उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Sep 23, 2009

पलारी का ऐतिहासिक सिद्धेश्वर मंदिर

उपेक्षित होते हमारे प्राचीन धरोहर?
भारतीय स्थापत्यकला के विकास में नागर, द्राविण और बेसर शैलियों का मान निश्चित किया गया। पलारी का शिव मंदिर नागर शैली में निर्मित है। गुप्तकाल में मथुरा, सारनाथ, नालंदा, अमरावती आदि मूर्तिकला के प्रमुख केंद्र थे।
- नंदकिशोर वर्मा
छत्तीसगढ़ में ईंटों के मंदिरों की गौरवाशाली परंपरा रही है, इसी परंपरा का एक उदाहरण पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर है जो रायपुर जिले में स्थित पलारी ग्राम के बालसमुंद तालाब के किनारे स्थित है। पश्चिमाभिमुख यह मंदिर लघु अधिष्ठान पर निर्मित है। मंदिर का गर्भगृह पंचस्थ शैली का है तथा जंघा तक अपने मूल रूप में सुरक्षित है। शिखर का शीर्ष भाग पुर्ननिर्मित है। पाषाण निर्मित द्वार के चौखट कलात्मक एवं अलंकृत है, इसके दोनों पाश्र्वों में नदी देवियों, गंगा एवं यमुना का त्रिभंग मुद्रा में अंकन है। सिरदल पर ललाट बिंब में शिव का चित्रण है, तथा दोनों पाश्र्वों में ब्रह्मा तथा विष्णु का अंकन है। मंदिर के द्वार पर निर्मित पाषाण पर तराशे गए शिव विवाह का दृश्य दर्शनीय है। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार शिव विवाह का यह अंकन अद्भुत है। 
सिद्धेश्वर मंदिर के सामने निर्मित बालसमुंद तालाब के बारे में अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं जिसके अनुसार इस मंदिर का निर्माण छैमासी रात में किया गया है तथा तालाब की खुदाई भी इसी दौरान की गई थी। बताया जाता है कि एक घुमंतू जाति के नायक अपने दल  बल सहित यहां पहुंचे और यहीं आकर बस गए। तब यहां चारो ओर जंगल था। लेकिन पानी के लिए कोई तालाब या पोखर न होने से वे सब परेशान हो गए। तब उनके नायक ने 120 एकड़ में विस्तारित विशाल तालाब का निर्माण कराया लेकिन तालाब खुदाई के बाद भी वह तालाब सूखा का सूखा ही रहा। तब गुरु जनों की सलाह पर नायक राजा ने अपने नवजात शिशु को परात में रखकर तालाब में छोड़ दिया, देवयोग से तालाब में पर्याप्त पानी आ गया और बालक भी सुरक्षित परात के ऊपर आ गया। कहते है इसी कारण इस तालाब का नाम बालसमुंद पड़ा। और तब से इस तालाब में हमेशा पानी रहता है। यह भी कहा जाता है कि भमनीदहा का स्रोत बालसमुंद तक आया है इसलिए इस तालाब का पानी कभी नहीं सूखता। इस तालाब के बीच में एक  टापू है जिसके  बारे में भी लोग तरह तरह के किस्से सुनाते हैं - यह कि तालाब बनवाते समय तालाब की मिट्टी फेंकने के बाद उक्त स्थल पर टोकनी की मिट्टी झर्राने (झड़ाते) के कारण यह टापू बना है।

परंतु बुजुर्गों द्वारा जो बात बताई जाती है वह सत्य के ज्यादा नजदीक जान पड़ती है। बात 1950- 60 के दशक की है जब  पलारी गांव के आस- पास घना जंगल था तथा शेर, भालू, तेंदुआ यहां आसपास विचरते रहते थे। गांव के मालगुजार दाऊ कलीराम वर्मा शिकार के दौरान घूमते हुए घने जंगल से घिरे इस मंदिर के पास पंहुच गए तब यह मंदिर झाड़ झंखाड़ से दबा हुआ जीर्ण- शीर्ण अवस्था में था। यद्यपि मंदिर के गर्भ गृह तब खाली था। लेकिन घाट और तालाब के अवशेष के जिन्ह देखकर उन्होंने अनुमान लगाया कि हो न हो यह शिव मंदिर था। अत: धाराशाई होते इस जीर्णशीर्ण मंदिर का जीर्णोद्धार एवं घाट का निर्माण करने की इच्छा पलारी के मालगुजार दाऊ कलीराम वर्मा ने अपने स्व. पिता मोहन लाल की स्मृति में बनवाने की इच्छा जाहिर की। तब उनकी इच्छानुसार पुत्र बृजलाल वर्मा (भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने सन् 1960-61 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और मंदिर में शिवलिंग की स्थापना करके अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी की।
इस  प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अधिनियम 1964 तथा 65 के अधीन राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया हैं।
मंदिर के गर्भगृह में जीर्णोद्धार के समय ही संगमरमर का शिवलिंग स्थापित कर दिया गया था अत: 60 के दशक से ही यहां पूजा अर्चना होती आ रही है। इस मंदिर में प्रति वर्ष माघ पूर्णिमा के दिन भव्य मेले की आयोजन किया जाता है। मेले के दिन आस-पास के गांव से हजारो भक्त तालाब में स्नान करते हैं तथा दिन भर मेले का आनंद लेते हैं।
 कलाशैली की दृष्टि से यह मंदिर 900 ई. का माना जाता  है।  जिसे छत्तीसगढ़ में ही स्थित विश्व विख्यात लक्ष्मण मंदिर जो सिरपुर में है, के समकक्ष कहा जा सकता है। सिरपुर में इन दिनों खुदाई का कार्य चल रहा है जिससे इतिहास के अनेक पन्ने खुलते चले जा रहे हंै।
 गुप्तकालीन वास्तुकला भारतीय इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाती है। यह मंदिर गुप्तकालीन स्थापत्यकला काअनुपम उदाहरण है। भारतीय स्थापत्यकला के विकास में नागर, द्राविण और बेसर शैलियों का मान निश्चित किया गया। पलारी का शिव मंदिर नागर शैली में निर्मित है। गुप्तकाल में मथुरा, सारनाथ, नालंदा, अमरावती आदि मूर्तिकला के प्रमुख केंद्र थे। शैली की दृष्टि से गुप्तकालीन मूर्तियां व यक्ष प्रतिमाओं का विकास पुराण की देन है। गुप्तकालीन मंदिरों के द्वार शाखाओं पर गंगा, यमुना की खूबसूरत मूर्तियों का रूपायन हुआ है, जो पलारी के इस सिद्धेश्वर मंदिर के द्वार पर भी देखने को मिलता है।
पुरातत्वविद डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार छत्तीसगढ़ के राजिम, सिरपुर, खरौद एवं पलारी के शिव मंदिर एक ही समय के निर्मित मंदिर हैं।
इस मंदिर के बाह्य भाग में सूर्यनारायण, नृसिंह भगवान, हनुमान जी, सरस्वती आदि के मनोमुग्धकारी चित्रांकन हैं, मौसम की मार से जो अब लुप्तप्राय स्थिति में हैं। मंदिर का पृष्ठ भाग भी काफी क्षतिग्रस्त हो गया है एवं मंदिर झुकता हुआ नजर आता है। जिसको दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है।
अफसोस की बात है कि हम अपनी ऐसी न जाने कितनी धरोहरों को उपेक्षित करते चले जा रहे हैं। नवीं शताब्दी में बने इस मंदिर के इस महत्वपूर्ण द्वार की मूर्तियों के ऊपर कुछ वर्ष पहले ग्राम वासियों ने अपनी अपार भक्ति का प्रदर्शन करते हुए वार्निश और चूने का उपयोग कर कलाकृतियों को खराब कर दिया था, जिसे बाद में पुरातत्व विभाग ने सन् 1995 में रासायनिक उपचार कर दुरुस्त किया था। इसी तरह की भक्ति दिखाते हुए कुछ वर्ष पहले मंदिर के गर्भ गृह में अतिरिक्त निर्माण करके एक भारी भरकम पीतल की घंटी लगा कर मंदिर को कमजोर करने की कोशिश की गई थी। हाल ही में उक्त घंटी के चोरी हो जाने का भी समाचार मिला। अत: ऐसे ऐतिहासिक मंदिरों की महत्ता के प्रति क्षेत्र के लोगों को जागरुक किया जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए जरुरी है कि पुरातत्व विभाग भी आवश्यक कदम उठाए।
शिव विवाह का चित्रण
पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि पूरे भारत में अब तक ज्ञात किसी भी मंदिर में ऐसी शिल्पकला नहीं देखी गई है और न ही किसी ग्रंथ में वर्णित है कि अमुक मंदिर में पुष्पक जैसे विमान पत्थरों पर चित्रित हैं। इस दृष्टि से पलारी के इस शिव मंदिर का महत्व काफी बढ़ जाता है, साथ ही यह और अधिक अध्ययन की मांग करता है।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर चित्रित पुष्पक जैसे विमान पर जब पहली बार पुरातत्व अधिकारियों की निगाह पड़ी तो वे चौंक गए।  सर्वेक्षण  में पत्थरों पर शिव विवाह को चित्रित किया गया है और बारातियों में शामिल देव समुदाय विमान पर सवार हैं। पुष्पक विमान का उल्लेख केवल पौराणिक ग्रंथों में मिलता है, जिसके अनुसार यह कुबेर का था जिसे रावण ने छीन लिया था। लंका विजय के बाद भगवान श्री राम इसी से अयोध्या लौटे थे।
यहां शिव विवाह से संबंधित कथानक को अत्यंत कलात्मक ढंग से उकेरा गया है। मंदिर की चौखट पर शिव विवाह के दृश्य में देवाताओं को हाथियों अश्वों एवं बैल पर सवार होकर जाते अंकित किया गया है। चौखट के शीर्ष पर मृदंग आदि बजाते नृत्य करते लोगों को दर्शाया गया है। जो अत्यंत मनोहारी है। प्रवेश द्वार पर बारातियों में शामिल दिग्पालों का शिल्पांकन प्रमुखता से है। शिल्प शास्त्रों में वर्णित दिग्पालों के पारम्परिक वाहनों से अलग हटकर वाहन दर्शाये गए हैं। पुराणों में बताये गए वैमानिक का प्रतीकात्मक शिल्पाकंन यहां मिला है। धर्मशास्त्रों के बाद वैमानिक कला का यह प्रतीकात्मक शिल्पांकन निश्चित रूप से प्राचीनकाल में वैमानिक ज्ञान की परम्परा का घोतक है।


2 comments:

विजय जोशी said...

यही तो है हमारी विरासत जिसे सहेज कर संवार कर नई पीढ़ी को सौंपना पवित्र पुण्य कार्य है. अद्भुत इतिहास इस धरोहर का. हार्दिक बधाई. सादर

Anonymous said...

पुरातत्व विभाग को ध्यान देना चाहिए जो आजकल राजनीतिक नेताओं के क्षेत्र में स्थित पुरानी मंदिर धरोहर को ज्यादा महत्व देते हैं ।