-कृष्णा वर्मा
1. अनपढ़ माँयूँ तो गोमती रोज़ ही अपने बहू-बेटे को सर
फेंक कर काम में जुटा देखती, लेकिन
पिछले कुछ दिनों से उसने जो जुनून उनमें देखा,
ऐसा पहले कभी नहीं देखा! - दिन-रात वह दोनों
कम्प्यूटर पर दीदे गढ़ाए रहते। आपस में खुसुर-पुसुर करते, आशा-निराशा साफ उनके
मुख पर तैरती नज़र आती। ऐसा आभास होता जैसे किसी ख़ास काम की खोज में हों। कई बार
अंग्रेज़ी में किसी से फोन पर भी लम्बी वार्तालाप करते सुना, पर गोमती ने कभी कुछ
पूछा नहीं। जब कभी भी वह उनके आस-पास उपस्थित होती तो बहू-बेटा अचानक अंग्रेज़ी में
बतियाने लगते। पिछले कुछ दिनों से कभी-कभार बेटा माँ से लाड़-प्यार भी जताने लगा
था। और तो और, सास
की कही बातों पर अचानक बहू ने मुँह फुलाना भी छोड़ दिया था। यह सब देख गोमती मन ही
मन बुदबुदाती, ‘हो ना हो कुछ
घुईंयाँ तो पक रही हैं।’
कभी वह अंजानी शंका में घिर कर ख़ुद ही मन को ढा लेती और कभी ख़ुद ही ढाँढस दे फिर
कामों को निपटाने में लग जाती। कुछ ही दिनों बाद घर का माहौल बदला-बदला सा लगने
लगा। बहू-बेटा चहके-चहके से नज़र आने लगे। चारों ओर अचानक अबोली खुशी का नाद सुनाई
देने लगा। कुल मिला कर कहें तो घर में रामराज्य सा हो गया।
छुट्टी का दिन था, माँ ने मेज़ पर नाश्ता
लगाया। मनपसंद व्यंजन देखते ही बेटा बोला,
‘अरे वाह! क्या बात है माँ, आज तो सब कुछ अपने
बहू-बेटे की पसंद का बनाया है।’
फीकी सी मुस्कान देते गोमती बोली, ‘अरे
खा लो बेटा, क्या
पता फिर कब’
‘माँ
थोड़े ही जाने वाली है तेरे साथ विदेश। अच्छा, यह तो बता कब का
जाना तय किया है?’
यह सुनते ही, पति-पत्नि एक दूसरे को
आवाक देखते रह गए। उनकी आँखें ऊपर की ऊपर ही टँगी रह गईं और मुँह तो जैसे निवाला
चबाना ही भूल गया।
बिना उनकी ओर ताके गोमती बोली, ‘अरे! खाओ भई,
रुक क्यों गए?
क्या अच्छा नहीं लगा?’ सकपकाते
हुए से दोनों एक साथ ही बोले, ‘नहीं-नहीं, बहुत स्वादिष्ट बना है।’
लेकिन माँ, ‘तुम्हें किसने बताया हमारे जाने का?’
‘तेरी माँ भले
स्कूल ना गई हो बेटा, पर
उसकी आँखें बहुत पढ़ी-लिखी हैं। जीवन में अनुभवों की कई जमातें पास की हैं उसने।
फिर तुम्हारी गुलाबी मुस्कानों के पीछे का पढ़ लेना कौन मुश्किल है उसके लिए!’
2.छुटकारा
डेंगू की चपेट में आई
मंगला अपनी बीमारी से आखिरी साँस तक लड़ती रही। पर होनी कब टलती है। वही हुआ जिस
बात की चिंता मंगला की आँखों में अंतिम पल तक बनी रही। कैसे जिएगी उसकी सात बरस की
प्यारी सी गुलबिया उसके बिना।
नकारा विश्वा तो पहले
से ही घुटनों- घुटनों
कर्ज़ में डूबा हुआ था। और आज तो उसकी दुनियाँ ही अँधेरी हो गई। मंगला थी तो दो जून
की रोटी नसीब हो रही थी। फूल सी गुलबिया उसे अचानक पहाड़ सी दीखने लगी। बस यही सोच
कर वह बेहाल हुआ जाता था कि कुछ ही बरसों में ताड़ सी बढ़ जाएगी। कैसे सम्भालूँगा सब
अकेले। इस बोझ से कैसे मुक्ति पाए,
इस सोच में दिन-रात
वह बेचैन रहता।
एक सुबह हिम्मत जुटा कर
उसने कस्सी उठाई, और
गुलबिया को साथ लेकर निकल पड़ा जंगल की ओर कि आज इस झंझट से छुटकारा पाकर ही
लौटूँगा। चलते-चलते
भूखे-प्यासे बाप-बेटी दोनों बहुत थक गए।
थकान के मारे विश्वा रास्ते में एक पेड़ के नीचे ढेर हो गया।
थकी-टूटी
नन्हीं गुलबिया पिता की थकान न देख सकी। और अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उसके
पाँव दबाने लगी। थोड़ी देर सुस्ता कर दोनों फिर चल दिए जंगल की ओर। कुछ दूर पहुँच
कर घने पेड़ों की आड़ में विश्वा कस्सी से गड्डा खोदने लगा। पिता को हाँफते और पसीने
से भीगता देख भोली गुलबिया से रहा ना गया बोली,
‘लाओ बापू मैं तुम्हारी मदद कर दूँ। तुम बैठ कर थोड़ा
आराम कर लो, मैं
खोद देती हूँ। और अपने छोटे-छोटे
हाथों से पिता के माथे पर छलकता पसीना पोंछने लगी।’
यह देख कर विश्वा का मन
द्रवित हो उठा। उसने कुदाल वहीं फेंक तड़प कर गुलबिया को सीने से सटा लिया और सोचने
लगा. ‘किस बात की सज़ा देने जा
रहा हूँ अपनी फूल सी कोमल बेकसूर बच्ची को। किससे छुटकारा पाना चाहता हूँ मैं? इस शीतल छाँव से।’
3.पेंशन
दिन-रात पेंशन के लिए चक्कर लगाते
चक्करघिन्नी से हो गए थे सुमेर चौधरी।
आए दिन दफ्तर के एक से दूसरे कमरे के
चक्कर लगाते सुबह से शाम हो जाती और हाथ
लगती फिर वही निराशा, जिसे
जेब में डाल भारी कदमों से चल देते घर की ओर।
इंतज़ार करती पत्नी ने आज फिर लटका मुँह
देखा तो रुआँसी हो बोली.. अजी कब तक चलेगा ऐसा,
मीरा के पापा। अब तो रसोई के सब डब्बे भी मुँह चिढ़ाने लगे हैं।
आठ वर्षीय ननिहाल आई धेवती की ओर इशारा
करती बोली.. एक लाड़ ना लड़ा सकी इसे।
आज तो चावल का दाना तक नहीं है घर में।
जाओ बाज़ार से पाँव भर चावल ही ले आओ।
बाज़ार का नाम सुनते ही गुड़िया नाना के
साथ जाने को मचलने लगी।
बिटिया तुम थक जाओगी बहुत दूर है बाज़ार।
धूप भी बहुत तेज़ है किसी दिन शाम को ले चलूँगा तुम्हें।
ले क्यूँ नहीं जाते.. ज़रा मन बहल जाएगा बच्ची का।
ढीले हाथ से जेब टटोलते हुए उदास आवाज़
में बोले.. पाव भर चावल भी मुश्किल से हो पाएगा। बेबसी से गुड़िया की ओर देख बोले.. इसने यदि किसी गुब्बारे पर भी हाथ रख
दिया तो सह नहीं पाऊँगा।
3 comments:
ज़िंदगी के सच को उजागर करतीं बहुत सुंदर लघुकथाएँ।
बहुत सुंदर 😊
तीनों लघुकथाएँ अच्छी लगी।
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