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Oct 23, 2010

सरगुजा के रामगढ़ पर्वत में राम वनवास

सरगुजा के रामगढ़ पर्वत में राम वनवास
- प्रो. उत्तम चंद गोयल

राम ने अपने वनवास काल में सर्वप्रथम सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर अपना निवास किया था। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकांड में शिलाचित्र एवं उसके साथ शब्दों का जो उल्लेख आया है, वे सब इसी स्थान पर चरितार्थ होते हैं।
भारत में राम कथा सभी संप्रदायों एवं भाषाओं में पाई जाती है। जैन साहित्य के बैसठ पुरुषों एवं तीर्थकरों के समान ही राम का नाम अति विख्यात एवं पू्ज्य है। जिस प्रकार संस्कृत साहित्य में आदिकाव्य वाल्मीकि कृत रामायण पूज्य मानी जाती है उसी तरह अपभ्रंश साहित्य में रविषेणाचार्य कृत पद्मचरित है जिसमें राम के जन्म से लेकर उनके लंका से लौटकर राज्याभिषेक तक तथा उसके बाद की घटनाओं का वर्णन है।
सरगुजा का रामगढ़ ही वास्तविक रामगिरि
राम ने अपने वनवास काल में सर्वप्रथम सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर अपना निवास किया था। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकांड में शिलाचित्र एवं उसके साथ शब्दों का जो उल्लेख आया है वे सब इसी स्थान पर चरितार्थ होते हैं। रविषेणाचार्य का पद्मचरित, विश्वकवि कालिदास का मेघदूत, भगवान महावीर की परंपरा के आचार्य उग्रादित्याचार्य का कल्याणकारक, मुनि कान्तिसागर का खंडहरों का वैभव, पं. नाथूराम प्रेमी का जैन साहित्य एवं इतिहास, श्री वामनराव कृष्ण परांजये का मेघदूत का नवा प्रकाश आदि ग्रंथों में रामगिरि की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है वे सब सरगुजा के रामगढ़ को ही वास्तविक रामगिरि सिद्ध करते हैं।
छत्तीसगढ़ के उत्तरी अंचल में सरगुजा जिले का सर्वाधिक चर्चित स्थल रामगढ़ अंबिकापुर से लगभग 50 किमी तथा लखनपुरी से 22 किमी दूर बिलासपुर मार्ग में उदयपुर ग्राम के निकट सुंदर मनोहारी वनों एवं सुरम्य पहाडिय़ों से घिरा हुआ है।
आदिकाल से रामगढ़ जैन धर्म एवं संस्कृति का एक प्राचीन, प्रमुख एवं विख्यात केंद्र रहा है। प्राचीन काल से जैन मुनियों को नगर ग्रामादि बहुजन संकीर्ण स्थानों से पृथक पर्वत व वन की शून्य गुफाओं व कोटरों में निवास करने का विधान किया गया है। ये ही जैन परंपरा में मान्य अकृत्रिम चैत्यालय हैं। पद्मचरित के एक उद्धरण के अनुसार भी पर्वत पर मंदिर बनाये जाने की सूचना मिलती है। रामगढ़ पर्वत पर तपस्या कर जैन मुनियों ने जिस तरह जोगीमारा गुफा की प्रधान चौखट पर वैराग्य के प्रतीक जैन चित्र अंकित किये हैं वे चित्रकला के इतिहास एवं अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन चित्रों में आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक रहस्यों की अभिव्यंजना की गई है। इन भित्तिचित्रों से ज्ञात होता है कि ई. सन् से कई शताब्दियों पूर्व गुफाओं में भित्ति पर चिंत्राकन की प्रथा जैनों में प्रचलित थी। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि उस समय सरगुजा (संपूर्ण छत्तीसगढ़) क्षेत्र में जैन धर्म विस्तार के साथ फैला हुआ था जिसका प्राचीन प्रमाण जोगीमारा गुफा का जैन भित्ति चित्र हैं। प्राचीन भारतीय चित्रकला में रंगों और रेखाओं कीदृष्टि से यह अपूर्व है। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन जैन चित्र हैं। मुनि कान्तिसागर ने अपनी कृति खोज की पगडंडियां में इन चित्रों को प्रकाशित किया है तथा आत्म वक्तव्य में लिखा है- जैनाश्रित चित्रकला पुरातन चित्र जो प्रकट किया जा रहा है, वह मुझे मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के पुरातत्व साधक श्री लोचन प्रसाद पांडेय द्वारा प्राप्त हुआ है। श्री उग्रादित्याचार्य ने अपना कल्याण कारण ग्रंथ भी इसी रामगिरि पर रचा था। इसमें रामगिरि के जो विशेषण दिए गए हैं, गुहा मंदिर चैत्यालयों की जो बात कही गई है वह भी इस रामगिरि के विषय में ठीक जान पड़ती है। कुलभूषण और वैशभूषण मुनि का निर्वाण स्थल भी यही रामगिरि है। उस काल में यहां जैन मुनियों को दीक्षा दी जाती थी।
जैन मुनियों का पावन साधना स्थल रामगढ़ की गुफाएं
रामगढ़ की गुफाएं आध्यात्मिक साधना के केंद्र हैं, उन्नत शिखर पर अग्रसर होने वाली भव्यात्माएं यहां दर्शनार्थ आकर अनुपम शांति का अनुभव कर आत्मतत्व के रहस्य तक पहुंचने का प्रयास करती थीं। प्रकृति की गोद में दिगम्बर जैन मुनियों के लिए स्वस्थ सौंदर्य का बोध ऐसे ही स्थानों में हो सकता है। जैनों के सांस्कृतिक इतिहास में हमें ज्ञात होता है कि पूर्व काल में जैन मुनि अरण्य में ही निवास करते थे, केवल भिक्षार्थ- गोचरी के लिए ही नगर में पदार्पण करते थे। ऐसी स्थिति में लोग व्याख्यान आदि औपदेशिक वाणी का अमृत पान करने के लिए वनों में जाया करते थे। जिन मंदिर की आत्मा- प्रतिमाएं भी नगर के बाहर गुफाओं में अवस्थिति रहा करती थीं।
वनवास काल में श्री राम का सरगुजा प्रवेश
डॉ. कुन्तल गोयल के मतानुसार राम प्रयाग के बाद सतना, शहडोल होते हुए सरगुजा आए थे और यहां स्थित चित्रकूट (रामगढ़) में जाकर निवास किया था।
पद्मपुराण के अनुसार उस समय यहां राजा सुरप्रभ का राज्य था तथा उसकी राजधानी वंशस्थल नगर थी। नगर के निकट ही उन्हें वंशगिरि पर्वत ऐसा दिखाई दिया मानों धरती को चीरकर निकला हो। संध्याकाल का समय था। राजा और प्रजा तीव्र गति से नगर का त्याग करते हुए किसी अन्य स्थान की ओर जा रहे थे। राम ने आश्चर्य से यह सब देखा और राहगीरों से इसका कारण पूछा। उन्हें बताया गया कि रात्रि में पर्वत शिखर से ऐसी भयंकर ध्वनि आती है जो उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी नहीं सुनी। इससे सारी धरती कंपायमान हो जाती है, दसों दिशाओं में भयंकर आवाज गूंजने लगती है, वृक्ष जड़ से उखड़ जाते हैं, लोगों के कान एक असहनीय पीड़ा से ग्रस्त हो जाते हैं मानों कोई इन पर लोहे के घन से कठोर प्रहार कर रहा हो। लगता है कोई दुष्ट देव हमारा संहार करने के लिए आतुर है। इसलिए संध्याकाल में हम हमेशा इस भावी विपत्ति की भयानकता का अनुमान कर उस स्थान को त्यागते हुए पांच कोस दूर चले जाते हैं और पुन: प्रात: काल वापस आ जाते हैं। राहगीरों से यह सब विवरण सुनकर सीता जी बहुत घबरा गईं और उन्होंने प्रजाजनों के साथ ही सुरक्षित स्थान में चलने की सलाह दी, परंतु राम ने उनका यह आग्रह स्वीकार नहीं किया और अंतत: सभी वंशगिरि पर्वत पर पहुंच गये।
श्री राम द्वारा ध्यानस्थ जैन मुनियों का उपसर्ग निवारण
वंशगिरि पर्वत पर आकर श्री राम ने देखा समुद्र के समान गंभीर, पर्वत के समान स्थिर, परम सुंदर, महासंयमी दो तेजस्विनी जैन मुनि वेशभूषण और कुलभूषण कायोत्सर्ग आसन धारण कर ध्यानावस्था में लीन हैं। राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों ने उन्हें भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उनके समीप बैठ गये। तभी अचानक एक असुर के आगमन से भयंकर ध्वनि गूंज उठी। जीप लपलपाते, काजल के समान भयंकर काले सर्प एवं अनेक वर्ण के बिच्छू दोनों मुनियों के शरीर से लिपट गये। यह भयावह दृश्य देखकर सीता भय से कांप उठी और पति से लिपट गई। दोनों भाइयों ने सीता को धैर्य बंधाया और फिर वे मुनियों के समीप जाकर तथा उनके शरीर से सर्प बिच्छू हटाकर उनकी भक्ति भाव से वंदना की। मायावी असुर के उपद्रवों का फिर भी अंत नहीं हुआ। उनके आसपास भयंकर ज्वाला, हड्डियों के आभूषण पहने डाकिनियों का वीभत्स शरीर- उनके हाथों में खड्ग और त्रिशूल, लौह समान डरावने लोचन, डसते ओंठ, कुटिल भौहें, मस्तक भुजा और जंघाओं से होती हुई अग्निवर्षा, असहनीय दुर्गन्धयुक्त रक्त बूंदों की वृष्टि, कठोर गर्जना और उनका डरावना पिशाच नृत्य इस तरह के नाना प्रकार के अति भयंकर दृश्य वहां दृष्टिगोचर होने लगे। इन सबसे पर्वत की शिलाएं कांप उठीं। भूकंप जैसा डरावना भाव अहसास होने लगा। इस अकल्पनीय दृश्यावली ने सीता को झकझोर कर भयभीत कर दिया। परंतु राम ने उन्हें मुनि चरणों की शरण लेने का परामर्श दिया और धैर्य धारण करने के लिए कहा।
इसके बाद राम ने भाई लक्ष्मण के साथ धनुष धारण कर मेघ के समान गर्जना कर राक्षसों को ललकारा। उनके धनुष चढ़ाने मात्र से वज्रपात के समान भयंकर शब्द गर्जना हुई, जिससे भयभीत होकर अग्निप्रभ नामक वह राक्षस राम और लक्ष्मण को पहचान कर तथा अपने प्राणों की रक्षा करते हुए वहां से तेजी से पलायन कर गया। श्री राम ने मुनियों का जैसे ही उपसर्ग दूर किया, वेशभूषण और कुलभूषण मुनि को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे केवली कहलाये। राम- सीता और लक्ष्मण को इससे अपूर्व प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनकी विधिवत पूजा की।
वंशगिरि ही रामगिरि बना
वंशस्थल नगर के राजा सुरप्रभ को जब मुनियों के उपसर्ग को दूर करने का सुखद समाचार मिला तो वे भक्ति भाव से जय जयकार करते हुए श्री राम के पास गये और उनसे अपने महल में विश्राम करने का अनुनय विनय किया। परंतु राम ने वनवास काल में इसे ग्राह्य न कर वंशगिरि पर्वत पर ही विराजने का निर्णय लिया। उनके आवास के लिए पर्वत पर सुसज्जित मंडप आदि की व्यवस्था की गई। दुष्ट असुरों के पलायन कर जाने से वातावरण में सर्वत्र शांति छा गयी और आनंद की वर्षा होने लगी। इस पावन बेला में कहीं मंगल गीत गाये जा रहे थे, कहीं उत्साह से मन मुग्ध नृत्यों का आयोजन हो रहा था और कहीं वाद्ययंत्रों का सुरीला संगीत गूंज रहा था। श्री राम ने इस पर्वत पर जिनेश्वर देव के अनेक अद्भुत चैत्यालय बनवाये। रामायण काल का यह वंशगिरि पर्वत जहां श्री राम ने परम सुंदर जिन मंदिरों का निर्माण करा कर शोभायमान किया, रामगिरि के नाम से विख्यात हुआ, जो वर्तमान में सरगुजा का सबसे प्राचीन एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं धार्मिक स्थल है। कालांतर में जब यह क्षेत्र सम्राट चंद्रगुप्त के राज्यान्तर्गत आया, तब यहां एक गढ़ (किला) का निर्माण किया गया। तब से रामगिरि को रामगढ़ के नाम से भी संबोधित किया जाना लगा और अब तक यही नाम इस अंचल में प्रचलित है।
सरगुजा के रामगढ़ एवं अन्य स्थानों के संबंध में पं. कैलास चंद्र शास्त्री का यह कथन उल्लेखनीय है- भारतवर्ष का शायद ही कोई कोना ऐसा हो, जहां जैन पुरातत्व के अवशेष न पाये जाते हों। जहां आज जैनों का निवास नहीं है, वहां भी जैन कला के सुंदर नमूने पाये जाते हैं।
(छत्तीसगढ़ अस्मिता प्रतिष्ठान रायपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक छत्तीसगढ़ में राम, संपादक- डॉ. मन्नुरलाल यदु से )

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