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Oct 3, 2021

किताबें- विविध भावों से युक्त हाइकु

- रमेशकुमार  सोनी

पुस्तक - भाव-प्रकोष्ठ  (हाइकु संग्रह) डॉ. सुरंगमा यादव, अयन प्रकाशन, 

महरौली- नई दिल्लीसन- 2021,  पृष्ठ-112, मूल्य-230 रुपये 

     हिन्दी हाइकु एक ऐसी विशिष्ट विधा है जिसे अपनाना तो सभी चाहते हैं; लेकिन इसकी लघुता के समक्ष लोग घुटने टेककर इसे विधा मानने से इनकार करते हुए इससे दूरी बना लेते हैं।इस विकट  दौर में जब साहित्य लेखन एक फैशन हो चुका है, तब समाज को सही दिशा देने, इसकी अच्छाइयों को सहेजने, प्रेम जैसे सहज उपलब्ध भावों को दीर्घकाल तक जीवित रखने का बीड़ा उठाने इस मातृशक्ति ने कमर कसी है।

    हिन्दी साहित्य को देश-विदेशों में गौरवान्वित करने वाली एक प्रमुख विधा के रूप में हाइकु का योगदान प्रशंसनीय है, जिसमें इस जीवन की सभी गतिविधियों को अपने आँचल में समेटकर प्रस्तुत होने की अद्भुत क्षमता है। यही वह विधा है जिसकी विविध पत्र-पत्रिकाओं ने अपने अंक निकालकर इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है तथा इसे संपोषित करने का स्तुत्य कार्य किया है।

     ‘भाव प्रकोष्ठ’ में विविध भावों के 467 हाइकु ,कुल 6 उपशीर्षकों – भाव प्रकोष्ठ, प्रेम कस्तूरी, नारी समिधा,मेघों का गाँव,समय-सरगम एवं लॉकडाउन के अंतर्गत प्रस्तुत हुए हैं । सभी हाइकु के वर्णक्रम अनुशासित हैं तथा विषयों से भटकाव नहीं है। इन दिनों प्रकृति के अलावा अन्य विषय पर भी हाइकु रचे जा रहे हैं इसी कड़ी में डॉ.सुरंगमा जी की संवेदना इस खंड को उकेरने में कामयाब हुई है जिसमें आपने वियोग से उपजे दर्द के किस्से और इनसे सम्बंधित विविध भावों का सम्प्रेषण बखूबी किया है। प्रेम कस्तूरी- सा है जिसकी सुवास पर ही यह दुनिया केन्द्रित है। आप लिखती हैं- रनिवास एक प्रतीक्षालय है और मन एक महाकाव्य है, जिसे बाँचने की प्रतीक्षा है , तुम्हारे साथ खिली धूप भी चाँदनी लगती है , पीड़ा का हिमखण्ड पिघल कर नैनों में बाढ़ ले आता है। प्रेम का यह भाग सुन्दर इसलिए बन पड़ा है क्योंकि इसमें पाने का भाव द्वितीय होता है और न्योछावर /समर्पण का भाव प्रमुख होता है।

       शब्द हैं मौन/आँसू हुए मुखर/समझे कौन!

     बंद किवाड़े/फिर भी आ जाती हैं/पीड़ाएँ द्वारे।

          प्रेम के सुन्दर दृश्यों पर फ़िल्मी दुनिया की काली छाया से इसकी विकृति यदा-कदा समाज एवं परिवारों को भोगनी पड़ती है, जिसमें इन दृश्यों के अंतर्गत वर्णित दृष्टिकोण का सर्वथा अभाव होता है। ऐसे ही भावों को  आपने इन हाइकु के माध्यम से बचाने की एक अच्छी कोशिश की है।

       प्रीत के पाँव/बिन पायल बाजें/सुनता गाँव।

      प्रिय का मुख/तिल बनके चूमूँ /रूप सजाऊँ।

      मन- पतंग/लाज की डोर संग/पिया को ढूँढे।

        प्रेम- पतंग/सहज न उड़ती/फँसते पेंच।

     इन दिनों वैश्विक गाँव और हमारे भारतवर्ष की आत्मा वाले गाँव में अंतर बढ़ा है ,हमारे यहाँ जहाँ रिश्तों का तात्पर्य उसे निभाना होता हैत्याग और समर्पण की प्रवृत्ति होती है ठीक इसके उलट वहाँ रिश्तों को सिर्फ भुनाया जाता है,अपेक्षाओं की भाषा में। रिश्तेदारियों में उलझी नारियों को कई प्रकार के रिश्तों को अपने आँचल में सँभालना होता है इसी की अनुगूँज इन हाइकु में सुनाई पड़ती है।

      रिश्तों में बँधा/बोनसाई-सा हुआ/प्रेम का पौधा।

      करे उजाड़/अहंकार की बाढ़/रिश्तों का गाँव।

          सामाजिक जीवन में नारी अब अपनी भूमिका तलाशते समिधा होकर रह गई है, जिसका जब चाहे जैसे पुरुषवादी सोच ने उपयोग किया है। ग्लोबल दुनिया में सौन्दर्य के बाज़ार की लार टपकाती जीभ बड़ी लम्बी है। रोज ही होते चीरहरण और मौन खड़े समाज पर प्रश्न चिह्न लिये प्रकट हुए हैं ये हाइकु;।  बंद हो अब अग्निपरीक्षा और विविध सामाजिक समस्याएँ जैसे– दहेज़ प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या एवं घरेलू हिंसा;  क्योंकि ये नारी के मन में पीड़ा का सागर बनाते हैं।ये हाइकु ऐसे ही भावों के साथ प्रस्तुत हुए हैं -

      नवोढा कलि/अधखिली बिखरी/उजड़ा भाग्य!।

      लूट का धन/समझते दरिन्दे/नारी का तन।

      तितली देख/पकड़ने को बढ़े/हाथ अनेक।

        मेघों का गाँव के अंतर्गत मौसम का वर्णन अत्यंत सुन्दर बन पड़ा है यहाँ प्रकृति की सुन्दरता सर्वत्र बिखरी हुई नज़र आती है जिसे इन हाइकु ने चोला पहनाया है। यहाँ पुष्पों का मेला है , ऋतुओं का वर्णन है,चिरौरी करते हुए मेघ धूप के संग लुकाछिपी खेलते हैं,धरती के फटे सीने को देख बादल पसीज जाते हैं।

मेघ कहार हैं जो वर्षा की डोली लिये आते हैं एवं जल की सेना मेघों के रथ पर सवार होकर आती है।इन सबके साथ और भी बहुत कुछ दिखाने की कोशिश करते हुए ये हाइकु मनभावन हैं-

      मेघ जौहरी/बाँटे खोले तिजोरी/बूँदों के मोती।

      मेघों की धूप/घूँघट से झलके/गोरी का रूप।

      निशा सुंदरी/झींगुर पायल से/करें झंकार।

      धूप- चादर/कोहरे पर फैली/हो गई गीली।

    समय सरगम खंड के तहत इस चार दिन की जिंदगी में मिले समय के साथ इंसानी गतिविधियों का कदमताल है। दुनिया की तमाम समस्याओं और उसकी धमाचौकड़ी , सुख-दुःख, धरा का दोहन,भ्रमित युवा एवं भूखे मजदूर को अपने साथ लिए हाइकु की यह यात्रा अच्छी है-

      फैल रही है/द्वेष-घृणा की आग/मानव जाग।

      वर्षा की झड़ी/मजदूर के घर/ठण्डी सिगड़ी।

    कोरोना की विभीषिका से उपजी समस्या - लॉकडाउन के दौरान का अकेलापन ,अपनों को खोने का दुःख , अपनी रिश्तेदारियों को न निभा पाने का कष्ट इस पूरी दुनिया ने भोगा है । यह दर्द इस हाइकुकार ने भी भोगा और उसे हाइकु में पिरोया; क्योंकि कोई भी रचनाकार अपने अनुभवों की स्याही में अपनी संवेदनाओं को शब्दांकित करता है। अपने गाँवों की ओर पैदल लौटते छाले वाले भूखे पाँव, स्वास्थ्य कर्मियों, स्वच्छता कर्मियों का समर्पण, सूनी सड़कें, आयुर्वेद के चमत्कार के साथ मदद के लिए उठने वाले भामाशाह के हाथ सभी ने देखे हैं। ऐसे ही कुछ भावों को प्रकोष्ठ में लिए ये हाइकु अपना ध्यानाकर्षण करने में सक्षम हुए हैं-

       घूमे कोरोना/दुनिया के माथे पे/आया पसीना।

       प्रकृति हँसी/आज सुविधाभोगी/बना है योगी।

      भीतर भूख/बाहर है कोरोना/जाएँ तो कहाँ।

       वक्त ने दिया/आज इतना वक्त/कटता नहीं।

          ‘भाव प्रकोष्ठ’ में विदुषी प्राध्यापक/विविध विधाओं की रचनाकार डॉ. सुरंगमा यादव सफल रही हैं विशेषतः सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों से जुड़े हाइकु उत्कृष्ट उदाहरणों के लिए याद किए जाएँगे। हिंदी  साहित्य की इस अमूल्य निधि से अब नवलेखकों का उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन होगा।

सम्पर्कः LIG-24 कबीर नगर फेज-2, रायपुर ,छत्तीसगढ़ 493554

1 comment:

Ramesh Kumar Soni said...

हाइकु की लघुता में विशालता मुझे सदैव प्रभावित करती है।
मेरी समीक्षा को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद जी।
डॉ सुरंगमा यादव जी को बधाई।