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Jun 5, 2021

पर्यावरणः पुराणों में वृक्ष लगाने की विधि

 -गोवर्धन यादव

हम जब इतिहास की बात कर ही रहे हैं तो और थोड़ा पीछे की ओर चलते हैं। और उस पौराणिक युग की यात्रा करते हैं, जब प्रकृति और मनुष्य के जीवन के बीच कैसे संबंध थे।

मत्स्यपुराण में वृक्ष लगाने कि विधि बतलाई गई है।

पादानां विधिं सूत//यथावद विस्तराद वद//विधिना केन कर्तव्यं पादपोद्दापनं बुधै//ये चे लोकाः स्मृतास्तेषां तानिदानीं वदस्व नः

ऋषियों ने सूतजी से पूछा- अब आप हमें विस्तार के साथ वृक्ष लगाने की यथार्थ विधि बतलाइ। विद्वानों को किस विधि से वृक्ष लगाने चाहिए तथा वृक्षारोपण करने वालों के लिए जिन लोकों की प्राप्ति बतलाई गई है, उन्हें भी आप इस समय हम लोगों को बतलाइए।                                                     

सूतजी ने वृक्ष लगाए जाने के की विधि के बारे में विस्तार से वर्णण किया है। वर्तमान समय में शायद ही इस विधि से कोई वृक्ष लगा पाता है। वृक्ष लगाने वाले अतिविशिष्ठ व्यक्ति के लिए, पहले ही इसकी व्यवस्था करा दी जाती है। उनके आने का इन्तजार किया जाता है और उसके आते ही उसे फ़ूलमालाओं से लाद दिया जाता है और वृक्ष लगाते समय उन महाशय की फ़ोटो उतारकर अखबार में प्रकाशित करा दी जाती है। उसके बाद उस वृक्ष की जड़ों में, पानी डालने शायद ही कोई जा पाता है। नतीजन वृक्ष सूख जाता है। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि वृक्ष पले-बढ़े, और लोगो को शीतल छाया और फ़ल दे सके। यदि ऐसा होता तो अब तक उस क्षेत्र विशेष में हरियाला का साम्राज्य छाया होता और न जाने कितने फ़ायदे वहाँ के रहवासियों को मिलते। खैर। सूतजी ने वृक्ष लगाए जाने पर किस-किस चीज की प्राप्ति होती है बतलाया है।

अनेन विधिना यस्तु कुर्याद वृक्षोत्सवं/ सर्वान कामानवाप्नोति फ़लं चानन्त्यमुश्नुते         

यश्चैकमपि राजेन्द्र वृक्षं संस्थापयेन्नरः/सोSपि स्वर्गे वसेद राजन यावदिन्द्रायुतत्रयम                              

भूतान भव्यांश्च मनुजांस्तारयेदद्रुमसम्मितान/परमां सिद्धिमाप्नोति पुनरावृत्तिदुर्लभाम                             

य इदं श्रृणुयान्नित्यं श्रावयेद वापि मानवः/सोSपि सम्पूजितो देवैब्रर्ह्मलोके महीपते(16-17-18-19)

 अर्थात्- जो विद्वान उपर्युक्त विधि से वृक्षारोपण का उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती है। राजेन्द्र ! जो मनुष्य इस प्रकार एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह जब तक तीस इन्द्र समाप्त हो जाते हैं, तब तक स्वर्ग में निवास करता है। वह जितने वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों का उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्ति से रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंग को सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओं द्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है।(मत्स्यपुराण-उनसठवाँ अध्याय)                                                                           

मत्स्यपुराण में वृक्षों का वर्ण बार-बार मिलता है। इसके अलावा पद्मपुराण, भविष्यपुराण, स्कन्दादिपुराण में इसकी विस्तार से विधियाँ बतलाई गईं है।       

 ‘य़स्य भूमिः प्रमाSन्तरिक्षमुतोदरम/दिव्यं यश्च बूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रहमणॆ नमः(अथर्ववेद ) (१०/७/३२)

अर्थात्- भूमि जिसकी पादस्थानीय़ और अन्तरिक्ष उदर के समान है तथा द्युलोक जिसका मस्तक है, उन सबसे बड़े ब्रह्म को नमस्कार है।

 यहाँ परमब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार कर, प्रकृति के अनुसार चलने का निर्देश दिया गया है। वेदों के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष का सम्बन्ध एक दूसरे पर आधारित है। ऋग्वेद में प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है। वहाँ प्राकृतिक जीवन को ही सुख-शांति का आधार माना गया है। किस ऋतु में कैसा रहन-सहन हो, क्या खान-पान हो, क्या सावधानियाँ हों- इन सबका सम्यक वर्णण है।

ऋग्वेद (७/१०३/७) में वर्षा ऋतु को उत्सव मानकर शस्य-श्यामला प्रकृति के साथ, अपनी हार्दिक प्रसन्नता अभिव्यक्त की गई है।

वेर्दों के अनुसार पर्यावरण को अनेक वर्गों में बाँटा जा सकता है। यथा- वायु, जल, ध्वनि, खाद्य और मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी-संरक्षण आदि। स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए पर्यावरण की रक्षा में वायु की स्वछता का प्रथम स्थान है। बिना प्राणवायु के एक क्षण भी जीना संभव नहीं है। ईश्वर ने प्राणिजगत् के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला रखा है। हमारे शरीर में रक्त-वाहिनियों में बहता हुआ खून, बाहर की तरफ़ दवाब डालता है, यदि इसे संतुलित नहीं किया गया तो शरीर की धमनियां फ़ट जाएँगीं और हमारा जीवन नष्ट हो जाएगा। वायु का सागर इससे हमारी रक्षा करता है। पेड़-पौधे आक्सीजन देकर क्लोरोफ़िल की उपस्थिति में, इसमें से कार्बनडाईआक्साइड अपने लिए रख लेते हैं और हमें आक्सीजन देते हैं। इस प्रकार पेड़-पौधे वायु की शुद्धि द्वारा हमारी प्राण-रक्षा करते हैं। वायु की शुद्धि के लिए यजुर्वेद में स्पष्ट किया है

तनूनपादसुरो विश्ववेदा देवो देवेषु देवः/पथो अनक्तु मध्वा घृतेन(२७/१२)                        

द्वाविमौ वातौ वात सिन्धोरा परावतः/दक्षं ते अन्य आ वायु परान्यो वातु यद्रपः’ (ऋग्वेद-१०/१३७/२)

 वात ते गृहेSमृतस्य निधिर्हितः/ततो नो देहि जीवसे (ऋग्वेद-१०/१८६/३)

हमारे पूर्वजों को यह ज्ञान था कि हवा कई प्रकार के गैसों का मिश्रण है, उनके अलग-अलग गुण एवं अवगुण हैं, इसमें प्राणवायु भी है, जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। शुद्ध ताजी हवा अमूल्य औषधी है और वह हमारी आयु को बढ़ाती है।

वेदों में यह भी कहा गया है कि तीखी ध्वनि से बचें, आपस में वार्ता करते समय धीमा एवं मधुर बोलें।

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा/सम्यश्च सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया (अथर्ववेद ३/३०/३)। जिह्वाया अग्र मधु मे जिह्वामूले मधूलकम/ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि (अथर्वेवेद१/३४/२)

अर्थात- मेरी जीभ से मधुर शब्द निकलें। भगवान का भजन-पूजन-कीर्तन करते समय मूल में मधुरता हो। मधुरता मेरे कर्म में निश्चय रहे। मेरे चित्त में मधुरता बनी रहे। इसी तरह खाद्य-प्रदूषण से बचाव के उपाय एवं। मिट्टी (पृथ्वी) एवं वनस्पतियों में प्रदूषण की रोकथाम के उपाय भी बतलाए गए हैं।

यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पंच कृष्टयः/भूम्यै पर्जन्यपल्यै नोमोSत्तु वर्षमेदसे। (अथर्ववेद-१२/१/४२)

अर्था- भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियाँ इस भूमि पर उत्पन्न होती है। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रुप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है।

आप किसी भी ग्रंथ को उठाकर देख लीजिए, सभी में प्रकृति का यशोगान मिलेगा और यह भी मिलेगा कि आपके और उसके बीच कैसे संबंध होंने चाहिए और किस तरह से हमें उसे स्वस्थ और स्वच्छ बनाए रखना है। शायद हम भूलते जा रहे हैं कि पर्यावरण चेतना हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा रहा है। हमने हमेशा से ही उसे मातृभाव से देखा है। प्यार-दुलार-और जीवन देने वाली माता के रुप में। जो माँ अपने बच्चे को, अपने जीवन का अर्क निकालकर पिलाती हो, उसे उस दूध की कीमत जानना चाहिए। यदि हम उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे, उसका अपमान करेंगे अथवा उसकी उपेक्षा करेंगे, तो निश्चित ही उसके मन में हमारे प्रति ममत्व का भाव स्वतः ही तिरोहित होता जाएगा। काफ़ी गलतियाँ करने के बावजूद , माँ कभी भी अपने बच्चों पर कुपित नहीं होती। लेकिन जब अति हो जाए -मर्यादा टूट जाए तो फ़िर उसके क्रोध को झेलना कठिन हो जाता है। अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए फ़िर उसे अपने बच्चों की बलि लेने में भी, कोई झिझक नहीं होती।       

सम्पर्कः कावेरीनगर, छिन्दवाड़ा

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