प्यार के 35 टुकड़े??? क्या प्यार कोई जन्मदिन का केक है, जिसके टुकड़े- टुकड़े करके सबको बाँट दिया जाए। पर इन दिनों तो सब जगह यही चर्चा है कि प्यार में इतनी दरिंदगी! और तो और इस दिल दहला देने वाले कारनामें को अंजाम देने के बाद पिछले छह माह तक वह दरिंदा आराम से जीवन गुजारता रहा, ऐसे जैसे सच में ही उसने अपनी प्रियतमा के शरीर के नहीं, केक के ही 35 टुकड़े किए हों और शहर भर में उन टुकड़ों को बिखरा कर खुशियाँ मना रहा हो।
इस
पूरे घटनाक्रम को जानने के बाद जो सवाल दिमाग में सबसे पहले आता है वह यह कि जब
श्रद्धा को पिछले कई सालों से यह पता था कि आफताब उसे मार देगा, फिर भी उसके
साथ ऐसी क्या मजबूरी रही होगी कि वह उससे अलग नहीं हो पाई। (श्रद्धा ने 2020 में पुलिस में
इस डर को लेकर शिकायत भी दर्ज कराई थी) नतीजा उसे मार डाला गया, छह महीने तो
उसने किसी को भनक भी नहीं लगने दी। यदि उसके माता पिता गुमशुदगी की रिपोर्ट नहीं
लिखाते,
तो
किसी को खबर ही नहीं होती कि श्रद्धा की ऐसी नृशंस हत्या की गई है।
इस
हत्याकांड से अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। बदलते सामाजिक परिवेश में आज के युवा
मनमर्जी के मालिक हो गए हैं। वे माता- पिता की दखलअंदाजी को पसंद नहीं करते, उन्हें उनकी
बातें दकियानुसी लगती हैं। जैसे ही वे पढ़ाई- लिखाई पूरी करने के बाद आर्थिक रूप
से स्वतंत्र होते हैं, उन्हें लगता है वे अपनी मर्जी के मालिक हैं और जैसे चाहे
जीवन गुजार सकते हैं। लोग संस्कारों की
बात करते हैं कि कैसे जिन पिता ने, न जाने कितनी मुसीबत उठा कर उन्हें पाला-पोसा है, अच्छी शिक्षा
दिलाई है,
उनकी
हर जिद पूरी की है, वही बच्चे बड़े होते ही अपने ही माता-पिता के इतने विरुद्ध
हो जाते हैं कि बगावत पर उतर आते हैं।
दरअसल आधुनिक तकनीक के चलते युवाओं में ऑनलाइन दोस्ती आम हो गई है ।
श्रद्धा और आफताब भी एक ऑनलाइन डेटिंग एप के माध्यम से करीब आए थे। पर एक क्लिक से
की गई दोस्ती कितनी खतरनाक हो सकती है यह इस हत्याकांड को देखते हुए समझा
जा सकता है ।
मात्र
बाहरी चमक- दमक के आकर्षण को प्यार और दोस्ती का नाम देकर जीवन को खूबसूरत नहीं
बनाया जा सकता। हमारा समाज हमारा परिवार अभी इतना आधुनिक नहीं हो पाया है कि वह
‘लिव- इन रिलेशन’ को आसानी से स्वीकार कर पाए। अभी भी भारत के अधिकतर परिवार अपने
सामाजिक- पारिवारिक संस्कार और परंपरा से बँधा हुआ है । यही वजह है कि लिव- इन में
रहने वाले युवा अपने परिवार से, समाज से अलग- थलग पड़ जाते हैं। फलस्वरूप अपनी परेशानियों को वे किसी के साथ
बाँट नहीं पाते। जब जीवन की कड़वी सच्चाई
से उनका वास्ता पड़ता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। चूँकि बगावत
करके वे अपनों से दूर हुए थे; इसलिए मुसीबत के समय भी अपने माता- पिता के पास, दोस्तों के पास
लौटने की उनकी हिम्मत नहीं होती और वे अपने साथी के अत्याचारों को सहते हुए भी
उसके साथ रहने को अभिशप्त होते हैं। शायद
श्रद्धा भी मजबूर थी। यद्यपि उसने पुलिस को, दोस्तों को
विभिन्न माध्यम से बताने की कोशिश की थी;
पर
किसी ने भी उसके डर को गंभीरता से नहीं लिया । ऐसे समय में अकेले पड़ गए युवा
डिप्रेशन में चले जाते हैं निराशा में आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं या फिर नशे और
अपराध की दुनिया में चले जाते हैं। आज के
युवा वर्ग का अति महत्त्वाकांक्षी होना भी एक कारण है कि वह बहुत कम समय
में बड़ी उपलब्धि हासिल कर लेना चाहता है और इसके लिए शॉर्टकट रास्ता अपना कर अपनी
मंजिल तक पहुँचना चाहता है।
श्रद्धा
वालकर हत्याकांड ने एक बार फिर देश और समाज के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
खासकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध और युवा पीढ़ी की वर्तमान जीवन -शैली को लेकर।
अतः इस तरह के अपराध को राजनीतिक, सांप्रदायिक या किसी जाति विशेष से न जोड़ते हुए
इसे एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करते हुए, इसके सामाजिक
और कानूनी पहलुओं पर भी गंभीरता से सोचना होगा। सबसे जरूरी है- परिवार और संस्कार
की बुनियाद को मजबूत करना, वहीं दूसरी ओर
आज की शिक्षा -व्यवस्था में भी सुधार करने की आवश्यकता है। कानून और व्यवस्था में
सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही बनी रहती है; परंतु यहाँ जो सबसे आवश्यक और जरूरी बात है, वह है इंटरनेट और सोशल मिडिया का युवाओं पर
बढ़ते प्रभाव को लेकर अंकुश। शिक्षा के
अलावा जो भी अन्य चीजें इस आधुनिक तकनीक ने युवाओं को परोसी हैं, वह उन्हें एक
अलग ही दुनिया की सैर कराता है। अतः इसकी निगरानी के लिए आवश्यक और कठोर कदम उठाए जाने चाहिए।
जिस प्रकार शादी हो जाने के बाद नव दम्पती की खुशी परिवार और समाज की जिम्मेदारी होती है और वे उनकी देखरेख में अपनी नई जिंदगी की शुरूआत करते हैं, उसी प्रकार क्यों न लिव- इन में रहने वाले युवा जोड़ों के लिए भी कुछ नियम कानून बना दिया जाए । जिस प्रकार नई नौकरी ज्वाइन करने पर, घर किराए पर लेने पर, होटल में कमारा बुक करने पर यहाँ तक कि हवाई जहाज और रेल में यात्रा करते समय पहचान पत्र दिखाना आवश्यक होता है, तो इन युवाओं के लिए भी कुछ नियम कानून क्यों नहीं बनाए जा सकते हैं, ताकि वे एक व्यवस्था के तहत निगरानी में रहें और इस तरह की भयानक दुर्घटना से बचे रहें। केवल कानून बनाकर इतिश्री नहीं करना, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि कानून का कठोरता से पालन किया जाए।
7 comments:
कितना भयावह सत्य है कि हमारे युवा प्रेम की दहलीज़ पर नहीं बारूद के ढेर पर खड़े हैं। जीवन का सबसे खूबसूरत अहसास ही जब टुकड़ों में कट जाए तो शब्द शून्य हो जाते हैं। काश माता - पिता अपनी संतति को सही संस्कार और सही सोच दे पाएं। यही प्रार्थना है... इस बरस जो हुआ वह अगले बरस न हो। आमीन!🙏🏻🌹
जिसका जैसा उद्देश था उसने वैसा ही परिणाम दिया ! जहां प्यार की अभिव्यक्ति जिस्म तक पूर्ण होती हो उसके आचरण को हम क्यों समझ नहीं पाए और बहते रहे !
जी धन्यवाद 🙏 आपने बिल्कुल सही कहा कि इस बरस जो हुआ वह अगले बरस न हो l
जी हाँ यह अति आवश्यक है कि आज की पीढ़ी अभासी दुनिया से हटकर यथार्थ के धरातल पर अपने पैर रखें l
अत्यंत मार्मिक... इस पीढ़ी के प्रेम को प्रेम नहीं कहा जाता.... यह केवल एक दैहिक आकर्षण रह गया है... दुख होता है प्रेम की परिभाषा को बदलते हुए देखकर 🌹🙏😢
रत्ना जी, उक्त कमेंट हमारा ही है भूलवश नाम लिखना रह गया था !
प्रेम के नाम को कलंकित करती आधुनिक पीढ़ी प्रेम के मर्म को क्या जाने? उनके लिए दैहिक आकर्षण ही प्रेम है। आकर्षण के साथ प्रेम भी ख़त्म। आज ज़रूरत है नई पीढ़ी को संस्कारों की, सोच की, शिक्षा में बदलाव की। मर्मस्पर्शी एवं विचारणीय आलेख रत्ना जी। सुदर्शन रत्नाकर
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