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Oct 22, 2009

दिये की लौ बढ़ाओ

- डॉ. रत्ना वर्मा
इन दोनों हाथों में


आज भी महकती है
इस दिये की मिट्टी।
मिट्टी से दीपक बन जाने की
शाश्वत निर्माण प्रक्रिया में
हर बार
एक नई ऊर्जा बटोरते हाथ
चाक पर घूमते हैं
अंधेरे घरों के लिए
रोशनी का एक संकेत लेकर।

किसी ने नहीं पूछा
दूसरों के लिए
रोशनी बन जाने में
कितनी उमर बिताओगे
अपनी अंधेरी देहलीज के लिए
दीपक
कब बनाओगे?


व्यर्थ ढूंढ रहे हो
बिजली के लट्टुओं में
आदमी के हाथों की महक
ये तो
इशारे से जलने
बुझने वाले दिये हैं।

इस छद्म रोशनी में
नहीं मिलेगी तुम्हें
अपनी मिट्टी की गंध।

यह जगमगाता शहर
बिजली से चलता है
कम्प्यूटर से निर्धारित होती है
अंधेरे और रोशनी की सीमाएं।

चेहरों पर
नकली रोशनी बांटते हुए
पूछा होता कभी
लोगों के दिलों में
गहराते अंधेरे का हिसाब।

अभी भी
दूर टिमटिमा रहा है
इन दो हाथों से बना हुआ
मिट्टी का दिया
इस दिये की लौ बढ़ाओ
पास आओ और
हाथों की इस महक को गले लगाओ।

इन हाथों में
आज भी बहता है
आदमी का खून
ये कम्प्यूटर नहीं है
जब भी पास आयेंगे
अंधकार और प्रकाश का
सही समीकरण बतायेंगे।

1 comment:

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

इस साल दीपावली पर जो भी कविताएं पढ़ीं उनमें डॉ.रत्ना वर्मा की कविता 'दिए की लौ बढ़ाओ'सबसे अच्छी, सच्ची और सार्थक लगी। यह सवाल हमें ख़ुद से भी पूछ्ना चाहिए-'दूसरों के लिए रोशनी बन जाने में कितनी उमर बिताओगे / अपनी अँधेरी दहलीज़ के लिए दिए कब बनाओगे?'

देवमणि पाण्डेय, मुम्बई