उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jun 5, 2010

एक सुंदर स्वप्न समाप्त हो गया

- राजीव कुमार धौम्या
किले के अंदर मैं एक आंख, एक पैर वाले 80 से अधिक घावों से भरे शरीर से राणा सांगा को वीरता से लड़ते हुए अपने मस्तिष्क पटल पर देख रहा था। भामाशाह का निवास देखकर मेरा सिर श्रद्धा से झुक गया।
राजस्थान की यह यात्रा कई बरसों पूर्व की गई थी, पर आज भी वहां देखे भव्य किले, राजा महाराजाओं के राजसी ठाठ- बाठ, उनकी वीरता की कहानियां और वहां का प्राकृतिक सौंदर्य सब कुछ आंखों के सामने आ जाता है। और मैं उस यात्रा की यादों को आंखें बंद करके उसे फिर से जी लेता हूं।
हम लोग दिल्ली से प्रात: 7 बजे एक 13 सीट वाली मर्सिडीज बेन्ज से जयपुर के लिए रवाना हुए। वहां दोपहर 12.30 पर पहुंचे और सीधे आमेर का किला देखने गये। किला बहुत सुन्दर बना है पर 45 डिग्री सेल्सियस तापमान में भरी दोपहर में बेहद गर्मी थी। पत्थरों से भी गर्मी निकल रही थी। लंच लेकर और कुछ देर आराम करने के बाद हम शहर में हवा महल, सिटी पैलेस और जन्तर मन्तर देखने निकल पड़े। जयपुर के जन्तर-मन्तर की तुलना में दिल्ली का जन्तर-मन्तर कुछ भी नहीं है। सिटी पैलेस भी बहुत भव्य है। इन इमारतों से जयपुर के राजाओं (मुगलों के दास) के राजसी ठाट-बाट काफी स्पष्ट प्रतीत हो जाते हैं। वर्तमान महाराजा का चन्द्रमहल तो जनता के लिए बंद है।
दूसरे दिन सुबह 7 बजे चित्तौड़ के लिए प्रस्थान किया। अजमेर में नाश्ता करने के बाद करीब 4 घंटे चलते रहने पर भीलवाड़ा पहुंचने तक मार्ग में न तो कोई वनस्पति, ना ही कोई गांव। कहीं कोई झोपड़ी दिख जाये तो और बात है। पूरा दृश्य ऐसा लगता था जैसे हम मंगल ग्रह पर चल रहे हों। रास्ते में 12-14 साल के सुन्दर चरवाहे बालकों ने उनके पास जल होने का संकेत दिया। जब हमारे ड्राइवर ने 90 कि.मी. की रफ्तार से भागती गाड़ी को रोका तो वह सब डर कर भाग गये। मुझे उन पर बहुत तरस आया। भीलवाड़ा एक बड़ा औद्योगिक नगर है जहां फिर से मानव दिखलायी पड़ते हैं। किसी प्रकार हम लोग 2 बजे चित्तौड़ पहुंचे।
अपरान्ह में हम लोग 4 बजे किला देखने निकले। चित्तौड़ में सिर्फ किला ही देखने योग्य है। किला एक पहाड़ के ऊपर बना है। पहाड़ एक व्हेल जैसी मछली के आकार की है। किले में पहुंचने के लिए 7 दरवाजे पार करने पड़ते हैं। हर द्वार से राजपूतों के शौर्य की गाथाएं जुड़ी हंै। विभिन्न द्वार जयमल, पत्ता और रानी पद्मिनी के भाई- भतीजों की स्मृतियों से जुड़े हैं। जैसे कोई समय सूचक यंत्र हों। न सिर्फ रोंगटे बल्कि सिर के बाल भी इन शौर्य गाथाओं को सुनकर खड़े हो जाते हैं। किला खंडहर है पर भग्नावशेषों को देख कर भी आश्चर्यान्वित हो जाना पड़ता है। किले के भीतर जैनियों द्वारा निर्मित कीर्ति स्तंभ और राणा कुंभा द्वारा निर्मित विजय स्तंभ हैं। कीर्ति स्तंभ के निकट एक भव्य जैन मंदिर है। मीरा के मंदिर सहित बीसियों मंदिर हैं। मीरा चित्तौड़ की पुत्रवधू थी। समिधेश्वर मंदिर के अंदर भगवान शिव की एक त्रिमूर्ति है।
चित्तौड़ के किले में वहां की शौर्यगाथा की विद्युत तरंगों को सुनना 22 असंवेदनशील लोगों से घिरे एक संवेदनशील हृदय वाले के अकेले बूते की बात नहीं है अत: मेरे जैसे संवेदनशील को अकेले चित्तौड़ का किला देखने नहीं जाना चाहिए। कम से कम एक या दो समान विचारधारा वाले साथी अवश्य होने चाहिए।
किले के अंदर मैं एक आंख, एक पैर वाले 80 से अधिक घावों से भरे शरीर से राणा सांगा को वीरता से लड़ते हुए अपने मस्तिष्क पटल पर देख रहा था। भामाशाह का निवास देखकर मेरा सिर श्रद्धा से झुक गया। बलिदानियों में शिरोमणि पन्ना दाई जिसने महाराणा उदय सिंह की प्राण रक्षा के लिए अपने पुत्र के प्राणों को बलिदान कर दिया था। और उससे शताब्दियों पहले वह जगह देखी जहां पर अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी की एक झलक देखी थी। वास्तव में वह कमरा रानी के महल कीसीढिय़ों से 200 गज ऊपर है। किंवदंती है कि पद्मिनी सीढिय़ों पर बैठी थी और अलाउद्दीन ने दीवार में जड़े एक दर्पण में उनकी छबि देखी थी। उस दर्पण के स्थान विशेष में होने का कमाल यह है कि उसमें सीढिय़ां तो दिखाई पड़ती हैं पर अपनी आंखों से देखना चाहें तो सिर्फ पद्मिनी महल के कंगूरे ही दिखते हैं। अपनी आंखों से न तो आप सीढिय़ां ही देख सकते हैं, उसपर किसी बैठने वाले की तो बात ही दूर। है न कमाल?
गौमुख कुंड एक झरना है जो गाय के मुख की शक्ल के पत्थर से निकलता है और जल की धारा नीचे शिवलिंग पर गिरती है,यहां पहुंच कर तो मन अवर्णनीय ढंग से सम्मोहित हो जाता है। यहीं पर पद्मिनी ने 23000 अन्य स्त्रियों के साथ जौहर में कूदने के पहले अंतिम स्नान किया था और शिव भगवान की पूजा की थी। सुनकर खून उबल उठता है। यहां पर दो और जौहर हुए थे। एक तो रानी कर्मावती ने किया था और दूसरा महाराणा उदय सिंह की रानियों ने जब अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की थी।
यहां के महल और जयपुर के महलों में जमीन आसमान का अंतर है। यहां पर राजा और रानियों के कमरे 20-20 फीट से बड़े नहीं है और महल में सिर्फ आवश्यकता की ही वस्तुएं हैं, विलासिता की कोई भी वस्तु नहीं। चित्तौड़ देखने के बाद मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि असली राजपूत सिर्फ मेवाड़ के ही थे।
जिस भत्र्सना से लोग (हमारे चित्तौड़ और उदयपुर के गाइड भी) जयपुर की बात करते हैं वह देखने से ही समझी जा सकती है। असलियत में वह लोग जयपुर राजघराने को अच्छी निगाह से नहीं देखते। पर वह लोग स्वयं अपने मस्तक अपने गौरवमय पराक्रमी शौर्य से उन्नत रखते हंै। वास्तव में चित्तौड़ और उदयपुर देखने के बाद जयपुर मेरी निगाहों में भी गिर गया। यहां (चित्तौड़ में) की भव्यता, राजसीपन, पराक्रम, शौर्य, वीरता और विश्वसनीयता का जो इतिहास मिलता है उसका कोई सानी नहीं है।
बिल्कुल उचित ही है कि राजस्थान पर्यटन ने अपने टूरिस्ट बंगले का नाम उस महान महिला की याद में 'पन्ना' रखा है। इतना ही नहीं रानी पद्मिनी का चचेरा भाई बादल कुल 23 वर्ष का था जब वह अलाउद्दीन खिलजी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ और क्या कहने उसके (पद्मिनी के) चाचा गोरा के जो अलाउद्दीन के खेमे में रतन सिंह को छुड़ाने के लिए घुस गया।
वास्तव में यह शौर्य, अपनत्व और पराक्रम का अतुलनीय उदाहरण है। अनेकों नाम (इस संदर्भ में आते हैं) बप्पा रावल, रावल रतन सिंह, हम्मीर (हम्मीर हठ यशोगाथा वाले), राणा लाखा, राणा कुंभा, राणा सांगा, राणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप (जिन्हें बहुत ही उचित हिन्दू कुल सूर्य स्वतंत्रता के अवतार कहा जाता है।)
मुझे यह पहली बार ज्ञात हुआ कि राजस्थान के दर्जनों रियासतों के सिर्फ महाराजा होते हैं लेकिन यह सिर्फ मेवाड़ ही था जहां हम्मीर के समय से ही महाराणा कहा जाता है। कुछ भी हो मेरे पास लेखन की सामथ्र्य नहीं है वरना मैं चित्तौड़ के बारे में लिखता ही रहूं। कहते है कि चित्तौड़ संसार का सबसे बड़ा तीन मील लंबा और ढाई मील चौड़ा दुर्ग है।
चित्तौड़ से हम लोग उदयपुर गये और वहां दो रात ठहरे। उजाड़ सूखे राजस्थान में उदयपुर हरियाली का सागर है। आप को लगेगा ही नहीं कि आप मरुस्थल में हैं। हरियाली, हरियाली चारो ओर हरियाली। अनेक झीलें, पिछोला, उदय सागर और फतेहसागर। यह इतनी उपजाऊ घाटी है कि यहां पर हजारों आम के पेड़ हैं। जरा सोचिए। वास्तव में यह संगमरमर का एक भव्य चकाचौंध करने वाला नगर है। कर्नल टाड ने इसे भारत (उप) महाद्वीप का सबसे अधिक रोमांटिक (रमणीय) स्थान कहा है।चित्तौड़ छोडऩे के बाद सोलहवीं शताब्दी में महाराणा उदयसिंह ने इस नगर को बनवाया और उन्होंंने क्या भव्य नगर बनवाया। महल की भव्यता रोमांचक है। शीश महल स्तब्ध कर देता है। शीशे के बने हुए मोर तो शिल्प की बेजोड़ कृतियां हंै। स्थापत्य उत्कृष्ट कोटि का है। भव्यता और जालीदार झरोखों की बारीकी, शीशे का काम यह सब एक स्वार्गिक अनुभव है। लेकिन फिर भी सब निर्माण पूर्णतया आवश्यकतानुसार ही हुआ है। शयन कक्ष छोटे- छोटे है। विश्व प्रसिद्ध सहेलियों की बाड़ी तो है ही। फव्वारे तो जादू पैदा करते हैं। कहीं पर यह फव्वारे जादू पैदा करते हैं तो कहीं पर वह घनघोर बरसात का समा पैदा करते हैं और कहीं पर मन्द-मन्द पत्तियों पर गिरती रिमझिम का। इसके साथ जगदीश मंदिर और फतेहसागर झील जिसके बीच एक टापू पर नेहरू उद्यान सुशोभित है। साथ ही पिछौला झील जिसके बीच में पहले वाला भव्य प्रासाद जग निवास अब विश्व प्रसिद्ध लेक पैलेस होटल है। क्या कहने मोटर बोट से इसमें सैर करने में तब सिर्फ 75 रुपए प्रति व्यक्ति देना पड़ता था। हां चाय और बिस्कुट अवश्य मिल जाते थे (बच्चों के लिए भी कोई रियायत नहीं थी) आखिर टाटा का इंतजाम जो ठहरा। और भोजन प्रति व्यक्ति 75 रुपए की दर पर।
लेकिन इन सबसे गौरवमयी है एक पहाड़ी की चोटी पर बने प्रताप स्मारक में महाराणा प्रताप की कांस्य प्रतिमा।

महल की भव्यता रोमांचक है। शीश महल स्तब्ध कर देता है। शीशे के बने हुए मोर तो शिल्प की बेजोड़ कृतियां हैं। स्थापत्य उत्कृष्ट कोटि का है। भव्यता और जालीदार झरोखों की बारीकी, शीशे का काम यह सब एक स्वार्गिक अनुभव है।
उदयपुर से हम लोग हल्दीघाटी और नाथद्वारा मंदिर के भ्रमण पर गये। हल्दी घाटी में हमने चेतक स्मारक देखा। यह वह स्थान है जहां पर महान (घोड़ा) चेतक ढाई मील तीन टांगों पर दौड़ता हुआ और एक नाले को फलांगता हुआ गिर पड़ा था। नाले को कूदने के 200 फीट के अंदर ही चेतक के प्राण पखेरू उड़ गये। खैर उस समय महाराणा प्रताप के छोटे भाई अमर सिंह (जो महाराणा प्रताप के खिलाफ अकबर की ओर से लड़ रहे थे) एक तुर्क को मार कर उस का घोड़ा महाराणा के लिए लाये। खून पानी से गाढ़ा जो होता है। ऐसे वफादार जानवर (चेतक) को कोटि कोटि प्रणाम।
इतने दिनों अतीत में रहने के बाद हम लोग मांउट आबू की ओर अग्रसित हुए। यह एक खूबसूरत हिल स्टेशन है जिसमें नक्की लेक उन पहाडिय़ों के बीच रतन की भांति जगमगाती है। हम लोग अरावली पहाड़ी शृंखला में सबसे ऊंचे स्थान 'गुरु शिखर' पर गये जहां बादलों ने हमें घेर लिया।
इसी स्थान पर भगवान दत्तात्रेय ने यज्ञ किया था। और देवताओं, ऋषियों व सन्यासियों को प्रवचन दिया था। यहां से नीचे की घाटी का दृश्य मंत्रमुग्ध करने वाला है। फिर ब्रह्मकुमारियों का मुख्यालय देखा और फिर विश्व प्रसिद्ध दिलवाड़ा मंदिर। 'लाइफ' या 'नेशनल ज्योग्राफिक' में जो भी चित्र मैंने रोम और ग्रीस की स्थापत्य कला के देखे हैं उसके अनुसार तो वहां के लोग (रोमन व ग्रीस) पत्थर में दिलवाड़ा जैसी बारीक और उत्कृष्ट पच्चीकारी की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसमें कोई शक नहीं कि यह विश्व में सर्वोत्तम मूर्तिकला है। एल्डस हक्सले ने ताजमहल को इनके मुकाबले में निम्नकोटि का बिलकुल ठीक ही बताया है। लेकिन यहां की दीवारों, छतों और खंबों पर किये गये उत्कृष्ट उत्खनन का रसास्वादन करने के लिए काफी समय चाहिए। मानो पत्थरों में प्राण डाल दिये गये हैं। मूर्तियां आदमकद और सजीव लगती हैं। ऐसा नहीं लगता कि आप पत्थर की दीवारें देख रहे हैं। सच में ऐसा लगता है कि विक्रमादित्य के सिंहासन में बनी 32 परियों की भांति यह मूर्तियां अभी जीवित होकर अपनी कहानी सुनाने लगेंगी। कुल पांच मंदिर हैं। हर कोने अंतरे में देखने वाला, छतों पर की गई अत्यंत नाजुक और भव्य कलात्मक पच्चीकारी की उत्कृष्टता को देख कर ठगा सा खड़ा रह जाता है। अनेक स्थानों पर अपने कपड़ों की परवाह किये बगैर मुझे छत के चित्र लेने के लिए फर्श पर लेट जाना पड़ा। काश मेरे पास एक व्यावसायिक श्रेणी का कैमरा होता।
मांउट आबू में गुजराती भरे हुए हैं। कहने को तो यह राजस्थान में है पर सभी दुकानों के साइन बोर्ड अंग्रेजी और गुजराती में है। इतनी संख्या में गुजरातियों से मेरा साबका पहली बार पड़ा था।
वहां तीन दिन बिता के हम लोग अजमेर आये। ख्वाजा साहिब की दरगाह देखने के बाद पुष्कर गये। पुष्कर इतना रमणीक स्थान है कि देखते ही मन में शांति व्याप्त हो जाती है। राजस्थान टूरिज्म का पर्यटक निवास सरोवर के किनारे पहाडिय़ों पर है। (सरोवर नाम बिल्कुल उचित हैं) जहां मोर ही मोर नजर आते हैं। बहुत ही सुंदर कई मंदिर हैं। विश्व का एकमात्र ब्रम्हा को समर्पित मंदिर तो यहां है ही। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अजमेर वाली पहाडिय़ों की ओर जरा भी हरियाली नहीं है जबकि इन्ही पहाडिय़ों की दूसरी ओर (पुष्कर की ओर) सर्वत्र हरियाली ही हरियाली है।
पुष्कर के साथ कई किंवदंतियां जुड़ी हंै। कहा जाता है कि वेद व्यास ने यहीं पर वेदों को चार भागों में बांटा तथा पुराण और भागवत लिखे। ऋषि वशिष्ठ का आश्रम भी यहीं था। यहीं पर ऋषि विश्वामित्र ने तपस्या की थी जब स्वर्ग की अप्सरा मेनका उन्हें रिझाने आयी और दोनों ने दस वर्षों तक रमण किया। युधिष्ठिर के पूछने पर ऋषि धौम्य ने उन्हें तीर्थाटन यहीं से प्रारंभ करके यहीं समाप्त करने की सीख दी।
(मैं पुष्कर एक बार फिर शीघ्र ही आना चाहूंगा।)
पुष्कर से वापस जयपुर और वहां एक रात रूककर अगले दिन दिल्ली।
लगा जैसे एक सुन्दर स्वप्न समाप्त हो गया।

1 comment:

Deepak Menon said...

The artistry and flow of Rajeev Dhaumia's prose, is perhaps the only way that the historical glory of Rajasthan's heritage sites can be picturised in words!!
His description of the historical personages whose exploits are written into the walls of all the monuments erected by them or in their honour, is wonderful beyond imagination. Chittor assumes a different mantle after one has read his description of the fort and the Rajputs who defended its walls. We have never visited Mount Abu - but now it is very much on our list for our next trip to Rajasthan. Because of his wonderful descriptions - we think that from now on when we visit the fabulous sites in Rajasthan, we shall not only see them with our eyes - but we shall be able to see them in all their past glory in our INNER EYES as well.
Thank you Rajeev for this great - yes we repeat - Great Travelogue!!
Deepak and Abha Menon
New Delhi
India