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May 3, 2021

आलेखः सुख-दुःख में समभाव

 - अगरचन्द नाहटा


सुख और दुख जीवन के दो विशिष्ट पहलू हैं, जिन पर भारतीय मनीषियों ने बहुत गंभीर चिन्तन किया है। विश्व का कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, पर वह मिलता अवश्य है। इसी तरह सभी प्राणी सुख चाहते हैं और निरन्तर उसे पाने के लिए प्रयत्नशील नजर
आते
हैं, फिर भी सच्चे सुख की अनुभूति विरल महापुरुषों के अतिरिक्त और किसीको हो नहीं पाती। यह विश्व का सबसे महान् आश्चर्य है। हमारे विचारक महापुरुषों ने इसी पर तलस्पर्शी गवेषणा की, कि सुख एवं दुख हैं क्या बला और उसकी प्राप्ति-अनुभूति का कारण क्या है। उन्होंने इसी एक प्रश्न पर जीवन को समर्पित कर दिया कि समस्त दुखों के विनाश एवं आनन्द की अनुभूति का मार्ग क्या है?

उनकी चिन्ताधारा में सांसारिक लोग जिन्हें दुख या सुख समझते हैं, वह मिथ्या कल्पनाजन्य प्रतीत हुआ और उससे आगे बढ़कर ऐसे-ऐसे मार्ग खोज निकाले, जिनके द्वारा इन दोनों से अतीत अवस्या का अनुभव किया जा सके। साधारणतया मनुष्य दुख
एवं सुख का कारण बाहरी वस्तुओं के संयोग एवं वियोग
मानता है और इसी गलत धारणा के कारण अनुकूल वस्तुओं व परिस्थितियों को उत्पन्न करने व जुटाने में व प्रतिकूल वस्तुओं को दूर करने में ही लगा रहता है। पर विचारकों ने यह देखा कि एक ही वस्तु की प्राप्ति से एक को सुख होता है और दूसरे को दुख । इतना ही नहीं, परिस्थिति की भिन्नता हो तो एक ही वस्तु व बात एक समय में सुखकर प्रतीत होती है और अन्य समय में वही दुखकर अनुभूत होती है । इससे वस्तुओं का संयोग-वियोग ही सुख-दुख का प्रधान कारण नहीं कहा जा सकता और इसीके अनुसन्धान में बाहरी दुखों एवं सुखों में समभाव रखने को महत्त्व दिया गया।
भौतिक विचारधारा से आध्यात्मिक भावधारा की भिन्नता
यहाँ अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है। भौतिक दृष्टिवाला व्यक्ति बाहरी निमित्तों पर जोर देगा तब आध्यात्मिक दृष्टिवाला अपनी आत्मनिष्ठा की ओर बढ़ता चला जायगा। उसकी दृष्टि इतनी सतेज हो जायगी कि बाहरी पर्दे के भीतर क्या है, उसे भलीभांति देख सके और ऐसा होने पर वह मूल वस्तु को ही पकड़ने का प्रयत्न करेगा। दृष्टांत के लिए दो व्यक्ति एक स्थान पर पास-पास में ही बैठे । अचानक कहीं से उनके मस्तक पर पत्थर आ गिरे। इससे भ्रान्ति में पड़कर एक ने तो पत्थर को दोषी मानकर उसे हाथ में लेकर ऐसा पछाड़ा कि उसके खंड-खंड हो गए।
दूसरे ने पत्थर पर रोष न कर वह कहाँ से आया,
किसने फेंका, क्यों फेंका इत्यादि पर गंभीरता से विचार करके और मुख्यतः दोष जिसका हो, ज्ञातकर उसके शोधन में प्रगति की। दोनों व्यक्तियों के यद्यपि पत्थर लगने को क्रिया एक-सी हुई, पर दृष्टि की गहराई के भेद से भावों में व फल में रात-दिन का अन्तर हो गया । यही बात बाह्य दृष्टि व अन्तर् दृष्टि की है। बाह्य दृष्टि बाहरी वस्तुओं पर दुख-सुख की कल्पना करती है, अन्तर् दृष्टि अपनी प्रवृत्तियों व भावनाओं को प्रधानता देती है । इसी दृष्टि- भेद के कारण भोगी को जिसमें आनन्द है, योगी को उसमें नहीं। योगी को त्याग में

आनन्द है, भोगी के लिए वह कष्टप्रद है।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमें अपनी दृष्टि को सही बनाना जरूरी है। तभी हम इस द्वंद्व से अतीत हो समभाव का आनन्द लूट सकेंगे।

इतर प्राणियों से मानब में विचार शक्ति की बड़ी भारी विशेषता है। विचारों से ही हम सुखी होते हैं, विचारों से ही दुखी। विचार की धारा को बदल देने से ही दुख-सुख की कल्पना बदल जायगी। किसी जमाने में कोई बात बहुत अच्छी समझी जाती थी, पर वही आज अच्छी नहीं समझी जाती और वर्तमान में भी एक ही वस्तु के विषय में सबकी राय में एकता नहीं है । इसका प्रधान कारण बिचार-भेद ही है । विचार बदला कि सारा ढांचा बदल गया। अधिक गहराई में नहीं भी जा सकें तो दुख-सुख में समभाव रखने के लिए हमारे विचारों को बदलने का एक शब्द-मंत्र भी है, जिससे सर्वसाधारण सहज में ही लाभ उठा सकता है। उस चमत्कारी शब्द-मंत्र की एक कहानी मैंने विदुषी आर्या वल्लभश्रीजी के व्याख्यान में सुनी थी। उसे साभार यहाँ उपस्थित कर रहा हूँ :
एक बड़े भारी सम्राट् थे, जिन्हें प्रतिपल विविध
परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। कभी मन दुःख की अनुभूति में और कभी सुख की अनुभूति में हर्ष एवं शोक से दोलायमान बना रहता था। सम्राट ने यह सोचकर कि इस भीषण द्वन्द्व के निवारण का कोई उपाय मिल जाय तो अच्छा, अपने विचारक सभासदों व मंत्रियों के सामने अपने विचार रखते हुए कहा कि इसके निवारण का कोई सरल उपाय बतलाइए, जिससे समय-समय पर हर्ष एवं विषाद से मन आन्दोलित होता है, वह रुक जा । यह रोग केवल सम्राट को ही नहीं, सभीको था, पर इसके निवारण का उपाय कोई भी नहीं बतला सके। आखिर मंत्री को आदेश दिया गया कि तुम्हें इसका रास्ता निकालना पड़ेगा, अन्यथा दंडित कि जाओगे ।

सम्राट की आज्ञा  का पालन दुष्कर था, अतः मंत्री ने छह महीने की मुद्दत ली और लगा इधर- उधर के पर्यटन में; क्योंकि पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष के बिना इसका उपाय मिलना संभव नहीं था। घूमते-घूमते अन्त में एक उच्च कोटि के योगी से भेंट हुई, जिन्होंने कहा कि सम्राट को एक ऐसी अँगूठी बनाके दो, जिसके बीच में या चारो ओर  यह भी चला जायगायह मंत्र लिखा रहे और सम्राट से कह दो कि जब भी दुःख या सुख हो, अँगूठी में
लिखे हुए मंत्र का ध्यान से मनन करे तो हर्ष एवं शोक
का द्वन्द्व नहीं हो सकेगा; क्योंकि यह दोनों अवस्थाएँ अस्थायी है। किसी के जीवन में सदा एक-सी दशा नहीं रहती। दुख के बाद सुख एवं सुख के बाद दुख आता रहता है। दोनों ही अल्पकालीन-क्षण स्थायी हैं, अतः इसमें हर्ष एवं शोक करना व्यर्थ है। इस रहस्य को पा लेने पर मन समभाव को पा लेता है।

कहना नहीं होगा कि मंत्री ने इस चमत्कारी मंत्रलिखित मुद्रिका को सम्राट् को समर्पण किया एवं इसके द्वारा दोनों अवस्था में समभाव रख सकने का सहज उपाय प्राप्त कर सम्राट् के आनन्द का पार नहीं रहा।
(पुस्तक – जीवन साहित्य, वर्ष -11 अंक 3 , मार्च  1950  में प्रकाशित आलेख से साभार)

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