आज भी...
-अनुपमा त्रिपाठी ‘सुकृति’
आज भी सूर्यांश की ऊष्मा ने
अभिनव मन के कपाट खोले ,
देकर ओजस्विता
भानु किरण चहुँ दिस ,
रस अमृत घोले ..!!
आज भी चढ़ती धूप सुनहरी ,
भेद जिया के खोले ,
नीम की डार पर आज भी
गौरैया की चहकन
चहक चहक बोले ,
आज भी साँझ की पतियाँ
लाई है संदेसा
पिया आवन का ,
आज भी
खिलखिलाती है ज़िन्दगी
गुनकर जो रंग ,
बुनकर- सा हृदय आज भी
बुन लेता है
अभिराम शब्दों से
मंजु अभिधा में ऐसे ,
जैसे तुम्हारी कविता
मेरे हृदय में विस्थापित होती है ,
अनुश्रुति -सी, अपने
अथक प्रयत्न के उपरान्त !!
हाँ...आज भी..!!
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