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Mar 10, 2017

पर्व- संस्कृति:

   रंग नहीं जानते जाति धर्म  
            - गिरीश पंकज

रंग-संग खेलेंगे प्यार से जरा,
कह दो ये कह दो, संसार से ज़रा ।
रंग नहीं जानते हैं जाति-धर्म को,
रंग नहीं मानते हैं, छूत-कर्म को।
गले लग जाओ, हर मानव से तुम
भूल जाओ तुम, झूठे लाज शरम को।
ऊपर उठ जाओ, तकरार से ज़रा।  

प्रेम की बोली हो, मस्ती हो, ठिठोली हो. तब हर दिन ही होली हो।  यही सोच हमारे जीवन को रंगों से सराबोर कर सकती है।  होली, फाग अथवा रंगोत्सव, हमारी सांस्कृतिक विरासत की एक ऐसी कड़ी है, जिसके बिना हम अपने जीवंत समाज की परिकल्पना ही नहीं कर सकते। होली, महज रंगों का ही त्योहार नहीं है, वरन रंगों के माध्यम से हमारे जीवन के उल्लास और आपसी सद्भावना के लिए निरन्तर अभिप्रेरित करने की गौरवशाली परम्परा भी है। भगवान कृष्ण के समय का 'ब्रज', जैसे साल भर होली की प्रतीक्षा में ही व्याकुल रहा करता था; इसीलिए तो होली का दिन पास आते ही समस्त ब्रजवासी 'फगुआ' जाते थे। फागमय हो जाते थे। गोकुल, बरसाने, वृंदावन और मथुरा के गली-कूचों में रंगों का ऐसा इन्द्रधनुष बनता था, जिसकी छटा लोगों के अंतस में अमिट हो जाया करती थी। प्रेम और भाईचारे के रूप में।
और अब? खेद है कि रंगों की इन्द्रधनुषी छटा अब धूमिल पड़ती जा रही है। आज इस अमानवीय होते हाईटेक-परिवेश में जब आदमी की करुणा मरती जा रही है, उत्सवादि बेमानी और महज औपचारिक होते जा रहे हैं। न केवल औपचारिक होते जा रहे हैं, वरन् अलगाववादी भी हो गए हैं। आज सभी धर्मावलम्बियों के उत्सव-पर्व अजीब-सी दहशत भर देते हैं। त्योहार आता है और मन में यह कुशंका घर कर जाती है कि कहीं कोई दंगा-फसाद न हो जाए, कहीं कोई ऐसी अप्रिय वारदात न हो जाए,  जिससे
प्रेम और सद्भाव की महान परम्परा आहत हो जाए। समझदार और विश्वबंधुत्व की मंगलकामना करने वाले लोगों के रहते अप्रिय वारदातें नहीं हो पातीं ; लेकिन धर्म, जिन लोगों के लिए व्यक्तिगत या जातिगत आस्था का सवाल है, और धर्म जिनका पागलपन बन चुका है, ऐसे लोगों के चलते माहौल में कटुता बिखर ही जाती है। और, यहीं से शुरू होती हे, उत्सव को 'विद्वेष' बना देने की गैर मानवीय प्रवृत्ति।
हर धर्म, मजहब के तमाम पर्वोत्सव में आपसी सद्भाव की बातें निहित रहती हैं, लेकिन 'होली' का अपना विशेष महत्व है, क्योंकि इस पर्व का बुनियादी लक्ष्य ही यही है कि गुलाल-अबीर और इन्द्रधनुषी रंगों के आदान-प्रदान के साथ गले लगाते हुए, न केवल मन का सारा कलुष भी धो दिया जाए, वरन् आपसी प्रेम का ऐसा रंग भी चढ़ा दिया जाए, जो आजीवन छुटाए नहीं छूटे। होली को इसी रूप में लेना चाहिएलेकिन चाह कर भी ऐसा परिदृश्य तैयार कर पाने में हमें सौ फीसदी सफलता नहीं मिल पाई है। एकदम से हताशा की या भयावह स्थिति नहीं है, तथापि दरके हुए जीवन-दर्शन की बढ़ती कुरूपता को स्पष्ट देखा जा सकता है। महसूसा जा सकता है.. होली को एक सांस्कृतिक एक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह लेने की ज़रूरत  है। होली केवल एक धर्म की धरोहर क्यों बने? इसे विराट रूप क्यों न दे दिया जाए ? जिस विश्व बंधुत्व की बात हमारे महापुरुष करते रहे हैं, वह इसी तरीके से तो आ पाएगा! होली ही क्यों, सभी त्योहारों का विभिन्न धर्मों के साथ ऐसा तालमेल हो जाना चाहिए कि लगे ही नहीं, त्योहार किसी धर्म विशेष की धरोहर है। त्योहारों का विराटीकरण हो जाने से हम नए युग-बोध से संपृक्त होकर एक ऐसे परिवेश की सृष्टि कर सकेंगे जिसकी समकालीन समाज को सख्त ज़रूरत है।
होली के साथ यह गुंजाइश कुछ और अधिक इसलिए भी बढ़ जाती है कि इसमें मानव जीवन के हास-उल्लास की भरपूर गुंजाइश रहती है। होली एक ऐसा पर्व है, जिसमें आप किसी के मुख पर कालिख भी पोत सकते हैं, वह कुछ भी नहीं कहेगा, बशर्ते  वह रंग ही हो, कोलतार या कीचड़ न हो। बशर्ते वह भाँग हो, दारू नहीं। होली में आप किसी को भी रंगों की नदी डुबो दीजिए, 'बुरा न मानो होली है...' कह कर मज़ाक  भी कर लीजिए, कोई बुरा नहीं मानेगा। बशर्ते मज़ाक शालीन हो। होली के माध्यम से आप अपनी कुंठा का नग्न प्रदर्शन अथवा किसी का चरित्रहनन करने की घटिया कोशिश करेंगे, तो होली की मूल प्रवृत्ति आहत करने के बराबर है। होली को अंगरेजी  के 'होली' (पवित्र) के रूप में मनाया जाए, तो इस त्योहार की गरिमा और आनंद सौ गुना बढ़ जाए, जिसकी कमी बेहद खलती है। होली को अपनी
शैतानियों के प्रदर्शन का साधन बनाने की मानसिकता के कारण ही सभ्यजन होली के दिन बाहर निकलने से डरने लगे हैं। कब, कौन, कहां से निकल कर मुख में कीचड़, शरीर पर केंवाच, रंग भरे गुब्बारे आदि दाग कर आगे बढ़ जाए, कहा नहीं जा सकता। आप की इच्छा के विपरीत पूरी निर्लज्जता के साथ होली मनाने के मूड में मनचले लड़के कब आपका कपड़ा तार-तार कर दें, कब आपके सायकल-स्कूटर की हवा निकाल दें, प्रतिरोध करने पर आपको कब कोई अचानक पीट दे, कहना मुश्किल ही है। इस तरह के हादसे होते रहे हैं। इस तरह की हरकतों ने होली को एक 'डराने वाले त्योहार' के रूप में तब्दील कर दिया है।
इन तमाम पहलुओं को (कुछ छूट भी गए हैं) देखते हुए लगता है कि 'होली हमारे लिए एक कड़ुवा स्वाद' ले कर उपस्थित होती है, लेकिन कड़ुवाहट की कुछेक दुर्घटनाओं को छोड़ दें ,तो होली आज भी रस-रंग से सराबोर कर देने वाला त्योहार है। होली के आते ही मस्ती का ऐसा ज्वार उमड़ता है कि लोगबाग रोजमर्रा की परेशानियों को बिसरा कर रंगों के 'सागर' में एकरस हो जाते हैं। 'फाग-कबीरा' और ढपली के साथ थिरकती टोलियों को देखिए, लगता ही नहीं है कि ये लोग महँगाई या और इसी तरह की अनेक परेशानियों से घिरे हुए हैं। दरअसल होली हमारे अंतस् में ऐसा नवोमंग भर देती है कि हम होलीमय परिवेश में सब कुछ भूल कर जीवन को इस दर्शन से प्रतिबद्ध कर देते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है और इसके हर पल को आस्था-विश्वास और मनोरंजन के साथ जी लेना चाहिए।
'
हँसी जीवन का प्रभात है।' किसी महापुरुष का यह कथन होली के संदर्भ में भले ही न कहा गया हो, पर इससे जोड़कर ज़रूर  समझा जा सकता है। होली हँसी-ठिठोली का त्योहार है। मनहूसियत का इससे कोई वास्ता नहीं। इसलिए होली में हम लोग महामूर्ख सम्मेलन जैसे आयोजन भी करते हैं। इसके पीछे सोच यही है कि एकाध दिन तो हम अपनी 'तथाकथित' बुद्धिमानी को बलाए ताक रखकर जीवन जिएँ। एक-दूसरे को मूर्ख बना कर और खुद भी 'मूर्ख'बन कर जीवन को सरसता से भर दें। मूर्ख बनने और बनाने का सुख भी अलग किस्म का होता है। एक अप्रैल को मनाए जाना वाला 'अंतरराष्ट्रीय मूर्ख दिवस' क्या है? आदमी की, जीवन में मूर्खता के साथ हँसने-मुस्कराने के कुछ पल देने की कोशिश ही तो है। होली में हम लोग मूर्खता भरी हरकतें करते और झेलते हैं और बुरा भी नहीं मानते।
बस, इस होली को सम्प्रदायवाद से ऊपर ले जाने की आवश्यकता  है। होली सिर्फ हिन्दुओं का त्योहार बन कर क्यों रहे ! यह सभी धर्मावलंबियों का त्योहार क्यों न बने!! इसके लिए पहल उन जागरूक लोगों को ही करनी होगी, जो यह मान कर चलते हैं कि इस विशाल और धर्मनिरपेक्ष भारत में केवल हिंदू भर नहीं रहते, इस देश में अनेक धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं। अत: उत्सव-पर्वों के दौरान समस्त धर्मावलंबियों को एकजुट हुकर आनंदित होना चाहिए। 'होली-मिलन' जैसे सार्वजनिक आयोजनों में सभी धर्मों के लोगों को आमंत्रित किया जाना चाहिए। प्रेम और सद्भाव का ऐसा रंग चढ़ाया जाना चाहिए ,जो जीवन भर न उतर सके। न केवल होली, वरन समस्त त्योहारों को इसी तरह मनाने की आवश्यकता  है। तभी समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव का 'इन्द्रधनुष'  रच पाने में हम सफल हो सकेंगे। होली के 'रंग' सबके गालों (वो चाहे काले हों, गोरे हों या चिकने हों। रंग जैसे धर्म निरपेक्ष होते हैं, उसी तरह हमारी दृष्टि भी होनी चाहिए। होली को इस नई सांस्कृतिक सोच से जोड़ कर देखेंगे, तो नए मूल्यों की रचना तो होगी ही, समाज में सुख-शांति का ऐसा माहौल बन जाएगा, जिसकी सबको अपेक्षा है। इस हेतु मिल-जुलकर पहल करने की ज़रूरत है। शुरूआत इसी होली से क्यों न हो?
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