उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jan 31, 2012

लोक-संगीत


बस्तर बैंडः आदिम लोक जीवन की अनुगूंज
- संजीव तिवारी
आदिवासी संस्कृति की संपूर्ण झलक दिखाने वाले बस्तर बैंड की जिस अनोखी प्रस्तुति को दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स के उद्घाटन के दौरान टीवी पर पूरी दुनिया ने देखा है वह छत्तीसगढ़ के रंगकर्मी एवं लोककलाकार अनूप रंजन पांडेय के संयोजन, निर्देशन और परिकल्पना की ही प्रस्तुति थी। उनके इस बैंड को दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में चुनिंदा प्रस्तुतियों में रखा गया था। जिसमें बस्तर के लोक संगीत और विलुप्त वाद्यों के साथ 40 से ज्यादा कलाकारों ने लगभग डेढ़ घंटे की बेहतर प्रस्तुति दे कर एक अलग पहचान स्थापित करते हुए बस्तर की लोक कला को विश्व रंगमंच तक पंहुचाने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
इससे पहले इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा कर्नाटक के शहर मैसूर में स्थित देश के प्रख्यात प्रेक्षागृह एवं आर्ट गैलरी जगमोहन पैलेस में आयोजित इंटरनेशनल इंडीजिनस फेस्टिवल में छत्तीसगढ़ के इस पारंपरिक जनजातीय नृत्यों की श्रृंखला बस्तर बैंड को प्रस्तुत किया गया तो देश- विदेश से आये कला प्रेमी भाव विभोर हो उठे। जगमोहन पैलेस में बस्तर बैंड के कलाकारों ने लगातार दो दिनों तक ऐसा समां बांधा कि रंगायन एवं निरंतर फाउंडेशन जैसे प्रसिद्ध कला केन्द्र ने उन्हें पुन: प्रस्तुति के लिए बुलाया। उनकी इस प्रस्तुति की शिखर सम्मान प्राप्त बेलगूर मंडावी ने भी जमकर सराहना की। तीन साल पहले सिक्किम के जोरथांग माघी मेले में पहली बार किसी बड़े मंच पर जब बस्तर बैंड को मौका मिला था तब किसी ने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी इसके कलाकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर धाक जमा लेंगे।
बस्तर बैंड मूलत: बस्तर के आदिम जनजातियों की सांगीतिक प्रस्तुति है जिसमें आदिम जनजातियों के संगीत व गीतों के ऐसे नाद की प्रधानता है जो वेद की ध्वनि 'चैटिंग' का आभास कराता है। इस नाद में गाथा, आलाप, गान और नृत्य भी है, जिसमें बस्तर आदिवासियों के आदि देव लिंगों के 18 वाद्य सहित लगभग 40 से ज्यादा परंपरागत वाद्य शामिल हैं। बैंड समूह के प्रत्येक कलाकार तीन से चार वाद्य एक साथ बजाने में पारंगत हैं। तार से बने वाद्य, फूंक कर मुंह से बजाने वाले वाद्य और हाथ व लकड़ी की थाप से बजने वाले ढोल वाद्यों और मौखिक ध्वनियों से इनके कलाकार मिला- जुला जादुई प्रभाव पैदा करते हैं। उनकी इस प्रस्तुति में ऐसा आभास होता है मानों हम हजारों वर्ष पीछे आदिम युग में आ गए हों। बस्तर के आदिम जनजाति घोटूल, मूरिया और दंडामी माडिय़ा दोनों की परंपराओं में विभिन्नताएं हैं, उनके वाद्य- यंत्र भी भिन्न हैं। बस्तर बैंड ने दोनों के आदिम जीवन के रंगों को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश की है।
अनूप का यह बस्तर बैंड उपरोक्त जनजातियों के अतिरिक्त बस्तर की अन्य जनजातियों की परंपरा एवं संस्कृति के परिधान, संस्कार, अनुष्ठान, आदिवासी देवताओं की गाथा आदि की मिली- जुली संगीतमय अभिव्यक्ति है। कुल मिलाकर बस्तर के लोक एवं पारंपरिक जीवन का सांगीतिक स्वर है बस्तर बैंड, जिसमें सदियों से चली आ रही आदिम संस्कृति एवं संगीत की अनुगूंज है।
बस्तर में आदिवासी लिंगो देव को अपना संगीत गुरू मानते हैं। मान्यता यह भी है कि लिंगो देव ने ही इन वाद्यों की रचना की थी। 'लिंगो पाटा' या लिंगो पेन यानी लिंगो देव के गीत या गाथा में उनके द्वारा बजाए जाने वाले विभिन्न वाद्यों का वर्णन मिलता है। यद्यपि वर्णन में प्रयुक्त कुछेक वाद्य लगभग विलुप्त हो चुके हैं, बावजूद इसके बस्तर बैण्ड की परिकल्पना को साकार करने वाले अनूप के प्रयासों से विलुप्तप्राय इन वाद्यों को सहेजकर उन्हें पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है।
देखा जाए तो अनूप ने प्रकृति की उस आवाज को सम्हालने की कमान उठा ली है जो आतंक मचाते आधुनिक संगीत और विकास के परिणाम स्वरूप बिगडऩे वाले सामाजिक असंतुलन की भेंट चढ़ गया। वर्तमान परिस्थिति में बिखर रहे सामाजिक ताने बाने को भाषा, बोली सहित असली जातीय सुगंध की रक्षा करने वाली कम्युनिटी फीलिंग जागृत करने में ऐसे सांगीतिक प्रस्तुति की अह्म भूमिका है।
बस्तर बैण्ड में कोइतोर या कोया समाज जिसमें मुरिया, दण्डामी माडिय़ा, धुरवा, दोरला, मुण्डा, माहरा, गदबा, भतरा, लोहरा, परजा, मिरगिन, हलबा आदि के साथ कोया समाज के पारंपरिक एवं संस्कारों में प्रयुक्त वाद्य संगीत के साथ सामूहिक आलाप- गान को प्रस्तुत किया जा रहा है। बस्तर बैण्ड के वाद्यों में माडिया ढोल, तिरडुड़ी, अकुम, तोड़ी, तोरम, मोहिर, देव मोहिर, नंगूरा, तुड़बुड़ी, कुण्डीडड़, धुरवा ढोल, डण्डार ढोल, गोती बाजा, मुण्डा बाजा, नरपराय, गुटापराय, मांदरी, मिरगीन ढोल, हुलकी मांदरी, कच टेहण्डोर, पक टेहण्डोर, उजीर, सुलुड, बांस, चरहे, पेन ढोल, ढुसीर, कीकीड, चरहे, टुडरा, कोन्डोंडका, हिरनांग, झींटी, चिटकुल, किरकीचा, डन्डार, धनकुल बाजा, तुपकी, सियाडी बाजा, वेद्दुर, गोगा ढोल आदि प्रमुख हैं जो संगत स्वर थाप, लय, सुर में उन्मुक्त हैं।
इस बैंड में बस्तर के लगभग सभी समुदाय के प्रतिनिधि कलाकार हैं। कलाकारों के इस दल में माया लक्ष्मी सोरी, इडमें ताती, बुधराम सोरी, विनोद सोरी, कोसादेवा, रूपसाय सलाम, कज्जु राम, चंदेर सलाम, दसरू कोर्राम, संताय दुग्गा, जुगो सलाम, नीलूराम बघेल, श्रीनाथ नाग, कमल सिंग बघेल, समारू राम नाग, रामलाल कश्यप, विक्रम यादव, सुकीबाई बघेल, रंगबती बघेल, बाबूलाल बघेल, लच्छू राम, लखेश्वर खुदराम, बाबूलाल राजा मुरिया, सहादुर नाग, फागुराम, पुरषोत्तम चन्द्राकर तथा स्वयं अनूप रंजन आदि शामिल हैं।
सवाल यह उठता है कि आखिर इस बैंड को सामने लाने की परिकल्पना अनूप के मन में कैसे और कब आई? पूछने पर उन्होंने बताया कि- 'मैं चाहता था कि बस्तर की विलुप्त हो रही अलग- अलग बोलियों और प्रथाओं की संगीतमय कला को इस बैंड के माध्यम से एक मंच पर लाया जाए।' अनूप कहते हैं कि- मैं स्वयं नहीं जानता कि विलुप्त होते आदिवासी वाद्य यंत्रों के संग्रहण के जुनून ने कब बस्तर बैंड की शक्ल अख्तियार कर ली।' इस खर्चीले, श्रम एवं समय साध्य उपक्रम की शुरुआत करीब 10 साल पहले हुई थी, लेकिन 2004 के आसपास बैंड ने आकार लिया। किसी बड़े मंच पर तीन साल पहले ही उसकी पहली प्रस्तुति हुई थी। अनूप अपने इस कार्य को लेकर कभी ढिंढोरा नहीं पीटते वे बड़ी सहजता से कहते हैं कि वे इन कलाकारों से आज भी निरंतर कुछ नया सीख रहे हैं।

1 comment:

सहज साहित्य said...

बैस्तर बैण्ड की व्यापक जानकारी द्ने के लिए संजीव तिवारी जी बधाई के पात्र हैं । वाद्ययन्त्रों एवं गीत -संगीत की जानकारी के साथ कलाकारों की जानकारी देकर लेख को और अधिक विश्वसनीय बना दिया है । अपनी सांस्कृतिक धरोहर की जानकारी से हम अनजान होते जा रहे हैं । उदन्ती जैसी पत्रिकाएँ इस तार्ह की खोजपूर्ण जानकारी देकर सामाजिक उपकार ही कर रही हैं।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' दिल्ली