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Aug 15, 2014

काल की शिला पर अंकित क्रान्ति

                 1857 पर विशेष
      काल की शिला पर अंकित क्रान्ति


                         - कृष्ण कुमार यादव

1857 के वर्ष का भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। यह वह वर्ष है, जिसे भारतीय वीरों ने अपने शौर्य की कलम को रक्त में डुबो कर काल की शिला पर अंकित किया था और ब्रिटिश साम्राज्य को कड़ी चुनौती देकर उसकी जड़ें हिला दी थीं। 1857 का वर्ष वैसे भी उथल-पुथल वाला रहा है। इसी वर्ष कैलिफोर्निया के तेजोन नामक स्थान पर 7.9 स्केल का भूकम्प आया था तो टोकियो में आए भूकम्प में लगभग एक लाख लोग और इटली के नेपल्स में आए6.9 स्केल के भूकम्प में लगभग 11,000 लोग मारे गए थे। 1857 की क्रान्ति इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि ठीक सौ साल पहले सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त कर राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेजी राज की भारत में नींव डाली थी। विभिन्न इतिहासकारों और विचारकों ने इसकी अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्याएँ की हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और महान चिन्तक पं.जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि- 'यह केवल एक विद्रोह नहीं था, यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जन विद्रोह के रूप में परिणति हो गया था।बेंजमिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे 'राष्ट्रीय विद्रोहबताया। प्रखर विचारक बी.डी.सावरकर व पट्टाभि सीतारमैया ने इसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जॉन विलियम ने सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष व जॉन ब्रूस नॉर्टन ने 'जन-विद्रोहकहा। मार्क्सवादी विचारक डा. राम विलास शर्मा ने इसे संसार की प्रथम साम्राज्य विरोधी व सामन्त विरोधी क्रान्ति बताते हुए 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी शृंखला की प्रथम महत्त्वपूर्ण कड़ी बताया। प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक विचारक मैजिनी तो भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे और उनके अनुसार इसका  असर तत्कालीन इटली, हंगरी व पोलैंड की सत्ताओं पर भी पड़ेगा और वहाँ की नीतियाँ भी बदलेंगी।
 1857 की क्रान्ति को लेकर तमाम विश्लेषण किए गए हैं। इसके पीछे राजनैतिक-सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक सभी तत्व कार्य कर रहे थे, पर इसका सबसे सशक्त पक्ष यह रहा कि राजा-प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, पुरुष-महिला सभी एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। 1857 की क्रान्ति को मात्र सैनिक विद्रोह मानने वाले इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि कई ऐसे भी स्थान थे, जहाँ सैनिक छावनियाँ न होने पर भी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध क्रान्ति हु। इसी प्रकार वे यह भूल जाते है कि वास्तव में ये सिपाही सैनिक वर्दी में किसान थे ,और किसी भी व्यक्ति के अधिकारों के हनन का सीधा तात्पर्य था कि किसी-न-किसी सैनिक के अधिकारों का हनन, क्योंकि हर सैनिक या तो किसी का पिता, बेटा, भाई या अन्य रिश्तेदार है। यह एक तथ्य है कि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा लागू नए भू-राजस्व कानून के खिलाफ अकेले सैनिकों की ओर से 15,000 अर्जियाँ दायर की गयी थीं। डॉ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के शब्दों में- 'सन् 1857 की क्रान्ति को चाहे सामन्ती सैलाब या सैनिक गदर कहकर खारिज करने का प्रयास किया गया हो, पर वास्तव में वह जनमत का राजनीतिक-सांस्कृतिक विद्रोह था। भारत का जनमानस उसमें जुड़ा था, लोक साहित्य और लोक चेतना उस क्रान्ति के आवेग से अछूती नहीं थी। स्वाभाविक है कि क्रान्तिसफल न हो तो इसे 'विप्लवया 'विद्रोहही कहा जाता है।यह क्रान्ती कोई यकायक घटित घटना नहीं थी, वरन् इसके मूल में विगत कई सालों की घटनाएँ थीं, जो कम्पनी के शासनकाल में घटित होती रहीं। एक ओर भारत की परम्परा, रीतिरिवाज और संस्कृति के विपरीत अंग्रेजी सत्ता एवं संस्कृति सुदृ हो रही थी तो दूसरी ओर भारतीय राजाओं के साथ अन्यायपूर्ण कार्रवाई, अंग्रेजों की हड़पनीति, भारतीय जनमानस की भावनाओं का दमन एवं विभेदपूर्ण व उपेक्षापूर्ण व्यवहार से राजाओं, सैनिकों व जनमानस में विद्रोह के अंकुर फूट रहे थे।
कहा जाता है कि इस क्रान्ति के बीज जनमानस के बीच बोने हेतु प्रतीकात्मक रूप में 'कमलऔर 'चपातीबाँटी गयीं। कमल का फूल हर सैनिक रेजीमेंटो में घुमाया जाता था, जहाँ वह हर किसी के हाथ से गुजरता था। जिस सैनिक के हाथ में यह कमल सबसे अंत में जाता, वह अपने पास की रेजीमेंट तक यह कमल पहुँचा देता था और वहाँ भी यही प्रक्रिया होती थी। कमल का फूल स्वीकारने का कूट अर्थ यह था कि रेजीमेंट के सभी सिपाही क्रान्तिमें भाग लेने के लिए तैयार हैं। इस तरह के सहस्रों कमल पेशावर से बैरकपुर तक विभिन्न रेजीमेंटो के अन्दर घुमाए गए। इसी प्रकार चपातियों को घुमाने के लिए चौकीदारों का इस्तेमाल किया गया। एक गाँव का चौकीदार चपाती लेकर दूसरे गाँव के चौकीदार तक पहुँचाता। चपाती मिलने पर वह चौकीदार थोड़ी सी स्वयं खाकर बाकी गाँव के दूसरे लोगों को खिला देता और फिर उसी तरह की चपातियाँ बनवाकर अपने पास के गाँव के चौकीदार तक भिजवा देता। चपातियाँ स्वीकारने का कूट अर्थ था कि उस गाँव की जनता क्रान्ति में भाग लेने के लिए तैयार है। धीरे-धीरे इस पद्धति से गाँव-गाँव और नगर-नगर क्रान्ति का संदेश पहुँचाया गया। कुछेक इतिहासकारों के अनुसार तमाम रजवाड़ों, सिपाहियों  और जनमानस की भावनाओं को टटोल कर पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया और बहादुर शाह को सम्राट बनाकर नाना पेशवा को उनका प्रधानमंत्री बनाने की राजनीतिक व्यवस्था भी तय की ग। पर वक्त को कौन मुट्ठी में बाँध पाया है ... सो मंगलपांडे की शहादत ने सिपाहियों को समय से पूर्व ही क्रान्ति का बिगुल बजाने पर मजबूर कर दिया। चूँकि उस समय संचार साधन इतने उन्नत नहीं थे, सो 11 मई को दिल्ली में हुयी घटना को पूरे देश में फैलने में महीने भर का समय लग गया।
1857 की क्रान्ति की शुरूआत एक तरह से 29 मार्च 1857 को कलकत्ता से 16 किलोमीटर दूर स्थित बैरकपुर छावनी में 34वीं नेटिव इन्फेंट्री के सिपाही मंगल पांडे द्वारा गाय की चर्बी वाले कारतूसों को चलाने से मना करने से हुई। जोर-जबरदस्ती करने पर मंगल पांडे ने अंग्रेज सार्जेंट मेजर जेम्स थार्नटन हृासन को परेड ग्रांउड में गोली मार दी। उसी समय लेफ्टिनेंट एडजुटेंट बेम्पडे हेनरी वॉग घोड़े पर सवार होकर आया तो वह भी मंगल पांडे की बन्दूक का निशाना बना। इसकी प्रतिक्रिया में 8 अप्रैल 1857 को अंग्रेजी शासन ने मंगल पांडे को फाँसी दे दी तथा पूरी छावनी को भंग कर दिया। मंगल पांडे को इस क्रान्ति का पहला शहीद सिपाही कहा गया। इस घटना के कुछ दिन बाद ही 24 अप्रैल 1857 को मेरठ छावनी स्थित थर्ड लाइट कैवेलरी के 85 सिपाहियों द्वारा रंगून से आए गाय की चर्बी युक्त कारतूसों को हाथ लगाने से मना कर दिया गया। इन सभी सैनिकों को अंग्रेजी शासन ने बागी करार देकर 10-10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाकर जेल में डाल  दिया। 9 मई 1857 को उन्हें एक सभा में सार्वजनिक रूप से अपमानित कर व उनकी वर्दियाँ उतार कर हथकड़ी-बेडिय़ाँ पहनाकर जेल भेज दिया गया। इससे बौखलाए मेरठ छावनी की तीन रेजीमेंटों के सिपाहियों ने अगले दिन रविवार, 10मई 1857 को जब अंग्रेज चर्च जाने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक अंग्रेजी शासन से बगावत कर क्रान्ति का बिगुल बजा दिया और वहाँ शस्त्रागार को लूटकर सिपाहियों को जेल तोड़कर छुड़ा  लिया। इसके बाद  इन विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की तरफ कूच किया जहाँ नेटिव इन्फेंट्री की तीन रेजीमेंट मौजूद थीं। 11 मई को दिल्ली पहुँचकर इन सैनिकों ने लाल किले पर धावा बोल कैप्टन डगलस को मार गिराया और बहादुरशाह जफर से नेतृत्व की अपील की। तब तक इनके साथ अंग्रेजी शासन से त्रस्त लोगों का कारवाँ भी जुड़ता गया था और देखते ही देखते मेरठ में विद्रोही सैनिकों से आरम्भ इस स्वाधीनता संग्राम में राजाओं-नवाबों सहित किसान, मजदूर, हिन्दू, मुसलमान, महिलाएँ व सामान्य जन सभी शामिल होते गए। मेरठ एवं दिल्ली से चली इस चिंगारी ने शीघ्र ही देश के तमाम हिस्सों में हलचल पैदा कर दी। इस संग्राम का आखिरी बड़ा युद्ध 21 जनवरी 1859 को राजस्थान के सीकर में हुआ। सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं अपितु इसका प्रभाव महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, गोवा, पांडिचेरी इत्यादि राज्यों में भी व्याप्त था।
12 मई 1857 को दिल्ली पर कब्जा पश्चात 1857 की क्रान्ति का नेतृत्व दिल्ली में बहादुर शाह जफर ने किया। बहादुर शाह जफर ने बख्त खाँ कौ सैन्य नेतृत्व सौंपा और कई राजाओं को पत्र भेजकर अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का आह्वान किया। लखनऊ में इस क्रान्ति के तारतम्य में 4 जून को अवध की बेगम हजरत महल ने अपने नाबालिग लड़के बिरजिस कादर को नवाब घोषित कर अंग्रेजों से लोहा लिया। ब्रिटिश सेना ने हारकर रेजीडेंसी में शरण ली, जिसमें क्रान्तिकारियों ने आग लगा दी। इसमें तमाम सैनिकों सहित ब्रिटिश रेजीडेंट हेनरी लारेंस की मौत हो गई। कानपुर में 5 जून को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ और नाना साहब ने क्रान्ती की बागडोर संभाली। तात्या टोपे व अजीमुल्ला खान के सहयोग से नाना साहब ने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर देकर आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने नेतृत्व करते हुए ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी और जनरल ह्यूरोज द्वारा पराजित होने पर तात्या टोपे की सहायता से ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। कानपुर में क्रान्ति के सूत्रपात के समय से कदाचित कोई कोई ही मास ऐसा गया होगा जबकि तात्या टोपे ने किसी नए स्थान पर जाकर क्रान्ति का सन्देश न सुनाया हो या उत्साहहीन पराजित क्रान्तिकारी सेना का सुसंगठन न किया हो या युद्धक्षेत्र में किसी सेना का संचालन न किया हो। तभी तो गुरिल्ला युद्ध में माहिर तात्या टोपे हेतु अंग्रेज़ों ने लिखा कि- यदि उस समय भारत में आधा दर्जन भी तात्या टोपे सरीखे सेनापति होते तो ब्रिटिश सेनाओं की हार तय थी। इसी प्रकार फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्लाह, मथुरा में देवी सिंह, मेरठ में करम सिंह, इलाहाबाद में लियाकत अली व बरेली में खान बहादुर खान ने क्रान्ति का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। बनारस, आजमगढ़, इटावा, अलीगढ़, बुलन्दशहर, मुरादाबाद, रुहेलखण्ड जैसे क्षेत्र भी इस क्रान्ती से अछूते नहीं रहे। बिहार में इस क्रान्ती का नेतृत्व जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने किया और आरा के निकट ब्रिटिश सैनिकों को पराजित किया। सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार ही नहीं पंजाब व हरियाणा के लोगों ने भी इस क्रान्ति में आहुति दी। मेवात में सदरुद्दीन नामक किसान ने नेतृत्व की बागडोर सँभाली तो पानीपत में बूअली कलंदर के इमाम के नेतृत्व में लोगों ने भाग लिया। पंजाब में इस क्रान्ति का असर तेजी से फैला और नतीजन अंडमान जेल में पहला क्रान्तिकारियों का जो जत्था भेजा गया, उसमें 206 पंजाब से थे।
महाराष्ट्र भी इस क्रान्ति से अछूता नहीं रहा और लगभग 20 स्थानों पर देशी सैनिकों व स्थानीय जनों ने इस क्रान्ति में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 1840 में सतारा के पूर्व राजा प्रताप सिंह के वकील रूप में लंदन जाने वाले रंगा बापूजी गुप्ते के नेतृत्व में 10 जून को सतारा व 13 जुलाई को पंढरपुर में क्रान्ति को प्रज्वलित किया गया। कोल्हापुर में इस बीच सैनिक विद्रोह हुए। हैदराबाद में सोनाजी पंत व रंगाराव पांडो, गंजम में राधाकृष्ण दण्डसेन, गोलकुंडा में चिंताभूपति व उनके भतीजे संन्यासी भूपति ने संघर्ष का आह्वान कर नेतृत्व किया। मछलीपट्टम व गुंटूर के इलाके भी क्रान्ति से अछूते नहीं रहे। कर्नाटक में जून 1857 में रामचन्द्र राव ने अंग्रेजों के विरुद्ध प्रचार किया। जुलाई में बंगलौर स्थित मद्रास सेना की 8वीं घुड़सवार सेना व अगस्त में बेलगाँव में 20वीं पैदल सेना की पलटन ने विद्रोह किया। कर्नाटक में मैसूर बीजापुर, शोरापुर, धारवाड़, कारवाड़, जमाखिंडी, नर्गुण्ड, कोप्पल, सतारा व बेलगाँव इत्यादि क्रान्ति के प्रमुख क्षेत्र रहे। प्रमुख क्रान्तिकारियों में राघोबा फडऩवीस, शाँता राम फडऩवीस, सिद्दि बेनोवे इत्यादि रहे। तमिलनाडु में मद्रास चिंगलपुर, उत्तरी, अरकाट, सेलम, तंजौर, मदुरई कोयम्बटूर, तिरुनेलवेली क्रान्ति के प्रमुख केन्द्र रहे। जून 1857 में प्रथम मद्रास सैनिक पल्टन ने कूच करने से इन्कार कर दिया तो 27 जुलाई 1857 को चिंगलपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति भड़क उठी। यहाँ तक कि दो प्रमुख मन्दिर मनिपकम व पल्लवरम भी क्रान्तिकारियों के अड्डे बने और अरनागिरि व कृष्णा ने ज्योतिषी के भेष में क्रान्ति की ज्वाला पैदा की। केरल में कोचीन, कालीकट, किणलोर व त्रावणकर में लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध इंडा उठाया। गोवा में इस क्रान्ति का नेतृत्व दीपूजी राणा ने किया। कानपुर में अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देकर क्रान्ति का नेतृत्व करने वाले नाना साहब अंत तक देश में स्थित अन्य क्रान्तिकारियों से सम्पर्क बनाए रहे। शोरापुर के राजा ने नाना साहब को विद्रोह के लिए संदेश भेजे और हैदराबाद के सोनाजी पंत ने एक पत्र रंगाराव पांडो के द्वारा नाना साहब को भेजा तो इसके जवाब में नाना साहब ने 18 अप्रैल 1858 को दक्कन के लिए एक घोषणा पत्र भेजा। इससे साफ है कि 1857 की क्रान्ति की ज्वाला समूचे देश में विस्तृत हुयी और इसमें सभी क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक और जातीय सम्प्रदाय व वर्गों ने भाग लिया। उस समय के सरकारी दस्तावेजों में जानकारी मिलती है कि हिमालय की तराई अर्थात जम्मू से लेकर दक्षिण में हैदराबाद और पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूरब में त्रिपुरा तक क्रान्ति की ज्वाला फैली। 1857 की क्रान्ति बैरकपुर व मेरठ के रास्ते दिल्ली से चारों तरफ चिंगारी की भाँति फैल गयी। यद्यपि 20 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुन: कब्जा कर लिया, पर देश के अन्य भागों में क्रान्ति का ज्वार खत्म नहीं हुआ था। जैसे-जैसे क्रान्ति की खबर फैलती जाती, वैसे-वैसे लोग इसमें शामिल होते जाते। इस संग्राम का आखिरी बड़ा युद्ध 21 जनवरी 1859 को राजस्थान के सीकर में हुआ। इस संग्राम के दौरान हजारों व्यक्ति शहीद हुए, हजारों को निर्वासित किया गया, कई नेतृत्वकर्ता छिपकर नेतृत्व करने के लिए पलायन कर गए और बड़ी संख्या में लोगों को कैद में ठूँस दिया गया।
1857 की क्रान्ति की सफलता-असफलता के अपने-अपने तर्क हैं पर यह भारत की आजादी का पहला ऐसा संघर्ष था, जिसे अंग्रेज समर्थक सैनिक विद्रोह अथवा असफल विद्रोह साबित करने पर तुले थे, परन्तु सही मायनों में यह पराधीनता की बेडिय़ों से मुक्ति पाने का राष्ट्रीय फलक पर हुआ प्रथम महत्त्वपूर्ण संघर्ष था। अमरीकी विद्वान प्रो.जी.एफ. हचिन्स के शब्दों में-'1857 की क्रान्ती को अंग्रेजों ने केवल सैनिक विद्रोह ही कहा, क्योंकि वे इस घटना के राजद्रोह पक्ष पर ही बल देना चाहते थे और कहना चाहते थे कि यह विद्रोह अंग्रेजी सेना के केवल भारतीय सैनिकों तक ही सीमित था; परन्तु आधुनिक शोध पत्रों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आरम्भ से सैनिक विद्रोह के ही रूप में हुआ, परन्तु शीघ्र ही इसमें लोकप्रिय विद्रोह का रूप धारण कर लिया।वस्तुत: इस क्रान्ति को भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध पहली प्रत्यक्ष चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। यह आन्दोलन भले ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति न दिला पाया हो, लेकिन लोगों में आजादी का जज्बा जरूर पैदा कर गया। 1857 की इस क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका कहा है, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो ग1857 के संग्राम की विशेषता यह भी है कि इससे उठे शंखनाद के बाद जंगे-आजादी 90 साल तक अनवरत चलती रही।
 
सम्पर्क: भारतीय डाक सेवा, निदेशक डाक सेवाएँ, इलाहाबाद परिक्षेत्र, इलाहाबाद (उ.प्र.)-211001 मो.08004928599,     Emai - kkyadav.y@rediffmail.com

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