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May 1, 2023

अनकहीः वरिष्ठ नागरिक होने का दर्द...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा 

देश में बुजुर्गों की आबादी बढ़ रही है।  सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या में 60 वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों का हिस्सा 8.6% है और 2050 तक यह दर 21% होने का अनुमान है।  
सरकार ने बुजुर्गों के लिए ही 2007 में वरिष्ठ नागरिक अधिनियम बनाया है,  जो उन्हें आर्थिक रूप से मजबूती, मेडिकल सिक्योरिटी, जरूरी खर्च और प्रोटेक्शन देती है । कहने को तो सरकार द्वारा उनके लिए और भी कई तरह की सुविधाएँ दी जा रही हैं और कई योजनाएँ भी चलाई जा रही हैं;  परंतु वास्तव में क्या वरिष्ठ नागरिकों को सभी सुविधाएँ मिल पाती हैं और क्या उनको मिल रही सुविधाएँ पर्याप्त हैं ।
पूरी जिंदगी नौकरी करने के बाद जब एक मध्यमवर्गीय वरिष्ठ नागरिक के लिए आराम से खुशी- खुशी जीवन बिताने का समय आता है, तो भी वह इसका हकदार नहीं होता; क्योंकि उनकी समस्याएँ खत्म नहीं होतीं।
जिस नागरिक ने अपनी युवावस्था में सभी करों का भुगतान किया था,  अब वरिष्ठ नागरिक बनने के बाद भी उसे सारे टैक्स चुकाने पड़ते हैं। हजारों योजनाओं के बाद भी भारत में 70 वर्ष की आयु के बाद वरिष्ठ नागरिक चिकित्सा बीमा के लिए पात्र नहीं हैं, उन्हें ईएमआई पर ऋण नहीं मिलता है। ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिया जाता है। उन्हें आर्थिक काम के लिए कोई नौकरी नहीं दी जाती है। उन्हें अपनी जिंदगी के बचे दिन दूसरों पर निर्भर रहते हुए बिताने पड़ते हैं। रेल यात्रा में उन्हें मिलने वाली एकमात्र  50% की छूट भी बंद कर दी गई है।  
एक और बड़ी विडम्बना देखिए,  जिंदगी भर काम करने वाले आम वरिष्ठ नागरिकों को तो थोड़ी बहुत सुविधाएँ देकर घर बिठा दिया जाता है;  परंतु वहीं दूसरी ओर हमारे देश की राजनीति में जितने भी वरिष्ठ नागरिक हैं- चाहे विधायक हो या सांसद, उनको मिलने वाली सारी सुविधाओं के बारे में आप जानते ही होंगे और यदि नहीं, तो जानकर आपकी आँखें खुली की खुली रह जाएँगी। पेंशन के साथ यात्रा, स्वास्थ्य और न जाने क्या- क्या.... लिस्ट बहुत लम्बी है।
अब आप सवाल कर सकते हैं कि जब सरकार आम आदमी को भी पेंशन दे रही है, तो फिर काहे का दुख। बस यहीं पर आकर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। भले ही सरकारी नौकरी या अन्य निजी संस्थानों से वे रिटायर्ड हो चुके होते हैं;  पर क्या रिटायर्ड हो जाते ही उनकी जिंदगी की अन्य आवश्यकताएँ भी खत्म हो जाती हैं। वर्तमान में तो व्यक्ति अपनी सेहत पर बहुत अधिक ध्यान देने लगा है और यही वजह है वह लम्बी उम्र और स्वस्थ जीवन जीता है साथ ही कुछ न कुछ काम करने लायक रहता है, तब वह चाहता है कि रिटायरमेंट के बाद भी अपने को व्यस्त रखते हुए किसी मनपसंद काम में अपना समय व्यतीत करते हुए देश और समाज के लिए कुछ करते हुए जीवन गुजारे। बुढ़ापे में किसी न किसी काम में व्यस्त रहना एकान्तवास के अवसाद से मुक्त होने का सरल उपाय है। उसके जीवन के अनुभव समाज के लिए बहुत सकारात्मक और उपयोगी हो सकते हैं।
इस बात को साबित करने के लिए हमारे पास एक बहुत अच्छा उदाहरण है-
प्रमुख भारतीय-अमेरिकी गणितज्ञ और सांख्यिकीविद् कल्यामपुड़ी राधाकृष्ण राव साठ साल की उम्र में सेवानिवृत्त हुए और अपनी बेटी, अपने पोते-पोतियों के साथ अमेरिका में रहने चले गए। वहाँ, 62 वर्ष की आयु में, वे पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय में सांख्यिकी के प्रोफेसर बने और 70 वर्ष की आयु में, वे पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में विभाग के प्रमुख बने। 75 वर्ष की आयु में अमेरिकी नागरिकता। 82 वर्ष की आयु में विज्ञान के लिए राष्ट्रीय पदक, व्हाइट हाउस सम्मान। अब 102 साल की उम्र में उन्हें  सांख्यिकी में 2023 के अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया । इस पुरस्कार को सांख्यिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के समान माना जाता है। भारत में सरकार उन्हें पहले ही पद्म भूषण (1968) और पद्म विभूषण (2001) से सम्मानित कर चुकी है। राव कहते हैं: भारत में रिटायरमेंट के बाद कोई नहीं पूछता। सहकर्मी भी सत्ता का सम्मान करते हैं, विद्वत्ता का नहीं। 102 साल की उम्र में अच्छी शारीरिक स्थिति में नोबेल के समकक्ष पुरस्कार प्राप्त करना शायद अपने आप में यह पहला उदाहरण है।
परंतु दुखद स्थिति यह है कि हमारे भारतीय परिवार में एक उम्र के बाद बच्चे अपने माता-पिता से कहने लगते हैं – हम हैं ना आपको काम करने की जरूरत क्या है, आप घर में रहिए आराम की जिंदगी व्यतीत कीजिए.... पर आप खुद ही सोचिए, जो इंसान जिंदगी भर काम करता रहा हो, अचानक चुपचाप बिना कुछ काम के दो वक्त का खाना खाते हुए दिन गुजारे, तो वह असमय ही बूढ़ा और बीमार महसूस करेगा। मानसिक रूप से टूटा हुआ महसूस करेगा वह अलग। आम घरों में देखा तो यही गया है  कि घर के बाकी सदस्य तो अपने- अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं, तब उनके पास बुजुर्गों के साथ समय व्यतीत करने का वक्त ही नहीं होता। एकल होते परिवारों की यही समस्या है। देश में बढ़ते वृद्धाश्रमों की संख्या से भी हम यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि एकल होते परिवारों के कारण वरिष्ठ नागरिकों की समस्याएँ दिन- प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं।
हम सभी यह भी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में अपने संस्कारों के चलते आमतौर पर बुजुर्ग अपनी धन- सम्पत्ति बच्चों के नाम यह सोचकर कर देते हैं कि वे उनकी देखभाल करेंगे। पर अधिकतर परिवारों में देखा यह गया है कि बच्चों का जब अपना घर संसार बस जाता है, वे कभी नौकरी की मजबूरी जताकर, तो कभी बच्चों की पढ़ाई का बहाना करके अपने माता- पिता को अकेला छोड़कर चले जाते हैं, तब उन्हें जिस तकलीफ का सामना करना पड़ता है, वे दिखाई कम देती है; परंतु उनको भीतर ही भीतर खोखला करती चली जाती हैं।  उस तकलीफ का नाम है- अकेलापन। बहुत से परिवारों में बुजुर्ग स्वयं अपना घर छोड़कर दूसरे शहरों में जाना नहीं चाहते; इसलिए भी वे परिवार से दूर अकेले पड़ जाते हैं। ऐसे में आवश्यक है कि अकेले रहते हुए भी उन्हें वह सब कुछ मिले, जिसके वे हकदार है; क्योंकि अपनी युवावस्था में उन्होंने देश समाज और परिवार के लिए अपना सबसे बेहतर और कीमती समय दिया है। अधिक उम्र में भी उन्हें बेहतर और हँसी – खुशी वाली जिंदगी जीने का अधिकार है। अतः उनकी समस्याएँ बढ़ाने के बजाय उनके लिए भी ऐसी योजनाएँ बनाई जानी चाहिए, जिससे उनका अंतिम समय आराम से कट सके। वृद्धाश्रमों की संख्या न बढ़ाकर उनके लायक काम करने के ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाएँ,  जिससे उनके अनुभव का फायदा तो देश को मिले ही, साथ ही आज की पीढ़ी उन्हें बोझ समझकर अकेला छोड़ने के बजाय उन्हें साथ लेकर आगे बढ़ें।

5 comments:

Ashwini Kesharwani said...

बहुत सार्थक, विचारणीय अनकही के लिए आपको बधाई और साधुवाद की आपने वरिष्ठ नागरिक होने के दर्द को समझा और लोगों के बीच रखा।

विजय जोशी said...

आदरणीया,
बहुत सामयिक एवं संवेदनशील विषय को छुआ है आपने मेरी बिरादरी के बारे में :
- पहली विडंबना तो यह कि जो social security बुज़ुर्गों को विदेशों में प्राप्त है, उसका हमारे यहां कोई अता पता नहीं। यह केवल नेताओं एवं नौकरशाही के लिये आरक्षित है
- दूसरे वरिष्ठ जन भी उम्र का रोना रोते मिलेँगे सार्वभौम सत्य को स्वीकारे बगैर। अग्रिम योजना के लिए किसने रोका था।
- तीसरे आज भी अनुभव का स्थान है बशर्ते आप में वह हो तथा मानसिकता उसे साझा करने की हो
- चौथा यही वह दौर है जिसमें आप अपने passion का आनंद प्राप्त कर सकते हैं।
- उम्र मात्र अंक है। अंदर की आग और जिजीविषा ही इंसान को ज़िंदा और जाग्रत रखती है :
* ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है
मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं *
- नवीनतम खोज सिद्ध करती है कि बुज़ुर्गीयत 80 के बाद ही आरम्भ होती है। उसके पूर्व creative age।
- हमेशा की तरह बेबाकी और साफगोई के साथ योगदान हेतु हार्दिक बधाई। सादर

Aparna Vishwanadha said...

बुजुर्गों के हित में और उनकी समस्याओं पर प्रकाश डालता बहुत ही जरूरी आलेख। आज के समय में जो बुजुर्ग फिक्स्ड डिपॉजिट के इंट्रेस्ट पर अपना खर्च चलाते थे अब इंट्रेस्ट रेट कम हो जाने से कितनी तकलीफ़ों का सामना कर रहे हैं।

शिवजी श्रीवास्तव said...

वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं,पीड़ाओं और शासन द्वारा उनके सम्बन्ध में सार्थक योजनाओं की पहल न करने की विडम्बना को उभारता महत्त्वपूर्ण आलेखन

Anonymous said...

वरिष्ठ नागरिकों की समस्याओं ,अकेलेपन के दर्द को उजागर करता विचारणीय , समसामयिक सार्थक आलेख। यह त्रासदी है कि हमारे देंश में साठ साल के अच्छे-भले इन्सान की योग्यताओं को नकार कर जीवन की सुख-सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है। सरकार के नियमों और परिवार की सोच में परिवर्तन की आवश्यकता है।
सामाजिक समस्याओं से सम्बंधित आपके आलेख हमेशा प्रभावशाली होते हैं। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ रत्ना जी। सुदर्शन रत्नाकर