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Mar 10, 2013

आपके पत्र

 बच्चों के लिए भी एक नन्हा कोना बने
 जनवरी अंक में मुख पृष्ठ से लेकर कागज, छपाई और प्रकाशित सामग्री की विषय वस्तु तक सभी कुछ अच्छा और स्तरीय लगा। संजय कुमार के लेख '.खत्म होते घर-आँगनकी चिंता विचारणीय है। भारतीय सामाजिक ढाँचे की बुनावट की शिथिलता समाज के लिये एक गम्भीर चेतावनी है। वर्तमान परिवेश में अर्थोपार्जन की वरीयता ने परिवार में आत्मीय सम्बन्धों की हत्या कर दी है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव नयी पीढ़ी पर पड़ रहा है और वह उग्र एवं असहिष्णु होती जा रही है।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा की रचना अच्छी लगी... बारिश में नहायी वल्लरी पर खिली धूप की तरह। उनका काव्य शिल्प मोहक है। पत्रिका में बच्चों के लिये भी यदि एक नन्हा सा कोना बन सके तो अच्छा होगा। आजकल बच्चों के लिये पर्याप्त लेखन नहीं हो पा रहा है। पत्रिका को राष्ट्रीय स्तर तक ले जाने के लिये लिये शुभकामनाएँ।
                                  -डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र, kaushalblog@gmail.com

 
वंदना परगनिहा के चित्र...
जनवरी अंक में प्रकाशित वन्दना परगनिहा के सभी चित्र मार्मिक मनोदशा को मुखर कर रहे हैं। भविष्य में भी इनकी तूलिका की सर्जन पाठकों तक पहुँचती रहेगी, ऐसा विश्वास है।
                -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु

 अपने संस्कार बच्चों को जरूर दें
 'तमसो मा ज्योतिर्गमयजनवरी अंक में प्रकाशित अनकही में बहुत सुंदर विचार व्यक्त किये गए हैं। अब जरूरी है हम अपने संस्कार बच्चों को जरूर दें तभी ऐसी घटनाओं पर लग सकती है रोक।                          
                                                             -देवेन्द्र प्रसाद मिश्र
   किसानों को अपनी लड़ाई खुद लडऩी होगी
अमित जी ने फरवरी अंक में प्रकाशित अपने लेख 'दरकती नींव पर विकास की इमारतमें सौ आना सही बात कही है। लेकिन इस देश में जहा शासन कान में रुई लगाकर बैठा है, किसानों को अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ेगी। यहाँ मै कानपुर देहात के किसानो के बारे में कुछ तथ्य रखना चाहूँगा। कानपुर देहात गंगा और यमुना के बीच का वह मैदानी भाग है जिसे भूगोल में सबसे ज्यादा उपजाऊ कहा गया है। यहाँ की जमीन सभी प्रकार की खेती के लिए उपयुक्त है और किसी ज़माने में धान और गन्नें की खेती बहुतायत में की जाती थी। लेकिन सरकारी उदासीनता ने गन्नें की खेती में लगभग विराम लगा दिया है। यहाँ की सभी नहरे अब सूख चुकी हैं और पानी के लिए पूरी तरह से पम्प पर निर्भर है। खेती की लागत इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि नयी पीढ़ी पूरी तरह से पलायन कर गयी है। खेती करना आज की तारीख में घाटे का सौदा हो गया है। इस सब के लिए किसान भी कुछ हद तक जिम्मेदार है। किसानों ने न तो खेती करने के तरीके बदले न ही कोई अलग फसल उगाने की कोशिश की। आज का किसान पूरे सीजन में 10-15 दिन काम करके बाकी दिन जुआ खेलने में व्यस्त रहता है। अब तो कोई चमत्कार ही यहाँ के किसानों की हालत सुधार सकता है।                
                                          -पुनीत सचान, punitsachan@gmail.com
एक सार्थक पहल
बोईन ऊख बहुत मन हरसा, किहिन हिसाब बचा का सिरका। अमित जी यह कहावत मैं बहुत वर्षों से सुनते आ रहा हूँ। कृषि और कृषक की जिस विडंबना और समस्या को आप लगातार रेखांकित करते आ रहे हैं इसके तार मुझे बहुत उलझे लगते हैं। आपका लेख उन उलझनों को सुलझाने की दिशा में एक सार्थक पहल लगता है।    
                                                        -अनगढ़
समाधान नहीं बताया गया
कृषि वाले लेख में लेखक के विचार बहुत अच्छे हैं लेख भी अति सुन्दर सराहनीय एवं तथ्यात्मक है। बस एक कमी है लेख का अंतिम छोर नकारात्मकता से भर गया है लेख में किसानों की मजबूरियों को सही से उकेरा गया है परन्तु कोई समाधान नहीं बताया गया है।
                                                                                     -वेद प्रकाश वर्मा 
प्रेम, आत्मीयता की मौन अभिव्यक्ति
मेरी मानसिक धारणा के मुताबिक प्रेम, आत्मीयता की एक मौन अभिव्यक्ति ...बस और कुछ नहीं! रही बात वेलेंटाइन डे मनाने कि तो यहाँ मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा ...कि किसी के पिता को अपने पिता के समान सम्मान देना तो उचित है, पर किसी के पिता को पिता कहकर सम्बोधित करना सर्वथा गलत। ...यह मेरी व्यक्तिगत सोच है, बाकी दुनिया क्या सोचती है कह नहीं सकता।
                                       -अमित वर्मा, avermaaa@gmail.com

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