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Oct 1, 2025

पर्व संस्कृतिः जाने कहाँ गए वो दिन...

  - प्रियंका गुप्ता 

लीजिए जी, एक बार फिर से आ गया दीपावली का त्योहार...रोशनी, फुलझड़ियाँ, पटाखे, दीए और तरह-तरह के पकवानों का मौसम...। बाहर का मौसम भी तो जैसे गुलाबी होने लगा है। गुनगुनी धूप से गमकते दिन और झुरझुरी भरी कोमल-सी रातें...खुशियों के दिन जैसे अन्दर तक महसूस करने का वक़्त होता है ये...। त्योहार तो होते ही हैं न ऐसे...? पर क्या आपको सच में लग रहा कि हमारे आसपास दीपावली या आम भाषा में बोलें तो, दिवाली का त्योहार अपनी शिद्दत से नज़र आ रहा?

यूँ लगता है मानो अभी ज़्यादा साल नहीं बीते हैं, जब दशहरे के पहले से ही हम बच्चे पटाखों का कलेक्शन शुरू कर देते थे। माँ-बाप की ताकीद के बावजूद मौका पाते ही कभी सुरसुरी बम, तो कभी चुटपुटिया, कभी लहसुनिया और कभी-कभी तो रस्सी बम भी फोड़कर पूरे मोहल्ले को हिला डालते थे। ज़्यादा अहिंसावादी टाइप बालक अपने किसी साथी के पीछे चुपके से थैली में हवा भरकर उसके बम भी फोड़कर उसी की आवाज़ से दहलकर उसके काँप उठने के दृश्य को याद कर-करके घण्टों पेट पकड़कर हँसा करते थे।  

पूरे साल चाहे माँगने पर भी नए कपड़ों के लिए माँ कितना भी टालती रहें; पर दीपावली पर पूजा में नए कपड़े ही पहनने हैं, इस मान्यता के चलते मिले नए कपड़े को माँ के सो जाने पर चुपके से पहनकर घण्टों तक भी खुद को शीशे में निहारकर खुद ही की तारीफ़ से फूले नहीं समाते थे। पूजा के समय के लिए आए खील- बताशे- चीनी के खिलौने और मिठाइयाँ हम सब से बचाकर छुपाने में माँ को किसी देश के ‘टॉप- सीक्रेट’ राज़ छुपाने का ही एहसास होता रहा होगा...और उन्हें ढूँढने में हम खुद को करमचन्द और व्योमकेश बक्षी के चेले ही मानते थे।  

बिजली की झालरें हाँलाकि तब भी हुआ करती थी, पर वे ज़्यादातर रईसों के शौक़ माने जाते थे।  आम परिवारों में तो दीए, मोमबत्तियाँ और कंदीलें ही रौशन होकर अपनी छटा बिखरा देती थी। पूजा के समय भी कौन कम्बख़्त भगवान को याद करता था...? भगवान भी तब सिर्फ़ इम्तिहानों में ही याद आते थे न...? हम बच्चों की तो एक आँख मिठाइयों पर होती थी और दूसरी पटाखों पर...। 

हाँ, एक बात हम सब के लिए तब भी रहस्य थी...आखिर ये गुब्बारे के अन्दर जलता दिया रखते कैसे हैं? ऐसे दीयों से भरे गुब्बारे हवा में उड़ाने वालों के हुनर के प्रति हमारा मन एक अनाम श्रद्धा से भर जाता था। 

फिर घर में जैसे ही सफ़ाई शुरू होती, पूरा घर किसी युद्धभूमि जैसा नज़ारा पेश करता था—बक्से-बिस्तर छत पर, किताबें यहाँ-वहाँ, और माँ की सख़्त निगरानी में हर कोना चमकाया जाता था। उस बीच हम बच्चों के हिस्से में कुछ-न-कुछ काम आता ही था - दीयों को पानी में भिगोकर तैयार करना, रुई की बत्तियाँ बनाना और फिर गिनती करना कि इस बार कितने ज़्यादा दीये जलेंगे। मोहल्ले के बच्चों में भी होड़ मचती थी...किसके आँगन में ज़्यादा दीए सजे हैं, किसके दरवाज़े पर कंदील सबसे ख़ूबसूरत लग रही है। सच कहिए, उन टिमटिमाते दीयों की पंक्तियों में जो सादगी और अपनापन था, वह आज के बिजली की चकाचौंध भरे लाइट्स में कहाँ?

आज दुनिया बहुत बदल गई है। आज न तो नए, महँगे कपड़े खरीदने के लिए बच्चों में किसी त्योहार के इंतज़ार का धैर्य है, न पिज़्ज़ा-बर्गर के मायाजाल से निकलकर खील-बताशे और मिठाइयाँ ढूँढने में मिलने वाले उस सुख का एहसास ही...। आज के बच्चे बहुत जल्दी बड़े होकर इस पटाखे-फुलझड़ियों की दुनिया से बाहर निकल आए हैं। आज की ये कच्ची-अधपकी पीढ़ी वर्च्युअल दुनिया के मकड़जाल में उलझकर वहीं सारे तीज-त्योहार मनाकर मशीनी खुशियाँ ही मना लेने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मान रही है। 

आज तो अक्सर दीपावली की रात भी जैसे सन्नाटे में डूबी होती है, बस बीच-बीच में कहीं दूर से किसी पटाखे की धमक सुनाई दे जाए तो और बात है। मानते हैं कि इन सब पटाखों-फुलझड़ियों से वातावरण प्रदूषित होता है, कई शारीरिक तकलीफ़ें भी होती हैं। बारूद-भरे पटाखों की जगह किसी और तरह के पटाखों की ईजाद हो जाए, इसमें कुछ दिक्कत की बात नहीं है। पर आपस में मिलने-जुलने, खुशियाँ बाँटने और ढेर सारी यादें बटोरने में तो कोई बुराई नहीं न? फिर क्यों आज के समय में त्योहारों से ये सब भी कहीं गायब हो गई हैं?

अच्छी बात है कि आज हम पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़्यादा सतर्क-सचेत हो गए हैं, पटाखों से दूर हो ही गए हैं, पर कभी फ़ुर्सत मिले तो सोचिएगा...इस सतर्कता और सजगता के चलते हमारे अन्दर खुशियों की हहराती नदी से खिली हरियाली कहीं असमय ही तो काल-कवलित नहीं हो रही है?

सम्पर्कः ‘प्रेमांगन’, एम.आई.जी-292, कैलाश विहार, आवास विकास योजना संख्या-एक, कल्याणपुर, कानपुर- 208017 (उ.प्र), ईमेल: priyanka.gupta.knpr@gmail.com ब्लॉग: www.priyankakedastavez.blogspot.com


1 comment:

  1. Anonymous06 October

    आपके आलेख ने सचमुच पुरानी दीवाली की याद दिला दी। कहाँ गए वो दिन, वो ख़ुशियाँ? कई दिन पहले पर्व की तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं । बच्चे पिता कीं उँगली पकड़कर दशहरा और दीवाली की रौनक देखने जाते थे।
    बहुत सुंदर लिखा आपने । बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

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