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Sep 21, 2010

ठाकुर का कुआँ

उदंती आप सब की पत्रिका है। इसे सभी वर्गों को भरपूर स्नेह मिला है। वैविध्यपूर्ण रचनाओं के चयन में भिन्न- भिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने आगे बढ़कर सहयोग किया। इस अंक से हिन्दी की यादगार कहानियों का प्रकाशन प्रारंभ हो रहा है। इस स्तंभ के संयोजक डॉ. परदेशीराम वर्मा हैं। हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी में उल्लेखनीय लेखन के लिए परदेशीराम वर्मा की कहानी हिन्दी की कालजयी कहानियां चयन में चुकी हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली के लिए कमलेश्वर जी द्वारा चयनित उनकी कहानी 30 वर्ष पूर्व लेखन के प्रारंभिक दौर में ही प्रकाशित हुई थी। हिन्दी की यादगार कहानियां स्तंभ की शुरुआत प्रेमचंद की अमर कहानी ठाकुर का कुआं से कर रहे हैं। आशा है आपकी प्रतिक्रिया हमें मिलेगी।

-संपादक
यह कहानी
सामंतशाही और जातीय विषमता से संचारित ग्रामीण जीवन का चित्रण प्राय: सभी भाषाओं के रचनाकारों ने किया लेकिन उत्तर भारत के किसानों के जीवन पर मुंशी प्रेमचंद ने जो कुछ लिखा उसका सच एक सदी के बाद भी आज जस का तस हमें प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। समय आगे बढ़ गया है लेकिन स्थितियां यथावत हैं। परतंत्र भारत में जो दशा गरीब, पिछड़े, दलितों और किसानों की थी उसमें आज भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। स्वतंत्र भारत में किसानों ने कहीं अधिक आत्महत्या की है। समाज पहले से और अधिक कठोर हुआ है। खाप पंचायतों की निजी अदालतों में चमकती तलवारें आधुनिक सोच का सर कलम करती चल रही हैं।
मुंशी प्रेमचंद की हानी ठाकुर का कुआं एक अमर कहानी है। प्रस्तुत है यह मार्मिक कहानी।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा
संपर्क- एलआईजी, 18, आमदीनगर, भिलाई- 490009,
फोन- 0788-2242217
ठाकुर का कुआँ
- मुंशी प्रेमचंद
जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!
गंगी प्रतिदिन शा पानी भर लिया करती थी। कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरुर कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहां से?
ठाकुर के कुएं पर कौन चढऩे देगा? दूर से लोग डांट बताएंगे। साहू का कुआं गांव के उस सिरे पर है, परन्तु वहां कौन पानी भरने देगा? कोई कुआं गांव में नहीं है।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूं।
गंगी ने पानी दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है। बोली- यह पानी कैसे पियोंगे? जाने कौन जानवर मरा है। कुएं से मैं दूसरा पानी लाए देती हूं।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहां से लाएगी?
ठाकुर और साहू के दो कुएं तो हैं। क्यों, एक लोटा पानी भरन देंगे?'हाथ-पांव तुड़वा आएगी और कुछ होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक के पांच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकनें नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे ?'
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को दिया।
रात के नौ बजे थे। थके- मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस- पांच बेफिक्रे जमा थे मैदान में। बहादुरी का तो जमाना रहा है, मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमें में रिश्वत दे दी और साफ निकल गए। कितनी अकलमंदी से एक मार्केट के मुकदमें की नकल ले आए। नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास मांगता, कोई सौ। यहां बे-पैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने का ढंग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएं से पानी लेने पहुंची।
कुप्पी की धुंधली रोशनी कुएं पर रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुंए का पानी सारा गांव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लो क्यों ऊंच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहां तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं। चोरी ये करें, जाल- फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस- किस बात में हमसे ऊंचे हैं? हां मुंह से हमसे ऊंचे हैं, हम गली- गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे हैं, हम ऊंचे। कभी गांव में जाती हूं, तो रस- भरी आंख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊंचे हैं!
कुएं पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक्- धक् करने लगी। कहीं देख ले तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साए में जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महंगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार दी थी। इस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं ?
कुएं पर दो स्त्रियां पानी भरने आयी थीं। इनमें बातें हो रही थीं।
'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं है।'
हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।'
'हां, यह तो हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो हैं।'
'लौंडियां नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी- कपड़ा नहीं पातीं ? दस- पांच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियां कैसी होती हैं!'
'मत लजाओ, दीदी! छिन- भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहां काम करते- करते मर जाओं, पर किसी का मुंह ही सीधा नहीं होता।'
दोनों पानी भरकर चली गईं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएं की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आंगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ- बूझकर गया हो। गंगी दबे पांव कुएं की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दाएं- बाएं चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती- भर उम्मीद नहीं। अंत में देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएं में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा- सी आवाज हुई। गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी- जल्दी मारे। घड़ा कुएं के मुंह तक पहुंचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुंह इससे अधिक भयानक होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनाई देती रही।
ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएं की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुंचकर देखा कि जोखू लोटा मुंह से लगाए वही मैला गंदा पानी पी रहा है।
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उपन्यास सम्राट प्रेमचंद
31 जुलाई 1880 में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे मुंशी प्रेमचंद ने प्रारंभ में उर्दू में लेखन किया। कुछ एक वर्षों के बाद वे हिन्दी में आए और अपनी विलक्षण प्रतिभा के दम पर युग निर्माता कथाकार, उपन्यास सम्राट कहलाए। हिन्दी कथा संसार को विश्व साहित्य के समकक्ष ले जाने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मुंशी प्रेमचंद ने गोदान लिखकर भारतीय किसानों के जीवन का अविस्मर्णीय महाकाव्य रच दिया। गोदान लेखन पथ से जुड़े सभी पीढिय़ों के यात्रियों के लिए दीप स्तंभ बन गया। भारतीय समाज के अद्भुत चितेरे प्रेमचंद ने महज 56 वर्षों का जीवन पाया। मगर उन्होंने इतने कम समय में ही हिन्दी कथा, उपन्यास साहित्य को शिखर पर पहुंचा दिया। वे गोर्की, लू सुन और शरदचंद्र की तरह जनमन में रच बस गये। कलम की सत्ता और महत्ता को स्थापित करने वाले वे हिन्दी के प्रथम क्रांतिकारी और सर्वपूज्य कथाकार हैं।

1 comment:

Devi Nangrani said...

Udanti apne sampadan ke paron par ab khule aasmaan mein parvaaz kar rahi hai.sampan ke liye sadhuwaad

Premchand ki kahani padhane ka awasar dekar aapne bahut hi acha kiya..yahi jaana
Pani re pani tera rang kaisa
aabhar ke saath
Devi Nangrani