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Sep 26, 2013

लाला जी के चले जाने का अर्थ

लाला जी के चले जाने का अर्थ
 - हरिहर वैष्णव

लाला जगदलपुरी। एक ऐसा नाम जिसे छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल की जीवित किम्वदन्ती, बस्तर का चलता-फिरता ज्ञान-कोश, अक्षरादित्य आदि आदि कहा जाता रहा है। किन्तु आज 93 वर्षीय वह चलता-फिरता ज्ञान-कोष हमारे बीच नहीं है। 14 अगस्त की संध्या 7.00 बजे उस साहित्य-ऋषि ने अपने डोकरीघाट पारा (जगदलपुर, बस्तर- छत्तीसगढ़) स्थित निवास पर अन्तिम साँसें लीं। अन्तिम साँसों के पहले तक यद्यपि वे रोग-शय्या पर पड़े हुए थे ; तथापि उनके ज्ञान का भण्डार तब भी अक्षुण्ण रहा था। तब भी, यदि कोई उनसे कुछ माँगने गया तो वह खाली हाथ नहीं लौटा। हाँ, कभी-कभी स्मृति-लोप की स्थिति में चला जाने वाला दण्डक वन का यह साहित्य-ऋषि मूल प्रसंग से थोड़ी देर के लिये भटक भले ही जाता रहा हो किन्तु स्मृति लौटते ही आपके साथ समरस हो जाता था। कई बार आपसे पूछता था- और सब ठीक है, ?
इन साहित्य-मनीषी को हम सब लालाजी के नाम से जानते थे, जानते हैं और जानते रहेंगे। जहाँ तक मैं जानता हूँ, लालाजी के सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने उनसे कुछ-न-कुछ पाया अवश्य ही है किन्तु उन्हें दिया कुछ भी नहीं। दरअसल कोई उन्हें कुछ दे ही नहीं सकता था और फिर उन्होंने स्वयं भी कभी इसकी अपेक्षा नहीं की। उन्होंने याचना तो कभी की ही नहीं। वे हमेशा दाता बने रहे। लालाजी अत्यन्त स्वाभिमानी व्यक्ति रहे हैं। तब भी, जब वे रोग-शय्या पर थे, तो भी उनका स्वाभिमान जस-का-तस बना रहा। स्वाभिमान खोने का पाठ उन्होंने पढ़ा ही नहीं। अपने संपर्क में आये लोगों से भी यही कहा, स्वाभिमान मत खोयें। उसे बनाये रखें। लालाजी के स्वाभिमान की बातें उनके सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है। किन्तु कई लोग उनके इस स्वाभिमान को उनकी हेकड़ी बताते नहीं चूकते।
बहुत सम्भव है कि पढऩे-सुनने वालों को यह अतिशयोक्ति लगे किन्तु मैं जानता हूँ कि मेरे लिये लालाजी के चले जाने का अर्थ मेरा स्वयं का चला जाना है। मुझे लालाजी से जितना स्नेह मिला, जितना मार्गदर्शन मिला उसे सहेज पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है। कल्पना कीजिए कि क्या महासागर को कोई अपनी बाँहों में समेट सकता है? लालाजी से मिले स्नेह और आशीर्वाद के महासागर को बाँहों में समेटना क्या मेरे लिये सहज है? कतई नहीं। वस्तुत: आज यदि मैं बस्तर की वाचिक परम्परा पर थोड़ा-बहुत काम कर पाया हूँ तो निश्चित ही इसके पीछे कीर्ति-शेष लालाजी का ही हाथ रहा है। उनका आशीर्वाद रहा है। कदम-कदम पर मेरा मार्गदर्शन करते लालाजी से कई बार मतभेद भी हो जाया करते थे किन्तु वे मतभेद आपसी विचार-विमर्श के बाद दूर भी हो जाया करते थे। मैं इस बात से गौरवान्वित हूँ कि अपने अन्तिम समय से कुछ पहले तक भी वे मुझे बराबर याद किया करते थे और भले ही अपने ही परिवार के सदस्यों को न पहचान पाते रहे हों ; किन्तु मुझे पहचान जाते थे। मेरे लिये जगदलपुर जाने का अर्थ ही था लालाजी से भेंट करना। किन्तु कभी-कभार यदि बहुत ही व्यस्तता के कारण या समयाभाव के कारण मैं उनसे नहीं मिल पाता तो तकलीफ दोनों को होती थी। मैं अधूरापन महसूस करता तो वे भी यही महसूसते थे।
मेरी उनसे पहली भेंट हुई थी 1971-72 में, जब मैं बी. ए. प्रथम वर्ष का छात्र था और उसी बीच उन्होंने जगदलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'अंगारा’ में मेरी पहली रचना प्रकाशित की थी और मुझे पत्र भी लिखा था। पत्र मिलने और रचना ('ध्यानाकर्षण’  शीर्षक कविता) प्रकाशन के बाद मैं अपने मित्र केसरी कुमार सिंह के साथ उनसे उनके निवास (कवि निवास) में मिला था। उसके बाद इन 40-41 वर्षों में उनसे न जाने कितनी बार भेंट हुई। प्रत्येक भेंट में उनसे ऊर्जा मिली, उनका आशीर्वाद मिला और मिला अथाह प्यार। फिर अन्तिम भेंट हुई थी 17 मार्च 2013 को। उस भेंट का जिक्र बाद में। उससे पहले 11 मार्च, 2013 की भेंट का पूरा चित्र-
इस दिन उनके और मेरे सह-सम्पादन में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'बस्तर की लोक कथाएँ’ की प्रतियाँ ले कर मैं और नेशनल बुक ट्रस्ट में सहायक संपादक (हिन्दी) पंकज चतुर्वेदी जी उनसे मिलने पहुँचे थे। बात पहले से तय थी ही। पंकज चतुर्वेदी जी लाला जी से मिलने को उत्सुक थे। और 10 मार्च को कोंडागाँव में इस पुस्तक के लोकार्पण के बाद हम दूसरे दिन यानी 11 मार्च को सवेरे 09.30 बजे के आसपास जगदलपुर के लिये रवाना हो गये। 11.00 बजे के आसपास हम जगदलपुर पहुँचे। मैंने रास्ते में बस्तर की लोक-भाषा हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी के विषय में पंकज जी को बताया था। वे उनसे भी मिलने को उत्सुक थे। हम सबसे पहले श्री पुजारी जी के घर पहुँचे। थोड़ी देर उनसे चर्चा की और लगभग 11.30 बजे हम लालाजी के निवास जा पहुँचे। हमने उनके घर में प्रवेश किया तो पाया कि उनके कमरे का दरवाजा बन्द है और वे 'आओ रे, भोजन कराओ रे’ कह रहे थे। उनकी उस आवाज में जो पीड़ा थी, जो रुदन था, उसे सुनकर मैं, पंकज जी और खीरेन्द्र यादव तीनों ही द्रवित हो गये थे। मैंने दरवाजा खोलने का प्रयास किया किन्तु वह खुला नहीं। मुझे चिन्ता हो आई कि यदि दरवाजा भीतर से बन्द है तो उन्हें किस तरह भोजन कराया जाएगा? अभी हम इसी दुश्चिंता से दो-चार हो ही रहे थे कि सामने वाले मकान से एक महिला आईं और बताया कि लालाजी के अनुज के. एल. श्रीवास्तव जी की पुत्र-वधू कल्पना श्रीवास्तव आ रही हैं। वे ही हमें कमरे के भीतर ले चलेंगी। भतीजे विनय श्रीवास्तव की पत्नी कल्पना आईं और कमरे का दरवाजा धकेल कर खोला। तब हमारी समझ में आया कि दरवाजे का पल्ला नीचे झुक कर फर्श पर टिक गया था और इसीलिए वह हमसे नहीं खुला था। बहरहाल। कल्पना के साथ हम तीनों ने भीतर प्रवेश किया। भीतर पहुँच कर हम तीनों ने लालाजी को प्रणाम किया। वे हम में से किसी को भी नहीं पहचान पाये। पंकज जी ने बस्तर की लोक कथाएँ की एक प्रति लाला जी के हाथ में दी। कल्पना बताने लगीं, ताऊ जी। आपसे मिलने आये हैं। ये आपकी पुस्तक छप गयी।
यह सुन कर वे कह उठे- बड़ी कृपा हुई। फिर हँसने लगे।
कल्पना ने टार्च उनके हाथ में थमायी। लालाजी ने बिस्तर पर लेटे-लेटे ही टार्च की रोशनी में पुस्तक का मुख-पृष्ठ देखा और प्रसन्न हो कर बरबस अपनी चिरपरिचित दबंग आवाज में बोल पड़े, वाह, वाह! बहुत बड़ा काम किया आपने। बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है आपने। मैं बधाई देता हूँ आपको। फिर पूछने लगते हैं, सब ठीक है?
पंकज जी कहते हैं, बस! आशीर्वाद आपका।
सब आनन्द है? लालाजी फिर पूछते हैं। मैं केवल जी। कहता हूँ।
फिर पंकज जी पुस्तक की शेष प्रतियाँ भी उनके सिरहाने रख कर कहते हैं, ये सभी पुस्तकें आपके लिए।
मैं पंकज जी को लालाजी के पास बुलाता हूँ और परिचय कराता हूँ, लालाजी, आप दिल्ली से आये हैं। पंकज चतुर्वेदी जी हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट में संपादक। आपसे व्यक्तिगत रूप से मिलने, आपका आशीर्वाद लेने आए हैं। किन्तु वे सुन नहीं पाते।
मुझसे कहने लगते हैं, आप कोंडागाँव से आये हैं।
जी, कोंडागाँव से। मैं हरिहर। मैं जवाब देता हूँ।
 इसके साथ ही मैं उनसे अनुमति लेने को उद्यत होता हूँ। वे उत्तर में फिर से अपने हाथ जोड़ देते हैं और मैं उनके हाथ अलग कर देता हूँ। वे फिर से कहने लगते हैं, आप आए, बड़ा आनन्द आ गया। मैं याद करता रहता हूँ। 93 वर्ष का हो गया हूँ मैं। पत्रिकाएँ नहीं आती हैं। बहुत कम आती हैं; क्योंकि लोग समझ गए हैं कि ये लिख-पढ़ नहीं सकते। ऐसा समझ रहे हैं, लोग। तो ठीक है। स्वागत है तुम्हारी समझ का। इसके बाद वे पंकज जी की ओर मुखातिब होते हैं और पूछने लगते हैं, आप? आपका परिचय?
पंकज जी कहते हैं, मैं दिल्ली से आया हूँ। मैं नेशनल बुक ट्रस्ट में संपादक हूँ।
फिर मैं एक कागज पर पंकज जी का नाम आदि लिख कर देता हूँ। वे उसे टार्च की रोशनी में पढऩे का प्रयास करते हैं और पूछने लगते हैं, क्या नाम है?
पंकज चतुर्वेदी। पंकज जी कहते हैं।            
वे पूछते हैं, यहीं के हैं?
मैं दिल्ली से आया हूँ। पंकज जी कहते हैं। इसके बाद कल्पना पंकज जी के विषय में बताने लगती हैं कि इन्होंने ही आपकी किताब छापी है और दिल्ली से आये हैं। लेकिन वे फिर से कह उठते हैं, कोंडागाँव से? अब मैं फिर से एक कागज पर लिख कर देता हूँ।
 कल्पना बताने लगती हैं कि वे थोड़ी-थोड़ी देर में भूल जाते हैं। शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं। भोजन भी पहले की अपेक्षा अधिक करते हैं। वे पहले बैठ कर खाते थे किन्तु हड्डी टूट जाने के कारण अब बैठा नहीं जाता। लेटे-लेटे ही खाते हैं। उन्हें चम्मच से खिलाना पड़ता है। अपने हाथों से नहीं खाते। पहले तो कई सालों से वे केवल एक ही समय भोजन किया करते थे किन्तु अब दोनों समय भोजन करते हैं। खुराक अच्छी है। सुबह चॉकलेट और पपड़ी खाते हैं। कल्पना बताती हैं कि अब उनके भोजन का समय हो गया है। यह सुन कर हम लालाजी से अनुमति ले कर उनके कमरे से बाहर आ जाते हैं। इसके बाद हम जाते हैं कल्पना के घर। वहाँ कल्पना हमें बताती हैं कि लालाजी की कुछ सामग्री उन्होंने सम्हाल कर रखी हुई है। मैं उस सामग्री को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता और उनसे निवेदन करता हूँ कि वे वह सामग्री मुझे दिखाएँ। वे लालाजी के कमरे से वह सामग्री ले कर आती हैं और हमें दिखाती हैं। एक झोले में कुछ पुराने पत्र, दो ध्वनि रूपकों (राजमहल और मुखौटा) की पाण्डुलिपियाँ और छोटी-छोटी डायरियाँ हैं। मैं चाहता हूँ कि वे अपने श्वसुर श्री के. एल. श्रीवास्तव जी तथा  पति विनय श्रीवास्तव से अनुमति ले कर वह सामग्री मुझे उपलब्ध करा दें ; ताकि मैं उनका उपयोग अपनी पुस्तक में कर सकूँ। इसके बाद हम वहाँ से विदा ले कर वापस हो जाते हैं।
दो-तीन दिनों बाद मैं लालाजी के अनुज को फोन लगाता हूँ और अपनी इच्छा प्रकट करता हूँ। वे कहते हैं वे अभी-अभी काँकेर से लौटे हैं और फिलहाल तो उनकी खुद की तबीयत ठीक नहीं है इसीलिए कुछ दिनों बाद मैं उनसे सम्पर्क करूँ। मैं उनकी बात मान लेता हूँ। किन्तु मुझे सामग्री प्राप्त करने की जल्दी है। मैं 16 मार्च को फिर से फोन करता हूँ और उनसे अगले दिन यानी रविवार 17 मार्च का समय लेता हूँ। वे सहमत हो जाते हैं।
17 मार्च 2013। तय कार्यक्रम के अनुसार मैं अपने साथी खीरेन्द्र यादव के साथ सबेरे मोटर सायकिल पर जगदलपुर के लिये निकलता हूँ। निकलने के पहले लालाजी के अनुज को फोन पर यह बता देता हूँ कि हम कोंडागाँव से निकल रहे हैं। वे, विनय जी और कल्पना जी घर पर मिल जायें तो मेरा काम हो जायेगा। वे आश्वस्त करते हैं कि वे सब घर पर मिल जायेंगे। लगभग दो घन्टे बाद हम जगदलपुर पहुँचते हैं और सीधे लालाजी के घर पर ही रुकते हैं। हमें थोड़ा-सा विलम्ब हो गया था। उनके भोजन का समय हो चला था। मैं यह जानता था इसलिये हम दोनों ने उनके कमरे में प्रवेश करने की बजाय उनके अनुज के कमरे में प्रवेश किया और कल्पना जी वहीं पर वह झोला उठा लाईं। झोले में से मैंने अपने काम की सामग्री निकाल ली और उन्हें गिन कर अपने झोले में रख लिया। इस बीच लालाजी भोजन से निवृत्त हो चुके थे। मैंने मौका अच्छा जान कर उनके कमरे में प्रवेश किया। इस बार उन्हें मुझे पहचानने में अधिक देरी नहीं लगी। मेरे प्रणाम करते ही वे मुझे पहचान गये और अपनी खटिया पर बैठने को कहने लगे। मैं बैठ गया। वे कहने लगे, आप आये आनन्द आ गया। फिर पूछने लगे, और सब ठीक है? मैंने हाँ में सिर हिलाया और जी कहा। वे कहने लगे, आप आते हैं तो आनन्द आ जाता है। आप तो हरिहर वैष्णव हैं न। अपने आदमी हैं आप। मैं आपको याद करता रहता हूँ ;  लेकिन आपके आने पर मैं हरिहर वैष्णव को भूल जाता हूँ और उस आनन्द को ग्रहण करता हूँ। मैं तो कोंडागाँव जाता रहा हूँ। फिर पूछने लगते हैं, इन दिनों क्या लिख-पढ़ रहे हैं आप? मैं कहता हूँ, आप पर केन्द्रित पुस्तक पर काम कर रहा हूँ। इसी सिलसिले में यहाँ आया था। वे कहते हैं, अच्छा, ठीक है। फिर बताने लगते हैं, मेरे परिजन मेरा बहुत ध्यान रखते हैं। मैं चल-फिर नहीं पाता। आँखें कमजोर हो गयी हैं। पढ़-लिख भी नहीं पाता। 93 वर्ष का हो गया हूँ, न। वे बोलते रहते हैं और मैं सुनता रहता हूँ। अन्त में वे कहते हैं, और सब ठीक है? मैं पुन: सिर हिला कर हाँ में जवाब देता हूँ और उन्हें प्रणाम कर बाहर निकल जाता हूँ ताकि वे आराम कर सकें। भोजन के बाद आराम करने की उन्हें आदत है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ।                     
इसके बाद 21 मार्च, 2013 को एक बार फिर जगदलपुर जाने का अवसर आता है। हम अपना काम निबटा कर उनके दर्शन करने उनके घर पहुँचते भी हैं किन्तु उनके परिजनों द्वारा बताया जाता है कि आज उनसे मिल पाना सम्भव नहीं होगा। मैं अपने दो साथियों हरेन्द्र यादव और उमेश मण्डावी के साथ निराश हो कर चला आता हूँ।
फिर आया 14 अगस्त, 2013 का वह दिन जिसने न केवल मुझसे मेरे साहित्यिक गुरु और धर्मपिता अपितु समग्र छत्तीसगढ़ के साहित्याकाश के चमकते सितारे साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी जी को सदा के लिए हम सब से छीन लिया। इस दिन मैं महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर के सभा-कक्ष में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा ले रहा होता हूँ, जहाँ भाई डॉ. सुधीर शर्मा लालाजी का जिक्र करते हैं। कार्यक्रम के बाद मैं अपनी बेटियों के घर बेमेतरा जाने के लिये निकल पड़ता हूँ कि रास्ते में ही रात के लगभग 8.30 से 9 बजे के बीच क्रमश: जगदलपुर से जगदीश चन्द्र दास, रुद्रनारायण पाणिग्राही, विनय श्रीवास्तव और देहरादून से राजीव रंजन प्रसाद तथा कोंडागाँव से मेरे बेटे नवनीत मोबाइल पर मुझे लालाजी के न रह जाने का दु:खद समाचार देते हैं। अगले दिन जगदलपुर से ही भाईजान एम. ए. रहीम और फिर हल्बी के अन्यतम कवि आदरणीय सोनसिंह पुजारी द्वारा भी यह समाचार मोबाइल द्वारा मुझे दिया जाता है। मैं विवशता में न तो उनकी अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हो पाता हूँ और न कोंडागाँव तथा जगदलपुर में आयोजित शोक-सभा में। बेमेतरा में ही मैं अपनी पत्नी, बेटियों और जामाताओं के साथ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। और फिर जब 27 तारीख को उनकी तेरहवीं पर मैं उनके घर पहुँचता हूँ तो मुझे न जाने क्या हो जाता है कि मैं यह भूल जाता हूँ कि लालाजी अब नहीं रहे। मैं उनके कमरे के ठीक सामने बरामदे में ऐसी जगह जा बैठता हूँ ; जहाँ से मैं लालाजी को देख सकूँ। तभी ध्यान हो आता है कि लालाजी तो अब नहीं रहे और यहाँ उनकी तेरहवीं का कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें सम्मिलित होने के लिए मैं आया हूँ। तब मैं समझ  पाता हूँ कि अब मैं न तो उनसे प्रत्यक्ष मिल सकूँगा और न वे मुझसे पूछ सकेंगे, और सब ठीक है, ?
यह सही है कि अब उनसे प्रत्यक्ष भेंट नहीं हो सकती किन्तु यह भी सच है कि प्रत्यक्ष भेंट भले ही न हो किन्तु वे प्रति पल मेरे साथ हैं। उनका आशीर्वाद मेरे साथ है, उनका अथाह स्नेह मेरे साथ है। परमपिता परमेश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे और न केवल उनके परिजनों अपितु हम सब साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों तथा पाठकों और प्रशंसकों को उनके न रह जाने के इस अपार दु:ख को सहने की शक्ति दे, यही कामना है।
सम्पर्क: सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़, मोबा. 76971 74308 Email- hariharvaishnav@gmail.com

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