विलुप्त होती लोक संस्कृति
को बचाना होगा
-ब्रजेश सिंह,
वर्षा रानी एवं
संतोष कुमार सिंह
बदलते
वैज्ञानिक युग में शनै:-शनै: हमारी संस्कृति का स्वरूप बदलता जा रहा है। गाँव
नगरों में बदल रहे हैं, नए-नए कल कारखाने, उद्योग, मिलें, फैक्ट्रियाँ स्थापित किए जा रहे हैं। वैज्ञानिक तकनीकों से
बेमौसम कृत्रिम फसलें, फल आदि उगाए और पकाए जाने लगे हैं। पाश्चात्य आधुनिक
संस्कृति प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूल रूप को बदल रही है। पृथ्वी पर व्याप्त
पर्यावरण प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ वरदान है। मनुष्य इसी पर्यावरण की सर्वोत्कृष्ट
कृति है। प्रकृति और मनुष्य परस्पर पूरक हैं। मनुष्य जैसे प्राकृतिक परिवेश में
रहता है,
उसका व्यवहार, रहन-सहन, वेशभूषा, खानपान, भाषा इत्यादि उसी के अनुसार विकसित होती है। यथा- गर्म
प्रदेश में रहने वाले मनुष्य सूती वस्त्र पहनते हैं, ये वस्त्र कपास से बनते हैं और कपास की खेती योग्य भूमि
गर्म प्रांतों में पाई जाती है। इसी प्रकार ठण्डे प्रदेशों के लोग ऊनी वस्त्र
पहनते हैं। यह ऊन ठण्डी जलवायु के जानवरों (याक, भेंड़) के बालों से बनती है। तात्पर्य यह है कि किसी भी देश
की संस्कृति उसके पर्यावरण पर निर्भर करती है। यदि पंजाब प्रांत में लोग गेहूँ
अधिक खाते हैं,
तो उसका स्पष्ट कारण है कि वहाँ की भूमि गेहूँ की खेती के लिये सर्वथा उपयुक्त है।
इसी प्रकार बंगाल में चावल की उपज अधिक होने के कारण बंगाली लोग चावल अधिक खाते
हैं। यदि भाषा का व्याकरणिक अध्ययन किया जाए तो भाषा भूगोल के अनुसार अलग-अलग
जलवायु के लोगों की भाषा भी भिन्न-भिन्न होती है।

‘‘कपिला के दूध पिलायो, बाबुल नहलायों,
झारी पिताम्बर ओढ़ायो, लाल के सोआयो।लाल क लुटुर-लुटुर बरवा बहुत नीक लागे,
बहुत छवि लागे ए हो!
माइ नी गूंथे जसोमतिमने मन बिहँसें...।’’

‘‘बादल बरसे बिजुरी चमके, जियरा ललचे मोर सखिया।
सइंया घर ना अइले पानी बरसे लागल मोर सखिया।।’’
यहाँ ऋतु संबंधी गीत- कजली (सावन मास में), फगुआ (फागुन मास में), चैता (चैत्र मास में), और पावस ऋतु में बारहमासा गाए जाते हैं। वाद्य यंत्रों में
बाँसुरी जो बाँस से निर्मित होती है, वीणा जो वृक्ष के तने से निर्मित होती है,
आदि प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। वस्तुत: भारतीय लोक संस्कृति
में प्रकृति वैसे ही समाहित है, जैसे- शरीर में आत्मा। हरे-भरे खेतों में लोग काम करते हैं,
आम के पेड़ों के नीचे बैठकर ये रखवाली करते हैं। महुआ के पेड़
से कोइना एकत्र कर अँधेरे में घर में प्रकाश का प्रबंध करते हैं। घर के आंगन में
बोई गई जमिरिया की गछिया उन्हें आनन्द देती है। चंदन का पेड़ सुगंध बिखेरता है।
रावना और महुआ के फूल शीतला माता की पूजा के लिये खिले हुए दिखाई पड़ते हैं। तुलसी
का पेड़ तो ग्रामीण स्त्रियों का चिर साथी है। हमारी संस्कृति में विवाहिता स्त्री
को चंदन और लवंग के वृक्षों की लकड़ी से बने पलंग, लोहे और स्टील के बने पलंग से अधिक सुहावने लगते हैं। वे गाती
हैं-
‘‘मोरे पिछुवरवा लवंगिया की बगिया,
लवंगा फूले आधी राति रे।
तेहि तर उतरे दुलही दुलरवा, तरहिं लवंगिया के फूल रे।।’’

1. वनों को काटकर उनके स्थान पर फैक्ट्रियाँ,
मिलें, औद्योगिक प्रतिष्ठानों का निर्माण तथा वृक्षों का समुचित
मात्रा में पुन: रोपण न करने से वृक्षों की कमी हो रही है। इससे वायुमण्डल में
वृक्षों से प्राप्त ऑक्सीजन की कमी, भूमि की उर्वरता में कमी, बाढ़ का खतरा और वर्षा की कमी जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही
हैं।
2. तेज़ रफ्तार वाहनों से विकास की गति बढ़ी है,
हम अगम्य सुदूर स्थानों तक बड़ी आसानी से कम समय में पहुँचने
लगे हैं। देशों की दूरियाँ कम हुई हैं। किंतु दूसरी तरफ वाहनों में प्रयुक्त
पेट्रोल,
डीजल से निकलने वाला धुआँ पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है।
इस धुएँ से लेड और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसें हमारी त्वचा,
नेत्र, फेफड़ों को विकारग्रस्त कर रही हैं। आकाश में उड़ने वाले
हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज एक ओर हमें अतिशीघ्र अधिक दूरी तक पहुँचा देते हैं और समय
की बचत,
कार्य गति बढ़ती है तो दूसरी और इनके ईंधन से निकलता धुआँ
आकाशीय वायुमण्डल को प्रदूषित कर देता है।
3. वातावरण को नियंत्रित करने वाले यंत्र रेफ्रीज़रेटर,
ए.सी. आदि में क्लोरो फ्लोरो कार्बन नामक कृत्रिम गैस
प्रयुक्त होती है। कारखानों (शीतगृह) में उपयोग के बाद इसका एक चौथाई भाग अपशिष्ट
के रूप में वायुमण्डल में घुल जाता है, और ओजोन गैस के क्षरण का कारण बनता है। ओजोन की परत सूर्य
की हानिकारक किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकती है। इनके क्षरण से ये किरणें पृथ्वी
के जीव जन्तुओं, पेड़-पौधों
आदि को नुकसान पहुँचा सकती है। इसी कारण से पृथ्वी का तापमान भी बढ़ने लगा है।

5. वैज्ञानिक विकास ने प्लास्टिक की थैलियाँ,
बोतल जैसे कभी नष्ट न होने वाले संसाधन तो उपलब्ध करा दिए,
किंतु इनके कचरे के दुष्परिणामों पर विचार नहीं किया।
मिट्टी में इकट्ठा होकर ये नष्ट न होने वाले कचरे मृदा के सूक्ष्म जीवों (भूमि की
उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाले बैक्टीरिया) का विनाश कर रहे हैं। इन्हीं कारणों से भूमि
का ताप और दाब बढ़ने लगा है। यह ज्वालामुखी विस्फोट तक का कारण बन सकता है।
6. नगर और कारखानों के प्रदूषित जल,
अपशिष्ट, कूड़ा आदि खाली भूमि में बहा दिया जाता है इसमें निहित रसायन,
धातु, ताप, विषैली गैसें आदि मृदा में प्रवेश कर जाती है और कृषि योग्य
उर्वरा भूमि भी बंजर हो जाती है।
7. पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से तीव्र ध्वनि से बजने वाले
वाद्य यंत्रों, चीखते
स्वर में लाउडस्पीकर, माइक, इलेक्ट्रॉनिकवूफरसाउण्ड वाले बड़े-बड़े स्पीकर आदि संयंत्रों
में गाये जाने वाले गीतों, वाहनों के हार्न आदि से ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।
ध्वनि प्रदूषण से बहरापन, दिल का दौरा, दिमागी बीमारियाँ जैसे माइग्रेन, अनिद्रा, कार्यक्षमता में ह्रास आदि का खतरा बढ़ रहा है।
इस प्रकार भारती लोक संस्कृति आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति में परिवर्तित
होकर पर्यावरण प्रदूषण का कारण बन गई है। कामायनी जैसा महाकाव्य लिखकर कवि जयशंकर
प्रसाद ने मानव संस्कृति को पर्यावरणीय असंतुलन के प्रलयंकारी दुष्परिणामों के
प्रति बार-बार सचेत किया है- यदि हम इसी प्रकार प्रकृति का दोहन करते रहे तो एक
दिन देव संस्कृति की भाँति यह मानव संस्कृति भी प्रकृति के कोप का भाजन बन
जाएगी...
“आह! सर्ग के अग्रदूत! तुम असफल हुए विलीन हुए
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए
देव दम्भ के महामेघ में सब कुछ ही बन गया हविष्य
अरे अमरता के चमकीले पुतलों तेरे वे जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बनकर मानों दीन विषाद
प्रकृति रही दुर्जेय पराजित हम सब थे भूले मद में
भोले थे हा! उतरते केवल सब विलासिता के नद में
वे सब डूबे, डूबा
उनका विभव, बन
गया पारावार
उमड़ रहा था देव सुखों पर दु:ख जलाधि का नाद अपार।
शक्ति रही हा! शक्ति प्रकृति थी पदतल में विनम्र विश्रांत
कँपती धरती उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रान्त
स्वयं देव थे हमसब तो फिर क्यों न विशृंखल होती सृष्टि
अरे अचानक हुई इसी से कड़ी आपदाओं की वृष्टि
भरी वासना सरिता का वह कैसा था मदमत्त प्रवाह
प्रलय जलधि संगम जिसका देख हृदय था उठा कराह।।’’

संदर्भ
1. कृष्णदेव, उपाध्याय (2002) भोजपुरी ग्रामगीत, भाग-1, पृ. 334।
2. त्रिपाठी, रामनरेश (1999), ग्रामगीत, पृ. 69।
3. सिंह, परमेश्वर (2001) प्रकृति, मानव एवं पर्यावरण, पृ. 80।
4. प्रसाद, जयशंकर (1993) कामायनी, चिंता सर्ग, पृ. 17।
सम्पर्कः
ब्रजेश सिंह, वर्षा रानी एवं संतोष कुमार सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर, रसायन विज्ञान, राजकीय महाविद्यालय, भदोही- 221404, यूपी, भारत
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजकीय महाविद्यालय, भदोही- 221404, यूपी, भारत
असिस्टेंट प्रोफेसर, रसायन विज्ञान, जयनारायण पीजी कॉलेज, लखनऊ- 226001, यूपी, भारत
santoshsinghjnpg@gmail.com
सम्पर्कः रमानर्सिंग होम, मेन रोड, राँची, झारखंड-834001
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