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Nov 3, 2020

कविता- औरत- गाथा

प्रेम गुप्ता मानी

औरत बनने से पहले

वह एक बच्ची थी

जो माँ की उँगली पकड़ कर

मचलती थी

घर में-

बाज़ार में-

मेहमानो से लबरेज़ ड्राइंगरूम में-

सिर्फ़ एक गुड्डे के लिए

औरत होने से पहले

वह एक लड़की थी

जो सोलहवें वसन्त के इंतज़ार में

माँ से आँखें चुरा कर

डोलती थी-

छज्जे पर...

सड़कों पर....

और स्कूल के गेट पर...

पर,

सीटी मारता वसन्त

मिलता पान की दुकान पर

औरत बनने के बाद

वह एक स्त्री थी

जो अपने घोंसले के

नन्हें से आँगन में

ममता से भरी

धूप-छाँव की तरह

खेलती थी-

दुःख-सुख के साथ आँखमिचौली

 

औरत की पहचान पाने से पहले

वह एक माँ थी

मुंडेर पर बैठी धूप की तरह

अपने पंख फैलाए...

बारिश...तपन...छाँव को अपने भीतर समेटे

सॄष्टि की श्रेष्ठ रचना

वह खुश थी

किसी गौरैया की तरह

अपनी डाल पर बैठी

चोंच से दाना चुगाती बच्चों को

पर अब?

ज़िन्दगी की सारी सीढ़ियाँ फलांगकर

वह खड़ी है,

आकाश के आँगन में

एक भरी-पुरी औरत की तरह

सॄष्टि अब उसकी मुठ्ठी में है

पर फिर भी,

हथेली खाली है

खाली हथेली में अपनी पहचान खोजती

औरत पशोपेश में है

औरत होने से पहले पूरा आकाश था

उसकी आगोश में

वसन्त उसकी प्रतीक्षा में था

छाती से उतरता अमृत था

पर अब?

एक पूरी औरत बन कर भी

उसके पास कुछ भी नहीं

न घर-

न आँगन-

न खिलौना-

न आकाश...

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