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Sep 3, 2021

अनकही- छोटे सपने ऊँची उड़ान

-डॉ. रत्ना वर्मा

मंजिल उन्हीं को मिलती है, 

जिनके सपनों में जान होती है।

पंख से कुछ नहीं होता, 

हौसलों से उड़ान होती है।

सपने सब देखते हैं । सपने देखने के लिए अमीर या गरीब नहीं होना होता। बचपन के सपने बहुत छोटे- छोटे होते हैं, बड़े होकर वही सपने बड़े होते जाते हैं। उन सपनों को पूरा करने के लिए स्वयं के साथ, माता-पिता को, उनके शिक्षकों को प्रयास करना पड़ता है, उन्हें प्रोत्साहित करना होता है । उनके सपनों की उड़ान को पंख लगाने होते हैं, तब कहीं जाकर उनके सपने सच होते हैं।

मणिपुर के एक छोटे से गाँव में रहने वाली मीराबाई चानू ने भी पहले तीरंदाज बनने के सपने देखे थे; लेकिन इस सपने के पूरा करना उसके बस की बात नहीं थी। फिर भी चानू ने  हार नहीं मानी और उसने सपने देखना जारी रखा। उसके सपनों को पंख तब लगे, जब कक्षा आठ की किताब में उसने कुंजरानी के बारे में पढ़ा । बस फिर क्या था, उसी दिन उसने तय कर लिया कि वह वेटलिफ्टर ही बनेगी।  

इसी तरह बचपन से सपने देखने वाली वेटलिफ्टर मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलम्पिक 2021 में भारत के लिए पहला मैडल जीतकर देश का मस्तक ऊँचा किया है । चानू ने यह दिखा दिया कि मन में अगर लगन हो तो राह में कितनी भी कठिनाई आए उसे पूरा करने से कोई रोक नहीं सकता। कई पदक और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मीराबाई उन सब बच्चों के लिए एक उदाहरण है, जो सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए कठिन परिस्थितियों का सामना भी करते हैं।

मीराबाई के लिए यहाँ तक का सफर आसान नहीं था । छह भाई- बहनों में सबसे छोटी चानू बेहद गरीब परिवार से आती है। बचपन में भले ही उसने तीरंदाज बनने का सपना देखा हो, पर जंगल से खाना बनाने के लिए लकड़ियों का गट्ठर उठाते- उठाते उसने वेटलिफ्टर बनने तक का यह सफर तय किया। चानू का परिवार उसके लिए लोहे का बार भी नहीं खरीद सकता था, तो उसे बाँस के बार से प्रेक्टिस करना पड़ा।  उसे अपने गाँव से खेल अकादमी तक पहुँचने के लिए 60 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था, वहाँ  तक पहुँचने के लिए उसके पास साधन नहीं था। ऐसे में वह उन ट्रक ड्राइवरों से लिफ्ट लिया करती थी, जो नदी की रेत इम्फाल तक ले जाने का काम किया करते थे। जाहिर था कि रजत पदक पाने के बाद उसने सबसे पहले उन ट्रक ड्राइवरों को याद किया; क्योंकि उसका कहना है कि यदि वे न होते, तो वह यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती। तभी तो टोक्यो से भारत आने के बाद सबसे पहले चानू ने उन ट्रक ड्राइवरों को तलाशा और उन्हें सम्मानित किया। चानू का यह व्यवहार उसके जमीन से जुड़े होने का सबूत है । तभी तो उसने अपने माता पिता से मिले सहयोग के बाद उन सबको धन्यवाद कहा जिनकी मदद से वह यह पदक हासिल करने में कामयाब हुई।

जब कोई खिलाड़ी पदक जीत जाता है, तो हम बहुत खुश होकर उस खिलाड़ी के संघर्ष के दिनों की कहानियों को पूरी दुनिया को सुनाते है । पर देखा जाए तो यह बात हमारे लिए शर्मनाक है कि हम अपने देश के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को भूलभूत सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं करा पाते और उम्मीद करते हैं कि वह हमारे देश के लिए  गोल्ड मैडल जीत कर लाए। हम सब जानते हैं कि एक खिलाड़ी के लिए पौष्टिक भोजन, प्रेक्टिस के लिए जगह और साधन, बेहतर कोच आदि सबकी आवश्यकता होती है। परंतु क्या हमारी सरकारें ये सब सुविधाएँ प्रतिभावान खिलाड़ियों को उपलब्ध करवा पाती हैं, यदि उपलब्ध होतीं, तो चानू को ट्रक वालों से लिफ्ट लेने की आवश्यकता क्यों पड़ती, उन्हें अपने परिवार के लिए सिर पर लकड़ी का गट्ठर क्यों उठाना पड़ता?

आप उन देशों की ओर एक नजर डालिए, जो अपने देश के लिए लगातार मैडल की संख्या बढ़ाते चले जाते हैं। क्यों ? जाहिर है -उनके देश की सरकार उनके लिए बेहतर खेल की सुविधाएँ प्रदान करती है। बहुत छोटी उम्र से ही उनकी ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। उनके लिए उनके माता- पिता को संघर्ष नहीं करना पड़ता, न गरीबी के कारण चानू जैसी लड़कियों को ट्रक वालों से लिफ्ट लेनी पड़ती । आप स्वयं ही सोचिए, जब वे मैडल जीतकर आते हैं, तब पूरा देश गौरवान्वित होता है, तो जो गौरव प्रदान करता है उसकी ऐसी उपेक्षा क्यों?

जिस प्रकार शिक्षा जीवन के लिए आवश्यक है उसी तरह बच्चों के जीवन में खेल का अपना विशेष महत्त्व है। बेहतर और प्रतिभावान खिलाड़ी चाहिए, तो उन्हें बचपन से ही खेल का माहौल उपलब्ध कराना होगा। खेल को भी आवश्यक विषय के रूप में जब तक शामिल नहीं किया जाएगा तब तक हम अपने खिलाड़ियों से बेहतर की उम्मीद नहीं कर सकते । जिस प्रकार बच्चा एक समय बाद अपने मनपसंद विषय पर आगे की पढ़ाई करते हुए अपना कैरियर बनाता है, उसी तरह खेल को भी पढ़ाई का एक हिस्सा बनाना होगा। ताकि अधिक से अधिक बच्चे खेल की तरफ आकर्षित हों और उसमें अपना कैरियर बनाते हुए अपने को असुरक्षित महसूस न करें। पर हमारे यहाँ उल्टा होता है -जब खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई उपलब्धि हासिल करके लौटता है, तब कहीं जाकर उसे एक अच्छी नौकरी और सभी प्रकार की सुविधाएँ देकर सम्मानित किया जाता है। जरा सोचिए यदि हम पहले ही उसे ये सारी सुविधाएँ उपलब्ध करा दें, तो उसका खेल और कितना निखरेगा और वह बिना किसी तनाव के निश्चिंत होकर खेलेगा और मैडल जीतेगा।

खेल से जुड़ी एक बहुत ही शर्मनाक बात का उल्लेख यहाँ करना चाहूँगी- ओलम्पिक में  महिला हॉकी खिलाड़ियों अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, भले ही वे मैडल नहीं जीत पाईं । पर इसका ये मतलब तो नहीं हम उनका अपमान करें। हमारे ही कुछ अपनों ने उनके भारत आने पर  बजाय उनकी हौसला अफजाई करने के, उन्हें अपमानित किया। वंदना कटारिया के घर के सामने हुड़दंग तो मचाया ही, साथ ही उनकी जाति को लेकर की गई टिप्पणी, कि महिला हॉकी टीम इसलिए हारी क्योंकि टीम में दलित खिलाड़ियों की संख्य़ा अधिक है। आज के समय में भी यदि हमारे देश में इस प्रकार की सोच रखने वाले लोग हैं तो यह हम सभी भारतीयों के लिए शर्म की बात है। हम उनका मान नहीं रख सकते, तो कम से कम अपमान तो न करें।

3 comments:

विजय जोशी said...

बहुत ही सारगर्भित आलेख. बुनियादी सुविधाओं और समस्याओं की ओर इंगित करता हुआ. दुर्भाग्य देश का कि अब भी हम ओछी मानसिकता के दौर में जी रहे हैं. बेहद साहसिक प्रयास. सो हार्दिक बधाई आभार एवं भविष्य के लिये शुभकामनाओं सहित. सादर

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सही बिंदुओं को उठाता महत्त्वपूर्ण आलेख। कुछ लोगों की विकृत मानसिकता अच्छे खिलाड़ियों का मनोबल तो गिराती ही है दुनिया के सामने हमारी छवि भी धूमिल होती है।सुंदर आलेख हेतु बधाई।

Sudershan Ratnakar said...

महत्वपूर्ण आलेख। आपने सही कहा , कुछ विकृत मानसिकता वाले लोग खिलाड़ियों के प्रयासों की सराहना न कर उनका मनोबल गिराते हैं।बहुत सुंदर। हार्दिक बधाई