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Feb 13, 2019

राजिम

राजिम
माघी पुन्नी मेला
कुछ वर्ष पहले तक राजिम में प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों तक नदी किनारे श्रद्धालुओं का जो समागम होता था वह मेले के स्वरुप में ही होता था। छत्तीसगढ़ राज्य जब अपने अस्तित्व में आया तब वर्ष 2001 से राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा, फिर 2005 से इसे कुम्भ का स्वरूप दे दिया गया, और अब 2019 से वर्तमान सरकार ने राजिम के ऐतिहासिक महत्त्व के अनुरूप राजिम माघी पुन्नी मेला करने का निर्णय लिया  है।

राजिम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 45 किलोमीटर दूर गरियाबंद जिले का एक तहसील है। महानदी के तट पर बसे राजिम क्षेत्र का अपना एक अलग ही माहात्म्य है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र को चित्रोत्पला नगरी, कमल क्षेत्र, पद्मावाती एवं पौराणिक आख्यानों में इसे देवपुरी के नाम से जाना जाता था। उत्तर प्रदेश के प्रयाग को गंगा यमुना एवं सरस्वती नदियों का पावन संगम होने के कारण जिस तरह त्रिवेणी संगम कहा जाने लगा, उसी तरह राजिम में महानदी, सोंढूर और पैरी नदियों के संगम के कारण इसे छ्त्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाने लगा। संगम में अस्थि- विसर्जन तथा संगम किनारे पिंडदान, श्राद्ध एवं तर्पण किया जाता है। मंदिरों की महानगरी राजिम की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक यात्री राजिम की यात्रा नहीं कर लेता। माना जाता है कि भगवान शिव और विष्णु यहाँ साक्षात रूप में विराजमान हैं, जिन्हें राजीवलोचन और कुलेश्वर महादेव के रूप में जाना जाता है।
प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्व और प्राचीन सभ्यता के लिए प्रसिद्द है। राजिम मुख्य रूप से भगवान श्री राजीव लोचन जी के मंदिर के कारण प्रसिद्ध है।
कमल दल से आच्छादित भू-भाग बाद में पद्म क्षेत्र के नाम से प्रसिद्द हुआ। प्राचीन काल में राजिम अथवा कमल क्षेत्र पद्मावती पुरी दक्षिण कौशल का एक वैभवशाली नगर था। छत्तीसगढ़ अंचल में इस पद्म क्षेत्र की प्रदक्षिणा का विशेष धार्मिक, सांस्कृतिक महत्त्व है। पुन्नी मेला के पंद्रह दिन पहले ही भक्तगण पैदल ही पंचकोशी की यात्रा प्रारंभ कर देते हैं।
राजिम में इस परम्परागत वार्षिक मेले का आयोजन माघ पूर्णिमा को होता है। पूर्णिमा जिसे छत्तीसगढ़ी में 'पुन्नी’ कहते हैं। पुन्नी मेलों का सिलसिला छत्तीसगढ़ में लगातार चलता रहता है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों में नदियों के किनारे सम्पन्न होते हैं। सामाजिक मेल मिलाप और सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में मेलों का अपना महत्त्व है। अब तो सड़कें बन गई हैं यातायात के साधन उपलब्ध हो गए हैं अन्यथा छत्तीसगढ़ के ग्रामीण युगों से इन मेलों में पैदल, घोड़ा गाड़ी, बैल गाड़ी जैसे साधनों से आते-जाते रहे हैं और अपने मित्रों, रिश्तेदारों से मिलते हैं। पुराने समय में इन मेलों में ही अपने बच्चों के लिए वर-वधू तलाशने की परंपरा भी रही है।
कुलेश्वरनाथ मंदिर
महानदी, पैरी और सोढुर नदी के तट पर लगने वाले इस मेले में मुख्य आकर्षण का केंद्र संगम के मध्य में स्थित कुलेश्वर महादेव का विशाल मंदिर स्थित है, कुलेश्वर महादेव को पहले उत्पलेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता था। पाश्चात्य पुरातत्तववेत्ता वेलगर ने इस मंदिर को 8वीं-9वीं शताब्दी का मन्दिर माना है। ।
यह स्थापत्य का बेजोड़ नमूना होने के साथ-साथ प्राचीन भवन निर्माण तकनीक का जीवंत उदाहरण है। इसका निर्माण बड़ी सादगी से किया गया है। मन्दिर के पास 'सोमा’, 'नाला’ और कलचुरी वंश के स्तम्भ भी पाए गए हैं। मंदिर का आकार 37.75 गुना 37.30 मीटर है। इसकी ऊंचाई 4.8 मीटर है। मंदिर का अधिष्ठान भाग तराशे हुए पत्थरों से बना है। रेत एवं चूने के गारे से चिनाई की गई है।
इसके विशाल चबूतरे पर तीन तरफ से सीढिय़ां बनी है। इसी चबूतरे पर पीपल का एक विशाल पेड़ भी है। चबूतरा अष्टकोणीय होने के साथ ऊपर की ओर पतला होता गया है। मंदिर निर्माण के लिए लगभग 2 कि.मी. चौड़ी नदी में उस समय निर्माताओं ने ठोस चट्टानों का भूतल ढूँढ निकाला था। बरसात के दिनों में बाढ़ का पानी कई-कई दिनों तक मंदिर को डुबोए रखता है लेकिन मंदिर को कभी कोई नुकसान नहीं पहुँचा।
इसमें कोई दो मत नहीं कि कुलेश्वर मंदिर प्राचीन काल की इंजीनियरिंग का अद्भुत प्रमाण है। त्रिवेणी संगम पर पंचेश्वर महादेव और भूतेश्वर महादेव के मंदिर हैं, वे भी कलचुरी काल की स्थापत्य कला के अनुपम उदाहरण हैं।
राजीव लोचन मंदिर
राजिम का प्रमुख मन्दिर राजीवलोचन है। राजीव लोचन मंदिर में भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। इस मन्दिर में बारह स्तम्भ हैं। स्तम्भों पर अष्ट भुजा वाली दुर्गा, गंगा- यमुना और विष्णु के विभिन्न अवतारों, जैसे- राम, वराह और नरसिंह आदि के चित्र बने हुए हैं। यहाँ से प्राप्त दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर के निर्माता राजा जगतपाल थे। इनमें से एक अभिलेख राजा वसंतराज से सम्बंधित है, किंतु लक्ष्मणदेवालय के एक दूसरे अभिलेख से विदित होता है कि इस मन्दिर को मगध नरेश सूर्यवर्मा (8वीं शती ई.) की पुत्री तथा शिवगुप्त की माता 'वासटा’ ने बनवाया था। राजीवलोचन मन्दिर के पास 'बोधि वृक्ष’ के नीचे तपस्या करते बुद्ध की प्रतिमा भी है।
मन्दिर के स्तंभ पर चालुक्य नरेशों के समय में निर्मित नरवराह की चतुर्भुज मूर्ति उल्लेखनीय है। वराह के वामहस्त पर भू-देवी अवस्थित हैं। शायद यह प्रदेश में प्राप्त सबसे प्राचीनतम मूर्ति है।
राजीवलोचन मंदिर राजिम के सभी मंदिरों में सबसे पुराना है। यह स्थान शिव और वैष्णव धर्म का संगम तीर्थ है। राजीव लोचन मंदिर के बारे में भी यह माना जाता है कि इसे भगवान विश्वकर्मा ने खुद बनाया था।
पंचकोसी यात्रा
इस क्षेत्र के आसपास अनेक स्वयंभू लिंग हैं जैसे कि कोपरा में कोपेश्वर महादेव, फिंगेश्वर में फणेन्द्र महादेव, चम्पारण में चम्पेश्वर महादेव, पटेवा में पटेश्वर महादेव, ब्रह्मनी में ब्रह्मनेश्वर महादेव यह स्थल पंचकोशी नाम से जाना जाता है। और भक्त जन अपनी पंचकोशी यात्रा का शुभारम्भ कुलेश्वर महादेव के मन्दिर से करते हैं और यात्रा का समापन भी इसी मन्दिर में होता है। माघी पुन्नी से महाशिवरात्रि पर्व तक इस क्षेत्र का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है। श्रद्धालु जन संगम तीर्थ में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं। मेला की शुरुआत कल्पवाश से होती है पखवाड़े भर पहले से श्रद्धालु पंचकोशी यात्रा प्रारंभ कर देते है पंचकोशी यात्रा में श्रद्धालु पैदल भ्रमण कर दर्शन करते है तथा धुनी रमाते है, इस तरह 101 कि? मी? की यात्रा का समापन होता है
पंचकोसी यात्रा के बारे में भी एक किंवदंती प्रचलित है-
एक बार विष्णु ने विश्वकर्मा से कहा कि धरती पर वे एक ऐसी जगह उनके मंदिर का निर्माण करें, जहाँ पाँच कोस के अन्दर कोई शव न जला हो। अब विश्वकर्मा जी धरती पर आए, और ढूंढ़ते रहे, पर ऐसा कोई स्थान उन्हें दिखाई नहीं दिया। उन्होंने वापस जाकर जब विष्णु जी यह बात बताई तब विष्णु जी ने एक कमल का फूल धरती पर ऊपर से छोड़ दिया और विश्वकर्मा जी से कहा कि- यह फूल जहाँ गिरेगा, वहीं मंदिर का निर्माण होगा। कमल फूल का परागकण जहाँ पर गिरा वहाँ पर विष्णु भगवान का मन्दिर है और पंखुडिय़ाँ जहाँ जहाँ गिरी वहाँ पंचकोसी धाम बसा हुआ है।
पटेश्वर महादेव (पटेवा गाँव) सबसे पहले पटेश्वर महादेव के दर्शन करने पटेवा गाँव जो राजिम से 5 कि.मी. दूर है की ओर प्रस्थान करते हैं। पटेवा का प्राचीन नाम पट्टनापुरी है। यहाँ पटेश्वर महादेव की अन्नब्रह्म के रुप में पूजा की जाती है। इनकी अद्र्धांगिनी हैं भगवती।
चम्पकेश्वर महादेव (चम्पारण्य) अगला पड़ाव होता है चम्पारण्य। राजिम के उत्तर की ओर 14 कि.मी. पर चम्पारण ग्राम है जहाँ चम्पकेश्वर महादेव का मंदिर है। 18 एकड़ में फैले इस गाँव में चम्पा फूल के पेड़ों की बहुतायत थी इसीलिए इसका नाम चम्पारण्य पड़ा । चम्पकेश्वर महादेव को तत्पुरुष महादेव भी कहा जाता है। यहाँ उनकी अद्र्धांगिनी हैं कालिका (पार्वती)। यहाँ शिव की उपासना प्राण रूप में की जाती है।
वैष्णव सम्प्रदाय की शुरुआत करने वाले महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली चम्पारण्य ही है। वल्लभाचार्य के कारण चम्पारण एक वैष्णव पीठ के रुप में भी प्रतिष्ठित है। जो शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों के संगम स्थल के रुप में एकता का प्रतीक बन गया है। वल्लाभाचार्य ने तीन बार पूरे देश का भ्रमण किया। वे अष्टछाप के महाकवियों के गुरु थे। सूरदास जैसे महाकवि को उन्होंने ही दिशा देकर कृष्ण की भक्ति काव्य का सिरमौर बनने हेतु प्रेरित किया। राजिम मेले के अवसर पर चम्पारण्य में भी महोत्सव का आयोजन होता है।
ब्रह्मकेश्वर महादेव (ब्राह्मनी गाँव) तीसरा पड़ाव होता है ब्राह्मनी गाँव में जहाँ ब्रह्मकेश्वर महादेव की पूजा अर्चना करते हैं। चम्पारण से 9 कि.मी. दूरी पर उत्तर पूर्व की ओर ब्रह्मनी नामक गाँव है जो ब्रह्मनी नदी या बधनई नदी के किनारे बसा हुआ है। बधनई नदी के किनारे एक कुंड है जिसके उत्तरी छोर पर ब्रह्मकेश्वर महादेव का मन्दिर है। इस कुंड के जलस्रोत को श्वेत या सेतगंगा के नाम से जानते हैं। कहते हैं ब्रह्मकेश्वर महादेव को जो एक बार जान जाता है वह कभी भयभीत नहीं होता।
फणिकेश्वर महादेव (फिंगेश्वर) ब्रह्मकेश्वर महादेव की पूजा करने के बाद यात्री फिंगेश्वर नगर की ओर बढ़ते हैं। राजिम से 16 कि.मी. (पूर्व दिशा) की दूरी पर है बसा है फिंगेश्वर नगर। यहाँ स्थित फणिकेश्वर महादेव का मंदिर, फणिकेश्वर महादेव में है शम्भू की ईशान नाम वाली मूर्ति। इनकी अद्र्धांगिनी हैं अंबिका। फणिकेश्वर महादेव शुभगति देने वाले देवता माने जाते हैं।
कर्पूरेश्वर महादेव (कोपरा गाँव) यहाँ से यात्री चल पड़ते हैं राजिम से 16 कि.मी. की दूरी पर कोपरा गाँव की ओर। यहाँ है कर्पूरेश्वर महादेव या कोपेश्वर नाथ का मंदिर। यह पंचकोसी यात्रा का आखरी पड़ाव। कोपरा गांव के पश्चिम में दलदली तालाब है, उसी तालाब के भीतर, गहरे पानी में यह मंदिर हैं। इस तालाब को शंख सरोवर भी कहा जाता है। कर्पूरेश्वर महादेव में शम्भू की वामदेव नाम की मूर्ति है। उनकी पत्नी भवानी हैं। यह आनंद के देवता के रुप में जाने जाते हैं।
किंवदंतियाँ
कुलेश्वरनाथ मंदिर के शिवलिंग की उत्पत्ति के संबंध में एक जन-श्रुति यह है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ वन गमन काल में यहाँ आये थे और उन्होंने यहाँ कुछ समय व्यतीत किया था। सीता जी स्नान करने के बाद इष्ट देव शिव जी की पूजा-अर्चना किया करती थीं। उन्हें जब यहाँ शिव की कोई मूर्ति दिखाई नहीं दी तो उन्होंने महानदी की रेत से शिवलिंग का निर्माण किया औऱ कालान्तर में यही शिवलिंग कुलेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुआ। यह भी कहा जाता है कि सीता जी ने रेत से बने शिवलिंग पर जैसे ही जल चढ़ाया तो उनकी अँगुलियों के बीच से जल की पंच धारायें निकलने लगीं और शिवलिंग ने पंचमुखी शिवलिंग का रूप धारण कर लिया
किम्बदन्तियों का अन्त नहीं है। यह भी कहा जाता है कि महानदी के बीच जो कुलेश्वर मन्दिर है, उसे राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज ने बनवाया था और जो भी इस शिव क्षेत्र में आता था, उसकी मनोकामना पूर्ण होती थी। यहाँ तक की यदि को गर्भवती स्त्री यहाँ आती तो वह पुत्रवती होकर ही वापिस लौटती थी। चम्पारण में महाप्रभुवल्लभाचार्य के जन्म की कथा को भी इस किम्वदन्ती के साथ जोड़कर देखा जाने लगा।
मामा-भांजे का मंदिर- नदी के किनारे पर एक ओर महादेव मंदिर है, जिसे मामा का मंदिर कहा जाता है। कुलेश्वर महादेव मंदिर को भांजे का मंदिर कहते हैं। किवदंती है कि बाढ़ में जब कुलेश्वर महादेव का मंदिर डूबता था तो वहां से आवाज आती थी, मामा बचाओ। इसी मान्यता के कारण यहाँ आज भी नाव पर मामा-भांजे को एक साथ सवार नहीं होने दिया जाता है। नदी किनारे बने मामा के मंदिर के शिवलिंग को जैसे ही नदी का जल छूता है उसके बाद बाढ़ उतरनी शुरू हो जाती है।
राजीव लोचन मंदिर के संबंध में एक जनश्रुति है कि राजीम नाम की तेलिन महिला प्रति दिन अपना तेल का पात्र भर कर बेचने जाया करती थी। एक दिन की बात है कि वह कुछ समय विश्राम के लिए बैठ गई और उसने अपना तेल से भरा पात्र वहीं पास में औंधी पड़ी एक शिला पर रख दिया।
कुछ देर विश्राम करने के बाद उसने अपना तेल भरा पात्र उठाया और पुन: तेल बेचने के लिए चल पड़ी। उसने पात्र का पूरा तेल बेचकर पात्र खाली कर दिया, किन्तु उसने देखा और वह आश्चर्यचकित रह गई कि तेल का पात्र पुन: पूरा भर गया है। उसने यह घटना अपनी सास एवं अन्य सदस्यों को बतलाई, किन्तु उसकी बात पर किसी को सहज विश्वास नहीं हुआ। दूसरे दिन राजीवा तेलिन की सास तेल बेचने निकली और उसने भी अपना तेल का पात्र उसी शिला पर रख दिया और स्वयं विश्राम करने लगी। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद वह भी तेल बेचने निकल पड़ी और उसके साथ भी वही घटना घटी और बेचने के बाद भी पूरा पात्र तेल से भर गया। राजीवा तेलिन के परिवार वालों ने इस शिला को अपने घर ले जाने की योजना बनाई और ले जाने के लिए जैसे ही उस औंधी पड़ी शिला को सीधा किया तो कोई साधारण सी शिला नहीं थी, बल्कि यह शिला विष्णु जी की प्रतिमा थी, कहा जाता है कि दुर्ग जिले के नरेश जयपाल को स्वप्न में उस प्रतिमा के दर्शन हुए और उनके मन में एक भव्य मंदिर का निर्माण कर उसमें उस प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा करने की प्रबल इच्छा जाग्रत हुई और उसने राजीवा तेलिन से उस प्रतिमा की माँग की, किन्तु राजीवा तेलिन उस प्रतिमा को देने के लिए तैयार नहीं हुई और उसने शर्त रख दी कि वह मूर्ति तभी देगी जब उस मन्दिर और मूर्ति के साथ कहीं न कहीं उसका नाम भी जुड़ा होगा। कहा जाता है कि तभी से इसे 'राजीव-लोचन’ मंदिर कहा जाने लगा और कालान्तर में अपभ्रंश के रूप में राजीव के स्थान पर राजिम शब्द का उपयोग होने लगा और यह 'राजिम-लोचन’ मन्दिर के नाम से सुविख्यात हुआ। मन्दिर के विशाल प्रांगण में एक स्थान राजीवा तेलिन के लिए भी सुरक्षित कर दिया गया। राजीवा तेलिन विष्णु भगवान की अनन्य भक्त हो गयी थी और कहा जाता है कि जब उसने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली तो वह टकटकी बाँधे हुए विष्णु जी की प्रतिमा को ही भाव-विभोर हो देख रही थी और वह भगवान विष्णु को निहारते हुए ही सदा-सदा के लिए चिर निद्रा में लीन हो गई थी।

विष्णु जी की मूर्ति के संबंध में भी जनश्रुति है कि काँकेर के कंडरा राजा ने नगर ध्वस्त करने के बाद सोचा कि वह जहाँ जाएगा अपने साथ मूर्ति भी ले जायेगा, किन्तु मूर्ति ले जाते समय उसे मार्ग में कुछ अशुभ संकेत मिले और वह मूर्ति को रास्ते में औंधी फेंककर स्वयं आगे बढ़ गया। कहा जाता है कि वह वही मूर्ति है जो राजीवा तेलिन को औंधी पड़ी मिली थी।

राजीव लोचन नाम के संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि भगवान के नेत्र राजीव के समान हैं। अत: इसका नाम राजीव लोचन पड़ गया जिसका अपभ्रंश राजीव से राजिम हो गया।
ऐसी भी मान्यता है कि सृष्टि के आरम्भ में भगवान विष्णु के नाभि से निकला कमल यहीं पर स्थित था और ब्रह्मा जी ने यहीं से सृष्टि की रचना की थी। इसीलिये इसका नाम कमलक्षेत्र पड़ा। एक यह भी जन-श्रुति है कि विष्णु जी की नाभि से एक कमल प्रस्फुटित हुआ और इसी कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और जब यह कमल मुरझा कर झडऩे लगा तो इसके पत्तों से शिव की मूर्तियाँ प्रकट होने लगीं और वे चम्पेश्वर, वानेश्वर, फिंगेश्वर, कोपेश्वर और पाटेश्वर के रूप में विख्यात हुए। (उदंती फीचर्स)

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