प्रमोद भार्गव
भारत में इस समय 21 राज्यों के 30,000 बाघ के रहवासी क्षेत्रों में गिनती का काम चल रहा है। 2018 में प्रथम चरण की हुई इस गिनती के आंकड़े बढ़ते क्रम में आ रहे है। यह गिनती चार चरणों में पूरी होगी। बाघ गणना बाघ की जंगल में प्रत्यक्ष उपस्थिति की बजाय, उसकी कथित मौजूदगी के प्रमाणों के आधार पर की जा रही है। इसलिए इनकी गिनती पर विश्वसनीयता के सवाल उठने लगे हैं। वनाधिकारी बाघों की संख्या बढ़-चढ़कर बताकर एक तो अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं, दूसरे उसी अनुपात में धनराशि भी बाघों के सरंक्षण हेतु बढ़ाने की मांग करने लगते हैं।
केंद्र सरकार के 2010 के आकलन के अनुसार यह संख्या 2226 हैं। जबकि 2006 की गणना में 1411 बाघ थे। इस गिनती में सुंदर वन के वे 70 बाघ शामिल नहीं थे, जो 2010 की गणना में शामिल कर लिए गए हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड और असम में सबसे ज्यादा बाघ हैं। कर्नाटक में 400, उत्तराखंड में 340 और मध्य-प्रदेश में 308 बाघ हैं। एक समय टाइगर स्टेट का दर्जा पाने वाले मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या निरंतर घट रही है। मध्य-प्रदेश में साल 2017 में 11 महीने के भीतर 23 बाघ विभिन्न कारणों से मारे भी गए हैं, इनमें 11 शावक थे। दुनिया भर में इस समय 3890 बाघ हैं, इनमें से 2226 भारत में बताए जाते हैं। जबकि विज्ञान-सम्मत की गई गणनाओं का अंदाजा है कि यह संख्या 1500 से 3000 के बीच हो सकती है। इतने अधिक अंतर ने ‘प्रोजेक्ट टाइगर‘ जैसी विश्व विख्यात परियोजना पर कई संदेह के सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे यह भी अशंका उत्पन्न हुई है कि क्या वाकई यह परियोजना सफल है भी अथवा नहीं ?

भारत में 1973 में टाइगर प्रोजेक्ट परियोजना की शुरूआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने की थी। शुरूआत में इसका कार्य क्षेत्र 9 बाघ संरक्षण वनों में शुरू हुआ। बाद में इसका क्षेत्र विस्तार 49 उद्यानों में कर दिया गया। बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है। संवेदना और सह-अस्तित्व के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत ने बाघ परियोजना की सफलता में अहम् भूमिका निभाई है। इन साझा प्रयासों का ही परिणाम है कि बाघों की संख्या 30 प्रतिशत तक ही बढ़ी हैं। 2010 में यह संख्या 1706 थी, जो 2014 में बढ़कर 2226 हो गई हैं। लेकिन 2011 में जारी हुई इस बाघ गणना को तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने इस गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसमें भ्रामक तथ्य पेश आए थे।
जयराम रमेश ने अखिल भारतीय बाघ गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसी का गंभीरता से आकलन करें तो पता चलता है कि यह गणना भ्रामक थी। इस गणना के अनुसार 2006 में बाघों की जो संख्या 1411 थी, वह 2010 में 1706 हो गई। जबकि 2006 की गणना में सुंदरवन के बाघ शामिल नहीं थे, वहीं 2010 की गणना में इनकी संख्या 70 बताई गई। दुसरे, बाघों की बढ़ी संख्या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आई थी। इसमें नक्सली भय से वन अमले का प्रवेश वर्जित हैं। जब वन अमला दूराचंल और बियावान जंगलों में पहुँचा ही नहीं तो गणना कैसे संभव हुई ? जाहिर है यह गिनती अनुमान आधारित थी। हालाँकि यह तय हैं कि नक्सली वर्चस्व वाले भूखण्डो में बाघों की ही नहीं अन्य दुर्लभ वन्य जीवों की भी संख्या बढ़ी होगी ? क्योकि इन मुश्किल इलाको में बाघ के अभ्यस्त शिकारी भी नक्सलियों से भय खाते हैं। लिहाजा इन क्षेत्रों में बाघ बढ़े भी हैं तो इसका श्रेय वन विभाग को क्यों ? इस रपट को जारी करते हुए खुद जयराम रमेश ने माना था कि 2009-2010 में बड़ी संख्या में बाघ मारे गए थे, इसके बावजूद शिकारी और तस्कारों के समूहों को हिरासत में लिया जा सका और न ही शिकार की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सका। ऐसे में सवाल उठता है कि जब शिकारी उन्मुक्त रहे तो बाघों का शिकार बाधित कहाँ हुआ ? इस गिनती में आघुनिक तकनीक से महज 615 बाघों के छायाचित्र लेकर गिनती की गई थी। बाकी बाघों की गिनती पंरपरागत पद्धतियों और रेडियो पट्टेधारी तकनीक से की गई थी। जबकि पदचिन्ह गिनती की वैज्ञानिक प्रामाणिकता पर खुद जयराम रमेश ने प्रश्न चिह्न लगा दिया था। ऐसे में यहाँ सवाल यह भी उठता हैं कि क्या बाघों की जान-बूझकर गिनती बढ़ाकर इसलिए बताई गई? जिससे वन विभाग की साख बची रहे और बाघ सरंक्षण के उपक्रमों के बहाने आवंटन के रूप में बढ़ी धन राशि मिलती रहे ?
बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को शुरूआती मान्यता दी गई थी। ऐसा माना जाता है कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्र कर बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। कान्हा के निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब ‘साइंस इन एशिया‘ के मौजूदा निदेशक के उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्य जीव सरंक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागार हो गई और इसे नकार दिया गया।


नवंबर-दिसंबर 2010 में श्योपुर-मुरैना की जंगली पट्टी में एक बाघ की आमद दर्ज की गई थी। इसने कई गाय-भैंसों का शिकार किया और करीब दर्जन भर ग्रामीणों ने इसे देखने की तसदीक भी की। वन अमले ने दावा किया था कि यह बाघ राजस्थान के राष्ट्रीय उद्यान से भटक कर अथवा मादा की तलाश में श्योपुर-मुरैना के जंगलों में चला आया है। इस बाघ को खोजने में पूरे दो माह ग्वालियर अंचल का वन अमला इसके पीछे लगा रहा। इसके छायाँ कन के लिए संवेदनशील कैमरे और कैमरा टेप पद्धतियों का भी इस्तेमाल किया गया। लेकिन इसके फोटो नहीं लिए जा सके। आखिर पंजे के निशान और शिकार के तरीके से प्रमाणित किया गया कि कोई नर बाघ ने ही श्योपुर-मुरैना में धमाल मचाया हुआ है। यह बाघ वाकई में एक निश्चित क्षेत्र में था, इसके बावजूद इसे ट्रेस करने में दो माह कोशिश में लगे रहने के बाद भी नाकाम रहे। तब एक पखवाड़े के भीतर 1706 बाघों की गिनती कैसे कर ली ?


सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मोबाइल. 09981061100, 09425488224
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