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Dec 13, 2008

हिन्दी के दुर्गम संसार में उदय प्रकाश

हिन्दी के दुर्गम संसार में उदय प्रकाश
- विनोद साव


हिन्दी के प्रख्यात लेखक और कवि उदय प्रकाश जी का नाम हिंदी साहित्य में नया नहीं है। उनकी कहानी पालगोमरा का स्कूटर, वॉरेन हेस्टिंग्ज का सांड़ 'तिरिछ' और 'पीली छतरी वाली लडक़ी ' जैसी लंबी कहानियां बहुत ज्यादा पढ़ी और सराही गईं हैं। शब्दों के अनूठे शिल्प में बुनी कविताओं और उससे भी ज्यादा अनूठे गद्य शिल्प के लिए पहचाने, जाने वाले उदय प्रकाश से पिछले दिनों व्यंग्यकार विनोद साव ने दिल्ली के उनके निवास पर एक औपचारिक मुलाकात की। प्रस्तुत है उसी मुलाकात के कुछ अंश-

जब हम किसी से दूसरी बार मि रहे होते हैं तो उनकी पही मुलाकात की आवाजें गूंज रही होती हं। पिछे कुछ दिनों से ऐसा ही था। उन्हीं में से एक आवाज थी 'आनंद विहार आ जाइए वहां से बस दस मिनट में जज कॉलानी पहुंच जाएंगे।'

वैसा ही हुआ था और मैं जज कॉलनी के सामने दूसरे क्रम की ईमारत के सामने खड़ा था। नीचे किशोर उम्र के एक डक़े को पूछा था 'उदय प्रकाश!'

'सबसे ऊपर तीसरी मंजि पर। उनका मकान तो है पर वे रहते नहीं हैं। ऊपर अन्धेरा है और जाला फैला हुआ होगा उनके $जीने पर।'

उसने सिर ऊपर कर ईशारा किया था।

'अभी कुछ देर पहे तो उनसे मोबाइ पर बात हुई है।'

'देख लीजिए।'

तीसरी मंजि पर लोहे का एक गेट था जिसमें भीतर से ताला गा हुआ था। ऊपर से आवाजें आ रही थीं बतियाने की। मैंने लोहे के गेट को हिलाया था, थोड़ी देर में चाबी लेकर मैडम उतरीं थीं, उन्होंने नाम पूछा था, फिर गेट खो दिया गया था।

'यह मेट्रो सीटी का अपना तरीका है सुरक्षागत कारणों से।' उदय प्रकाश ने स्पष्ट किया था। ड्राइंग हॉ मुझे अच्छा गा पर उन्होंने संकोच बरता 'हम लोग भी क ही मध्यप्रदेश से लौटे हं। घर अभी व्यवस्थित हो नहीं पाया है।'

एक गृहिणी की सदाशयता से मैडम ने भी संकोच व्यक्त किया था। वे पानी लेने भीतर घुसीं। मैंने आहिस्ते से पूछा था 'ये भाभी .. पीला छतरी वाली डक़ी हैं क्या? Ó

'नहीं! उसमें कुछ सच्चाई है और थोड़ी कल्पना ' वे थोड़ा मुस्कराये थे।

'आपने दिल्ली की भीड़, शोर और प्रदूषण सबको कम कर यिला है गाजियाबाद में मकान बनाके' मैंने सामने बाल्कनी से शहर को झांकते हुए कहा था।

'हां .. उद्देश्य तो यही था। पर देखें यहां कब तक बचा जा सकता है इन सबसे।' उन्होंने दूर शॉपिंग मॉ की ओर इशारा कर कहा था कि ' जब यहां आया था तो बस चार ही मॉल थे अब उन्नीस हो गए हैं।'
घनघोर कांक्रीट होते शहर पर उनकी चिन्ता थी। यह दिल्ली और गाजियाबाद के सिवान पर बसा इलाका था। ठीक उनके गांव सीतापुर की तरह जो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सिवान पर बसा है ।

यह पन्द्रह दिनों के भीतर ही उदय प्रकाश से दूसरी मुलाकात थी। वे कुछ दिनों पहे दुर्ग आए थे, अपने परिवार के साथ, तब दुर्ग के डेन्ट कॉलेज में अपनी दो भांजियों का प्रवेश उन्होंने करवाया था और उनके एक इन्डक्शन प्रोग्राम में सम्बोधित किया था। साथ में कनक तिवारी थे।

शाम को भिाई में अशोक सिंघई के निवास में उनसे लेखक बिरादरी से एक भेंटवार्ता थी। जिसमें उनकी कहानियों पर कई प्रश्न लोगों ने पूछे थे, 'लोगों ने क्या.. आपने ही तो सब पूछे थे। वे बो पड़ते हैं।'

नेहरु के त्रिमूर्ति भवन से बातें उन्होंने शुरु की थी, तब मैंने टोका था कि 'आप कैसे नेहरु की बात कर रहे हैं? नेहरु के भक्तों की पीढ़ी को तो थोड़ा और वरिष्ठ होना चाहिए।'

'आप ठीक कहते हैं, पर मुझमें नेहरु का प्रभाव है।' मैं स्कूलीय जीवन में भी उनके चित्र बनाया करता था।'
'नेहरु बड़े फोटोजनिक तो हैं' मैंने कहा 'एक समय तो नेहरु और लोहिया के समर्थक बहुत हुआ करते थे। वे इन दोनों महापुरुषों को तमगे की तरह लेकर चा करते थे, कि हम नेहरुवादी हैं या लोहियावादी हैं।' मैंने बात को थोड़ा और विस्तार दिया।

'नेहरु मुझे अपने लोकतांत्रिक दृष्टि के कारण बहुत अच्छे गे। आज जो साम्प्रादायिक दंगे हो रहे हैं और अल्पसंख्यकों को शक की निगाह से देखा जा रहा है। खासकर दिल्ली में तो एक कौम का जीना हराम हो रहा है।

हर बम काण्ड के बाद पूरी कौम को शक से देखा जा रहा है। यह स्थिति सारे देश में हो रही है। ऐसे में हमें नेहरु जैसे व्यापक सोच वालों की जरुरत है।'

हमारी बातचीत बिखरी हुई थी लेकिन खुलेपन के साथ थी। क्योंकि यह कोई प्रायोजित और आयोजित बैठक तो थी नहीं। मित्रवत बातें हो रही थीं। कुछ चाय और नमकीन के साथ। बीच-बीच में वे अपनी तम्बाकू जैसी कोई चीज एक छोटी थैली से निकाकर मुंह में दबा लेते थे। मैं सिगरेट पीने के एलि उनके टैरेस की ओर निकना चाहता था वे बपूर्वक बो पड़े थे 'बाहर क्यों? यही पीजिए।'

'साहित्य का क्या होगा?' पूछने पर कहते हैं 'साहित्य तो रहेगा। यह जरुर है कि आज प्रिन्ट मीडिया की सुविधा के कारण जो अनावश्यक साहित्य भूंसे के ढेर की तरह आ गया है। वह कम हो जायगा और फिर से अच्छे साहित्य और अच्छी पत्रिकाएं पूर्ववत कम हो जाएंगी।'

'पीली छतरी वाली लडक़ी' आपकी एक सौ बीस पृष्ठों की कहानी है पर आपने इसे उपन्यास नहीं माना है, कहा है कि एक म्बी कहानी है?

'देखिए उपन्यास में काफी फैलाव होता है और उसमें कुछ शिथिता होती है। लेकिन 'पीली छतरी वाली लडक़ी' में पूरी तरह कसावट है एक कहानी की तरह ही। इसे खिने की मेरी कोई योजना नहीं थी, यह राजेन्द्र यादव ने दबावपूर्वक खिवाई थी।'

'मोहनदास कहानी में आपने छत्तीसगढ़ी भाषा के संवाद खूब खिलें है। हम लोगों को जानकर यह आश्चर्य हुआ कि इस भाषा की पृष्ठभूमि आपने कहां से पायी। क्योंकि आप मध्यप्रदेश के हैं और शायद छत्तीसगढ़ी आपकी मातृभाषा

नहीं है।Ó

वे कहते हैं कि 'मैंने बताया न कि हमारा गांव मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सिवान पर है। पहे तो दोनों राज्य एक थे और हम बिलासपुर-शहडोल के आसपास रहने वो लोग सब छत्तीसगढ़ी बोला करते थे। हमारे गांव परिवार में छत्तीसगढ़ी बोली जाती है। अब तो राज्य विभाजन के बाद मध्यप्रदेश वो हमें छत्तीसगढ़ का कहते हैं और छत्तीसगढ़ वो मध्यप्रदेश का, और इसएि मैं दोनों से वंचित हो जाता हूं न मध्यप्रदेश का न छत्तीसगढ़ का।Ó

'आप क्यों। आप तो आगे जा रहे हैं, ये दोनों प्रदेश आप से वंचित हो रहे हैं। चाहें तो दोनों श्रेय ले सकते हैं।Ó आपने मोहनदास कहानी में मुक्तिबोध, शमशेर और परसाई नाम को कहानी के चरित्र के रुप में इस्तेमा किया है? '

हां.. ये तीनों अपने समय के महत्वपूर्ण रचनाकार थे और तीनों मित्र भी थे। मुक्तिबोध में मुझे किसी न्यायाधीश की तरह का संतुन दिखता है। इसलिए मैंने कहानी में उन्हें न्यायाधीश बताया है, परसाई में साहस था इसलिए  उन्हें पुसि इंस्पेक्टर के रूप में लिया  है। शमशेर का व्यक्तित्व भी मुझे फिट गा .. और मेरी कहानी में भी ये मानवीय चरित्र के रुप में ही आये हैं।


'आपकी कई कहानियां किसी न किसी लोम हर्षक घटना का वृतांत होती है ! '

'हां इनमें ज्यादातर सच घटनाएं होती हैं। मोहनदास वाइसलिली कहानी की घटना तो हमारे गांव की ही है। जो एक पढ़ा खिला नौजवान था, जिसके नियुक्ति आदेश को गांव का कोई ऊंची जाति का डक़ा पा जाता है और उसके बदे में उसकी नौकरी को हथिया लेता है। इस तरह एक दूसरा आदमी दूसरे किसी की नौकरी को कर रहा होता है। यह एक बड़ी त्रासद कथा है।'

'मेंगासिल' के बाद आपने कोई कहानी खिली?

वे थोड़ा ठिठकते हैं 'नही.. मेंगासि के बाद मैंने कोई कहानी नहीं खिली है।'

'आपकी कहानियां म्बी होती हैं बहुत मानसिक तैयारी के बाद खिना होता होगा?

'एक ही राइटअप होती है मेरी कहानियां। उसी में ही काट सुधार कर दिया जाता है। बस खिता चा जाता हूं। कोई मानसिक तनाव नहीं होता है।'

'कम्प्यूटर से खिते हैं?'

'कम्प्यूटर से दूसरे काम करता हूं। अपनी फिल्में या डाक्यूमेंट्री बनाने सम्बंधी। पर कविता कहानी के साथ कम का आत्मीय रिश्ता है। इसलिए कम से ही खिता हूं। जिस तरह चित्रकारी के लिए तुलिका जरुरी है वैसे ही कहानी खिने के लिए मुझे कम जरुरी है।'

पाठक !

'पाठकों की कमी नहीं है मुझे।' वे अपना कमरा दिखाते हैं जिसमें उनके प्रशंसकों की डाक बिखरी हुई है। इनमें कितनी तो खुली ही नहीं हैं 'अक्सर हम बाहर रहते हैं। कई बार विदेश यात्राएं होती हंै। कहानियों के अनुवाद के लिए लोग आते हैं। अनुवादकों को तो मैं भगवान मानता हूं। अनुवादों के जरिए दूसरे देशों में भी पाठकों से जुड़ जाता हूं। अभी पीली छतरी वाली कहानी के फ्रेंच अनुवाद के कारण एक कार्यक्रम में फ्रांस जा रहा हूं। मेरा बेटा जो जर्मनी में नौकरी करता है, उसने भी एक फ्रंासीसी डक़ी से शादी की है। पिछे दिनों यहीं पार्टी हुई तो सारे फ्रांसीसी रिश्तेदारों से यह घर भरा पड़ा था। दूसरा बेटा दिल्ली में ही नौकरी पर है।

वे अचानक उठते हैं 'आइए विनोदजी मैं आपको अपनी मेहनत से खरीदा हुआ सत्ताइस लाख का यह मकान दिखाऊंलं।Ó उन्होंने सबसे पहा कमरा खोला 'इस कमरे को आप अच्छे से देख लीजिए क्योंकि अब जब भी आप दिल्ली आएं तो यहां रुकें।' उस कमरे को व्यवस्थित करने में भाभी जुटी हुई थीं। सभी कमरे व प्रसाधन कक्ष को दिखाते हुए वे टैरेस पर ले आते हैं जिसमें बागवानी भी हुई है 'यहां कभी किसी लेखक मित्र के साथ बैठकर बीयर पी लेते हैं।' हिन्दी का एक लेखक किसी कस्बे से निककर दिल्ली में घर बसा ले और वह भी केव अपने लेखन के दम पर यह एक अचम्भा है। यह हिन्दी के याचक और दयनीय संसार के लिए  तो सचमुच विकट अचम्भा है।

मैं भिलाई में अपने साथ ली हुई उनकी तस्वीर दिखाता हूं। वे बो पड़ते हैं 'अरे आपका चित्र तो बड़ा खूबसूरत आया है और मैं किसी विदेशी की तरह दिख रहा हूं।' वे अपने डिजीट कैमरे से मेरी भी कुछ तस्वीरें लेते हैं किसी पेशेवर फोटोग्राफर की तरह लाइट एंड शेड का ध्यान रखते हुए। मुझे कैमरे में ही दिखाते हैं। मैं उनके भिलाई प्रवास पर हुए कार्यक्र म की सीडी देता हूं। वे भारतेन्दु हश्चिंद्र पर बनाए गए वृत्तचित्र की सीडी मुझे देते है 'यह दूरदर्शन से एप्रूव्ड है। आगे प्रसारण होगा।'

मैं नीचे उतरता हूं। मुझे छोडऩे के लिए  वे और भाभी एक साथ उतरते हैं। वे आनंद विहार तक मुझे कार में छोडऩा चाहते हैं। अपनी वैगन आर को ड्राइव करते हुए वे गेब मार्केट बातें करते हुए ठीक उस विदेशी चेहरे की तरह दिख रहे हैं जो मेरे साथ चित्र में हैं। वे मुझसे हाथ मिलाते हुए आत्मीय मुस्कान के साथ कहते हैं 'हम बहुत जल्दी मिलेंगे।' मैं धीरे से उन्हें कहता हूं 'आजादी के पहे प्रेमचंद और आजादी के बाद उदय प्रकाश।' वे हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर आल्हादित स्वरों में कहते हैं 'आप महान हैं।' हम दोनों अपनी-अपनी महानता के दर्प से बिदा होते हैं।

मैं फिर से हिन्दी के जादुई यथार्थवाद से आरोपित इस कथाकार की अल्प समय में दीर्घ साधना को याद करता हूं जिनका खिला, कहा हर समय चर्चा और विवाद के घेरे में होता है फिर भी अपनी जगह अट और विश्वसनीय होता है। बहुत कम log ही बना सकते हैं ऐसा आशियाना विराट राजधानी दिल्ली में और ऐसा घरौंदा हिन्दी साहित्य के दुर्गम संसार में।

उदय प्रकाश जी से इस पते पर संपर्क किया जा सकता है-
9/2 जज कॉलोनी, न्याय मार्ग, वैशाली सेक्टर-9, गाजियाबाद- 201010
मो. नं. 09810716409
पता: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
मो. 9907196626

1 comment:

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

ठीक से स्मरण तो नहीं ...किंतु शायद छह साल पहले जज कॉलौनी के इसी घर में मैं भी पहुँचा था उदय जी से मिलने । प्रारम्भ की घटना वैसी ही थी जैसी कि आपके साथ हुई । यानी पड़ोसी ने बताया कि वे प्रायः यहाँ नहीं रहते । लोहे के चैनल वाला गेट तब भी उनकी श्रीमती जी ने ही खोल था । तब घर में एक अच्छा सा श्वान भी था। अन्दर पहुँचकर देखा - हॉल की भव्यता एक आम लेखकीय दरिद्रता को पराजित कर रही थी। अच्छा लगा । हम पहुँचे थे "और अंत में प्रार्थना" तथा "मोहनदास" के लेखक से मिलने ।
चर्चा के अनंतर उन्होंने बताया था - और अंत में प्रार्थना के प्रमुख पात्र डॉ. वाकणकर काल्पनिक नहीं ...वास्तविक हैं । जीवित हैं और ग्वालियर में अपनी शेष ज़िन्दगी कैसे भी काट रहे हैं ।" डॉ. वाकणकर के बारे में उन्होंने और जो कुछ बताया वह सुनकर मैं एक बार काँप गया था।
मैंने बताया "आज से दशकों पूर्व लिखी इस कहानी को मैं आज भी घटित होते देखता हूँ।" उन दिनों घटिया दवाइयों की ख़रीदी (जिसमें सौन्दर्य प्रसाधन और अफ़्रोडिजियक्स भी शामिल थें) को लेकर मैं अपने दम पर पूरे विभाग से पंगा मोल ले चुका था और पूरा प्रशासन डॉ. वाकणकर की तरह ही मेरे भी पीछे पड़ चुका था। अंततः डॉ.वाकणकर की ही तरह मुझे भी व्यवस्था से पराजित होना पड़ा।

विकास के तमाम दावों का सत्य यह है कि व्यवस्था आज भी वैसी ही है ।

ख़ैर! आज आपका लेख पढ़्कर पुरानी बातें स्मरण हो आयीं । ...और इसके लिए आपको धन्यवाद!