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Sep 10, 2020

अनकही

 हिंगलिश बनती जा रही हिन्दी

–डॉ. रत्ना वर्मा

कोरोना वायरस के प्रकोप ने इस साल तीज-त्योहार से लेकर विभिन्न राष्ट्रीय पर्वों को भी भव्यता से मनाने का मौका नहीं दिया। यद्यपि गणेश चतुर्थी जैसे धार्मिक त्योहार पर धूम-धड़ाका न कर पाने की हताशा लोगों में रही;  पर शिक्षक दिवस और हिन्दी दिवस जैसे समारोह तो पहले भी औपचारिकता मात्र का निर्वहन करने के लिए ही मनाए जाते रहे हैं, अतः इनके शांतिपूर्वक मन जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। 
यह विडम्बना ही कही जागी कि आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी हम अपनी ही राष्ट्र- भाषा को जिन्दा रखने के लिए उसे एक दिवस के रूप में मना कर याद रखने की औपचारिकताएँ पूरी करते आ रहे हैं। ऐसा लगता है मानों पितृपक्ष के समय पड़ने वाले इन दिवसों को हम पितरों की तरह याद करके उसका तर्पण करते हैं, उसे श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
आज उन देशों की ओर आँख उठाकर देखिए, जो आज तरक्की के सोपान पार करते चले जा रहे हैं- जैसे चीन, जापान या  फ़्रांस इन देशों की उन्नति में भाषा को कभी बाधक नहीं माना गया। इन देशों ने सभी क्षेत्रों में – चाहे वह आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक अथवा विज्ञान एवं प्रद्यौगिकी  हो, तरक्की ही तरक्की की है। इन सभी विकसित और विकासशील देशों में सारे काम उनकी अपनी भाषा में ही होते हैं;  लेकिन भारत में हिन्दी में काम करने वालों को पिछड़ा हुआ, गँवार और छोटा माना जाता है।  इतना ही नहीं हिन्दी में काम करने वाले भी अब हिन्दी को चिन्दी बनाने पर तुले हुए  हैं। हिन्दी में छपने वाले समाचार पत्र और न्यूज़ चैनल में बोली जाने वाली भाषा को न हिन्दी रहने दिया गया है,  न अंग्रेजी।  इन सबने एक नई भाषा का इज़ाद कर लिया है- जिसे एक नाम भी दे दिया गया है हिंग्लिश। अब जब हिन्दी के रखवाले ही हिन्दी की बखिया उधेड़ने में लगे हुए हैं तो फिर कौन बचागा हिन्दी को। एक वह भी दौर था, जब हमें हमारे अभिवावक देश और दुनिया भर की खबरें जानने के लिए दैनिक अखबार को जीवन का अहम हिस्सा मानते थे, साथ ही वे हम बच्चों को इस बात पर भी जोर देते थे कि रोज अखबार पढ़ोगे, तो तुम्हारी हिन्दी सुधर जाएगी। लेकिन आज के समाचार पत्रों में शीर्षक ही आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी में छपा होता है, तो भला ऐसे अखबारों से बच्चे अच्छी हिन्दी कैसे सीखेंगे।
आज जमाना आधुनिक तकनीक का है जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के पास आज मोबाइल है, उसी तरह आज बगैर इंटरनेट और कम्प्यूटर के कोई काम नहीं होता ; परंतु यहाँ भी हम भाषा के मामले में पिछड़े हुए हैं- निजी वेबसाइट्स की बात तो छोड़ ही दीजिए केन्द्र और राज्य शासन की हजारों वेबसाइट्स हैं, जो पहले अंग्रेजी मेंखुलती हैं उसके बाद हिन्दी का विकल्प आता है। यही हाल कम्प्यूटर में हिन्दी टंक का है- अधिकतर देशों में कम्प्यूटर पर अपनी भाषा और एक फॉण्ट में काम होता है;  परंतु भारत में हिन्दी मुद्रण के लिए कई प्रकार के फॉण्ट्स बना दिए गए हैं, जो प्रत्येक कम्प्यूटर पर खोले नहीं जा सकते। हिन्दी में काम करने वालों को इससे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
देश तरक्की तब करेगा, जब देश के प्रत्येक बच्चे को समान शिक्षा और अवसर प्राप्त होंगे, यह तभी संभव है, जब विज्ञान, तकनीकी और रोजगगार की भाषा के रूप में हिन्दी मान-सम्मान मिलेगा। अंग्रेजी शिक्षा के कारण हम समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को पिछड़ा हुआ बनाकर उनके बीच आर्थिक और सामाजिक दूरी पैदा कर रहे हैं, उन्हें अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से दूर करके उनमें हीनता का बोध पैदा कर रहे हैं। दरअसल हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को अपनी भाषा में विकसित करने की कोशिश ही नहीं की है।
सच्चाई तो यही है कि अंग्रेजी और हिन्दी के चलते यहाँ दो तरह का तंत्र विकसित हो गया है। शासकीय कार्यालय और कॉरपोरेट सेक्टर में ऐसे लोगों को अधिक महत्त्व मिलता है, जो अंग्रेजी जानता हो या जिनकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में हुई हो। जाहिर है माता- पिता यही चाहेंगे कि उनका बच्चे उच्च पदों पर आसीन हों और उनका मान-सम्मान बढ़े। बस ऐसे ही बढ़ता चला गया अंग्रेजी का बोल-बाला।
हम भले ही हिन्दी दिवस मनाकर हिन्दी को एक दिन के लिए मान-सम्मान देकर देश के माथे पर हिन्दी की बिन्दी लगाकर गर्व महसूस करते हैं, पर हिन्दी बोलकर उतना गर्व महसूस नहीं करते, जितना अंग्रेजी बोलकर करते हैं। अतः जब तक हम अपनी भाषा को सशक्त नहीं करेंगे, हमारा राष्ट्र कभी उन ऊँचाइयों को नहीं छू  सकता। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी के लिए प्रयास नहीं किए जा रहे हैं –देखा जाए तो सरकारी तंत्र  बीच- बीच में अपने काम-काज को लेकर दिशा-निर्देश जारी करता है; परंतु दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी दिवस मनाने के लिए जारी किया गया उनका पत्र भी अंग्रेजी में लिखा होता है।
आरम्भ से ही एकमत होकर यदि सम्पर्क और सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी बनती,  तो आज हिन्दी की ऐसी दुर्गति नहीं होती।  अपनी राष्ट्रभाषा के लिए , अपने देश की पहचान के लिए  उपर्युक्त सभी बातों  पर गौर करने की आवश्यकता है। एक बहुत बड़ी विडम्बना यह भी है कि हम स्वयं भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाना चाहते हैं , उच्च शिक्षा के लिए उन्हें विदेश भेजते हैं,  यह कहते हुए कि मेरा ही बच्चा बलि का बकरा क्यों बने। सच भी है पहले पूरी व्यवस्था सुधारी जाए, फिर उसपर अमल के लिए कहा जाए।
दरअसल राजनितिक दृढ़ इच्छा -शक्ति और संकल्प का अभाव ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने देने में बाधक है। आवश्यकता है ईमानदार पहल की। अगर मन में यह ठान लिया जाए कि देश में अब हिन्दी ही माध्यम से पढ़ाई होगी, तो कौन रोकेगा आपको। उच्च से उच्च तकनीकी  विषयों की पुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध कराना आपके हाथ में है, निजी शिक्षण संस्थाएँ आपकी अनुमति से संचालित होती हैं, उनपर काबू रखना आपके हाथ में है। क्योंकि जब बात देश की होती है तो भाषा व लिपि भी एक होनी चाहिए। भारत में हिन्दी हर जगह समझी और बोली जाती है। बस जरूरत इतनी है कि पूरा देश इसे एकमत से स्वीकार करने के लिए तैयार रहे। राजनैतिक तुष्टीकरण हिन्दी के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। राजनेता क्षेत्रीय भावनाएँ भड़काकर भाषायी सद्भाव को क्षति पहुँचा रहे हैं। हिन्दी बोलकर वोट  माँगने वाले संसद में जाकर स्वय को जनभाषा से दूर कर लेते हैं। वर्गीय भेदनीति को दूर करना है ,तो  भाषायी सद्भाव को बढ़ाना पड़ेगा। और अंत में आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चन्द्र की वह बात जो बिल्कुल सच्ची और खरी है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

6 comments:

विजय जोशी said...

बहुत ही सटीक कथन। हार्दिक बधाई। हिंदी वालों में अपनी भाषा के प्रति सम्मान का अभाव ही इसका मूल कारण है। काश ऐसा हो पाए किसी दिन। सादर

Sunita Verma said...

यदि आपका यह लेख उस सारे लोग पढ़ रहे होंगे जो तकनीकी ज्ञान रखते होंगे और हिंदी को कंप्यूटर का इंटरनेट पर इंग्लिश की ही तरह सहज और सरल तकनीक में बदल दें तो आज का दिन हम सब भारतीय के लिए एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण दिन साबित हो सकता है । इस महत्वपूर्ण लेख के लिए मैं आपको हृदय से बधाई देती हूं और आप भारी हूं।

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर आलेख,सम्यक विश्लेषण,सच ही है दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव ने हिंदी को उसके अधिकारों से वंचित रखा,आजादी के बाद से आज तक अनेक सरकारें आईं किंतु हिंदी के लिये ईमानदारी से कोई भी प्रतिबद्ध नहीं है।हिंदी बढ़ रही है तो ये उसकी शक्ति है।सुंदर आलेख हेतु बधाई।

प्रगति गुप्ता said...

बहुत बढ़िया सटीक लेख लिखा है रत्ना जी...सच की बयानी है। आपके लिए ढेरों शुभकामनाएं

Sudershan Ratnakar said...

सदैव की तरह सटीक सुंदर सामयिक आलेख। राजनीति के कुचक्र में फँसी हिंदी के दो सप्ताह आँसू पोंछ कर सरकार शांत हो जाती है और देश की अनगिनत प्रतिभाएँ अंग्रेज़ी का ज्ञान न होने के कारण गर्त में डूब जाती हैं।
हिन्दी के प्रचार - प्रसार में आप जैसी हस्तियों का योगदान श्लाघनीय हैं।
बहुत सुंदर विश्लेषण किया है आपने।हार्दिक बधाई ।

रत्ना वर्मा said...

आप सबकी शुभकामनाओं के लिए हृदय से धन्यवाद, आभार...