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Oct 1, 2022

सभ्यता- संस्कृतिः अस्मिता खोती मोक्षदायिनी नदियाँ

-प्रो. अश्विनी केशरवानी

नदियाँ केवल जल प्रवाहित ही नहीं करती बल्कि हमारी सभ्यता को विकसित करने का एक बहुत ही सशक्त माध्यम भी है। भारत में जिस आर्य संस्कृति का विकास हुआ वह वास्तव में गंगा, यमुना और सरस्वती नदी के तट पर विकसित हुई मानी जाती है। ऋषि मुनियों ने इन्हीं नदियों के पवित्र तटों पर वैदिक मंत्रों का गायन किया। नदी और उसमें प्रवाहित जल का मनुष्य से इतना गहरा सम्बंध है कि जल के बिना किसी कार्य की कल्पना संभव ही नहीं है। सभी धार्मिक अनुष्ठान, अभिषेक, आचमन, पूजन और अनुष्ठान आदि जल से ही सम्पन्न होते हैं। भारतीय सभ्यता के जितने पुनीत और पवित्र स्थल हैं वे सब नदी के तट पर ही हैं। उनकी पवित्रता भी नदियों के कारण है। इन नदियों के तटों पर स्नान करना आदिकाल से पुण्यदायी माना गया है। अमरकोशकार ने जल को ‘जीवनं भुवनं वनम्’ कहा है। अर्थात् जीवन के लिए जल अमृत है, शक्ति है तथा वनों के लिए जीवन रस है।

नदियों की वैसी ही चरित गाथाएँ हैं जैसी मनुष्य की होती हैं। पुराणों में प्रत्येक नदी की उत्पत्ति की कथा है। गंगा नदी विष्णुपद से नि:सृत होकर शंकर जी की जटाओं में समाई और भगीरथ की तपस्या के परिणामस्वरूप धरती पर अवतरित हुई और उनके पूर्वजों को मोक्ष प्रदान की। कदाचित इसीलिए नदी संगम में अस्थि प्रवाहित कर उनके मोक्ष की कामना की जाती है। इसीलिए हमारे देश को नदियों का देश कहा गया है। हमारे देश की धरती पर नदियों का जाल बिछा है जैसे शरीर में धमनियाँ। जिस प्रकार धमनियों में बहने वाला रक्त जीवनदायी होता है, उसी प्रकार नदियों का जल भी जीवनदायी है। इसीलिए नदियाँ हमारी जीवन रेखा है, भारतीय जन-आस्था का केंद्र है, देवी और माँ भी है। क्यों न हों, नदियों के तट पर सभ्यताओं ने जन्म लिया और फूला फला है। पुरातन काल से नदियों के तट पर स्थित नगर पवित्र और धार्मिकता के प्रमाण रहे हैं। यहाँ लगने वाले मेले, उत्सव प्रकृति के साथ हमारे रिश्तों को मजबूत बनाते रहे हैं। शायद ही कोई नदी हो जिसकी उत्पत्ति से जुड़ी कोई कथा न हो? कदाचित् इसीलिए नदी के तट भक्ति, ज्ञान वैराग्य की तपस्थली है, ऋषि-मुनियों की कर्मस्थली है। प्रत्येक नदी की अद्भुत महिमा बतायी गई है। गंगा में स्नान से सारे पाप धुल जाते हैं, नर्मदा के दर्शन मात्र से पापों का नाश हो जाता है और महानदी में अस्थि विसर्जन से मोक्ष मिल जाता है। हजारों लाखों वर्षों तक नदियाँ हमें जीना सिखाती रही क्यों कि हमने उनकी पूजा अर्चना की। लेकिन जैसे नदी और मनुष्यों के रिश्ते बिगड़ने लगे। मनुष्यों ने उन्हें बेजान समझकर सिर्फ अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने लगा; नतीजा, नदियों ने हमसे रूठकर पहले धार पतली की फिर हमारी गंदगी को ढोने पर बाध्य हुई और सूखने लगी। आज देश की एक भी नदी साफ सुथरा नहीं बची है जिसे निर्मल कहा जा सके ? उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है; क्योंकि यहाँ से अनेक नदियों ने जन्म लिया है। गंगा जैसे पवित्र नदी में समाहित होने वाली लगभग 300 सहायक नदियाँ आज अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। उसमें जल का कलकल नाद खत्म हो गया है। ये नदियाँ आज विकास की भेंट चढ़कर शहरों की गंदगी और उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थों को ढोने वाली बनकर रह गई है। इसीलिए उसमें नहाने तो क्या आचमन करने से भी लोग कतराते हैं।

नदियों की पवित्रता पर किसी को कोई संशय नहीं है। नदियों के तट पर बसे गाँव और शहर देवस्थान और तीर्थ स्थान जरूर कहलाये। पर्व और त्योहारों पर लोग नदियों में डुबकी लगाकर पुण्य के भागीदार बनते हैं। मरने के बाद उनकी अस्थियों को संगम में प्रवाहित करते हैं और ये मानते हैं कि उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी? ये व्यापार के बहुत बड़े माध्यम भी बने इसलिये लोग यहाँ रहने लगे। रहने के लिये जमीन कम पड़ी तो जंगल काट डाले, तालाबों को पाट डाला। जीविका के अनेक साधन बना डाले, गाँव शहरों में तबदील हो गया, लोग बढ़े, आबादी बढ़ी, घर बढ़े और गंदगी का अंबार बढ़ा। गंदगी पहले नाली फिर नाला और अंत में नदियों में डाला जाने लगा। विकास के लिए अनेक उद्योग लगे। उद्योग से प्रदूषण फैला, अपशिष्ट पदार्थ निकला और उसे भी नदियों में प्रवाहित किया जाने लगा। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जंगल काटे गए, सड़क चौड़ा करने के लिए पेड़ काटे गए, नदियाँ प्रदूषित हुई तो जमीन के गर्भ से पानी निकाला जाने लगा। नदियों के जल के संग्रहण से समुद्र बना और समुद्र से पहले अमृत, फिर मोती और अब पेट्रोल निकालने लगे और ज्वलनशील होने से उसमें आग लगी और समुद्र के जीव- जन्तु मरने लगे, उनका संसार नष्ट होने लगा। विकास की दौड़ और उद्योगों की जलापूर्ति के लिए हमने नदियों के प्रवाह को रोक दिया, रेगिस्तान और समुद्र में अनेक प्रकार के प्रयोग, विस्फोट आदि से प्रकृति विकृत होने लगी, प्रकृति की अनमोल रचनाएँ नष्ट होने लगी और हमारा जीवन प्रभावित होने लगा। प्रकृति से हमने जो खिलवाड़ करने का उपक्रम किया तो उससे होने वाले दुष्परिणामों का खामियाजा आखिर हमें ही तो भुगतना पड़ेगा ?

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रो. उमाकांत चौधरी जो गंगा मैनेजमेंट के संस्थापक एवं निदेशक हैं, के अनुसार नदी अपने आधारभूत जल से प्रवाहित होती है। वह आधारभूत जल है- भूजल। भूजल अपना रूप बदलकर पहाड़ पर चढ़ता है, वहाँ पहुँचकर फटता है तो नदी के रूप में उद्भूत होकर नीचे बहने लगता है। भूजल के पहाड़ में फटने के कारण नदियों का जन्म होता है। इसे ‘‘बेस ऑफ रीवर कहते हैं। भूजल का जितना भंडार होगा, नदियाँ उतनी शक्ति सम्पन्न और जल सम्पन्न होगी। आज हम भूजल इतना अधिक दोहन कर रहे हैं जिससे भूजल का स्तर भूगर्भ के रसातल में चला गया है। बाँधों के निर्माण, बरसात में उससे छोड़े जाने वाले जल से कृत्रिम बाढ़ से होने वाले नुकसान से बचने के लिए तटबंध का निर्माण कराये गए। लेकिन इन निर्माण कार्यों में नदी विज्ञान के मूलभूत नियमों की अनदेखी हुई। पर उसके कारण होने वाली हानियों को कम करने की दिशा में कॉमन नहीं हुआ। इससे जुड़े आंदोलनों में स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता के बीच बहस मुख्यतः उत्पादन और विस्थापन के बीच केन्द्रित रही।

पानी अपने साथ लगभग 205 करोड़ टन मिट्टी बहाकर ले जाता है। यह नदी की प्रकृति है। लेकिन बाँध बनाते समय इससे होने वाले हानि के बारे में कभी विचार नहीं किया जाता। इस अनदेखी के कारण बाँधों में हर साल 48 करोड़ टन मिट्टी जमा हो रही है। उल्लेखनीय है कि बाँध बनने के कारण नदी का प्रवाह रुक जाता है और वह अपना वजूद खो देता है। तब वह जलाशय बन जाता है। जलाशय बनने से उसका चरित्र भी बदल जाता है। जलाशय की तल में जमा कचरा धीरे- धीरे सड़ने लगता है और तब कचरे के रसायन से पानी का गुण बदल जाता है। इससे पानी की शुद्धता और निर्मलता खत्म होने लगती है। जल में रहने वाले जीव- जन्तुओं और पादप मरने लगते हैं।         

यह भी सही है कि बाँध बनने से मूल नदी खत्म हो जाती है और बाँध से छोड़े जाने वाले पानी से कृत्रिम नदी का जन्म होता है। वह मूल नदी के मार्ग में बहती अवश्य है मगर उसकी पुरानी निर्मलता उसमें नहीं होती। इसी प्रकार मुख्य नदी और उसकी सहायक नदी के अंतरंग सम्बंध में समझ की कमी के कारण लोग केवल मुख्य नदी या उसकी सहायक नदी में उपलब्ध जल की मात्रा के बारे में अध्ययन करते हैं जिन पर बाँध बनाया जाता है। इसे समझने के लिए वृक्ष का उदाहरण जरूरी है। वृक्ष के तीन अंग होते है- जड़, तना और शाखाएँ। वृक्ष उस समय तक जिंदा रहता है जब तक उसे जड़ों से पोषक तत्व प्राप्त होते हैं। जड़ों का योगदान तने के सहारे शाखाओं को मिलता है। इस व्यवस्था से वृक्ष के लाभ अर्थात् फूल और फल को प्राणवायु मिलती है। जड़ों के योगदान के कम होने से वृक्ष के योगदान कम हो जाते हैं, परन्तु जड़ों के मरते ही वृक्ष की भी मृत्यु हो जाती है। ठीक उसी प्रकार सहायक नदियों के जीवित रहने पर मुख्य नदी जीवित रहती हैं। 

आज नदियों के अस्तित्व खतरे में हैं और शासन स्तर पर गंगा नदी को बचाने, उसकी सफाई करने के लिए हजारों करोड़ रुपया पानी की तरह बहाया जा रहा है। गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए ‘गंगा-यमुना एक्शन प्लान’, ‘गंगा बेसिन अथॉरिटी’,  नेशनल मिशन फ़ॉर क्लीन गंगा’, ‘नमामि गंगे परियोजना’ भी प्रयासरत हैं। कई स्वयं सेवी संस्थाएँ नदी और उसके जल को बचाने के लिए समय समय पर आंदोलन भी करते हैं। कुछ कथित लोग ‘जलदूत’ के रूप में भी यदाकदा दिखते हैं। समय निकालकर शिक्षण संस्थाओं में जाकर लोगों को जल बचाने के लिए शपथ दिला जाते हैं, फोटो खिंचवाकर, पेपर और टी वी. में समाचार प्रसारित होने से सुर्खियाँ जरूर बटोर लेते हैं लेकिन अफसोस आज तक ऐसे जलदूत एक बूँद जल भी बचा नहीं पाए। हाँ, किसी पुरस्कार के लिए वे दस्तावेज तैयार जरूर कर लेते हैं और उन्हें प्रादेशिक या राष्ट्रीय पुरस्कार अवश्य मिल जाता है। ऐसे कागजी  जलदूत से कुछ हो सकेगा ? नदियों को हम बचा नहीं पा रहे हैं, बल्कि पूर्वजों के द्वारा खुदवाए तालाब और कुँओं को पाटते जा रहे हैं। यही नहीं बल्कि भूजल का भी भरपूर दोहन कर रहे हैं, यह चिंता की बात है।

20 मार्च 2017 को नैनीताल हाईकोर्ट का एक फैसला आया कि गंगा- यमुना जीवित इंसान हैं। जिसमें ग्लेशियरों और पेड़ पौधों को भी शामिल किया गया है। यद्यपि हाईकोर्ट का यह फैसला उत्तराखंड तक ही सीमित है। इसे अन्य प्रदेशों में भी लागू किया जाना चाहिए। नदियों के अस्तित्व को बचाने में कारगर उपाय हो सकता है। नदियों की जीवंतता उसके बहते रहने में है। नदियों के वेग को बनाये रखना, प्रदूषण और गंदगियों से भरे नालियों से बचाये रखना हमारी जिम्मेदारी है।

सम्पर्कः डागा कालोनी, चांपा (छ.ग.)

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