- श्याम सुंदर अग्रवाल
1. मकान
मकान को देखकर किराएदार बहुत खुश हो रहा था। उसने कभी सोचा भी न था कि इतना बढ़िया मकान किराए के लिए खाली मिल जाएगा। सब कुछ बढ़िया था-बेडरूम, ड्राइंगरूम, किचन। कहीं भी कोई कमी नहीं थी।
"हाँ जी, बिल्कुल पक्की। ऊपर पानी की टंकी भी है। आप जाकर देख आओ! "
किराएदार सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर गया और कुछ देर बाद वापस आ गया। अब वह निराश था।
"अच्छा जी, आपको तकलीफ दी। मकान तो बहुत बढ़िया है, पर मैं यहाँ रह नहीं सकता।"
मकान-मालिक ने कहा, "आपको कोई वहम हो गया है। मकान में भूत नहीं है और न ही पुलिस-चौकी इसके आसपास है।"
किराएदार ने जब पीछे पलटकर नहीं देखा, तो मकान-मालिक ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया, "मकान तो चाहे आप किराए पर न लो, लेकिन यह तो बताओ कि इसमें कमी क्या है? लोग तो कहते हैं कि शहरों में मकानों का अकाल-सा पड़ गया है, पर यहाँ इतना बढ़िया मकान खाली पड़ा है।"
मकान-मालिक पूरे का पूरा प्रश्नचिह्न बनकर किराएदार के सामने खड़ा था।
किराएदार ने मकान-मालिक से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, "आपको पता नहीं कि आपका मकान घर के योग्य नहीं है। इसके एक तरफ गुरुद्वारा है और दूसरी तरफ मंदिर !"
2. संतू
प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, "घ्यान से चढ़ना। सीढ़ियों में कई जगह से ईटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।"
"चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।"
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रुपये का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, "तू रोज आकर पानी भर दिया कर।"
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा-"रोज बीस रुपये बन जाते हैं पानी के। कहते हैं अभी नहर में महीना और पानी नहीं आनेवाला। मौज हो गई अपनी तो !"
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने बाल्टी माँगी तो पत्नी ने कहा, "अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर की टूँटी में भी पानी आ गया था।"
"नहर में पानी आ गया! " संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों पर कदम घसीटते लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिरने की आवाज हुई। मैंने दौड़कर देखा, संतू आँगन में औधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।
अपना माथा पकड़ते हुए संतू बोला, "कल बाल्टी उठाए, तो गिरा नहीं, आज खाली हाथ गिर पड़ा।"
अनकही बहुत गहरी बातें। उम्दा दोनों लघुकथा बहुत बहुत -बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
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