघ हमारे लिए सब ओर से सुख की वर्षा करे।

यह मंत्र हमें स्पष्ट संदेश देता है कि व्यक्तिगत सुख तभी संभव है जब धरती का कल्याण हो। यदि पृथ्वी का स्वास्थ्य बिगड़ेगा, तो मनुष्य की कोई भी सुविधा उसे सुख नहीं दे पाएगी। पेड़ केवल ऑक्सीजन नहीं देते, वे मिट्टी और जल को भी बाँधकर रखते हैं; अतः पहाड़ों को काटना, नदियों को बाँधना या सुरंगों से छलनी करना- रोकना होगा। कोयला, पेट्रोलियम जैसी प्रदूषणकारी ऊर्जा से हटकर सौर, पवन और जल–ऊर्जा का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा। सबसे महत्त्वपूर्ण है-  प्रत्येक नागरिक को यह समझना होगा कि पर्यावरण का संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं; बल्कि हर घर की, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। हाँ, सरकारों को भी यह तय करना होगा कि किसी भी विकास परियोजना का मूल्यांकन केवल आर्थिक लाभ से न किया जाए, बल्कि उसके पर्यावरणीय प्रभाव को सर्वोपरि रखा जाए।

आज जब हम बार–बार प्रकृति के क्रोध का सामना कर रहे हैं, तो हमें यह मानना होगा कि यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि हमारे गलत निर्णयों का परिणाम है। यदि हम सचमुच सुखी जीवन और आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित भविष्य चाहते हैं, तो हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा।

ऋग्वेद का मंत्र हमें प्रकृति की मधुरता की याद दिलाता है और यजुर्वेद का शांति मंत्र हमें यह सिखाता है कि शांति और कल्याण तभी संभव है, जब पृथ्वी स्वस्थ हो। अतः हमारा संकल्प यही होना चाहिए- विकास हो, लेकिन ऐसा विकास जो पर्यावरण के अनुकूल हो, जो वायु और जल को शुद्ध रखे, जो पृथ्वी को आने वाले युगों तक जीवनदायिनी बनाए रखे।

2 comments:

  1. Anonymous01 October

    आज की पीढ़ी जो इन आपदाओं को सीधे -सीधे देख पा रही है ,उनसे उम्मीद की जा सकती है कि इस पर वे कोई भी सशक्त क़दम उठाए। भविष्य उनका है इसलिए ज़िम्मेदारी ज़्यादा है। समसामयिक विषयों पर आप बहुत सुंदर लिखती हैं हार्दिक बधाइयाँ।

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  2. Anonymous06 October

    समसामयिक विषय पर लेखनी चलाकर आपने हमेशा की तरह चिंता व्यक्त करते हुए प्राकृतिक आपदा की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है । सच कहा आपने ऐसी परिस्थितियों का सामना करना केवल सरकार का ही काम नहीं। लोगों को भी सचेत होना होगा विशेषकर युवा पीढ़ी को, नहीं तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा । सुदर्शन रत्नाकर

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