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Nov 10, 2011

जीवन का एक सुखी दिन

-श्रीलाल शुक्ल
जीवन का एक सुखी दिन लगभग 45 साल पुरानी रचना है। उस दिन के सुखों में एक ऐसा ही सुख है जिसमें बस कंडक्टर एक रुपए का नोट लेकर पूरी-की- पूरी रेजगारी वापस कर देता है और टिकट की पुश्त पर इकन्नी का बकाया नहीं लिखता। जाहिर है कि रचना उन दिनों की है जब इकन्नी भी आदान- प्रदान में एक महत्वपूर्ण सिक्के की भूमिका निभाती थी। संपादक महोदय (डॉ. प्रेम जनमजेय) ने मुझसे प्रत्याशा की है कि पुन: प्रकाशन के लिए अपनी किसी श्रेष्ठ रचना का चयन कर दूं। मेरी श्रेष्ठ रचनाएं बहुत कम हैं और जो होंगी भी उन पर भरोसा नहीं है। उन्हें दूसरे लोग ही जानते होंगे, मैं उतना विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता। फिर भी, यह रचना चुनने के कुछ कारण हैं। एक तो यही कि यह लंबी नहीं है और पाठक के लिए इसे पढ़ते हुए अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। दूसरा कारण यह है कि यह रचना मुझे पसंद है। मेरी अपेक्षाकृत कम खराब रचनाओं में से है। तीसरी बात यह है कि अनजाने ही सहज उक्तियों के सहारे सीधी- सादी भाषा में एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति का इसमें जो चरित्र उभरता है वह दिखावट, दम्भ अपने को अनावश्यक रूप से चतुर मानने की प्रवृत्ति और जीवन की छोटी- छोटी झुंझलाहटों को भुलाकर शहीद बनने की टिपिकल स्थिति है जो मध्यमवर्गीय चरित्र की अपनी विशेषता है। यह भी लक्ष्य किए जाने योग्य है कि यह रचना भारत में बाजारवाद के विकास के बहुत पहले की है और मध्यमवर्गीय चरित्र के प्रति जो संकेत दिए गए हैं वही आज अपने विराट स्वरूप में विकसित हो रहे हैं। रचना का अंत एक स्वल्प बुद्धिजीवी की उस अपरिहार्य परिस्थिति से होता है जिसका नाम पागलपन है। फर्क यह है कि यहां हमारा मुख्य पात्र खुद पलायन नहीं करता बल्कि उस उत्सवभाव का आनंद उठाता है कि उसके दूसरे मित्र अगले दिन उसे अकेला छोड़कर पिकनिक पर जाने वाले हैं। यह तो सरसरीतौर पर मेरी अपनी प्रतिक्रियाएं हैं। पाठक अगर चाहें तो इस रचना में इस तरह की कई और बहुत सी खूबियाँ खोज सकते हैं। और, अंत में निष्कर्ष तो स्पष्ट है ही कि इन सबसे छोटी- छोटी कृपाओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद- गॉड मे बी थैंक फॉर स्माल मर्सीज़।
बड़े लंबे- चौड़े रोबदार बुजूर्ग का न था। वह दुबला पतला था और नौसिखिया- सा दिखता था। पड़ोस की मेजों पर न कुछ मसखरे नौजवान थे, न फैशनेबल लड़कियां थीं। न हंसी के ठहाके थे, न कोई मुझे घूर रहा था, न कोई मेरे बारे में कानाफूसी कर रहा था। रेस्तरां में भीड़ न थी पर इतने लोग थे कि काउंटर के पीछे से मैनेजर सिर्फ हमीं को नहीं, औरों को भी देख रहा था। हमारे चलने के पहले पास की मेज पर दो गंभीर चेहरे वाले आदमी आ गए और जब मैंने आपसी बातचीत में 'एक्शिस्टेंशिएलिज्म' का अनावश्यक जिक्र किया, तब उन लोगों ने निगाह उठाकर मेरी ओर देखा था। रेस्तरां के बाहर आने पर मेरा एक परिचित बीमा- एजेंट सड़क के दूसरी ओर जाता हुआ दिख पड़ा, पर उसने मुझे देखा नहीं। इसके बाद अचानक ही मुझे तीन परिचित आदमी मिल गए। उन्होंने नमस्कार किया और उसका जवाब पाया। मेरे मित्र को कोई परिचित आदमी नहीं मिला।
घर वापस आकर मैंने श्रीमती जी से सिनेमा चलने का प्रस्ताव किया पर उन्होंने क्षमा मांगी और कहा कि उन्हें लेडीज क्लब जाना है। इसलिए मैं पूर्व निश्चय के अनुसार अपने एक मित्र के साथ सिनेमा देखने चला गया। सिनेमा का टिकट खिड़की पर ही मिला और असली कीमत पर मिला। पंखे के नीचे सीट मिल गई। सिनेमा शुरु होने के पहले साबुन, तेल और वनस्पति घी के विज्ञापन वाली फिल्में नहीं दिखाई गई। पास की सीट के किसी ने सिगरेट के धुएं की फूंक मेरे मुंह पर नहीं मारी। पीछे बैठने वालों में किसी ने अपने पैर मेरी सीट पर नहीं टेके। अंधेरे में किसी ने मेरा अंगूठा नहीं कुचला। हीरो की मुसीबत पर किसी पड़ोसी ने सिसकारी नहीं भरी। हिंदी की फिल्म थी, फिर भी वह अठारह रील पूरी करने के पहले ही खत्म हो गई। सिनेमा से बाहर आने पर कई रिक्शेवालों ने मिलकर मुझ पर हमला नहीं किया। रिक्शा करने पर मजबूर हुए बिना ही मैं पैदल वापस लौट आया। रात में सुनसान सड़क पर मेरे पैदल चलने पर भी कोई साइकिल वाला मुझसे नहीं टकराया, किसी मोटर वाले ने मुझे गाली नहीं दी, किसी पुलिस वाले ने मेरा चालान नहीं किया।
घर आकर खाना खाने बैठा तो उस वक्त रुपए की कमी पर कोई घरेलू बातचीत नहीं हुई। नौकर पर गुस्सा नहीं आया। बातचीत के दौरान मैं श्रीमतीजी से साहित्य- चर्चा करता रहा, यानी अपने साथ के साहित्यकारों को कोसता रहा। वे दिलचस्पी से मेरी बातें सुनती रहीं और मेरे टुगोपन को नहीं भांप पाईं।
घर के चारों ओर शांति थी। किसी भी कमरे में बिना मतलब बल्ब नहीं जल रहा था, न बिना वजह किसी नल का पानी बह रहा था, न दरवाजे पर कोई मेहमान पुकार रहा था, न रसोईघर में किसी प्लटे के टूटने की आवाज हो रही थी, न रेडियो पर कोई कवि सम्मेलन आ रहा था, न पड़ोस में लाउडस्पीकर लगाकर कीर्तन हो रहा था। और सबसे बड़ी बात यह कि कल आने वाला दिन इतवार था, उस दिन मेरे सभी उत्साही मित्र शहर से कहीं दूर, पिकनिक पर चले जाने वाले थे।
(व्यंग्य यात्रा : अक्टूबर- दिसंबर 2008 से साभार)

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