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Feb 23, 2018

कहानी

प्रदर्शन 
- रचना गौड़ 'भारती'
   मम्मीजी की चिता में उनके एकमात्र लड़के ने आग दी। चिता धू-धूकर जल उठी। चंबल के किनारे की तेज़ हवा ने आग में घी का काम किया था। चिता की प्रचण्ड अग्नि ने सर्दी के उस मौसम में भी पास खड़े लोगों को काफी गरमाहट का अनुभव करा दिया था।
  करीब 70-80 लोगों की भीड़ में रमन भी शामिल था। रमन ने बड़े ही कौतूहल से मम्मीजी के अस्पताल जाने से लेकर उनके इलाज और उनके मरने तक की घटनाओं के अलावा उन्हें श्मशान घाट तक ले जाने में बरती गई तमाम पुरातनवादी रूढ़ियों को देखा था, उन्हें समझने का प्रयास किया था, पर उसकी समझ में यह नहीं आया कि नियमों का पालन क्यों आवश्यक था या इनके मानने से क्या नुकसान हो जाने वाला था।
  मम्मीजी के तीन दामादों में रमन सबसे छोटा दामाद था। मम्मीजी की शवयात्रा में शामिल होना रमन के लिए इस तरह का पहला अनुभव था। दस दिसंबर की सुबह नहाते समय मम्मीजी बाथरूम में गिर गईं थीं। काफी खून निकला था। उन्हें तुरंत ही अस्पताल ले जाया गया था। डॉक्टर का कहना था कि दिमाग की नस फट गई है।
   रमन से जो करते बना, उसने किया। रमन की पत्नी नेहा तो अपनी माँ की सेवा के लिए रात-दिन अस्पताल में ही रही। रमन की दो बड़ी सालियाँ मम्मीजी की एकमात्र बहू अपने पूरे दलबल  सहित दोपहर को अस्पताल पहुँचीं थीं। शाम तक पूरी टीम मम्मीजी के पास बैठने के बजाय बाहर मटर गश्ती ज्यादा करती थी। रमन जब भी वहाँपहुँचता - अपनी सालियों को कभी चाय तो कभी कॉफी पीते हुए, तो कभी बाहर सड़क पर टहलते हुए पाता था। एक बार उसने पूछा तो कहने लगीं-''यहाँ सर्दी काफी है। बच्चों को ठण्ड लग जाए, इसलिए धूप का सेवन अत्यन्त जरूरी है। (मानो यहाँ वे माँ की सेवा के लिए नहीं ,धूप का सेवन करने आतीं थीं।) फिर मम्मी को नेहा तो देख ही रही है।
रमन ने सवाल किया-''फिर आप लोग बच्चों को यहाँ  क्यों ला रहे हैं ? कुछ लोग घर ठहर जाया करें ........ कुछ रात में जाया करें।
  छूटते ही वह बोली थीं-''मेरे बच्चे मेरे साथ ही आएँगे। मैं उन्हें किसी के भरोसे छोड़कर क्यों आऊँ? रात में बच्चों को यहाँ  सुलाना ठीक नहीं; क्योंकि बच्चों को इन्फेक्शन हो जाता है। घर ही सबसे सुरक्षित जगह है। मैं स्वयं इन्फेक्शन के डर से नहीं आना चाहती। पर क्या करूँ, माँ  है, आना पड़ता है। नहीं आऊँगीं तो लोग क्या कहेंगें ? ( जैसे वह मोहल्ले वालों के तानों के डर से यहाँ   रहीं थीं।) दूसरे मम्मी भी तो नेहा को ही मानतीं हैं, अब नेहा ही उन्हें देखे।
रमन इस जवाब से निरूत्तर हो गया था। दोनों बहनें उसकी सलहज इस जवाब से प्रसन्न नजऱ रहीं थीं। वे सोचने लगा-''शायद मैं ही बेवकूफ हूँ जो मय परिवार के यहाँ  पड़ा हूँ।
पर तुरंत दूसरा विचार मन में गया-''माँ  है, सेवा करने में क्या हर्ज़ है ? सब नालायक सही, पर मैं तो नालायक नहीं ?’मम्मीजी की इकलौती बहू ने तो शायद अपनी सास को छूने की कसम ही खा रखी थी। घर से चलती तो कम से कम ढाई तीन हजार की साड़ी पहनकर। साथ में डिज़ाइनर ब्लाउज़। इसके ऊपर लिपस्टिक, रूज़ का मेकअप। अस्पताल में जाकर एक बार पुन: अपना मेकअप शीशे में देखना भूलती, ताकि राह में कोई गड़बड़ हुई हो, तो ठीक की जा सके।
   रमन ने उस दिन कह ही दिया था-''भाभीजी, आप का यह शृंगार यहाँ शोभा नहीं देता
वह तपाक से बोली-''आप क्या जाने ननदोईजी ? बहुत सारे डॉक्टर यहाँ  आते हैं। कुछेक उनके मित्र भी हैं। उनके मित्र भी मम्मीजी को देखने आते ही हैं। मुझे सादे कपड़ों में देखेंगें तो क्या कहेंगें ? कितनी बेइज्ज़ती होगी इनकी ? एक बड़े व्यापारी की पत्नी के नाते मुझे यह सब पहनना पड़ता है। घर की इज्ज़त का सवाल जो है।
 मम्मीजी के एक मात्र सुपुत्र सलिल और रमन के एक ही अदद साले साहब को तो बिजनेस से ही फुरसत नहीं मिलती थी। हाँ , रोज़ रात एक बार जरूर इधर से होकर जाते थे। रात में ठहरने के नाम पर दुकान के नौकर को बैठा जाते थे, जो आधा सोता तो आधा ऊँघता रहता था। रात में ग्लूकोज़ आदि चढ़ाते समय मम्मीजी के हाथ को पकड़े रहना पड़ता था, क्योंकि अक्सर वह हाथ को झटक देतीं थीं।; इसलिए रात में रमन नेहा बार- बारी सोते जागते थे।
    करीब सातवें रोज़ घर में महामृत्युंजय का पाठ प्रारम्भ हो गया था, मम्मीजी को मोक्ष दिलाने के लिए। साथ ही एक व्यति की नियुक्ति अस्पताल में मम्मीजी को भागवत पढ़कर सुनाने के लिए कर दी गई थी। मम्मी के स्वस्थ रहते कोई उन्हें एक छोटा किस्सा भी नहीं सुनाता था, पर अब भागवत सुनाई जा रही थी। जब तक मम्मी ठीक थीं, किसी को उनकी चिन्ता तक थी, कोई खाने को नहीं पूछता था, लावारिस-सी घर के कोने में पड़ी रहतीं थीं।
   जब रमन ऐसी बातें सुनता था ,तो उसका मन उन्हें अपने पास बुलाने का हो जाता, पर मम्मी नहीं आतीं, कह देतीं-''भैया, कुछ ही दिन रह गए हैं, यहीं गुजार लेने दो।
करीब आठवें दिन सुबह ही मम्मीजी का अस्पताल में देहान्त हो गया था। तुरंत घर से शेष दो बहनें, बहू उनके लड़के गए थे। उस दिन बच्चों को घर पर ही रहने दिया गया। आते ही सब मम्मीजी के शरीर से लिपट गए। (ऐसे वे सब पहले नहीं लिपटे थे।) थोड़ी ही देर में पूरा वार्ड दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ों से गूँज उठा। यों लगा, जैसे एक साथ कई लोग कत्ल कर दिए गए हों। पाँच मिनट में ही सब शांत भी हो गया था। किसी के चेहरे को देखकर नहीं लग रहा था कि उनकी आँखों से आँसू का एक कतरा भी बहा हो। पूरा सीन रमन की आँखों के सामने नाटक के रिहर्सल की तरह से निकल गया।
   मम्मी के शव को स्ट्रेचर पर डालने के वक्त चूँकि सलिल भाई साहब अकेले थे, रमन ने सोचा मम्मी को उठाने में मदद कर दूँ। अभी हाथ बढ़ाया ही था कि बड़ी साली बोल उठी-''रमन, तुम हाथ लगाना। दामाद हो, तुम्हारा हाथ लग गया, तो मम्मी को नरक जाना होगा।मम्मी के मरने तक तो रमन सेवा करता रहा। उस समय किसी को याद नहीं आया कि वह दामाद है। पर चूँकि मम्मी को मोक्ष मिलने की बात थी, अतएव रमन अपना हाथ लगाकर उनके मोक्ष के रास्ते का द्वार बंद नहीं करना चाहता था।
    मम्मी को उठाना सलिल भाई साहब के अकेले के बस की बात नहीं थी। फिर भी सलिल भाई साहब, नेहा भाभीजी मम्मी को उठाकर स्ट्रेचर पर लाने लगे। स्ट्रेचर रमन की दोनों बड़ी सालियों ने पकड़ रखा था। इस से पहले कि शव स्ट्रेचर पर पाता, वह फर्श पर जा गिरा था।
  रमन अछूत सा दूर खड़ा तमाशा देखता रहा था। ज़मीन पर से किसी तरह फिर शव उठाकर स्ट्रेचर पर डाल लिया था। लाश घर पर ले जाई गई थी। आननफानन में लकड़ी की टिकठी आदि का प्रबंध हो गया था। करीब 20 किलो गुलाब के फूल, इतने ही मखाने मँगवा लिये गए थे। एक आदमी को 100 रू0 की रेजगारी भी लाने को भेज दिया गया था। उसे हिदायत दे दी गई थी कि एक और दो के कलदार ज्यादा लाना रुपये फेंकते समय लगेगा जैसे काफी तादाद में रुपये लुटाए जा रहे हैं। कोई मामूली बात तो थी नहीं। शहर के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की माँ  की शवयात्रा थी। उन की सारी प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी। कहीं कोई यह कह दे, लड़के ने माँ  के लिए कुछ खर्च नहीं किया।
   चूंकि दामाद का कोई रोल नहीं था इसलिए रमन ऐसी जगह बैठ गया, जहाँ  से समस्त क्रिया कलाप देखा जा सके। औरतें जत्थों में चलीं रही थीं। जैसे ही वे लाश के करीब आतीं, सब की सब एक सुर में दहाड़ मारकर रो पड़ती थी। क्या गज़ब का सामंजस्य था। कुछ ही क्षणों में फिर शांति छा जाती थी। पहले आई औरतें पीछे खिसककर मम्मीजी के बारे में चर्चा करने लगतीं। भले ही मम्मीजी के जीते जी कभी कानी आँख भी वे इधर नहीं झाँकी होंगीं, पर अब मोहल्ले की औरतों का हुजूम इसी तरफ था। थोड़ी देर बाद आवाज़ें आईं-''नाती कहाँ  है ?बुलवाओ, पैर तो छू लें। मम्मी को मोक्ष मिल जाएगा।
   रमन किंकर्तव्यविमूढ़ था। उसके छूने मात्र से मम्मी को नरक मिल सकता था, पर उसके लड़के के छूने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो रही थी। रमन की दोनों सालियां सलहज अपने-अपने लड़कों को लाश की ओर हाँकने लगीं। एकाध को तो इस सिलसिले में पीट भी दिया गया था। अंतत: सभी मम्मीजी के मृत शरीर का चरणस्पर्श कर चुके थे।
  रमन ने सोचा अच्छा हुआ उसके दोनों साढ़ू भाई नहीं आए। वरना उसकी तरह तमाशबीन बने बैठे होते। फोटोग्राफर भी बुलवा लिया गया था। मानो नई बहू का गौना होने वाला हो। बैंडबाजे बनजे लगे थे। बाहर एक राहगीर ने पूछ लिया था-''क्या लड़का हुआ है ?’ रमन क्या बोलता ?
   लाश पर कफन डाला जाने ही वाला था कि सलिल भाई साहब की निगाह शायद मम्मी के गले हाथ की कलाई पर चली गई थी। सोने की मोटी चेन चूड़ियाँ जो मिलाकर 5-6 तोले की थी। भाई साहब ने लपक कर निकाल लीं, जैसे कोई लेकर भागने वाला था।
 शव ट्रक पर रख कर सब लोग चंबल की ओर रवाना हो गए। आने को तो सभी आदमी एक ही ट्रक पर सकते थे, पर यहाँ  प्रतिष्ठा का मामला था। चार ट्रक खाली ही घाट तक गए थे।
 लकड़ी की चिता भी तैयार हो गई थी। लाश को चिता पर रखने से पहले चंबल में गोता लगवाना था। पर अभी भाई साहब की खोपड़ी घुटी नहीं थी। तुरंत ही एक नाई भाई साहब के बाल मूँडने लगा। मुंडन संस्कार के बाद उनके तन पर श्वेत झीना वस्त्र था। सर्द हवा के कारण उनकी कँपकँपी छूट रही थी।
   लाश को नहला कर चिता पर रख दिया गया और महापात्र का इंतज़ार होने लगा मुखाग्नि देने के लिए। उधर महापात्र लाश पर पड़ी चादर में से पैसे बीन रहा था। पूरे पैसे ढूँढ लेने के बाद ही वह लाश के करीब आया था। मंत्रोच्चार के साथ ही भाई साहब द्वारा अग्नि देने के बाद चिता जल उठी थी। इस अग्नि को घर से बड़ा ही सहेज कर लाया गया था।
   तभी रमन की निगाह दूर ढेर पर चली गई जहाँ  लकड़ी की अर्थियों का अंबार लगा था। शायद सब फिर बाज़ार में बेच दी जाएँगीं, चारपाई आदि बनाने के काम जाएँगीं। पास ही लाशों से उतरी चादरों का ढेर था। इनकी भी बिक्री अच्छे दामों पर हो जाएगी।
  तीसरे दिन घर के सभी बड़े चिता की राख को हंडिया में भरने के लिए शमशान पहुँचे, ताकि उसे वाराणसी, इलाहाबाद, हरिद्वार, गया पुरी जैसे स्थानों पर पवित्र नदियों में विसर्जित किया जा सके। इस कलश को लेकर भाई साहब को ही जाना था। जीते जी भाई साहब मम्मी को अपने साथ कहीं नहीं ले गए। वैसे हनीमून मनाने अपनी बीवी के साथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक जा चुके थे। उनका कहना था-''माँ  के लिए इतना किया ,तो लोग क्या कहेंगें ?’ उन्हें बार बार लोगों के कहे जाने का डर खाए जा रह था। मम्मी को इतनी जगह लेकर जाने के पीछे भाई साहब का उद्वेश्य था- अपने व्यापार का इन क्षेत्रों में प्रसार करना।
 चंबल के ठण्डे पानी में जाड़े के दिन नहाकर सबकीघिग्घी बँध गई। कई लोगों की नाक बहने लगी, जिनकी नाक सुड़कने की आवाज़ें रह रहकर रही थीं। घर पर अभी पंडितों के कई चोंचले होने बाकि थे। दसवीं, एकादशी, तेरहीं..... पंडितों को दान, नातेदारों, मोहल्लेवालों को भोजन, करीब 40-50 हजार का खर्च था।
 माँ  के इलाज से लेकर उनकी तेरहीं तक करीब 2.50 लाख रूपये खर्च हुए। भाई साहब की हर जगह धाक जम गई। पंडितों ने एक प्रकार से मम्मी के स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट दे दिया था। साथ ही अगले साल श्राद्ध भी करवाने के लिए बोल गए थे। मम्मी के अस्पताल में खर्चें से कहीं अधिक खाने पर खर्च हुए थे; क्योंकि घर से सब खाली पेट चलते थे, ताकि होटल में चाट डोसा आदि खाया जा सके। मोटा खर्चा इसके बाद भाई साहब की विसर्जन यात्रा पर हुआ क्योंकि उनका पूरा परिवार साथ गया था। करीब महीने भर के दौरे में सब लोग होटलों में ठहरे थे। खाने, आने जाने किराए आदि में खूब खर्च हुआ।
   इतने खर्च के बावजूद भाई साहब का चेहरा प्रसन्नता से खिला हुआ था। माँ  के क्रियाकर्म में इतने पैसे नष्ट कर उन्होंनें समाज में अपने लिए काफी अच्छी जगह जो बना ली थी।
सम्पर्कः 304, रिद्धि सिद्धि नगर प्रथम, बूंदी रोड, कोटा राजस्थान, मो. 9414746668

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