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Aug 14, 2013

उदंती.com ,अगस्त 2013

 उदंती.com ,अगस्त  2013

आप अपने विचारों की चोरी की फिक्र न करें। अगर आपका आइडिया वास्तव में काम का है तो विश्वास रखें – उसे लोगों के गले से नीचे उतारने में आपको वास्तव में बहुत मशक्कत करनी होगी।

                         - हॉवर्ड आईकेन



  अनकही: ये कैसा मध्याह्न भोजन है... - डॉ. रत्ना वर्मा
  चिंतन: हम अपनी मानसिकता के गुलाम है? - अनिता ललित
  स्वामी विवेकानंद: दुखियों का दर्द समझो
  दो ग़ज़लें: ऐसा हिन्दुस्तान मिले, गढ़ें नई तक़दीर - गिरीश पंकज
 संस्कृति: मितान बधई- छत्तीसगढ़ की...- डॉ. कौशलेन्द्र
 खोज: नींद में खलल और याददाश्त
 यादें: २८ अगस्त पूण्यतिथि: ओ जाने वाले हो सके तो...
 यात्रा संस्मरण: कच्छ के रन में, मांडवी बीच पर - प्रिया आनंद
 मेरे अनुभव: मैदान में खेल देखने का आनन्द - पल्लवी सक्सेना
 प्रेरकः योग्य शत्रु का सम्मान
 अनुसंधान: स्वाधीनता के साढ़े छह दशक और हमारा विज्ञान - चक्रेश जैन
 कालजयी कहानियाँ: काठ का सपना - गजानन माधव मुक्तिबोध
 हाइकु: बदलते सपने चूडिय़ों जैसे - ज्योत्स्ना प्रदीप              
 व्यंग्य: हम आजाद हैं? - डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
 कविता: प्रिय बहना - मुरलीधर वैष्णव
 चार लघुकथाएँ: अनुत्तरित, मैल, घर की लक्ष्मी, उड़ान - सुदर्शन रत्नाकर
 पुस्तक: मन की वादियों में झरे हरसिंगार - डॉ. उर्मिला अग्रवाल
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स्वतंत्रता दिवस: बापू ने नहीं मनाया आजादी का जश्न

ये कैसा मध्याह्न भोजन है...

ये कैसा मध्याह्न भोजन है...
 - रत्ना वर्मा
 बेहतर जीवन जीने के लिए शिक्षा का मनुष्य के जीवन में कितना महत्त्व है , इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता।  शिक्षा के मूलभूत अधिकार को ध्यान में रखते हुए  केन्द्र सरकार ने 15 अगस्त 1995 को सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन योजना का शुभारंभ किया था। आरंभ में बच्चों को हर दिन 100 ग्राम अनाज मुफ्त दिया जाता था। फिर 2004 में इस योजना में बदलाव करते हुए कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों को  स्कूल में ही खाना पकाकर खिलाना शुरू किया गया तथा अक्टूबर 2007 में कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को मध्याह्न भोजन दिया जाने लगा। इस योजना का आरंभ ही इस उद्देश्य से किया गया था कि खाने के बहाने बच्चे स्कूल तो आएँगे ही और साथ में पढ़ेंगे भी।
उपर्युक्त योजना का फायदा कितना हुआ कितना नहीं हुआ इस समय हम इस मुद्दे पर न जाकर मध्याह्न भोजन योजना में बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता पर बात करेंगे, जिसमें की गई लापरवाही की वजह से पिछले माह बिहार के एक स्कूल के 23 बच्चों की मौत हो गई। बच्चों की मौत के बाद से केन्द्र सरकार की इस योजना पर कई गम्भीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। हमेशा की तरह सरकार ने जाँच का आदेश जारी कर, मृतकों के परिवारों को नाममात्र का मुआवज़ा देकर या कुछ कर्मचारियों को बर्खास्त कर अपनी जिम्मेदारी तो पूरी कर ली, पर सवाल अभी भी वहीं का वहीं है। अफ़सोस तो इस बात पर है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ सामने आ रहे चुनाव को देखते हुए ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर भी राजनीति करने से नहीं चूक रही हैं।
छपरा के 23 बच्चों की मौत ने देशभर में चल रहे मध्याह्न भोजन की इस योजना की सारी पोल खोल कर रख दी है। स्कूलों को निम्न स्तर का अनाज सप्लाई किए जाने की शिकायतें तो जब-तब आती ही रही हैं। बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की पौष्टिकता पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं ; लेकिन किसी ने भी इसे मुद्दा बनाकर इसके विरूद्ध आवाज उठाने की ज़हमत नहीं उठाई ,न किसी  राजनीतिक पार्टी  ने और न किसी अन्य संगठन ने। दरअसल मध्याह्न भोजन योजना का लाभ लेने वाले वे बच्चे हैं ; जिनके घरों में दो जून की रोटी ब-मुश्किल जुट पाती है। माता-पिता इसीसे खुश रहते हैं उनका बच्चा एक समय का खाना स्कूल में खाकर उनके घर की आर्थिक हालत में सहायता ही कर रहा है, साथ ही थोड़ी बहुत पढ़ाई भी कर लेता है। ऐसे अभिभावक भोजन की गुणवत्ता को लेकर आवाज भला उठाएँ भी तो कैसे? लेकिन बच्चों को कीटनाशक युक्त भोजन खिलाए जाने के बाद अब गरीब माता-पिता भी अपने कलेजे के टुकड़े को स्कूल का खाना खिलाने के नाम पर डरने लगे हैं।
केन्द्र सरकार की इस योजना के बारे में वेबसाइट में जो जानकारी दी गई है ,उसके अनुसार एक बच्चे को 50 ग्राम सब्जी, 20 ग्राम दाल और 100 ग्राम चावल दिया जाता है। लेकिन यह हम सब जानते हैं कि कैसी दाल और कैसी सब्जी उन्हें परोसी जाती है। अधिकतर स्कूलों में खाना खुले प्रांगण में पकाया जाता है और बच्चे स्कूल प्रांगण में ही इधर उधर बैठ कर खाना खाते हैं।  अनाज में कीड़े- मकोड़े निकलने और सड़ा-गला अनाज खिलाए जाने की खबरें सुनने को मिलती हैं। अनाज साफ है या नहीं, तेल कौन- सा दिया जा रहा है, सब्जी को धोकर बनाया जाता है या नहीं आदि बातों की निगरानी करने वाला कोई नहीं होता। स्कूलों की स्थिति पर लगातार किए जा रहे अध्ययनों से जो बातें उभर कर आई हैं, उसके अनुसार हमारे देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों में बच्चों के बैठने के लिए फर्नीचर, पीने का पानी और शौचालय जैसी मूलभूत जरुरत की व्यवस्था तक नहीं है ; वहाँ भला बच्चों को मुफ्त दिए जाना वाला भोजन कैसे व्यवस्थित और गुणवत्ता के आधार पर दिया जा सकता है, यह सोचने वाली बात है।
 भ्रष्टाचार ने हर जगह अपनी जड़ें जमा ली हैं तो भला मध्याह्न भोजन योजना इससे कैसे अछूता रहती, यहाँ भी करोड़ों के वारे-न्यारे हो जाते हैं।  सरकार ने इस योजना की निगरानी की जिम्मेदारी पंचायतों को अवश्य सौंप दी है ; पर देखा यही गया है कि राशन वितरण  का ठेका भी उन्हीं लोगों के हाथों में हैं , जिनकी पहुँच राजनीतिक स्तर पर है। ऐसे माहौल में इस योजना के उद्देश्य कि  स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ेगी, कुपोषण के शिकार बच्चों को गुणवत्ता युक्त भोजन मिलेगा, एक साथ बैठकर भोजन करने से भाईचारा बढ़ेगा और जात- पाँत की भावना दूर होगी... आदि आदि न जाने कहाँ विलुप्त हो गये हैं।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2007 में मध्याह्न भोजन के लिए बजट में 7324 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया था लेकिन 2013-14 में इसे बढ़ाकर 13215 करोड़ रुपए कर दिया गया है। करोड़ों की ऐसी योजना में कहाँ चूक हो रही है कि हम बच्चों को जहरीला खाना परोस रहे हैं? दरअसल जिस योजना को पूरा करने की जिम्मेदारी बच्चों को पढ़ाने के लिए नियुक्त शिक्षकों के मत्थे ही मढ़ दी जाए वहाँ शिक्षक बच्चों को खाना खिलाएँ या फिर पढ़ाएँ। इस मामले में तमिलनाडु में सफलतापूर्वक चल रहे मध्याह्न भोजन योजना का उदाहरण सामने रखा जाता है कि जब वहाँ के स्कूलों में बगैर किसी गड़बड़ी के निगरानी समीति बनाकर बच्चों को पौष्टिक भोजन खिलाया जा सकता है तो अन्य प्रदेशों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? जाहिर है कि व्यवस्था में ही खामियाँ है और सबसे बड़ी बात ,शासन -तंत्र के पास दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव है।
कोई भी सरकारी योजना देश की बेहतरी के लिए बनती है लेकिन सिर्फ योजना बना देना ही सरकार का काम नहीं है, उसे सही तरीके से लागू करना भी उनकी जिम्मेदारी बनती है। सरकार को, देश में चलने वाली कुछ कल्याणकारी योजनाओं को राजनीतिक फायदे से ऊपर उठ कर देखना होगा। मासूमों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करके वे सत्ता पर आसीन नहीं हो सकते। यदि बच्चों के खाने में लापरवाही हुई है तो इसके लिए पूरे शासन तंत्र को जिम्मेदार माना जाना चाहिए।
छपरा जैसी दुर्घटना फिर न हो इसके लिए दोषियों को सजा हो यह बहुत जरूरी है ,पर साथ ही यह भी जरूरी है कि इस योजना के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए स्कूलों को अलग से सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। एक ऐसी निगरानी समीति बने जिसमें महिला स्वसहायता समूहों तथा स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ अभिभावकों को भी शामिल किया जा सकता है, जो बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता एवं साफ- सफाई पर नजर रखें। यदि सरकार चाहती है कि आर्थिक कमजोरी की वजह से बच्चे स्कूल न छोड़ें और स्कूलों में उनकी उपस्थिति बढ़ती रहे तो उन्हें अब यह विश्वास दिलाना होगा कि बच्चों के भोजन के साथ अब किसी तरह की लापरवाही नहीं की जाएगी और लापरवाही करने वाले पर कड़ी कार्यवाही भी होगी।  
(एक तरफ हम अगस्त माह में 15 तारीख को भारत की आजादी का जश्न मनाने की तैयारी कर रहे हैं पर यह गहरे दुख की बात है कि पुंछ क्षेत्र में भारत के सीमारक्षक वीर, पाकिस्तानी सेना के गोलियों का शिकार हो जाते हैं। जब कठोर कार्यवाही की जाएगी ,तभी पाकिस्तान इस तरह की हिमाक़त  करने से बाज़ आएगा । बयानबाजी से हम पाकिस्तान को नहीं समझा सकते। इसका सिर्फ़ एक ही उपाय है -कड़ा प्रतिकार । दूसरी बात-सुरक्षा जैसे इस नाज़ुक मुद्दे पर राजनैतिक छींटाकशी और वैचारिक विषमता चिन्ता का विषय है। हद तो तब हो जाती है, जब किसी राज्य का मन्त्री भी इन मुद्दों पर बचकाना बयान देने पर उतर आए। ऐसे अवसर पर वाणी-संयम बहुत ज़रूरी है । सीमा पर  शहीद होने वाले  उन वीर जवानों  को  हमारी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। )

चिंतन

 क्या हम  सचमुच आज़ाद है?
- अनिता ललित
देश आज़ाद, शहर आज़ाद, गाँव आज़ाद, गली आज़ाद, घर-परिवार आज़ाद! मगर फिर भी हम गुलाम हैं... अपनी सोच, अपनी इच्छाओं, अपने व्यवहार, अपनी मानसिकता... सबके गुलाम हैं!
 कहने को तो हम धर्म-निरपेक्ष देश में रहते हैं... मगर धर्म की आड़ में क्या कुछ अधर्म नहीं होता...! उदाहरण के लिए अयोध्या नगरी  के विवाद को ही देख लें! राम-जन्मभूमि से श्री रामचन्द्र जी के संस्कार तो खो गये... सिर्फ़ भूमि ही रह ग! कौन -सा धर्म सिखाता है कि इंसानियत को ताक पर रखकर, धर्म के नाम पर अपने ही भाई-बहनों, मासूम बच्चों की बलि चढ़ा दें! कोई य क्यों नहीं सोचता कि उस स्थान का विकास हो, वहाँ के रहने वालों का विकास हो, अच्छे अस्पताल बनें, विद्यालय खुलें.. जिससे आम जनता को कुछ लाभ हो... और इस प्रकार हम उन्नति की ओर अग्रसर हों...! मगर नहीं! सब अपने स्वार्थ में जकड़े हुए हैं...! ऐसे मुद्दों  पर ध्यान जाता है... तो सिर्फ़ वोटों की खातिर! जनता की भावनात्मक दुर्बलता की आड़ में सिर्फ़ अपना उल्लू सीधा किया जाता है!
देश को एक इकाई की तरह देखने की जगह...उसके टुकड़े कर दिए हैं! ठीक है! देख-भाल सही ढंग से हो ;इसलिए तो ये समझ आता है...कि हर कोई अपने हिस्से को साफ़-सुथरा बनाए , अपराध-रहित, उन्नति की राह पर ले चले! मगर जब किसी एक हिस्से पर कोई भारी विपदा आती है... तब तो हर एक का यही कर्त्तव्य होना चाहिए... कि एकजुट होकर हर संभव प्रयास करके  उस हिस्से को, उस विपदा से उबारने में सहायता करें! मगर ऐसा नहीं होता! ये मेरा! वो उसका! कोई हस्तक्षेप चाहता नहीं... या कोई खुद को उससे अलग कर अपने हिस्से में ही खुश है...! यही नहीं! उस विपदा से उसको क्या लाभ मिल सकता है.. उसकी तिकड़म भी लगाने में चूकता नहीं! अपने ही घर में सेंध लगाना... ये कैसी  ओछी सोच है? क्या इसीलिए हमारे देश के वीरों ने देश की स्वतंत्रता में अपनी प्राण न्योछावर किए थे और आज भी देश की सीमा पर कर रहे हैं
देशवासी ही एकजुट होकर नहीं रह पा रहे हैं। एक दूसरे पर गम्भीर आरोप लगाकर जनता को गुमराह कर रहे हैं और देश के कानून तक की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। क्षेत्रवाद और जातिवाद की विषबेल को सींच रहे हैं तो ऐसे में आतंकवाद का फैलना कितना आसान हो जाता है! और तब.... किसी दूसरे देश पर आरोप मढ़ने से पहले कभी कोई अपने दामन में झाँककर देखता है। कि ऐसा क्यों हुआ? अपनी अमूल्य विरासत जब खुद नहीं सँभाल पाएँगे , तो बाहर वाले तो फूट का अनुचित लाभ उठाएँगे ही! और इसके दु:खद ,म्भीर परिणाम झेलती है मासूम जनता! जो हर समय एक अनजान, दिल दहला देने वाले आतंक के डर के साए में साँस ले रही है! ये कैसी आज़ादी का सुकून है?
 बोलने की आज़ादी मिली तो जिसको देखो, वही भाषण देता है, बहाना कोई भी हो, मगर असली  कारण सिर्फ़ दूसरों की बुराई की आड़ में अपनी अच्छाई का ढोल पीटना होता है! या फिर वो बोला जाता है ; जो बिकता है! उससे क्या नुकसान हो रहा है, कोई नहीं देखता! कोई भी दुर्घटना हो , लोग उसकी तह तक जाने की जगह... उसकी आकर्षक व स्वादिष्ट दिखने वाली मलाई का स्वाद लेते हैं। उसकी नीचे की जली हुई परत पर कोई मल्हम लगाने की नहीं सोचता, उसकी वजह को जड़ से मिटाने की बजाय उसके चटखारे लेते हैं, उस पर अपने हाथ सेंकते हैं! ऐसे लोग लालच में इस क़दर डूबे होते हैं । कि उन्हें अपने ज़मीर की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती!
 सरकार चुनने की आज़ादी मिली....तो कहीं उसके हिसाब से अक्ल नहीं मिली... या फिर इस पदवी के लायक कोई नेता नहीं मिला! समझ ही नहीं आता...किसको उस बहुमूल्य गद्दी पर बिठाएँ! आजकल जनता देखती है...कौन कम खराब है...जिसे वोट दिया जाए! अच्छे लोग राजनीति में जाना नहीं जाते, वे दायित्व निभाना नहीं चाहते फिर गुंडा-राज नहीं होगा , तो क्या होगा? बुराई नेता की पदवी में नहीं , हमारे अंदर है ; क्योंकि जो नेता बना , हमारी मर्ज़ी  से बना और हममें ही से कोई बना!
 इसी मजबूरी की आड़ में जनता भी लापरवाह हो अपना कर्त्तव्य भूल जाती है! कितने लोग तो मतदान के लिए जाते ही नहीं और कुछ बिक जाते हैं और ग़लत लोगों का चुनाव कर बैठते हैं, जो थोड़े-बहुत समझदार बच जाते हैं उनके मत बेकार चले जाते हैं! नतीजा घूम-फिर कर जनता को ही भुगतना पड़ता है! ये कौन सी आज़ादी है? जहाँ धनबल और बाहुबल पर सही ग़लत सारे कार्य हो जाते हैं ; मगर जो निर्बल है, निर्धन है। उसकी आवाज़ बंद कर दी जाती है। चाहे डरा-धमकाकर या फिर लोभ देकर! और यही सबसे बड़ा कारण है कि आज किसी अत्याचारी या मुजरिम को सज़ा नहीं मिल पाती ; क्योंकि क़ानून  गवाह माँगता है। और गवाही देने वाले न्यायालय तक पहुँचते-पहुँचते अपने बयान बदल देते हैं! इससे अधिक दु:खद बात और क्या हो सकती है! इसी  कारण देश में अपराधों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है! ये कैसी उन्नति है? कैसी प्रगति है? कैसी आज़ादी  है?
 जिधर देखिए, उधर शोषण हो रहा है! आजकल का सबसे ज्वलंत शोषण मुद्दा है... नारी-शोषण, बाल-शोषण! भ्रूण हत्या भी उसी का एक हिस्सा मान लीजिए ; क्योंकि उसमें भी एक भावी नारी का ही शोषण होता है! कौन है इसका जि़म्मेदार? आए दिन खबरें पढ़ने-सुनने में आतीं हैं। फलाँ नारी के साथ दुर्व्यहार हुआ! दुर्व्यहार भी अब अपनी सीमा लाँघ चुका है! कभी-कभी किसी बड़े शहर की सड़क पर, कभी शहर के जेल में, कभी गाँव की पंचायत में, तो कभी खुद अपने ही घर में किसी अपने के ही हाथों सोचकर ही मन में वितृष्णा होने लगती है! कोई मशहूर, धनवान्  हुआ... तो स्केंडल बनकर टी वी और समाचार पत्रों में हफ्तों तक सुर्खियाँ बनकर सज़तीं हैं। और अगर कोई ग़रीब हुआ- तो कहीं घुट-मर कर जि़ंदा लाश बनकर गुमनामी के अंधेरों में गुम हो जाता है!
अक्सर भीड़ भरी सड़क पर, कोई पीछे से हमें पकड़ लेता है। मुड़कर देखो, तो भीख माँगते नन्हें बच्चे-बच्चियाँ होते हैं..! कभी सोचा है- उन लावारिस जैसे बच्चों का शोषण किस हद को पार कर जाता होगा! जो इंसानी भेड़िए अपने घर, मोहल्लों, शहरों में किसी को भी अपना निशाना बनाने में नहीं चूकते वो इन फटे-चीथड़ों में लिपटे मासूम, बेसहारा बच्चों का क्या हश्र करते होंगे- सोचकर ही दिल काँप उठता है! मगर हम नज़र चुराकर आगे बढ़ जाते हैं- हम उनसे नहीं... खुद से नज़रें नहीं मिला पाते! हम सब घर बैठकर किसी के चरित्र पर उँगली उठाते रहते हैं। मगर जो चार उँगलियाँ जो हमारी ओर इशारा करतीं हैं...उन्हें अनदेखा कर जाते हैं! क्यों? क्योंकि हम अपनी मानसिकता के गुलाम हैं!
घर-परिवार में देखें कहीं बहू अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रही है, तो कहीं सास अपने आधिपत्य के लिए! या फिर कहीं सास-बहू को अपने इशारों पर नचाना चाहती है, तो कहीं बहू-सास को! इसी चक्कर में कहीं बहू घुटकर जीती है। तो कहीं सास-ससुर! इन दोनों के बीच में बेटा बेपेन्दी के लोटे- जैसा घनचक्कर बना फिरता है!
   बड़े  आख़िर बड़े हैं, जितना उनको सम्मान मिलना चाहिए, उतना ही उनको अपना बड़प्पन बनाए रखना चाहिए! छोटे-छोटे ही हैं। उनको अपनी स्वतंत्रता का उपयोग एक सीमा में रहकर ही करना चाहिए! एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए। हर कोई सम्मान का अधिकारी है। मगर सम्मान छीना नहीं जाता, दिल से कमाया जाता है!
 यही कम नहीं है! कहीं-कहीं पति पत्नी को बाँधकर रखना चाहता है। तो कहीं पत्नी पति को अपने इशारों पर नचाना चाहती है! हर किसी को अपने हिस्से की जि़ंदगी जीने का हक़ है। तो फिर इतनी खींचतान क्यों?
इसका जि़म्मेदार कौन? खुद हम!  क्योंकि हम अपनी ओछी सोच और व्यवहार के ग़ुलाम हैं!
इतना सब सोचने के बाद...अक्सर यही प्रश्न दिमाग़ में उठता है। कि 'क्या हम सचमुच आज़ाद हैं...?’  जब अपने ही घर में हम आज़ादी की साँस नहीं ले पाते... तो देश की आज़ादी क्या सँभालेंगे?

संपर्क: 1/16 विवेक खंड,गोमतीनगर, लखनऊ 226010


स्वामी विवेकानंद

दुखियों का दर्द समझो
एक अज्ञान संन्यासी के रूप में हिमालय से कन्याकुमारी की यात्रा करते हुए स्वामी विवेकानंद ने जनता की दुख-दुर्दशा का अपनी आँखों से अवलोकन किया था। अमेरिका की सुविधाओं तथा विलासिताओं के बीच सफलता की सीढ़ियों पर उत्तरोत्तर चढ़ते हुए भी, भारतीय जनता के प्रति अपने कर्त्तव्य का उन्हें सतत स्मरण था। बल्कि इस नये महाद्वीप की सम्पन्नता ने, अपने लोगों के बारे में उनकी संवेदना को और भी उभारकर रख दिया।
वहाँ उन्होंने देखा कि समाज से निर्धनता, अंधविश्वास, गंदगी, रोग तथा मानव कल्याण के अन्य अवरोधों को दूर करने के लिए मानवीय प्रयास, बुद्धि तथा निष्ठा की सहायता से सब कुछ सम्भव बनाया जा सकता है। 20 अगस्त 1893 ई. को उन्होंने अपने भारतीय मित्रों के हृदय में साहस बँधाते हुए लिखा-
कमर कस लो, वत्स! प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। आशा तुम लोगों से है- जो विनीत, निरभिमानी और विश्वास परायण हैं। दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो-  वह अवश्य मिलेगी। मैं बारह वर्ष तक हृदय पर यह बोझ लादे और मन में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर-दर घूमा। हृदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया।
परन्तु भगवान अनंत शक्तिमान हैं। मैं जानता हूँ, वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु युवको! मैं गरीबों, मूर्खों और उत्पीडि़तों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को तुम्हें थाती के तौर पर सौंपता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (श्रीकृष्ण) के मंदिर में और उनके सम्मुख एक महाबलि दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो- उन दीनहीनों और उत्पीडि़तों के लिए ; जिनके लिए भगवान युग- युग में अवतार लिया करते हैं और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।

प्रभु की जय हो, हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे, पर सैकड़ों पुन: उनकी जगह खड़े हो जाएँगे। विश्वास, सहानुभूति, दृढ़ विश्वास और ज्वलंत सहानुभूति चाहिए! जीवन तुच्छ है, मरण भी तुच्छ है, भूख तुच्छ है और शीत भी तुच्छ है। जय हो प्रभु की! आगे कूच करो- प्रभु ही हमारे सेना नायक हैं। पीछे मत देखो कि कौन गिरा- आगे बढ़ो, बढ़ते चलो।

दो ग़ज़लें

ऐसा हिन्दुस्तान मिले
- गिरीश पंकज

सुन्दर एक जहान मिले
हर चेहरे मुसकान मिले

काश मिले मंदिर में अल्ला
मसजिद में भगवान मिले

वह घर पावन जिसमे गीता
बाइबिल और क़ुरान मिले

आते खाली जाते खाली
जितने भी इनसान मिले

धर्म-जात के झगड़े ना हों
ऐसा हिन्दुस्तान मिले

धनवालों के भीतर भी
सुन्दर इक इनसान मिले

सुख हम भीतर खोजेंगे
बाहर सब परेशान मिले

दान दे सकें हम सबको
क्यों सबका अहसान मिले

बस्ती में घर खोज रहा
वैसे बहुत मकान मिले

गढ़ें नई तक़दीर

उडऩे को तैयार रहो आकाश बुलाता है,
पतझर से मत घबराना मधुमास बुलाता है

मुड़ कर पीछे मत देखो मंज़िल तो आगे है
जो रहता है पीछे बस पीछे रह जाता है

मत रुकना तुम रात अरे यह बीत रही देखो
एक नया सूरज बढ़ कर आवाज़ लगाता है


वर्तमान में रह कर जिसकी नजऱें हैं कल पर
वही शख्स सचमुच स्वर्णिम इतिहास बनाता है

आओ मेहनतकश हाथों से गढ़ें नई तक़दीर
हर इंसा का करम उसी का भाग्यविधाता है

वह तो एक फरिश्ता है इनसान नहीं 'पंकज'
भीतर दु:ख का पर्वत है बाहर मुसकाता है


संपर्क: 26, सेकेंड फ्लोर, एकात्म परिसर, रायपुर (छ.ग.) 492001, 
मोबाइल- 9425212720, 

छत्तीसगढ़ की अनूठी परम्पराः

 मितान बधई 

- डॉ. कौशलेन्द्र
आज जिसे आप छत्तीसगढ़ राज्य के नाम से जानते हैं, पहले वह मध्यप्रदेश का एक भाग हुआ करता था, और उससे भी पहले, त्रेतायुग में यही राज्य दक्षिणकोशल के नाम से विख्यात था। राज्यों की सीमाएँ तो बनती-मिटती रहती हैं किंतु उस भूभाग पर रहने वाले समाज की भाषा और संस्कृति अमिट होती है। उथल-पुथल करने वाली विविध घटनाओं से भरे इस परिवर्तनशील जगत में समाज ने न जाने कितने चोले बदले हैं किंतु समाज है कि हर बार अपनी परम्पराओं के सहारे उठकर खड़ा हो जाता है आगे... और आगे की यात्रा के लिये। पुराने परिधानों का स्थान नये परिधान ले लेते हैं, आत्मा वही बनी रहती है।
लम्बे समय तक अक्षुण्ण बनी रहने वाली परम्पराओं का सीधा संबन्ध मानव समाज की उन कोमल भावनाओं से होता है जो पुष्प की तरह अपनी सुगंध दूर-दूर तक बिखेरती रहती हैं। हमारी आस्थाएँ इन परम्पराओं को कालजयी दृढ़ता प्रदान करती हैं। परंपराएँ न होतीं तो समाज कब का बिखर गया होता। ये परंपराएँ ही हैं जो सात समन्दर पार भी देश की माटी के सोंधेपन से हमें बाँधे रखती हैं। जीवन में सुख हो या दु:ख विविध रंग अपने में समेटे ये परंपराएँ हमारे जीवन को ऊर्जा से भर देती हैं और नाना व्यवधानों के बाद भी जीवन को आगे बढ़ाती रहती हैं।
 मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की माँ कौशल्या की जन्मस्थली होने केर श्रेय से गौरवान्वित इस छत्तीसगढ़ में सदियों से प्रचलित एक ऐसी परम्परा भी है जो पूरे विश्व में अपने तरह की अनूठी, अद्भुत और अतुलनीय है। विश्व मानवसमाज के इतिहास में ऐसी श्रेष्ठ परम्परा का उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। दक्षिण कोशल की यह सनातन धरोहर है जो जातिभेद, धर्मभेद और वर्गभेद को भेदती हुयी अनेक अवरोधों को धराशायी करती हुयी हृदय को हृदय से जोड़ती है। आर्य समूह के राम की वनवासी समूह के सुग्रीव के साथ मित्रता इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। समाजवाद का इससे अच्छा स्वरूप देखने को अन्यत्र कहाँ मिलेगा! पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेम और सद्भाव की पवित्र गंगा बहाने वाली यह वही श्रेष्ठतम परम्परा है जिसे 'मितान बधईके नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ की यह परम्परा यहाँ के ग्राम्य एवं वनांचलाश्रित उस सच्चे सीधे समाज की व्यवस्था है जिसे लोग अत्यंत पिछड़े समाज के रूप में जानते हैं किंतु आश्चर्य है कि इस पिछड़े समाज की अनेक परंपराएँ सभ्य समाज की परम्पराओं से कहीं अधिक उत्कृष्ट, व्यावहारिक, पवित्र और वैज्ञानिक हैं। विश्व के सभ्य समाज को अभी इस पिछड़े समाज से बहुत कुछ सीखना होगा।
संवत 2064... यांत्रिक उपलब्धियों एवं चमत्कारों की पराकाष्ठा की ओर बढ़ते कलियुग के चरण का एक और काल। दिक् और काल को अपने नियंत्रण में करता सा प्रतीत होता मनुष्य अपने विजय अभियान की ओर अग्रसर है। आर्थिक समृद्धि ने विलासिता के विभिन्न द्वार खोल दिये हैं। तीव्रगति वाहनों के कारण सिमटती दूरियों ने सुदूर देशों को भी पास-पास ला खड़ा किया है। आदान-प्रदान और भी सुगम हो गया है। आपसी स्पर्धाएँ एक प्रकार के युद्ध में परिणित होती जा रही हैं। यह युद्ध भारत की प्राचीन संस्कृति पर अपसंस्कृति के दुष्प्रभाव का ही परिणाम है। इस युद्ध में सांस्कृतिक मूल्यों की बलि चढ़ती है, मानवता पर यांत्रिक दानवता प्रभावी हो जाती है और विलासिता में डूबा समाज पतन की ओर अग्रसर होने लगता है। आज हम इसी के प्रभाव में आकर अपने आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों को खोते जा रहे हैं। वैचारिक युद्ध घमासान हो उठा है और हमें अपने आपको तथा अपनी पीढ़ी को बचाना है।
 वृहत्तर भारत की भौगोलिक सीमाएँ बीसवीं शताब्दी में देश की स्वतंत्रता के साथ ही सिमट गयीं और सीमांत प्रदेशों का अस्तित्व संकटों से घिर गया। इससे भी अधिक संकट हमारी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता और भाषा पर छाया हुआ है। पिछले साठ वर्षों में भारतीय समाज को अपने सांस्कृतिक मूल्यों, सभ्यता और भाषा की भारी क्षति उठानी पड़ी है। विश्व में ऐसे अनेक मानव समुदाय रहे हैं जो अपनी संस्कृति और भाषा की रक्षा नहीं कर सके और इस धरती से सदा-सदा के लिये लुप्त हो गए। हमें इनके दूरगामी परिणामों पर गम्भीर मनन करना होगा। अस्तित्व की रक्षा के इस प्रयास में हमें पीछे लौटना होगा ..अपने अतीत की ओर। उन सांस्कृतिक मूल्यों को अपना कर पुनर्जीवित करना होगा जिनके कारण हमारा अतीत गौरवशाली रहा है और हम श्रेष्ठ कहलाने के अधिकारी बन सके। हमारे अतीत में 'वसुधैव कुटुम्बकम्का सन्देश है, 'अतिथि देवो भवका संदेश है, ' यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमंते तत्र देवताका संदेश है, 'सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै’... का सन्देश है।
 इसी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत है छत्तीसगढ़ की 'मितान बधईपरम्परा। आज इसकी प्रासंगिकता और उपादेयता और भी महत्तवपूर्ण हो गयी है। आधुनिक फ्रेंडशिप-डे और वैलेंटाइन-डे ने मितान परम्परा का कलेवर लेने का असफल प्रयास किया है किंतु उसके पवित्र भाव को, उसकी आत्मिक सुगन्ध की व्यापकता को अपने में समाहित नहीं कर सके। फ्रेंडशिप-डे की तरह मितान बधई का कोई एक निश्चित दिन नहीं होता, यह तो पूरे वर्ष भर चलने वाला पर्व है जिसमें निरंतर बहने वाली नदी के प्रवाह जैसा भाव है, जिसके निर्मल जल को पीकर कभी भी तृप्त हुआ जा सकता है।
'मितानशब्द प्रेम के छलकते प्याले- सा प्रतीत होता है जिसका आकर्षण ही अपने आप में विशिष्ट है। आज के युग में सच्चा मित्र मिलना दुर्लभ है किंतु मितान तो सदा-सदा के लिए आपका घनिष्ठ सम्बन्धी हो जाता है, यही इस परम्परा की दुर्लभ विशिष्टता है। यदि आप द्वापरयुग के कृष्ण और सुदामा की मित्रता की खुशबू का अनुभव करना चाहते हैं तो एक बार छत्तीसगढ़ आकर किसी को अपना 'मितानबना लीजिएऔर पीढिय़ों तक निश्चिंत होकर इस दुर्लभ खुश्बू से सराबोर होते रहिये। ग्राम्य संस्कृति की यही देन कालांतर में पूरे छत्तीसगढ़ समाज की सांस्कृतिक धरोहर बन गयी। आवश्यकता तो इस बात की है कि अब यह पूरे विश्व मानव की सांस्कृतिक धरोहर बन जाये।
कलियुग के वर्तमान कालखण्ड में भौतिक प्रगति के साथ-साथ स्वार्थपरता ने मानव समाज को न जाने कितने खण्डों में बाँट रखा है। सहजता का स्थान कृत्रिमता ने और सुकोमल भावनाओं का स्थान भावशून्य औपचारिकताओं ने ले लिया है। दुर्भाग्य से देवस्थान हिमालय से उद्गमित पवित्र नदियों के अस्तित्व पर घिर आये संकट की तरह हमारी मितान परंपरा पर भी लुप्त होने का संकट घिर आया है। हमें इस प्रेमासिक्त धरोहर को किसी भी तरह बचाना ही होगा। आज पूरा विश्व आतंकवाद के साये में जीने को विवश है। कब कोई मानव बम हमारे प्राण ले लेगा, कब कोई भयानक विस्फोट हमारी निजी और राष्ट्रीय संपत्तियों को नष्ट कर धूल-धूसरित कर देगा, हममें से कोई नहीं जानता। हम सब कितनी दु:खद त्रासदी में जीने के लिये बाध्य हो गए हैं। विभिन्न सुख-सुविधायें और विलासिता के साधन कितने अर्थहीन हो जाते हैं जब अनायास किसी भयानक विस्फोट में यात्रियों से भरी किसी ट्रेन के वीभत्स और कारुणिक दृश्य पूरी मानवता को हिलाकर रख देते हैं। बड़ी-बड़ी सरकारें आतंकवाद के सामने असहाय सी प्रतीत होती हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि संप्रभुता संपन्न बड़ी-बड़ी सरकारों को अपने प्रचार माध्यमों से अपने नागरिकों को आते-जाते, उठते-बैठते संभावित अनिष्ट से बचने के लिये सतर्क रहने का आग्रह करना पड़ रहा है। लोग अपने ही देश की धरती पर भयमुक्त होकर जी पाने से वंचित हो गये हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि अपने नागरिकों के प्राणों और संपत्तियों की रक्षा का जो स्वाभाविक दायित्व शासन का होता है वह अब स्वयं हमें ही उठाना होगा। अराजकता और असहायता की यह अत्यंत भयावह स्थिति है जो समाज को किसी अनिष्ट की दिशा में भी मोड़ सकती है। सरकारी उपाय सफेद हाथी बनकर रह जाते हैं और आतंकी घटनायें मानवता को तार-तार करती रहती हैं। इस सब चीत्कार के मध्य जब हम सहायता के लिये इधर-उधर ताकते हैं तो आशा की एक सशक्त किरणपुंज के रूप में छत्तीसगढ़ की मितान परंपरा समाधान के रूप में प्रस्तुत हो हमें अभिभूत कर जाती है। यह वह उदार परंपरा है जो जाति नहीं देखती, धर्म नहीं देखती, छोटा-बड़ा नहीं देखती... देखती है तो बस कोमल अंतस का सहज प्रेम जो निर्झर सा बहते रहने को भरा बैठा है। प्रेम की यह धार अनेक सामाजिक बंधनों को तोड़ती हुयी, अनेक अन्य संबन्धों को जोड़ती हुयी पीढिय़ों तक बहती रहती है। एक बार मितान बंधन में बंध जाने के बाद फिर कोई पराया नहीं रह जाता। मितान सम्बन्ध इतने घनिष्ठ होते हैं कि एक पक्ष के संबन्धी भी दूसरे पक्ष के संबन्धी बन जाते हैं। यह व्यष्टि से समष्टि की प्रेमपूर्ण यात्रा है। आश्चर्य जनक रूप से रक्त संबन्धों से भी अधिक घनिष्ठ होते हैं मितान संबन्ध। दो मितान कई पारिवारिक संबन्धों को प्रेमसूत्र में पिरोकर उत्कृष्ट मानवीय संबन्धों का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यहाँ कोई साक्षी नहीं होता, कोई वचन लिपिबद्ध नहीं होते, कोई बाध्यता नहीं होती फिर भी निष्छल प्रेम की ऊर्जा सामाजिक संबन्धों को घनिष्ठ एवं सुदृढ़तम बना देने के लिये पर्याप्त होती है। ये संबन्ध ब्रिटेन के अलिखित संविधान की तरह सहज भाव से चलते रहते हैं। न्यायालयों में साक्षियों की उपस्थिति में बनने वाले संबन्ध न्यायिक बाध्यताओं के बाद भी प्रेम के स्थायित्व को सुनिश्चित नहीं करते, किंतु मितान संबन्ध किसी भी बाध्यता के बंधनों से मुक्त केवल प्रेम की अजस्र धारा बहाते रहने के लिये चिरप्रतिज्ञ है। आधुनिक संबन्धों के खोखलेपन और अस्थिरता के इस युग में छत्तीसगढ़ की यह सांस्कृतिक धरोहर और भी प्रासंगिक हो गयी है।
   आइये, माता कौशल्या की इस जन्मभूमि को कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं। हम उसी प्राचीन सांस्कृतिक-सामाजिक धरोहर को संरक्षित करने का संकल्प लेकर मितान परंपरा को पुनर्जीवित करने के साथ ही यह संदेश देकर पूरे विश्व का आह्वान करें कि आतंकवाद से जूझने का उपाय छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत में है। वे यहाँ आयें, स्वयं इससे अभिभूत हो जायें और यदि पायें कि हृदय में कोई स्पन्दन उठने लगा है तो विश्व के कोने-कोने में फैला दें इस पवित्र संदेश को। छत्तीसगढ़ की धरोहर पूरे विश्व में मानवता की पवित्र धरोहर बन जाये और आतंकवाद अतीत का दु:स्वप्न बनकर किसी कृष्णविवर में खो जाये। हमें अपने अतीत को स्मरण करते हुये वर्तमान को गढऩा है ताकि भविष्य के भय से मुक्त हो अपनी जीवन यात्रा सफल बना सकें।     
                                                     
संपर्क: शासकीय कोमलदेव जिला चिकित्सालय
कांकेर उत्तर-बस्तर छ.ग. 494334,

नींद में खलल और याददाश्त

 नींद में खलल और याददाश्त
गहरी नींद में विघ्न और याददाश्त के बीच सीधा सम्बंध है। अर्थात जिन लोगों में धीमी गति की मस्तिष्क तरंगों की सक्रियता सबसे कम रही, उन्हें सबसे कम शब्द भी याद रहे। और इन दोनों चीज़ों, यानी गहरी नींद की कमी और याददाश्त की कमज़ोरी का सम्बंध दिमाग के एक हिस्से में ग्रे मैटर की कमी के साथ देखा गया। 
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नेचर न्यूरोसाइन्स में प्रकाशित एक ताज़ा शोध पत्र में बताया गया है कि उम्र बढऩे के साथ दिमाग के एक खास हिस्से में क्षति के चलते नींद में विघ्न पैदा होता है और याददाश्त भी कमज़ोर पड़ती है।
यह तो सर्वविदित है कि उम्र बढऩे के साथ मस्तिष्क की कोशिकाएँ धीरे-धीरे कम होती हैं, नींद में खलल पड़ता है और याददाश्त कमज़ोर होती है मगर सवाल यह है कि इन तीन चीज़ों के बीच कोई सम्बंध है क्या? और यदि कोई सम्बंध है, तो किस तरह का?
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका वैज्ञानिक ब्रायस मैंडर और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब पाने के लिए एक अध्ययन किया। उन्होंने 33 स्वस्थ वयस्कों को इस अध्ययन में शामिल किया- इनमें से 18 तो करीब 20 वर्ष उम्र के थे जबकि 15 उम्र के सातवें दशक में थे। इन सबके दिमाग ठीक-ठाक थे।
इन वालंटियर्स को शब्दों की कुछ जोडिय़ाँ याद करने को कहा गया और दस मिनट बाद वही शब्द याद करने को कहा गया। इसके बाद उन्हें रात भर सोने दिया गया। जब वे सो रहे थे तब शोधकर्ता उनके दिमाग की गतिविधियों को रिकॉर्ड करते रहे। अगले दिन सुबह वालंटियर्स को एक बार उसी सूची के शब्द याद करने को कहा गया। इस अभ्यास के दौरान उनके दिमाग का स्कैन भी जारी रहा।
जैसा कि पूर्व में किए गए अध्ययनों में देखा गया था, युवा वालंटियर्स के मुकाबले उम्रदराज़ वयस्क कम शब्द याद कर पाए। उम्रदराज़ लोगों में नींद के दौरान धीमी मस्तिष्क तरंगों में भी कमी देखी गई। धीमी मस्तिष्क तरंगें गहरी नींद से सम्बंधित होती हैं।
विश्लेषण में यह देखा कि गहरी नींद में विघ्न और याददाश्त के बीच सीधा सम्बंध है। अर्थात जिन लोगों में धीमी गति की मस्तिष्क तरंगों की सक्रियता सबसे कम रही, उन्हें सबसे कम शब्द भी याद रहे। और इन दोनों चीज़ों, यानी गहरी नींद की कमी और याददाश्त की कमज़ोरी का सम्बंध दिमाग के एक हिस्से में ग्रे मैटर की कमी के साथ देखा गया। दिमाग के इस हिस्से को मध्यम प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स कहते हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन से पता चलता है कि गहरी नींद का अभाव, याददाश्त की कमज़ोरी और मध्यम प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स में ग्रे मैटर में कमी एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं हैं।
यह तो पहले से पता रहा है कि नींद आपको नई-नई बातों को याददाश्त में सहेजने में मदद करती है। यह भी पता रहा है कि धीमी मस्तिष्क तरंगें जानकारी को हिप्पोकैम्पस से मस्तिष्क के अन्य हिस्सों में स्थानांतरित करने में मददगार होती हैं जहाँ उन्हें दीर्घावधि याददाश्त में संजोया जाता है।
ताज़ा शोध से पता चलता है कि मध्यम प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स में क्षति के चलते धीमी मस्तिष्क तरंगें कम हो जाती हैं जिसका असर गहरी नींद और याददाश्त दोनों पर पड़ता है।
शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि उनके इस अध्ययन से इस मामले में सार्थक हस्तक्षेप के कुछ रास्ते खुल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

संस्मरण

ओ जाने वाले हो सके तो...
तीस हजार फुट की ऊँचाई पर हमारा जहाज़ उड़ा जा रहा है। रूई के गुच्छों जैसे सफेद बादल चारों ओर छाये हुए हैं। ऊपर फीके नीले रंग का आसमान है। इन बादलों और नीले आकाश से बनी गुलाबी क्षितिज रेखा दूर तक चली गई है।
कभी-कभी कोई बड़ा-सा बादल का टुकड़ा यों सामने आ जाता है मानो कोई मज़बूत किला हो। हवाई जहाज़ की कर्कश आवाज को अपने कानों में झेलते हुए मैं उदास मन से भगवान की इस लीला को देख रहा हूँ।
अभी कल परसों ही जिस व्यक्ति के साथ ताश खेलते हुए और अपने अगले कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हुए हमने विमान में सफ़र किया था। उसी अपने अतिप्रय, आदरणीय मुकेश दा का निर्जीव, चेतनाहीन, जड़ शरीर विमान के निचले भाग में रखकर हम लौट रहे हैं। उनकी याद में भर-भर आने वाली आँखों को छिपा कर हम उनके पुत्र नितिन मुकेश को धीरज देते हुए भारत की ओर बढ़ रहे हैं।
आज 29 अगस्त 1976 है। आज से ठीक एक महीना एक दिन पहले मुकेश दा यात्री बन कर विमान में बैठे थे। आज उसी देश को लौट रहे हैं जिसमें पिछले 25 वर्षों का एक दिन, एक घण्टा, एक क्षण भी ऐसा नहीं गुज़रा था जब हवा में मुकेश दा का स्वर न गूँज रहा हो। जिसमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसने मुकेश दा का स्वर सुनकर गर्दन न हिला दी हो; जिसमें एक भी ऐसा दु:खी जीव नहीं था जिसने मुकेश दा की दर्द-भरी आवाज़ में अपने दुखों की छाया न देखी हो।
सर्व साधारण के लिए दु:ख शाप हो सकता है पर कलाकार के लिए वह वरदान होता है।
अनुभूति के यज्ञ में अपने जीवन की समिधा देकर अग्नि को अधिकाधिक प्रज्वलित करके उसमें जलती हुई अपनी जीवनानुभूतियों और संवेदनाओं को सुरों की माला में पिरोते-पिरोते मुकेश दा दु:खों की देन का रहस्य जान गए थे। यह दान उन्हें बहुत पहले मिल चुका था।
उस दिन 1 अगस्त 1976 था। वैंकुवर के एलिजाबेथ सभागृह में कार्यक्रम की पूरी तैयारियाँ हो चुकी थीं। मुकेश दा मटमैले रंग की पैंट, सफ़ेद कमीज़, गुलाबी टाई और नीला कोट पहन कर आए थे। समयानुकूल रंग-ढंग की पोशाकों में सजे-धजे लोगों के बीच मुकेश दा के कपड़े अजीब- से लग रहे थे। पर ईश्वर द्वारा दिए गए सुन्दर रूप और मन के प्रतिबिम्ब में वे कपड़े भी  उन पर फब रहे थे।
ढाई-तीन हज़ार श्रोताओं से सभागृह भर गया। ध्वनि परीक्षण के बाद मैं ऊपर के साउण्ड बूथ में मिक्सर चैनेल हाथ में सम्भाले हुए कार्यक्रम के प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। मुकेश दा के माइक का स्विच मेरे पास था। इतने में मुकेश दा मंच पर आए। तालियों की गडग़ड़ाहट से सारा हाल गूँज उठा। मुकेश दा ने बोलना प्रारम्भ किया तो भाइयो और बहनो कहते हुए इतनी सारी तालियाँ पिटीं कि मुझे हाल के सारे माइक बन्द कर देने पड़े।
मुकेश दा  अपना नाम पुकारे जाने पर सदैव पिछले विंग से निकल कर धीरे-धीरे मंच पर आते थे। वे जरा झुक कर चलते थे। माइक के सामने आकर उसे अपनी ऊँचाई के अनुसार ठीक कर तालियों की गडग़ड़ाहट रुकने का इंतजार करते थे। फिर एक बार राम-राम भाई-बहनों का उच्चारण करते थे। कोई भी कार्यक्रम क्यों न हो, उनका यह क्रम कभी नहीं बदला।
उस दिन मुकेश दा मंच पा आए और बोले, राम-राम भाई-बहनों, आज मुझे जो काम सौंपा गया है, वह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुझे लता की पहचान आपसे करानी है। लता मुझसे उम्र में छोटी है और कद में भी पर उसकी कला हिमालय से भी ऊँची है। उसकी पहचान मैं आपसे क्या कराऊँ। आइए हम सब खूब ज़ोर से तालियाँ बजाकर उसका स्वागत करें। लता मंगेशकर....
तालियों की तेज़ आवाज़ के बीच दीदी मंच पर पहुँचीं। मुकेश दा ने उसे पास खींच लिया। सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और घूमकर वापस अन्दर चले गए। मंच  से कोई भय नहीं, कोई संकोच नहीं, बनावट तो बिल्कुल भी नहीं, सब कुछ बिल्कुल स्वाभाविक और शान्त। दीदी के पाँच गाने पूरे होने पर मुकेश दा फिर मंच पर आए। एक बार फिर माइक ऊपर-नीचे किया और हारमोनियम सम्भाला। ज़रा-सा खंखार कर, फुसफुसा कर शायद राम-राम कहा  होगा। कहना शुरू किया, मैं भी कितना ढीठ आदमी हूँ। इतना बड़ा कलाकार अभी-अभी यहाँ आकर गया है और उसके बाद मैं यहाँ गाने के लिए आ खड़ा हुआ हूँ। भाइयो और बहनो, कुछ ग़लती हो जाए तो माफ़ करना।
मुकेश दा के शब्दों को सुनकर मेरा  जी भर आया। एक कलाकार दूसरे का कितना सम्मान करता है, इसका यह एक उदाहरण है। मुकेश दा के निश्छल और बढ़िया स्वाभाव से हम सब मन्त्र-मुग्ध हो गये थे कि माइक पर सुन उठा- जाने कहाँ गये वे दिन...
गीत की इस पहली पंक्ति पर ही बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं और फिर सुरों में से शब्द और शब्दों में से सुरों की धारा बह निकली। लग रहा था कि मुकेश दा गा नहीं रहे हैं, वे श्रोताओं से बातें कर रहे हैं। सारा हॉल शान्त था। गाना पूरा हुआ पर तालियाँ नहीं बजीं। मुकेश दा ने सीधा हाथ उठाया यह उनकी आदत थीं। और अचानक तालियों की गडग़ड़ाहट बज उठी। तालियों के उसी शोर में मुकेश दा ने अगला गाना शुरू कर दिया- डम-डम डिगा-डिगा... और इस बार तालियों के साथ श्रोताओं के पैरों ने ताल देना शुरू कर दिया था।
यह गाना पूरा हुआ तो मुकेश दा अपनी डायरी के पन्ने उलटने लगे। एक मिनट, दो मिनट, पर मुकेश दा को कोई गाना भाया ही नहीं। लोगों में फुसफुसाहट होने लगी। अन्त में मुकेश दा ने डायरी का पीछा छोड़ दिया और मन से ही गाना शुरू कर दिया। दिल जलता है तो जलने दे... यह मुकेश दा का तीस वर्ष पुराना गाना था। मैं सोचने लगा कि क्या इतना पुराना गाना लोगों को पसन्द आएगा। मन-ही-मन मैं मुकेश दा पर नाराज़ होने लगा। ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम के लिए उन्होंने पहले से गानों का चुनाव क्यों नहीं कर लिया था।
मैंने बूथ से ही बैक स्टेट के लिए फोन मिलाया और मुकेश दा  के पुत्र नितिन को बुला कर कहा- अगले कार्यक्रम के लिए गाना चुन कर तैयार रखो। नितिन ने जवाब दिया- यह नहीं हो सकता। यह पापा की आदत है। गाना खत्म होते ही हॉल में वंस मोर की आवाजें आने लगीं। मेरा अन्दाज गलत साबित हुआ था। मैंने झट से नितिन को दुबारा फोन मिलाया और कहा- मैंने जो कुछ कहा था। मुकेश दा को पता न चले। तभी दीदी मंच पर पहुँच गई और युगल गीतों की शुरूआत हो गई। सावन का महीना... कभी-कभी मेरे दिल में... दिल तड़प-तड़प के... आदि एक के बाद एक गानों का तांता लगा रहा। फिर आखिरी दोगाने का प्रारम्भ हुआ- आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा...
इस गाने का पहला स्वर उठाते ही मैं 1950 में जहा पहुँचा। दिल्ली के लाल किले के मैदान में एक लाख लोग मौजूद थे, ठण्ड का मौसम था। तरुण, सुन्दर मुकेश दा बाल सँवारे हुए स्वेटर पर सूट डाले, मफलर बाँधे बाँए हाथ से हारमोनियम  बजाने लगे थे। मैं घबरा गया और कुछ भी गलत-सलत गाने लगा था। मुकेश दा मुझे सान्त्वना देते जाते और मेरा साथ देने लग जाते। मुझे उनका यह सुन्दर रूप याद आने लगा जिसे 26 वर्षो के कटु अनुभवों के बाद भी उन्होंने कायम रखा था पर उनकी आवाज़ में एक नया जादू चढ़ गया था।
मिलाकी से हम वाशिंगटन की ओर चले। हम सबों के हाथ सामान से भरे थे। हवाई अड्डा दूर और दूर होता जा रहा था। मैं थक गया था और रुक- रुक कर चल रहा था। तभी किसी ने पीछे से मेरे हाथ से बैग ले लिया। मैंने दचककर पीछे देखा तो मुकेश दा। मैंने उन्हें बहुत समझाया पर उन्होंने एक न सुनी। विमान में हम पास-पास बैठे। वे बोले- अब खाना निकालों हम दोनों शाकाहारी थे। मैंने उन्हें चिवड़ा और लड्डू दिए और वे खाने लगे। तभी मैंने कहा- मुकेश दा, कल के कार्यक्रम में आपकी तबियत  अच्छी नहीं थी। लगता है, आपको ज़ुकाम हो गया है।
उन्होंने सिर हिलाया, बोले - मैं दवा ले रहा हूँ पर सर्दी कम होती ही नहीं, इसलिए आवाज़ में ज़रा-सी खराश आ गई। फिर विषय बदलकर उन्होंने मुझसे- ताश निकालने को कहा। करीब-करीब एक घण्टे तक हम दोनों ताश खेलते रहे। खेल के बीच में उन्होंने मुझसे कहा-गाते समय जब मेरी आवाज ऊँची उठती है तब तू फेडर को नीचे कर दिया कर ;  क्योंकि सर्दी के कारण ऊपर के स्वरों को संभालना ज़रा कठिन पड़ता है। फिर रमी के प्वाइंट लिखने के लिए उन्होंने जेब से पेन निकाला। उसे मेरे सामने रखते हुए बोले- बाल, यह क्रॉस पेन है; जब से मैंने क्रॉस पेल से लिखना शुरू किया है, दूसरा कोई पेन भाता ही नहीं है। तुम भी क्रॉस पेन खरीद लो। और वाशिंगटन में उन्होंने क्रॉस पेन खरीदवा ही दिया।
उसी शाम भारतीय राजदूत के यहाँ हमारी पार्टी थी। देश-विदेश के लोग आए हुए थे। मुकेश दा अपनी रोज की पोशाक में इधर-उधर घूम रहे थे। तभी किसी ने सुझाया कि गाना होना चाहिए। उस जगह तबला, हारमोनियम कुछ भी नहीं था। पर सबों के आग्रह पर मुकेश दा खड़े हो गए और ज़रा-सा स्वर सम्भाल कर गाने लगे- आँसू भरी ये जीवन की राहे...वाद्यों की संगत न होने के कारण उनकी आवाज़ के बारीक-बारीक रेशे भी स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। सहगल से काफ़ी मिलती हुई उनकी वह सरल आवाज भावनाओं से ऐसी भरी हुई थी कि मैं उसे कभी भुला न पाऊँगा। रात को मैंने टोका-आपको पार्टी के लिए बुलाया गया था, गाने के लिए नहीं। किसी ने कहा और आप गाने लगे। वे हँसकर बोले यहाँ कौन बार-बार आता है। अब पता नहीं यहाँ फिर कभी आ पाऊँगा या नहीं। मुकेश दा, आपका कहना सच ही था। वाशिंगटन से लोग आपके अन्तिम दर्शनों के लिए न्यूयार्क आए थे और उस पार्टी की याद कर करके आँसू बहा रहे थे। बोस्टन में मुकेश दा की आवाज़ बहुत ख़राब हो गई थी। एक गाना पूरा होते ही मैंने ऊपर से फोन किया और दीदी से कहा- मुकेश दा को मत गाने देना, उनकी आवाज़ बहुत ख़राब हो रही है, दीदी बोलीं- फिर इतना बड़ा कार्यक्रम पूरा कैसे होगा? मैंने सुझाया- नितिन को गाने के लिए कहो। दीदी मान गई। मंच पर आई और श्रोताओं से बोलीं- आज मैं आपके सामने एक नया मुकेश पेश कर रही हूँ। यह नया मुकेश मेरे साथ आपका मन-पसन्द गाना- कभी-कभी मेरे दिल में... गाएगा।
लोग अनमने से फुसफुस करने लगे थे। तभी नितिन मंच पर पहुँचा। देखने में बिल्कुल पिता जैसा। उसने दीदी के पाँव छुए और गाना शुरू किया- कभी-कभी मेरे दिल में... नितिन की आवाज़ में कच्चापन था पर सुरों की फेक, शब्दोच्चारण बिल्कुल पिता जैसे थे। गाना ख़त्म होते ही वंस मोर की आवाज़ें उठने लगीं। लोग नितिन को छोडऩे को तैयार ही नहीं थे। विंग में बैठे मुकेश दा का चेहरा आनन्द से चमक उठा। फिर वे मंच पर आए और हारमोनियम रख दिया। बाप-बेटे ने मिल कर- जाने कहाँ गए वो दिन... गाया। उसके बाद के सारे गाने नितिन ने ही गाए। मुकेश दा ने हारमोनियम पर साथ दिया।
अगले दिन वे मुझसे बोले- अब मेरे सिर पर से एक और बोझ उतर गया। नितिन की चिन्ता मुझे नहीं रहीं। अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ। मैंने कहा- अपना गाना गाए बिना आपको मरने नहीं दूँगा। पन्द्रह वर्ष पूर्व आपने मेरे गाने की रिहर्सल तो की थी पर गाया नहीं था। गाना मुझे ही पड़ा था वह मराठी गाना था - त्या फुलांच्या गंध कोषी... वे हंस कर बोले - मेरे लिए कोई नया गाना तैयार कराओ, मैं ज़रूर गाऊँगा।
अगले दिन हम टोरण्टो से डेट्रायट जाने के लिए रेलगाड़ी पर सवार हुए। हमारा एनाउंसर हमें छोडऩे आया था। मुकेश दा ने उससे पूछा- क्यों मियाँ साहब, आप नहीं आ रहे हमारे साथ? उसने जवाब दिया- हम तो आपको ऐसा छोड़ेंगे कि फिर कभी नहीं मिलेंगे। मियाँ का दिल भर आया। बोला- नहीं-नहीं, ऐसी अशुभ बात मुँह से मत निकालिए।
मुकेश दा हँसे। राम-राम कहते हुए गाड़ी में चढ़कर मेरे पास आ बैठे। ताश निकाल कर हम रमी खेलने लगे। वे तीन डॉलर हार गए। मुझे पैसे  देते हुए बोले- आज रात को फिर खेलेंगे। मैं तुमसे ये तीनों डॉलर वापस जीत लूँगा। और सचमुच ही डेट्रायट अमरीका में उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुला लिया और मैं, अरुण रवि उनके साथ रात साढ़े ग्यारह बजे तक रमी खेलते रहे। इस बार मुकेश दा छह डॉलर हार गए। हमने उनकी खूब मज़ाक उड़ाई। मुझसे बोले- आज कुल मिला कर मैं नौ डॉलर हार गया हूँ, मगर कल रात को तुमसे सब वसूल कर लूँगा।
पर कल की रात उनकी आयु में नहीं लिखी थी। मुझे कल्पना भी नहीं थी कि कल की रात मुझे मुकेश दा के निर्जीव शरीर के पास बैठ कर काटनी पड़ेगी। वह दिन  27.08.1976 ही अशुभ था। एक मित्र को जल्दी भारत लौटना था, इसलिए उसके टिकट की भाग दौड़ में ही दोपहर के तीन बज गए। टिकट नहीं मिला सो अलग। साढ़े चार बजे हम होटल लौटे। मैं, दीदी और अनिल मोहिले सैण्डविच मँगा ली गई थी। तभी मुकेश दा का फोन आया कि हारमोलियम ऊपर भिजवा दो उनका कमरा बीसवीं मंजि़ल पर था और हमारा सोलहवीं पर मैंने हारमोनियम भेज दिया। कार्यक्रम की चर्चा पूरी करने के बाद मैंने अनिल मोहिले से कहा- चाय पीने के बाद म्यूजीशियन्स को तैयार कर ही रहा था कि ऊपर आओ। उसकी आवाज़ सुनते ही मैं भागा। अपने कमरे में मुकेश दा लुंगी और बनियान पहने हुए पलंग के पीछे हाथ टिकाए बैठे थे। मैंने नितिन से पूछा- क्या हुआ? उसने बताया- पापा ने कुछ देर गाया। फिर उन्होंने चाय मँगाई। पीकर वे बाथरूम गए। बाथरूम से आने के बाद उन्हे गर्मी लगने लगी और पसीना अपने लगा। इसलिए मैंने आपको बुला लिया। मुझे कुछ डर लग रहा है।
मैं सोचने लगा- पसीना आ जाने भर से ही यह लड़का डर गया है, कमाल है। फिर मैंने मुकेश दा से कहा- आप लेट जाइए। वे एकदम बोल पड़े- अरे तुम अभी तक गए नहीं? लेटने से मुझे तकलीफ़ होती है, तुम स्टेज पर जाओ। मैं इंजेक्शन लेकर पीछे-पीछे आता हूँ। लता को कुछ मत बताना, वह घबरा जाएगी।
अच्छा कह कर मैने उनकी पीठ पर हाथ रख दिया और झटके से हटा लिया। मेरा हाथ पसीने से भीग गया था। इतना पसीना मानों नहा कर उठे हों। तभी डॉक्टर आ गया। ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। मैंने मुकेश से पूछा- आपको दर्द हो रहा है? उन्होंने सिर हिला कर न कहा। फिर उन्हें व्हील चेयर पर बिठा कर नीचे लाया गया। ऑक्सीजन लगी हुई थी, फिर भी लिफ्ट में उन्हें ज्य़ादा तकलीफ़ होने लगी। व्हील चेयर को ही एम्बुलेंस पर चढ़ा दिया गया। यह सब बीस मिनट में हो गया।
एम्बुलेंस में उन्होंने केवल एक वाक्य बोला- यह पट्टा खोल दो वह । व्हील चेयर का पट्टा था। फिर वे कुछ नहीं बोले। हज़ारों गाने गाने वाले मुकेश दा के आखिरी शब्द थे- यह पट्टा खोल दो। व्हील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्य को बाँधे हुए जड़त्व का पट्टा?
एमरजेन्सी वार्ड में पहुँचने से पूर्व उन्होंने केवल एक बार आँखें खोलीं, हँसे और बेटे की तरफ़ हाथ उठाया। डॉक्टर ने वार्ड का दरवाज़ा बन्द कर लिया। आधे घण्टे बाद दरवाज़ा खुला। डॉक्टर बाहर आया और उसने मेरे कन्धे पर हाथ रख दिया। उसके स्पर्श ने मुझसे सब कुछ कह दिया था।
विशाल सभागृह खचाखच भरा हुआ है। मंच सजा हुआ है। सभी वादक कलाकार साज मिलाकर तैयार बैठे हुए हैं। इन्तज़ार है कि कब मैं आऊँ, माइक टेस्ट करूँ और कार्यक्रम शुरू हो। मैं मंच पर गया। सदैव की भाँति रंगभूमि को नमस्कार किया। माइक हाथ में लिया और बोला- भाइयो और बहनो, कार्यक्रम प्रारम्भ होने में देरी हो रही है पर उसके लिए आज मैं किसी से कुछ नहीं माँगूँगा। केवल उसके बारम्बार एक ही माँग है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...

(गायक मुकेश के आख़िरी पल मृत्यु: 28 अगस्त 1976, प्रात: 3.20 -भारतीय समयानुसार) के चश्मदीद गवाह हृदयनाथ मंगेशकर द्वारा मराठी में लिखित उक्त संस्मरण का भारती मंगेशकर द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद तत्कालीन प्रसिद्ध पत्रिका धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था। क्षमा याचना के साथ, कुछ तथ्यात्मक ग़लतियों का निराकरण करते हुए, उस लेख को यहाँ पुन: प्रस्तुत किया गया है- सम्पादक) (लिस्नर्स बुलेटिन से)

यात्रा

कच्छ के रन में
- प्रिया आनंद
रन का नाम सुनते ही जो तस्वीर सामने आती है, वह है मीलों तक फैला सूखा वीरान क्षेत्र जहाँ बादल कभी-कभार ही आसमान में दिखते हैं, किसी समय ऐसे बादलों को देख कर बच्चे पूछते थे- ये क्या हैं और बुजुर्ग जवाब देते थे- ये बादल हैं।
फिलहाल यह कुछ सालों पहले की बात है। भुज में आए भूकंप ने सारा परिदृश्य ही बदल कर रख दिया है, अब बादल आते हैं, झूम कर बरसते हैं और बच्चे बादल तथा इंद्रधनुष का अर्थ जानने लगे हैं। रन के बादलों की एक और  खासियत है-यहाँ गहरे काले बादल नहीं आते, स्लेटी, हल्के स्याह और कपासी बादल साथ-साथ आते हैं... भारहीन, हवा के पंखों पर तैरते हुए दोस्तों की तरह गलबहियाँ डाले, बारिश खूब तेज हवा के बंवडर की तरह गोल घूमती हुई नीचे आती है।
रन में साल्ट फ़ार्मिग का विस्तृत क्षेत्र है, जगह-जगह समुद्री पानी के साथ नमक के ढेर लगे हैं ; जिन्हें ट्रकों में भरकर रिफायनरी में ले जाया जाता है। यह रन भारत के गुजरात और पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र में फैला हुआ है तथा विश्व के न.1 नमक क्षेत्र में आता है। रन को साल्ट मार्श भी कहते है। पूरा रन दो भागों में विभक्त है : बड़ा रन-छोटा रन।
वैसे देखें तो कुछ हद तक ग्रास लैंड और रन ने ही कच्छ का विकास किया है, ग्रेट रन में प्रवासी पक्षियों का खूबखूब संसार है। जाड़े के मौसम में फ्लेमिंगों पक्षियों से पूरा रन गुलाबी दिखाई देता है। यहाँ 13 प्रजातियाँ तो सिर्फ लार्क की हैं, छोटा रन में भी मार्श लैंड है । यहाँ भी प्रवासी पक्षियों की भरमार है।
रन का जो सबसे बड़ा आकर्षण है , वह है भारतीय जंगली गधों का अभयारण्य। पहले ये घनी झाडिय़ों के बीच ही होते थे ; पर अब ये नाल सरोवर तक देखे जाते हैं। रन के बड़े और खुले हिस्से में इन्हें झुंडों में देखा जाता है। ये हल्के पीच कलर के होते हैं जिन पर गुलाबी पैच होते हैं। इन्हें देखकर घोड़े, हिरन और गधे के मिलेजुले रूप का आभास होता है। जैसे कि इन सब जानवरों के गुण लेकर गधे की एक नई प्रजाति बन गई हो। ये काफी मजबूत होते हैं । और 24 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से दौड़ सकते हैं।
यह अभयारण्य 1972 में स्थापित किया गया, कहा जाता है कि गुजरात का यह साल्ट डेजर्ट किसी समय समुद्र का छिछला हिस्सा था। कटीली झाड़ियाँ यहाँ बहुतायत में पाई जाती है। किताबों में पढ़ने के बाद मैने पहली बार कच्छ का रन देखा। अब रन में दूर तक फैली , कीकर  के पेड़ों की हरियाली है। बढ़ते रन को रोकने के लिए कीकर के बीज हवाई जहाज़ से गिराए गए... फिर बारिश ने इस क्षेत्र को हरियाली से भरपूर कर दिया। इसी हरियाली के किनारे मैंने ऊँटों कर कारवाँ देखा, उत्तर में राजस्थान दक्षिण में महाराष्ट्र पूर्व में मध्यप्रदेश तथा पश्चिम में अरब सागर इस क्षेत्र को सुंदर बनाते हैं। कच्छ के लोग कच्छी भाषा बोलते हैं। इसके अलावा सिंधी, मेमूली और हिंदी भी बोली जाती है। भुज, यहाँ की हस्तकला का मुख्य केंद्र है। कच्छ कढ़ाई और बाँधनी का उद्योग यहाँ खूब फलाफूला है।
यहाँ होने वाले रन उत्सव को सिंफनी ऑफ साल्ट कहते हैं। रन उत्सव रंगों का कार्निवल है जिसे दिसंबर की फुल मून लाइट अविस्मरणीय बन देती है। कच्छ की दस्तकारी और गुजराती फोकडांस से यह उत्सव और आकर्षक बन जाता है।
कच्छ के रंग और हरियाली परिवर्तन मन मोह लेने वाला है।
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मांडवी किसी समय कच्छ था एक बड़ा बंदरगाह था। आज भी 400 साल पुराना शिव बिल्डिंग का कारखाना है। यह जहाज़ बनाने का कारखाना अपने पुराने इतिहास के लिए अधिक जाना जाता है। हालाँकि यहाँ छोटे जहाज़ अधिक बनते है पर इनका इस्तेमाल गल्फ़ कंट्रीज में ज्यादा होता है।
रूक्मावती नदी यहाँ आकर कच्छ से मिलती है, यह दो ट्रेडस्ट का जंक्शन रहा है, आज भी मसाले, रूई और ऊँट का व्यापार इस जगह को काफी व्यस्त रखता है, यहाँ के लोग ब्रहमक्षत्रिय, भाटिया, लोहान, खवास, दाउदी वोहरा, मेमन खत्री और जैन हैं।
गुजरात की मातृभाषा  गुजराती है, पर 12 प्रतिशत लोग उर्दू बोलते हैं। हिंदी और मराठी भी बोली जाती है, भुज यहाँ की हस्तकला का मुख्य केंद्र है। ज़्यादातर लोग शाकाहारी है। भाखरी, दाल, कढ़ी सब्जी और छाद मांडवी के लोगों का मुख्य भोजन है। मांडवी में बने जहाज़ दुबई और दक्षिण अफ्रिका तक माल लाद कर ले जाते हैं।
जब इन गर्मियों में मैंने बेटे के पास गुजरात जाने का प्रोग्राम बनाया था, तो कच्छ का रन और मांडवी बीच हमारे प्रोग्राम में पहले नंबर पर था। मांडवी जाते हुए हमें रास्तें में एक टर्किश गाँव मिला ; जिसका नाम दब था। इन लोगों का जहाज़ यहाँ कभी डूब गया था। जो बच गए और यहाँ तक आ गए वे लौट कर गए नहीं। एक गाँव और भी है जिसमें नीग्रो परिवार रहते हैं। इनका भी जहाज़ डूबा ये बच कर निकल आए और वापस नहीं गए यहाँ सिलसिलेवार छोटे-छोट गाँव हैं जिनमें सुंदर कोनिकल पक्के घर बने हैं। यहाँ झोपड़ियाँ नहीं  दिखतीं और हर गाँव के आगे सुंदर प्रवेशद्वार है। सड़क से थोड़ी दूर पर मीलों तक खजूर के जंगल हैं। यहाँ खजूर की बागबानी होती है। लाल, नारंगी रसीले खजूर...।
ड्राइवर ने हमें बताया कि एक-एक गुच्छे में 60 किलो तक खजूर होते हैं।
मांडवी बीच पर जाने से पहले हम विजय विलास पैलेस गए। यहाँ हम दिल दे चुके सनम की शूटिंग हुई थी, पैलेस आकार में बहुत बड़ा नहीं है पर बहुत खूबसूरत है। वास्तु शैली सुंदर है, झरोखों में बनी संगमरमर की जालियाँ कलाकारी का सुंदर नमूना है।
हम मांडवी के प्राइवेट बीच पर गए यह कॉमन नहीं है और खास लोगों का पर्यटकों के लिए ही खुलता है, यहाँ बैठकर हमने काफी देर तक समुद्र को अठखेलियाँ करते देखा। दूर... एक बड़ा जहाज़ दिखाई दिया...। थोड़ी देर बाद वह आगे बढ़ गया और नजरों से ओझल हो गया। दूर एक जोड़ा सागर में अंदर की ओर थोड़ा आगे जाकर लहरों के बीच खड़ा था। लड़की बहुत सुंदर थी। उसने सफेद कैप पहन रखी थी और लड़के ने लाल कैप। वे आपस में बोल नहीं रहे थे,  बस चुपचाप लहरों को महसूस कर रहे थे। वे बाहर निकल कर आए तो मैंने देखा... लड़की सिर से पाँव तक ढकी थी। यहाँ तक कि उसका आधा चेहरा ढका हुआ था।
हम कॉमन बीच पर भी गए। यहाँ काफी भीड़ लोग समंदर में नहा रहे थे... ऊँटों की सवारी कर रहे थे। बच्चे बेतरह शोर रहे थे। यहाँ दुकानें थी... गंदगी भी काफी थी। दूर एक फिशिंग बोट लहरों पर तैर रही थी। भारत के बीच खूबसूरत हैं पर मांडवी कीर बात ही और है । यहाँ का अछूता एहसास मुझे हमेशा याद रहेगा।
 संपर्क: priya anandsunita@gmail.com